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मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

'एक पत्र' ( नवशक्ति पत्रिका के नाम 1934 )


(यह कविता सन 1934 में लिखी गई थी, जब दिनकर जी सरकारी नौकरी में थे। राष्ट्रीय-क्रान्तिकारी कविता लिखने के कारण अंग्रेज़ी सरकार बार-बार उनका तबादला कर देती थी। हालाँकि सरकारी नौकरी उन्हें पसन्द नहीं थी। सन‌ 1935 में बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखे पत्र में उन्होंने इसकी चर्चा की है- "इस एक वर्ष की अवधि में सरकारी नौकरी या गुलामी की वेदना इस तीव्रता से कभी नहीं चुभी थी।" लेकिन नौकरी कवि की मज़बूरी थी। अपने बड़े और संयुक्त परिवार में सर्वधिक शिक्षित होने के कारण सबकी आजीविका की ज़िम्मेदारी इन्हीं के कन्धों पर थी। बहरहाल सन 1934 में 'एक पत्र' शीर्षक से प्रकाशित यह कविता उनके अब तक छपे-अनछपे संकलनों में संग्रहीत नहीं है। महत्त्वपूर्ण बात यह है- यह कविता पटना से निकलने वाली एक साप्ताहिक पत्रिका 'नवशक्ति' में प्रकाशित हुई थी। पश्चिमी सिंहभूम, झारखण्ड, के रवि रंजन ने पत्रिका की वह दुर्लभ प्रति खोज कर इसे हिन्दी संसार को उपलब्ध कराया है। इस पत्रिका के यशस्वी सम्पादक श्री देवव्रत थे जो कभी गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ 'प्रताप' के सम्पादक मंडल में थे।)

मैं चरणॊं से लिपट रहा था, सिर से मुझे लगाया क्यों?
पूजा का साहित्य पुजारी पर इस भाँति चढ़ाया क्यों?

गंधहीन बन-कुसुम-स्तुति में अलि का आज गान कैसा?
मन्दिर-पथ पर बिछी धूलि की पूजा का विधान कैसा?

कहूँ, या कि रो दूँ कहते, मैं कैसे समय बिताता हूँ;
बाँध रही मस्ती को अपना बंधन दुदृढ़ बनाता हूँ।

ऎसी आग मिली उमंग की ख़ुद ही चिता जलाता हूँ
किसी तरह छींटों से उभरा ज्वाला मुखी दबाता हूँ।

द्वार कंठ का बन्द, गूँजता हृदय प्रलय-हुँकारों से,
पड़ा भाग्य का भार काटता हूँ कदली तलवारों से।

विस्मय है, निर्बन्ध कीर को यह बन्धन कैसे भाया?
चारा था चुगना तोते को, भाग्य यहाँ तक ले आया।

औ' बंधन भी मिला लौह का, सोने की कड़ियाँ न मिलीं;
बन्दी-गृह में अन बहलाता, ऎसी भी घड़ियाँ न मिलीं।

आँखों को है शौक़ प्रलय का, कैसे उसे बुलाऊँ मैं?
घेर रहे सन्तरी, बताओ अब कैसे चिल्लाऊँ मैं?

फिर-फिर कसता हूँ कड़ियाँ, फिर-फिर होती कसमस जारी;
फिर-फिर राख डालता हूँ, फिर-फिर हँसती है चिनगारी।

टूट नहीं सकता ज्वाला से, जलतों का अनुराग सखे!
पिला-पिला कर ख़ून हृदय का पाल रहा हूँ आग सखे!

रामधारी सिंह दिनकर

रविवार, 19 दिसंबर 2010

"दिग्गी" राजा का नया सियासी वार ............

चर्चा में बने रहना दिग्गी राजा का पुराना शगल रहा है......इस बार भी कांग्रेस के महासचिव "दिग्गी" राजा फिर सुर्खियों में है.....मुंबई हमले में शहीद हुए हेमंत करकरे की शहादत पर सवाल उठाकर उन्होंने एक बार फिर से अपनी अदा को सबके सामने ला दिया है..... हालाँकि उनकी पार्टी ने दिग्गी के बयानों से कन्नी काटने की कोशिश की है लेकिन दिग्गी राजा अपने कहे पर भी कायम है......इसने कांग्रेस पार्टी की मुश्किलों को बदा दिया है......

दिग्विजय सिंह के बयान
इस समय उफान पर है.... इस ने एक बहस को जन्म दे दिया है जिसके मुताबिक वोट बैंक की राजनीती करने के लिए कांग्रेस पार्टी किसी भी हद तक जाने को तैयार है चाहे उसे इसके खातिर शहीदों का ही अपमान क्यों न करना पड़े... कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने भी कुछ ऐसा ही किया है....बीते दिनों दिग्गी राजा ने इस बात का खुलासा दिल्ली में एक पुस्तक के विमोचन समारोह में किया जब उन्होंने कहा कि मुंबई पर हमला होने से ठीक पहले उनकी हेमंत करकरे से फ़ोन पर बात हुई थी जिसमे करकरे ने मौत की आशंका जताते हुए कहा था कुछ हिन्दू संगठनो से उनकी जान को खतरा है ......हालाँकि हेमंत की पत्नी कविता करकरे ने इन बातो को सिरे से नकार दिया है..... उन्होंने कहा कि उनके पति की मौत पर अब राजनीति नही की जानी चाहिए ...

यह बयान देश में सबसे लम्बे समय तक काम करने वाली सबसे बड़ी पार्टी के महासचिव के मुह से आया है लिहाजा इस पर शोर मचना तो आम बात बन चुकी है ......यह बयान शहीदों की शहादत का भी अपमान है .... दिग्गी भाजपा और दुसरे दलों के नेताओ को जुबान संभलकर बात करने की नसीहत तो समय समय पर देते रहते है लेकिन अपना खुद विवादों में फसकर अपनी छवि ख़राब करने में लगे है ......हेमंत करकरे का सवाल उठाकर दिग्गी राजा ने एक बार फिर वोट बैंक की राजनीती को गरमा दिया है.... यह बात इसका गवाह है कि किस तरह देश की सबसे बड़ी पार्टी से लोगो का अटूट भरोसा टूटता जा रहा है........

दिग्विजय सिंह कोई नौसिखिये राजनेता नही है। वह १० साल मध्य प्रदेश में कांग्रेस के मुख्य मंत्री की कुर्सी सँभालने के साथ ही संगठन में कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियों को संभाल चुके है .....ऐसे जिम्मेदार व्यक्ति से यह उम्मीद नही की जा सकती कि वह अपनी पार्टी की और खुद की राजनीती चमकाने के लिए देश के शहीदों की शहादत पर सवाल उठा लेगा दिग्विजय सिंह द्वारा दिए गए बयान को पार्टी के कई लोग नही पचा पा रहे है ...
संभवतया पांच राज्यों में होने जा रहे विधान सभा चुनाव और बिहार में कांग्रेस की पतली हालत के मद्देनजर मुसलमानों की सहानुभूति पाने के लिए उन्होंने यह बयान दिया.... इस बयान के जरिये दिग्गी राजा ने एक तीर से २ निशाने साधने की कोशिश की है...
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पहला तो हाई कमान के दरबार में अपने नम्बर बदाना और दूसरा मुस्लिम वोटरों के प्रति अपनी पार्टी की सहानुभूति को सभी के सामने उजागर करना..... इसमें उनको कितनी सफलता मिलती है यह तो आने वाला समय ही बतायेगा लेकिन इस बयान से कांग्रेस ने अपने को अलग कर दिया है......उसके प्रवक्ता का कहना है कि यह दिग्गी राजा के निजी विचार हो सकते है.......... पार्टी का इससे कुछ भी लेना देना नही है .......

वैसे बताते चले इस बयान ने भाजपा को कांग्रेस को घेरने का एक मौका और दे दिया है..... केंद्र की संप्रग २ सरकार लगातार घोटालो में घिरती जा रही है....ऐसे में जनता का ध्यान भटकाने के लिए दिग्गी राजा ने हिन्दुओ को निशाने पर लेना शुरू किया है......
पिछले कुछ समय से केंद्र सरकार के राज में जिस तरह से घोटालो की परते खुलती जा रही है इससे कांग्रेस की मुश्किलें कम होने का नाम नही ले रही है... इसी को ध्यान रखते हुए दिग्गी राजा ने एक बार फिर से हिन्दुओ के खिलाफ अपना मोर्चा खोल दिया है ........

शहीदों के नाम पर दिग्गी जैसे राजनेता आज भी राजनीती करने से बाज नही आ रहे है ......यह इस देश का दुर्भाग्य है कि हमारे राजनेता आज न जाने किस युग में जी रहे है .... उन्हें यह बात मालूम नही कि आज का वोटर समझदार हो गया है... वह जात , धर्म की राजनीती को भुला कर विकास की राजनीती पर यकीन करता है ....वह इस बात को बखूबी जान गया है कि नगर निगम चुनाव में किसको वोट देना है... साथ ही राज्य और केंद्र में किसको मौका देना है ?

( लेखक युवा पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है ..... "बोलती कलम " ब्लॉग पर जाकर लेखक के विचारो को पड़ा जा सकता है )
(जारी रहेगा.......)

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

भुतहा मनोरंजन का डर



टेलीविजन चैनल्स में भूटिया कार्यक्रमों की बाढ़ सी आ गयी है!स्टार न्यूज़ पर आने वाले सनसनी कार्यक्रम पूरी तरह से होर्रोर कार्यक्रम लगता है!इसके एंकर को देख लगता है कि यह सावधान करने नहीं बल्कि कोई अपराधी ही आ गया हो !समाज में इन कार्यक्रमों से क्या प्रभाव पड़ रहा है प्रस्तुत है एक छोटी सी रिपोर्ट -

प्रमुख टेलीविजन चैनल्स
1 स्टार ग्रुप
2 जी ग्रुप
3 सोनी ग्रुप
4 सहारा ग्रुप
5 कलर
6 9 एक्स
7 बिंदास
प्रभाव-
1 बच्चों पर प्रभाव-
अ-मानसिक प्रभाव
ब-शारीरिक प्रभाव
मानसिक प्रभाव- बच्चों का मन कोमल होता है। ऐसे में उनके मन मस्तिष्क पर किसी कठोर दबाव एवं भयपूर्ण बात का इतना ज्यादा असर होता है, वे इस भय से जीवन भर नहीं उबर पाते। उनके मस्तिष्क में रह-रहकर वही बातें घूमती रहती है, जिनसे वे भयभीत रहते हैं। ज्यादातर बच्चे तंत्र-मंत्र विघा में यकीन करने लगते हैं। इस अनुसंधान विधि में मनोरोग चिकित्सकों से बात करके यह पता लगाया जाएगा कि कौन-कौन से मनोरोग, बच्चों में भय से संबंधित हो सकते हैं और उनका क्या निदान है?
शारीरिक प्रभाव- मानसिक प्रभाव से संबंधित शारीरिक प्रभाव भी है। मानिसक रूप से अविकसित बच्चे खुद को शारीरिक रूप से सबल मानते हैं और ऐसे कार्यक्रमों को देखकर वे भी कुछ अपराध करने को तत्पर हो जाते हैं। या फिर ऐसी कहानियों के पीछे क्या रहस्य है? उस रहस्य को उद्घटित करने को अधीर हो उठते है।
2- महिलाओं पर प्रभाव
अ-मानसिक प्रभाव
ब-आर्थिक प्रभाव
अ-मानसिक प्रभाव- बच्चों के बाद यदि किसी का अन्र्तमन कोमल होता है वह है महिला। महिलाएं ऐसे कार्यक्रम या कहानी देखने या सुनने के बाद भय या डर से भर जाती हैं। वे अपनी सुरक्षा के प्रति चिंतित हो उठती है। कई बार तो ये कहानियां किसी महिला के जीवन से थोड़ा बहुत मेल भी खा जाती है तो ऐसे में महिलाएं उस कार्यक्रम के पात्र की जगह पर खुद को रखकर सोचती हैं। ऐसे में उनका जीवन नीरस एवं बोर होने लगता है। अत्यधिक भय बढ़ जाने से एवं गुमसुम रहने से कभी-कभी उनके दाम्पत्य जीवन में भी उतार-चढ़ाव जैसे पहलू सामने आने लगते हैं।
ब-आर्थिक प्रभाव- हारर कार्यक्रमों के देखने के बाद महिलाएं बहुत ज्यादा भयभीत हो जाती हैं। खुद की गलती से या महज इत्तफाक से यदि किसी वस्तु के गिरने की आवाज आती है तो वे किसी अनिष्ट की आश्ांका व्यक्त करने लगी है और इस अनिष्ट को टालने के लिए वे सहारा लेती हैं तंत्र-मंत्र जादू टोने का। तांत्रिक उनसे इसके एवज में मोटी रकम वसूलता है। जिससे उनका आर्थिक नुकसान होता है।
3-बुजुर्गों पर प्रभाव-
अ-मानसिक प्रभाव
ब-शारीरिक प्रभाव
अ-मानसिक प्रभाव- बुजुर्ग व्यक्ति अपने भविष्य के प्रति सश्ांकित रहते हंै। ऐसे कार्यक्रम देखने पर वे अपने पुनर्जन्म एवं मोक्ष के प्रति आशंकित हो उठते हैं। वृद्धावस्था में कार्य के अभाव में वे अपने मन में भयभीत करने वाली कहानी की सोच में डूबे रहते हैं।जिसके कारण तनाव, पक्षाघात, ब्लड प्रेशर जैसी बीमारी जन्म लेती हैं।
ब-शारीरिक प्रभाव- कार्यक्रम के तनाव से ग्रस्त होकर सोचने की उधेड़बुन में लगे रहने से हार्ट की बीमारी होने की प्रबल संभावना होती है।
4-संस्कृति पर प्रभाव
अ-लोगों के व्यवहार में बदलाव एवं कारण-इन कार्यक्रमों से किस प्रकार लोगों का जनमानस का मानसिक स्तर, शारीरिक क्षमता प्रभावित हो रही है। यह प्रभाव नकारात्मक है या सकारात्मक, इन सारी बातों पर शोध के दौरान विश्लेषण किया जाएगा।
किस तरीके से ये कार्यक्रम उनके स्तर को उठाने या गिराने में कामयाब होती हैं और इसके बाद लोगों की क्या प्रतिक्रियाएं होती है? उनकी चपेट में कौन-कौन लोग आते हैं। सारी बातों का उल्लेख शोध के दौरान किया जाएगा।
6-चिकित्सक के पहलू- एक चिकित्सक, रोगी के सारे पहलुओं से वाकिफ होना चाहता है, ताकि वह रोगी का सफल उपचार कर सके। डरावने एवं भयावह कार्यक्रमों के प्रभाव से लोगों में कौन-कौन मनोरोग उत्पन्न हो रहे हैं। उनका निदान क्या है? उन मनोरोगों से बचने का क्या उपाय है। सारी बातों को एक चिकित्सक से वार्ता करके शोध में समाहित किया जाएगा।
7-मुख्य हारर कार्यक्रम/फिल्म एवं विश्लेषण
धारावाहिक-
1- आहट
2- शुभ कदम
3- श्री
4- श्...श कोई है
5- श्...श फिर काई है
6- ब्लेक
7- कोई आने को है
8- कहानी सत्य घटनाओं की
फिल्म-
1-राज
2-दस कहानियां
3-राज-2
3-जानी दुश्मन (पुरानी)
4-भूल भुलैया
5-13 बी
6-100 डे
7-रात
निष्कर्ष-
हारर कार्यक्रमों/फिल्मों को बनाने वाले निर्देशकों ने शायद आम जनता की नब्ज पकड़ ली है और इनकी सफलता ने यह साबित कर दिया है कि आम लोगों की कहानी चाहे वह मनगढ़त क्यों न हो, लोगों को प्रभावित करती है एवं अपनी ओर आकर्षित करती है।
मानव हृदय में सारी भावनाओं के लिए अलग-अलग कोना होता है। एक कोना इनमें से भय का भी है। भय चाहे वह अपनी असुरक्षा का हो, कैरियर की असुरक्षा का हो या सम्पत्ति की असुरक्षा का हो। व्यक्ति हमेशा सशंकित रहता है।
इन कार्यक्रमों के कारण लोगों में भय और ज्यादा व्याप्त हो गया है, अंधेरे में जाने से व्यक्ति कतराने लगा है। दरवाजे पर तनिक सी किसी की 'आहट' पाकर वह हर समय "कोई आने को है" की भावना से ग्रसित रहता है। जब उसकी पत्नी या घर का कोई सदस्य उससे कारण पूछता है तो वह "श्..श कोई है" कहकर चुप करा देता है। इन धारावाहिकों में भले ही "कहानी सत्य घटनाओं की" हो या न हो, लेकिन व्यक्ति हमेशा रात में भय से "राज " के साये में सोता है। उस के मस्तिष्क में हमेशा कम से कम "दस कहानियां"घूमती रहतीं है।
इस शोध के माध्यम से लोगों के मन का भूत हटाने के लिए प्रयत्नों एवं कारकों के बारे में बताया जाएगा।
हर घर में "श्री" के "शुभ कदम" पडे, जिससे कोई भी तांत्रिक अपनी तंत्र-मंत्र से उन्हें "ब्लैक" मेल न कर सके और वे तांत्रिकों की "भूल भुलैया" में फंसने से बच सकें।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

मै कोंन हूँ ...........?

हर बार मेरे मन मे बस यही प्रश्न गूंजता है,
कि आखिर मै कोन हूँ ..............?

मै जिस संसार कि मानव प्रक्रति मे रहा
उसी मानव प्रक्रति के बीच से निकलकर बस यही सोचता ,
कि आखिर मै कोन हूँ .................?

कोन हूँ का प्रश्न मेरे मन को नोच डालता,
ओर समुन्द्री की तरह हिलोरे लेने लगता
मन के किसी कोने में छूपा यही प्रश्न मुझसे फिर पूछता
की आखिर मै कोन हूँ .................?

जिस माँ- बाप के हाथो से मेरा,
पालन पोषण बड़े ही चाव से हुआ, फिर भी में उनसे पूछता
की आखिर मै कोन हूँ .................?

रविवार, 12 दिसंबर 2010

जज्बे को सलाम

जिंदगी संघर्षो का नाम है। इसी जिंदगी में कई बार ऐसे पडाव आते है , जहां सबकुछ रुका रुका सा लगता है । लेकिन यदि खुद में कुछ कर गुजरने का जज्बा हो, कुछ कर दिखाने का जुनून हो तो सारी परेषानी अपने आप ही दूर हो जाती है । सारी परेषानी उस साहस के आगे बौनी नजर आती है । ऐसी ही षख्सियत है भोपाल की क्षमा कुलश्रेष्ठ । जिसने 18 वर्ष की उम्र में एक्सीडेंट की त्रासदी झेली। रीढ की हड्डी टूटी , पैरो में एहसास का भाव नही रहा। लेकिन लगन थी काम की , विष्वास था खुद पर , आस्था थी ईष्वर पर । इसी का नतीजा है कि आज क्षमा न केवल बैठ सकती है बल्की चल भी सकती है। पेटिंग में नेषनल अवार्ड से सम्मानित हो चुकी क्षमा दुर्घटना से ग्रसित और अपाहिज बच्चो के लिए एक प्रेरणा श्रोत है। भोपाल के गोविंदपुरा में रहने वाले के.के कुलश्रेष्ठ आज एक रिटायर टीचर है। उनके पांच बच्चो में सबसे छोटी बेटी क्षमा बचपन से ही होनहार थी । उसने बचपन में पेंटिंग की कई प्रतियोगिताये जीतलेेकिन 1998 क्षमा के लिए अभिषाप बन कर आया ,और अचानक एक दिन छत से गिरने के कारण उसकी रीड की हड्डी क्षतिग्रस्त हो गई। पैरो की सम्वेदना भी खत्म हो गयी और डॉक्टरो ने भी जवाब दे दिया। लेकिन ये क्षमा का साहस और जज्बा ही था कि 55 से भी ज्यादा ऑपरेषन होने के बाद उसने हिम्मत नही हारी । अब वह न केवल बैठ सकती है , बल्कि सहारे के बल पर चल भी सकती है। अपनी इच्छा षक्ति के बल पर उसने न केवल येे कारनामा कर दिखाया बल्कि सारे दर्द भुलाकर उसने बु्रष ,रंगो और कलम का दामन थामा । बेनूर हो चुकी उसकी जिंदगी में रंगो के कारण फिर से रंगत आ गई। अभी तक क्षमा चित्रकारी के लिए करीब 100 पुरुष्कार जीत चुकी है ।दिल्ली में भारत सरकार द्वारा आयोजित सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने उसे निषक्त जनसषक्तीकरण के लिए पुरुष्कृत भी किया। स्वामी विवेकानंद की एक किताब ‘‘लेक्चर फ्रोम कोलंबो टू अलमोडा ‘‘ ने उसको जीवन जीने का सम्बल प्रदान किया। और उसने अपनी काबिलियत के दम पर खुद को साबित करके दिखया। अपनी गणेष पेंटिंग के कारण क्षमा ने लिम्का बुक रिकार्ड में भी अपना नाम दर्ज कराया। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अबदुल कलाम को अपना रोल मोडल मानने वाली क्षमा ने डॉक्टर कलाम के लिए ‘‘एक इंसान अग्नि के समान ‘‘ कविता भी लिखी। दिन भर अपने रंगो में खोई रहने वाली क्षमा कविता और कहानी भी लिखती है। हमारी एक गुजारिष पर उसने अपनी एक कविता भी सुनाई ।रंगो को अपना जीवन समर्पित कर चुकी क्षमा उन निसक्त लोगो के लिए प्रेरणा श्रोत्र है जो दुर्घटना के बाद षांत बैठ जाते है। अदभुत प्रतीभा की धनी क्षमा के लिए एक पंक्ति बिलकुल सटीक बैठती है ।
‘‘ अभी न पूछो कि मंजिल कहां है

अभी तो सफर का ईरादा किया

हैं न हारुगी मै होसला जिंदगी भर

किसी से नही खुद से वादा किया है।"

‘‘क्षमा नित नई नई उचाईयो को छुये और अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में कामयाब हो । उसके इस जज्बे को हम सब सलाम करते हैं।

- कृष्ण कुमार द्विवेदी

नौकरशाह, राष्ट्रमंडल खेल और भारतीय खिलाड़ी

1930 एक ऐसा दौर जब भारत गुलामी जन्जीरों को तोड़ने के लिए अपने बाजू मजबूत कर रहा था। भारत की हर गली आन्दोलकारियों की आवाज से गूंज रही थी। वहीं कैनेडा के एक शहर में राष्ट्रमण्डल खेलों की शुरूआत हुई थी। चौदह देशों के करीब 400 खिलाड़ियों ने छः खेलों में प्रतिभाग किया था। उस समय भारत ऐसे दौर से गुजर रहा था कि उसने ये सोचा भी नहीं होगा कि वह कभी राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी भी करेगा। लेकिन मात्र 21 साल के अन्दर भारत को ये मौका मिला उसके बाद १९८२ में। क्यों? शायद इसलिए कि भारत ने विश्व पर बहुत जल्दी अपनी एक अलग और प्रभावशाली छाप डाली है। इस वर्ष राष्ट्रमण्डल खेलों की शुरूआत भारत की राजधानी और दिल वालों के शहर दिल्ली में 3 अक्टूबर को हुई जो कि 13 अक्टूबर तक चले, जिसमें 71 राष्ट्र के 6700 प्रतिभागियों ने 17 खेलों के लिए भाग लिया। भारतियों में उस समय खुशी की लहर दौड़ गयी जब 2003 में भारत को वर्ष 2010 में राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी के लिए चुना गया। कहते हैं न कि हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ और होते हैं असल में भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष समेत अन्य सदस्यों के चहरे पर जो खुशी झलक रही थी उसका मुख्य कारण मेजबानी हासिल करने के पीछे छिपी शकुनी चाल का पहला चरण पार करने की थी। मतलब सभी अपने धन को कुबेर धन में तब्दील करने के सपने को साकार होता देख, खुश हो रहे थे। इन खेलों के बजट की गिनती बढ़ते-बढ़ते करीब 70000 करोड़ रूपये जा पहुंची है। कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर इस आंकड़े के आकार को समझाने के लिए इसकी तुलना देश भर के किसानों की कर्ज माफी पर खर्च करीब 65 हजार करोड़ रूपये से करते हैं तो कई लोग इसे केन्द्र सरकार के सालाना शिक्षा बजट से बड़ी राशि बताते हैं। एक बात यह भी सुनने में आती है कि खेलों के बदले जनता का पैसा लुटाने का सिलसिला भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष और राष्ट्रमण्डल खेल आयोजन समिति के महासचिव सुरेश कलमाडी ने वर्ष 2003 में जमैका में लगी बोली से शुरू कर दिया था। भारत की दावेदारी को मजबूत करने के लिए कलमाडी ने अपनी मर्जी से हरेक प्रतिभागी देश को एक-एक लाख डॉलर देने की पेशकश करी थी। भारत को वर्ष 2010 राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी मिलने में इस पेशकश ने अहम भूमिका निभाई। उस समय खेल मंत्री रहे भाजपा के विक्रम वर्मा कहते हैं ‘‘राष्ट्रमण्डल के सदस्य देशों को करीब 50-50 लाख रूपये देने की पेशकश कलमाडी का व्यक्तिगत निर्णय था। दरअसल यह मेजबानी हासिल करने के लिए दी जाने वाली रिश्वत थी।’’मेजबानी तो मिल गयी लेकिन वर्ष 2003 में मेजबानी मिलने के बाद वर्ष 2005 तक न तो भारतीय ओलंपिक संघ और न ही खेल मंत्रालय ने आयोजन को लेकर किसी भी तरह की तैयारी को आगे बढ़ाया। आयोजन के दावों और वादों के बीच चार साल निकल गये। आयोजन समिति का सचिवालय भी वर्ष 2007 में सुचारू हुआ। इसके बाद शुरू हुआ तैयारियों के बजाए खेलों के नाम पर ज्यादा से ज्यादा खर्च और कमाई से नए-नए तरीके निकालने का खेल। आयोजन का मास्टर प्लान तो वर्ष 2008 के आखिर में तैयार हुआ। इस देरी ने अटके कामों को पूरा करने का खर्च और धांधली की गुंजाइश दोनों को बढ़ा दिया। पिछले साल तक भी जमीनी तैयारियों पटरी पर नहीं दिखीं तो राष्ट्रमंडल खेल महासंघ के अध्यक्ष माइकल फेनेल ने इस सम्बन्धन प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी और अपनी चिंता जतायी। इसी बीच मीडिया ने राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार की कलाई खोलनी शुरू कर दी उदाहरण के तौर पर- पूर्व केन्द्रीय मन्त्री मणिशंकर अय्यर ने मीडिया में इस मुद्दे के उछलने के बाद खूलासा किया कि सुरेश कलमाडी ने 2003 में इन खेलों पर सिर्फ 150 करोड़ रूपये का खर्च आने की बात कही थी लेकिन अब उद् घाटन और समापन समारोह पर ही 300 करोड़ रूपये खर्च होने की बात कही गयी है।गलती तो धनलोलुप नेताओं और उनके चेलाओं ने तो जरूर की और मीडिया द्वारा, इस घोटाले का खुलासा भी होना अति आवश्यक था लेकिन ऐसे समय पर जब खेल शुरू होने में बस कुछ सप्ताह ही बाकी हों, मीडिया द्वारा इस मामले को तूल देना क्या सही था? क्योंकि मीडिया में इस मामले के उछलने के बाद विदेशों में ओलंपिक संघ के अध्यक्ष समेत भारत व भारतीय सरकार की थू-थू हुई। अब शायद ही भारत को राष्ट्रमण्डल खेल या अन्य अन्तर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं की मेजबानी के लिए अवसर मिले। वैसे ये कहा जा सकता है कि मीडिया ने नेताओं ने को नहीं छोड़ा और नेताओं ने देश को, लेकिन ऐसी स्थिति में सिर्फ एक वर्ग ही ऐसा था जिसने बिना किसी स्वार्थ, लालच के देश की शान को बरकरार रखा, देश के खिलाड़ी। खिलाड़ियों ने राष्ट्रमण्डल खेलों में कुल 101 पदक भारत के लिए प्राप्त किये। जिसमें 38 स्वर्ण, 27 रजत व 36 कांस्य हैं। बहरहाल काफी अव्यवस्थाओं के रहते हुए भी खेल सकुशल निपट गये और किसी भी घटना ने दस्तक भी नहीं दी। नहीं तो इसके पहले कई जगह निर्माण कार्य चल रहा था तो कहीं कार्य पूरा होने के बाद ढ़ांचा गिर रहा था।जो भी हो, अन्तिम समय में सरकार ने जब एक बार दम भरा तो काम पूरा करने के बाद ही सांस ली। ये बात अलग है कि एक आध छुट-पुट काम तब भी करने को बाकी रह गये थे। खिलाड़ियों की सुविधा के लिए एयरपोर्ट से ही एक अलग राजमार्ग बनवाया गया था जो खिलाड़ियों को सीधे स्टेडियम पर उतारने के लिए था। रोड के दोनों ओर बड़ी-बड़ी होर्डिंग लगवायी गयीं थी जिसमें तमाम प्रसिद्ध खिलाड़ियों की खेलते हुए तस्वीर थी, प्रसिद्ध इमारतों की तस्वीर आदि थी। उस समय तो दिल्ली मानों किसी अतिविकसित देश की भांति लग रही थी जहां न तो कहीं कूड़ा था और न ही कोई बिखारी। हां...... बिखारी! उन दिनों एक भी बिखारी दिल्ली की सड़कों पर नहीं था। ये भी सच है कि भारत में दिल्ली भी एक ऐसी जगह के तौर पर देखी जाती है जहां बिखारी बहुतायत में हैं। तो फिर ये बिखारी गये कहां? शहर से बाहर। अपनी झूठी शान बनाने के चक्कर में किसी भी बिखारी, रिक्शेवाले, ठेलेवालों को शहर में नहीं रूकने दिया गया। न ही शहर के बाहर उनके रहने खाने का कोई इन्तजाम किया गया। ऐसे में भीड़ भाड़ का तो कोई सवाल ही नहीं उठता है क्योंकि पूरा दिल्ली 10 दिन के लिए बंद करा दिया गया था।लेकिन सरकार के ये तमाम ढ़कोसले धरे के धरे रह गये। क्योंकि इस बार मीडिया ने इनकी करतूतों पर पानी फेर दिया। खेल खत्म होते ही अगले दिन भारत सरकार ने पूर्व महालेखा परीक्षक आयुक्त वी.के. शुंगलू समिति, खेलों में हुए भ्रष्टाचार की जांच के लिए गठित कर दी। इधर कई प्रकरणों के चलते विवादों में घिरी केन्द्र सरकार ने येन केन प्रकारेण सुरेश कलमाड़ी को उनके पद से मुक्त कर दिया। लेकिन प्रश्न ये उठा है कि इस तरह भारत की अस्मिता के साथ खेलने वाले व्यक्तियों की सजा सिर्फ पद से मुक्तिभर कर देना ही रह जाएगी या ऐसे आरोपियों पर कार्रवाई का ये पहला कदम माना जाए?

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

दिमागी लंगडा राजा और लोकतंत्र



चुनाव आते ही सभी लोग अलग अलग दलों में अपना ठिकाना खोजने में लग जाते हैं !चेहरे वही पुराने बस पार्टी बदल जाती है,सिद्धांत बदल जाते हैं,बदल जाता है नजरिया ,कल तक जो अपने थे वही बेगाने हो जाते हैं!खैर छोडिये राजनीती है सब जायज है,
गठबंधन करके दल अपनी सरकार तो बना लेते हैं...लेकिन इस गठबंधन के बदले छोटे दलों के आगे सरकार नाक रगड़ती नजर आती है...वर्तमान सन्दर्भ में भी यही बात सच होती दिखाई दे रही है....प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सब कुछ देखते हुए भी अनजान बने रहे और अभी भी हालत में उनकी सुधार नहीं है...मतलब ए.राजा के मामले में वे चुप्पी साधे हुए है...शायद कारण यही है कि ए.राजा की पार्टी उनकी सरकार को साधे है.
वर्तमान में लोकतंत्र की दशा को व्यक्त करती एक कहानी याद आ गई सो उसे आप लोगों के सामने परोस रहा हूँ.
एक हंस-हंसिनी का बड़ा सुंदर जोड़ा था,दोनों में बड़ा प्रेम था!मजे से दिन कट रहे थे !एक दिन दोनों ने नीलगगन में सैर करने की सोची,दोनों सैर करते करते काफी दूर निकल गए!रात हो गई थी सोचा रात यही गुजार कर सुबह चलते है!एक बरगद का पेड़ दिखाई दिया,दोनों वहां पहुचे!उस बरगद के पेड़ पर एक उल्लू रहता था !हंस ने उल्लू से रात गुजारने की बात कही,उल्लू ने अनुमति दे दी!कहा कोई बात नही!सुबह जब हंस-हंसिनी उठ कर जाने लगे तब उल्लू ने हंसिनी को पकड़ लिया, कहा अब हंसीं मेरी है!हंस ने बड़ी विनती की लेकिन उल्लू नही माना,अब हंस ने राजा के दरबार में गुहार लगायी!राजा ने उल्लू को बुलाया,कहा उल्लू,हंसिनी हमेशा हंस की होती है,उल्लू की कभी नही हो सकती !ये जोड़ा बेमेल है!उल्लू ने कहा -हंसिनी मेरी है,यदि आपने ऐसा निर्णय नही दिया तो मै किले की प्राचीर पर बैठ कर आपके काले कारनामों का चिटठा खोल दूंगा !अब राजा डर गया!उसका निर्णय बदल गया,उसने कहा-हंस,अब हंसिनी उल्लू की है!तुम घर जाओ!हंस रोते हुए उदास मन से जाने लगा !अब उल्लू भी रो रहा था!हंस ने पूंछा-तुम क्यों रो रहे हो?मेरी हंसिनी मुझसे छीन गई है,मेरे रोने का कारण तो समझ में आता है,लेकिन तुम क्यों रो रहे हो?उल्लू बोला- में लोक तंत्र की दशा पर रो रहा हूँ,एक सिरफिरे के कारण राजा ने अपना निर्णय बदल दिया!एक धमकी से राजा ने अन्याय को जीता दिया!भ्रष्टाचार को बढ़ावा इन धमकियों के कारण ही शायद मिल रहा है...क्या होगा इस देश का?इसलिए मै रो रहा हूँ!यही हाल है पूरे देश में,अब जनता को सोचना है अगली सरकार उन्हें कैसी बनानी है!
..........................जवाबों की आस में
कृष्ण कुमार द्विवेदी

बुधवार, 8 दिसंबर 2010

क्या हिन्दू किसी दुसरे धर्म का पक्षधर नहीं हो सकता....?

मैं हिन्दू हूँ. मेरा नाम यादव है....... मनीष यादवमेरी भगवान में आस्था भी है और मंत्र दीक्षा भी ले राखी है. मतलब मैं मांसाहार भी नहीं करता यहाँ तक कच्चा लहसुन और प्याज भी नहीं खता. बावजूद इसके मेरे मित्र दिनभर की हर भेंट में मुझे यही कहते हैं कि आसलम वालेय कूम, और पाकिस्तानी कैसे हो, मुसलमान कब बन रहे हो. एक ख़ास बात तो बताना ही भूल गया दिसम्बर को उनहोंने मुझे मेरा एक और नया नाम दिया "मोनीश खान". इसका कारण मैं जरूर बताऊंगा लेकिन इससे पहले मैं अपने दोस्तों का परिचय दे दूँ.
एक उत्तराखंड से है जिसने अपना स्नातक फिजिकल एजुकेशन से किया हैशायद बंगलुरु सेदूसरा मध्य प्रदेश से हैफोरेंसिक साइंस का छात्र रह चुका हैबाकी चार उत्तर प्रदेश से हैंदोनों ने फैजाबाद यूनिवर्सिटी से अपना स्नातक कॉमर्स से किया है और बाकी दो ने पत्रकारिता से स्नातक पूर्ण किया है और वर्तमान में सभी मेरे साथ माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय भोपाल से स्नाकोतर की पढाई कर रहे हैं
अपनी बात को काटकर अचानक अपने मित्रों के बारे में बताने का मेरा मकसद सिर्फ इतना था कि ये सभी एक अच्छे पाठ्यक्रम से पढ़े हुए हैं और स्नातकोतर के छात्र होने के नाते इतनी तो उम्मीद की जा सकती है कि जो भविष्य में देश के चौथे स्तम्भ के रूप में जाने जायेंगे उनकी सोच कम से कम आम जनमानस की सोच से थोड़ी से तो अलग होनी ही चाहिय
ख़ैर मेरी इन बातों का अर्थ आप बाद में समझ ही जायेंगेबात थी कि कारण क्या था....... मेरे दोस्त द्वारा मुझसे इस तरह का व्यवहार करने का कारण सिर्फ इतना था कि मैं पिछले कुछ महीनो से ऐसी पुस्तकें पढ़ रहा हूँ जो या तो भारत-पकिस्तान पर आधारित हैं या वो पुस्तकें जो हिन्दू-मुसलमान वर्ग से जुड़ीं हैं
मेरा जन्म स्थान लखनऊ हैबचपन से बाबरी मस्जिद विध्वंश और गोध्रार कांड का उल्लेख खूब सुनता आ रहा हूँजब से थोडा परिपक्व हुआ तो इन विषयों को जानने कि ललक हुईशायद इसलिए मैं इस तरह की पुस्तकों को आज कल ज्यादा पढ़ रहा हूँ
वैसे भारत में मुसलमानों के साथ हुए अन्याय और अत्याचार का मैं पक्षधर हूँमैं यह जानता हूँ कि गाँधी जी द्वारा नोवाखली और रामानुजम में एक सभा को संबोधित करने के बाद मुसलमानों के साथ जो हुआ वो गलत था, बाबरी मस्जिद विध्वंश कर जिस तरह से मानवमूल्यों का गला घोंटा गया ये सरासर गलत था, बाबरी मस्जिद विध्वंश मेंबाद मुंबई में मुसलमानों द्वारा निकाली गयी शांति रैली पर गोलियां बरसाना वो गलत था, गोधरा कांड- हिन्दुओंद्वारा मुसलमानों का दमन, एक विस्मार्नीय घटना, मुसलमानों के साथ जो भी हुआ, वो गलत थाऔर भी बहुतसी घटनाएँ जो इतिहास के पन्नों में आज भी दर्ज हैं मुसलमानों पर हुए अत्याचारों कि गाथा गातें है
हर बार हिन्दू कोई कोई नया कारण ढूढ़ कर मुसलमान वर्ग पर उंगलियाँ उठाने की किशिश करता रहा हैमैं हिन्दू हूँ इसलिए ये मेरा हक है कि अगर हिन्दू कोई ऐसा कार्य कर रहा है जिससे अपने धर्म का पतन होता है, मैंरोक-टोक सकता हूँलेकिन किसी अन्य धर्म को रोकने-टोकने का अधिकार मुझे क्या किसी भी व्यक्ति को नहींप्राप्त हैचंद संगठनो का भड़काऊ भाषणों से प्रभावित होकर अगर हम उन बातों के पीछे लादेन तो इस क्यासमझा जायेगा? मुर्खता या कुछ और ....? वैसे जहाँ तक मुझे पता है कि हिन्दू धर्म ऐसा कहीं नहीं लिखा है किगलती करने वाले को क्षमा नहीं नहीं किया जायेगा
दौर बदल गया, कई पीढियां गुजर गयीं लेकिन आज भी हिन्दू-मुसलमानों के बीच बना भेदभाव वैसे ही बरकरारहैसुनने में आता है कि शिक्षा के आने विकास होने से लोगों कि मानसिकता में परिवर्तन रहा हैऐसा मुझेनहीं लगता क्योंकि इस बात का साक्ष्य उदाहरण मैं अपने दोस्तों का दे चुका हूँमुझे नहीं समझ में आता कि क्योंलोग आज भी इस तरह कि मलिन सोच को ज़िंदा रखे हुएं हैंलोगों को अपने धर्म में आस्था रखनी चाहिए लेकिनदुसरे के धर्म को बुरा कहना ये कहाँ तक उचित है? और ऐसा तो अपने धर्म में कहीं भी नहीं लिखा है कि किसी दूसराधर्म की निंदा करो, हाँ ये जरूर सुना है कि अपना धर्म दुसरे धर्म का सम्मान करने का सन्देश हमें देता है
ये सच है कि भारत में मुसलमान शासकों के आने से बाद सबसे ज्यादा मंदिर तोड़े गएलेकिन क्या ये जरूरी हैकि जिन घटनाओं को बीते कई शताब्दियाँ बीत गयी हों उन्हें पुनर्जीवित कर उनके पीच आज मुस्लिम वर्ग केलोगों का खून बहाया जाए या उनसे उन मान्यताओं का हिसाब-किताब अब लिया जाए जिसको उस समयमुस्लिम शासकों को ने नष्ट कर दी थीऔर वैसे भी आज हम धर्म-मान्यताओं के नाम परलड़ भी रहे है तो उनलोगों से जिन्होंने कभी ये किया भी नहीं अपितु उन्हें ये भी नहीं पता होगा कि वे किस मुग़ल शासक के घराने से हैं
मुगलों का दौर जब अपने पतन पर था तो उस समय या तो अधिकतर मुग़ल शासक वापस अपने वतन लौट गए थेऔर जो बचे रह गए थे उन्हें युद्धों में मौत नसीब हुई थीतो इस लिहाज से आज भी देश में कितने मुग़ल परिवारबचे रह गए होंगे इसका अनुमान लगाना हम आप आसानी से लगा सकते है
इतिहास को उठाया जाए तो साफ़ पता चलता है कि भारत में मंदिरों को नस्ष्टकर तहखानो में रखे खजानों कोलुटने के साथ-साथ मुगलों ने अपने धर्म के प्रचार के लिए युद्धों में परास्त राजाओं का धर्म परिवर्तन करवाया और जिन्होंने मुस्लिम धर्म नहीं अपनाया उन्हें जमादार का काम दिया गयायही कार मुग़ल शासकों ने पूरे देश मेंकियामतलब साफ़ है कि मुगलों के दमन के बाद देश में तो मुसलमान देश में रह गए थे उनमें से तो अधिकतरपहले से ही हिन्दू थे और जो जमादार बनाये गए थे वो भी हिन्दू थेऔर ये सभी राजपूत या क्षत्रिय थे अर्थात सभीऊँची जात के थे क्यों कि उस समय मुगलों से अधिकतर युद्ध राजपूतों से हुए थे वैसे भी हमारे हिन्दू धर्म में समाजको चार वर्ग में बांटा गया था जिसमें युद्ध का काम क्षत्रियों के था
गाजियाबाद के दोहरे गाँव के लोग जो मुसलमान हैं लेकिन स्वयं को मुस्लिम राजपूत कहते हैंये वहीँ लोग हैंजिनका धर्मपरिवर्तन कर उन्हें मुगलों ने मुसलमान बनाया गया थाएक और उदाहरण है जो हन्दू तो नहीं लेकिनउन्हें इस्लाम अपनाने के विवश किया गया था-सिन्धी पंजाबीये लोग भी स्वयं को क्रमशा:सिन्धी मुसलमान पंजाबी मुसलमान कहते हैंये लोग पंजाब भारत-पकिस्तान सीमा पर रहते हैंइसलिए कहीं ना कहीं भारत मेंरहने वाले मुसलमान अपने भाई ही हैं
लेकिन अपने स्वार्थ के लिए कुछ राजनीतिज्ञ हिन्दुव के पतन का रोना रोकर ना समझ और भावुक जनता कोधरम के नाम पर अपने भाषणों के जरिये पहले तो भड्कतें हैं फिर उन्हें ही राजनीति में अपनी स्थिति को महबूतकरने के लिए दुसरे धर्म के लोगों का गला काटने के लिए भेज देते हैं
मैं पुनः एक बात विस्मरण करना चाहता हूँ कि भारत में सिर्फ मुसलमान ने ही अत्याचार नहीं सहा है और भीमजहब के लोगों ने भी वही सब झेला है लेकिन आज सिर्फ दो धर्म मुख्य हैं जो देश में परस्पर एक दूसरा के विरोधीमाने जाते हैं,हिन्दू-मुस्लिमऔर ये विरोधी भावनाएं कड़ी करने में अपने कूटनीतिक राजनीतिज्ञों का सराहनीययोगदान हैआज भी, जबकि परिस्थतियाँ पूरी तरह से बदल चुकी हैं और सब कुछ संतुलित है, अगर हम गड़े मुर्देउखाड़कर लड़ते रहे तो ना हम और ना ही हमारी पीढियां कभी शांति और अमन का चेहरा देख पाएंगी सिवाएनफरत और प्रतिशोध का चेहरा देखना के
"हम हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई से पहले एक इंसान हैं....."
मुझे पाठकों से आशा है कि कम से कम वे इस तरह कि भावनाओं को दबाने या मूल से नष्ट करने का जेम्माउठाएंगे जो हन्दू-मुस्लिम विरोधी भावनाओं को उजागर या प्रसार करने के लियेया हों......

मंगलवार, 7 दिसंबर 2010

आप बीती......मेरी ही नही आपकी भी.....

देखें भी तो क्या देखे .........
रोजगार समाचार के सिवा.......
मांगे भी तो क्या मांगे........
नौकरी के सिवा..........
कि हमने   डिग्री ले लिया.....
हाँ  हमने   डिग्री ले लिया.....
प्लेसमेंट से पहले एक मेल आता है.....
आ जाओ बेटा रोजगार मेला लगा है.....
मेले में पहुंचते है तो....
दुकानदार कहता है......
क्या कहता है ये नही बताऊंगा....
हाँ बार-बार ये गीत गाऊंगा.......
देखें भी तो क्या देखे .........


रोजगार समाचार के सिवा.......
मांगे भी तो क्या मांगे........
नौकरी के सिवा..........its a fun, dont take it sirious........but if u r agree with these lines then do hard work and get success...

याद तेरी बेसबब नहीं आती.........

शकील "जमशेद्पुरी"
www.gunjj.blogspot.com
मैं खुद ही मुलाक़ात को चल देता हूँ
मायूसी जब चलके दो कदम नहीं आती
तेरी हर अदा मेरी एहसास में बसी है
याद तेरी बेसबब नहीं आती.........

समंदर आज फिर से खौफज़दा  है
चेतावनी दी है किसी ने सुनामी की
वही होगा जो पहले हो चुका है
अंजाम जैसे तेरी-मेरी कहानी की

इन बातों से कोई दहशत नहीं आती
याद तेरी बेसबब नहीं आती....... 

बहुत करीब थे अपनी मंजिल के हम
ज़रा सा आगे बढ़ कर हाथ बढ़ाना था
में तेरा हूँ, सिर्फ तेरा हूँ
ये बात तुम्हें ज़माने को बताना था

काश के तुझमें कोई झिझक नहीं आती
याद तेरी बेसबब नहीं आती.......

शहर से दूर पहाड़ों के दामन में
मोहब्बत का अपना भी एक घर था
हर एक कोणा, दरो-दीवार और फिजा
सब तेरी खुशबू से तर था.

बड़ी दिनों से तेरी महक नहीं आती
याद तेरी बेसबब नहीं आती.....

कभी जो तू निकल आती थी सावन में
घटा तुझको देख कर बरसती थी.
गुज़र होता जो तेरा बाग़ से तो
तुझे छूने को हरेक डाली लचकती थी.

इन डालियों में अब वो लचक नहीं आती.
तेरी याद बेसबब नहीं आती.....

सोमवार, 6 दिसंबर 2010

धरती पर क्या-क्या मंजर फैला है....

धरती पर क्या क्या मंजर फैला है
आज लगा यहाँ लाशों का मेला है
ऐसे तो जनाजे को लेकर इंसान आता है
पर
मुर्दे को आग देने आज मुर्दा आया है

जिन्दा थे तो सब कहते थे तू मेरा है
लेकिन
इस शमशान में आज शिर्फ़ मुर्दों का डेरा है
कल
दूसरों के तमाशे में हम तमाशबीन बने
उसी दहशत के निशाने पर आज घर मेरा है.....

रविवार, 5 दिसंबर 2010

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कुछ तस्वीरे आपके लिए लेकर आया हूँ... लम्बे समय से आपसे दूर था... दिवाली की छुट्टी मनाकर अभी लौटा हूँ.... बहुत व्यस्त हो गई है लाइफ .... केव्स टुडे में लिख भी नही पा रहा हूँ इन दिनों..... आदित्य अपनी पत्रिका के बारे में लिख चुके है...ख़ुशी इस बात की है कि" विहान " पत्रिका का प्रवेशांक निकल चूका है ... अब दिसंबर की अंक की तैयारी चल रही है... बाजारवाद की कड़ी प्रतिस्पर्धा के बीच पत्रिका लगातार निकालते रहना एक बड़ी चुनोती है ... लेकिन हमारे साथ टीम अच्छी है ...... उम्मीद है पत्रिका प्रगति करेगी......
साथियो , इन दिनों लिखने का समय नही मिल पा रहा है .... विहान को लेकर भागादौड़ी कर रहा हूँ ..... अगर लेखन करूँगा तो पत्रिका के लिए समय नही निकल पाउँगा..... वैसे हमारे {सी ऍम डी साहब }"परमार " जी के सख्त निर्देश है कि इन दिनों ब्लॉग पर लिखना और नेट पर बैठना कम ही करे तो ठीक रहेगा क्युकि यही समय है जब पत्रिका को एस्टेब्लिश करना है... इसी के चलते लिखना कम कर दिया है .... परमार जी की बातें माननी पड़ेगी क्युकि वही प्रधान संपादक जो है.... नही तो फटकार सुनने को मिलेगी......क्या पता नौकरी से भी हाथ धोना पद सकता है वैसे भी २००८_२०१० बीच के हमरे केव्स के साथी नौकरी की तलाश में ठोकरे खा रहे है .... लेकिन हमारे (सी ऍम डी ) अलग तरह के है.... जितनी आज़ादी उन्होंने मुझे दे राखी है और शायद ही कोई देता होगा... लिखने से लेकर महत्वपूर्ण फैसले लेने को मैं स्वतन्त्र हूँ.... हमारी टीम के एक साथी रजनीश पाण्डेय का स्वास्थ्य इन दिनों ख़राब चल रहा है.... उनकी कमी खल रही है... आशा है वह जल्द ठीक होकर पत्रिका में अपना योगदान देंगे......
आपको बता दू पत्रिका का प्रचार काफी हो चूका है... ऍम सी यू में हमें हर कोई पहचानने लगा है ..... प्रमोशन बिलकुल "पीपली लाइव " वाले अंदाज में हुआ है पत्रिका के लिए ज्यादा प्रचार करने की जरुरत नही हुई ...... विवेक, आदित्य आपके हाथो में जल्द ही पत्रिका होगी.... भिजवाने की व्यवस्था की जा रही है.......एक खुशखबरी है विवेक भाई आपको विहान का बिहार ब्यूरो चीफ बनाया जा रहा है.... परमार जी के संपर्क में रहिये और वहां से कुछ खबरे हम तक पहुचाये ..........आदित्य जी आप भी खबरे भेजना शुरू कर दीजिये......
घुमक्कड़ी करते हुए कुछ तस्वीरे उतारी है .....नजर फेरियेगा ऐसी उम्मीद है ......डोट कॉम के भी कई प्रकार मार्केट में आ चुके है... सांप , बिच्छु के बाद अब बारी केकड़े की है ....स्वर्णिम मध्य प्रदेश में अब कई तरह के ग्रुप बन्ने लगे है ..... शिव राज मामा अपना प्रदेश की भावना जगा रहे है ....... ग्रुप तस्वीर पर मामा का प्रभाव लगता दिख रहा है...."शनि देव " का तो क्या कहना .... ग्लोबल हो गए है..... जिधर देखता हूँ उधर तू ही तू है... या तो " साईं " या "शनि " देव.... संजय टेलर का भी क्या कहना ॥ अपना प्रचार कर रहे है और पोस्टर चिपकाना मना कर रखा है .....प्रेस की इससे बड़ी आज़ादी और क्या हो सकती है ..... आज़ाद प्रेस नाम से पेपर ............


"भाइयो! मैंने आप पर बहुत ज़ुल्म किया है. इसलिए अपने पापों का......"

शकील "जमशेदपुरी"
www.gunjj.blogspot.com
एक बस्ती थी, जहाँ चूहों का दर्जनों परिवार हसी-खुशी अपनी जिंदगी बसर कर रहा था. दुनिया के भय-आतंक और ईर्ष्या-द्वेष से दूर वो स्वतंत्र हो कर विचरण करते थे। लेकिन उनकी खुशियों को एक दिन किसी की नजर लग गई। चूहे यह देख कर काफी भयभीत हो गए कि एक बिल्ली उसके गांव में घुस आई है। पहले तो चूहों ने सोचा कि शायद ये बिल्ली इस गाँव से होकर गुजर रही है. उधर बिल्ली ने जैसे ही गाँव में कदम रखा, उसे आभास हो गया कि यह चूहों की बस्ती है. उसने इस गाँव में डेरा डाल दिया. फिर तो चूहों का बुरा वक़्त शुरू हो गया. बिल्ली घात लगा कर चूहों का शिकार करने लगी. चूहों का अपने घरों से निकलना भी मुश्किल हो गया. खाने कि तलाश में अब वो बिल से बहार भी नहीं आ सकते थे. स्थिति बद से बदतर होती जा रही थी. चूहों को जल्द से जल्द इस समस्या का समाधान निकालना था. अन्यथा भूख से मरने कि नौबत आ सकती थी. इसी के तहत चूहों के मुखिया ने एक आपात बैठक बुलाई. बैठक में इस बात पर विचार-विमर्श हो रहा था कि बिल्ली से कैसे निपटा जाए? तभी एक चूहे ने कहा- "क्यूं न हम सभी मिल कर बिल्ली पर हमला कर दें." लेकिन से आसान नहीं था. बिल्ली काफी चालाक थी और फुर्तीली भी. साथ ही इसमें जान का जोखिम भी था. तभी पिछली पंक्ति से एक युवा चूहे  ने कहा- "बगल के गाँव में मेरा एक कुत्ता दोस्त रहता है.वो हमारी मदद कर सकता है. अगर उसे यहाँ बुला लिया जाए तो वो बिल्ली को खदेड़ देगा." यह राय सभी को पसंद आई. चूहे के मुखिया ने आदेश दिया कि कल ही वो उस कुत्ते से जाकर इस संदर्भ में बात करे.

अगली सुबह वो चूहा बिल्ली कि नज़रों से बचते बचाते बगल के गाँव के लिए प्रस्थान किया. उस चूहे ने कुत्ते के सामने अपना प्रस्ताव रखा. कुत्ते ने साफ़ इनकार कर दिया, ये कह कर कि २४ दिसम्बर से उनके फर्स्ट सेमेस्टर कि परीक्षा है और वो अभी भौकने  कि प्रक्टिस कर रहा है. चूहे के काफी निवेदन करने के बाद आखिरकार कुत्ता तैयार हो गया.
जैसे ही वो कुत्ता चूहों के गाँव में आया, बिल्ली अपने घर में दुबक गयी. कुत्ते ने बिल्ली के घर के सामने डेरा दाल दिया. अब बाज़ी पलट चुकी थी. बिल्ली का घर से निकलना मुश्किल हो गया और चूहों के पुराने दिन वापस लौट गए. कुत्ते के लिए नाश्ते और खाने का इंतज़ाम चूहे ही करते थे. कुत्ता दिन-रात बिल्ली के घर के बाहर बैठा रहता था. ऐसे में बिल्ली के लिए मुसीबत बढ़  गयी. कुछ दिन तक तो बिल्ली कुत्ते के जाने का इंतज़ार करती रही, लेकिन अब भूख से उनकी हालत पतली होने लगी थी. वो अपने घर से बाहर भी नहीं निकल सकती थी, क्यूंकि बाहर कुत्ता २४ घंटे मुस्तैद रहता था.
तभी बिल्ली के शातिर दिमाग में एक योजना आई. एक कुतिया से उनका अच्छा-ख़ासा परिचय था. बिल्ली ने सोचा कि वो उस कुतिया से बात करेगी और कहेगी कि वह इस कुत्ते को अपने प्यार में फंसा कर यहाँ से दूर ले जाये. बिल्ली ने तत्काल उस कुतिया से संपर्क किया. कुतिया एक झटके में तैयार हो गयी. अगले दिन वो कुतिया उस गाँव में आई और कुत्ते पर डोरे डालने लगी.कुत्ते को पता था कि बिल्ली काफी शातिर दिमाग है. इसलिए कुतिया के प्यार भरे इशारों में उसे साजिश कि बू आ रही थी. उस कुतिया ने अपने स्तर  से काफी प्रयास किया, पर कुत्ते के ईमान  को डगमगाने में नाकाम रही. बिल्ली कि ये योजना पूरी तरह नाकाम हो गयी. भूख प्यास के मारे उसका और भी बुरा हाल हो गया था. अगर जल्द ही वह कोई वैकल्पिक उपाय नहीं करती तो भूख से वैसे भी मारी जाती. आखिरकार बिल्ली ने तुरुप का इक्का निकाला और कुत्ते से निपटने का पूरा बंदोबस्त कर  लिया.

अगली सुबह से वह स्वयं कुत्ते पर प्यार के डोरे डालने लगी. पहले तो कुत्ते ने अपने ऊपर संयम रखा, लेकिन बिल्ली को दूसरी बिरादरी कि लड़की होने का फायदा  मिला. एक रात बिल्ली ने खिड़की को खुला छोड़ दिया और निवस्त्र हो गयी. कुत्ते का धैर्य ज़वाब दे गया. उसका ईमान डगमगाने लगा. उस रात दोनों एक-दूसरे के आगोश में आ गये. बिल्ली के पास ये सुनहरा मौका था कुत्ते से छुटकारा पाने का. मौका पाते ही बिल्ली ने चूहे के गले पर वार किया और अगले ही क्षण कुत्ता ढेर हो गया.

चूहे के बुरे दिन फिर से वापस आ गए. बिल्ली का तांडव फिर से अपने चरम पर पहुँच गया. चूहों के पास अब कोई विकल्प भी नहीं था, सिवाय बिल्ली के ज़ुल्म को सहने के और खौफ के साए में जीने के अलावा. चूहों को मार कर खाने का बिल्ली का सिलसिला अनवरत चलता रहा, और फिर एक दिन........

एक दिन चूहे ये देख कर हैरान हो गए कि बिल्ली उसका गाँव छोड़ कर जा रही है. वास्तव में महीनों चूहे का मांस खाने से बिल्ली उब गयी थी. इसलिए बिल्ली यहाँ से दूर जा रही थी. लेकिन बिल्ली ने जाते जाते भी कोई मौका नहीं छोड़ा. वह चूहों को संबोधित करते हुए बोली- "भाइयो! मैंने आप पर बहुत ज़ुल्म किया है. इसलिए अपने पापों का प्रश्चित  करने तीर्थ यात्रा पर जा रही हूँ. हो सके तो मुझे माफ़ कर देना."

प्यारे साथियो! कहानियों के पठन-पाठन की भारतीय परम्परा बेहद पुरानी है. हर कहानी में कुछ न कुछ संदेश छुपा होता है. खासकर जब कोई संदेशपरक कहानी हो तो उसका अर्थ और भी गूढ़ हो जाता है. तो इस कहानी से आपको क्या सन्देश मिला, हमें ज़रूर बताईयेगा, अपने बहुमूल्य टिप्पणियों के जरिये.
                                                

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

व्यस्तता...

दोस्तों नमस्कार, बहुत समय के बाद आपसे मिल रहा हूँ.  क्यूंकि मै भी किसी बड़े आदमी की तरह व्यस्त था. बड़ा आदमी हमेशा व्यस्त रहता है, इसीलिये वाह सफल है.  कारण साफ़ है व्यस्तता रहने के कारण या यूँ कहे  की व्यस्तता की काली चादर ओढ़ कर मै यानी एक व्यस्त आदमी आप से हमेशा यही कहता हूँ की... कुछ देर में फ़ोन करता हूँ. नहीं तो बाद में बात होगी. लोग जब मुझसे कहते हैं की कुछ लिखो यार तब मै कहता हूँ इतना काम है की यार फुर्सत ही नहीं मिलती. और मन ही मन मै बड़ा आदमी यह सोचता हूँ की मैंने अपना समय फालतू काम और फालतू समाज से बचा लिया.  ये फुर्सत न मिलना कितना बड़ा और सटीक बहाना है. खासकर मेरे लिए.. बड़ी-बड़ी बाते हांकना.  मेरे लिए बहुत आसान है, क्या हुआ कुछ देर जुबान ही तो खोलना और बंद करना है. व्यस्तता आप और सबके लिए बहुत सही है ख्याल रहे की ये व्यस्तता आपके और हमारे लिए कंही सामाजिक असफलता का कारण न बन जाए.

दिल जलाते हैं और शम्मा बुझाए रखते हैं...

       शकील "जमशेदपुरी"

 अपने वजूद को दर्द से सजाए रखते हैं
 दिल जलाते हैं और शम्मा बुझाए रखते हैं

ये मेरे रात भर रोने की गवाही है
पत्तियों पर शबनम का जो पहरा है
इतनी सी बात कब समझेंगे वो  
जख्म दिल का तेरे प्यार से गहरा है

फिर भी तेरी तस्वीर दिल में समाए रखते हैं
दिल जलाते हैं और शम्मा बुझाए रखते हैं

रात भर मैंने जो आसमां की निगहबानी की
                                      चांद और तेरे हुस्न की आजमाइश में
                                      और तुम जो जागती रही रात भर 
                                    खलल पड़ता रहा सितारों की नुमाइश में

अब तेरी तस्वीर को पलकों में छुपाए रखते हैं
दिल जलाते हैं और शम्मा बुझाए रखते हैं

हम समझते थे वो समझती है खामोशी की जुबां
अब उनके समझ की इंतेहा हो गई
चुप रहने को बेहतर समझते रहे "शकील"
तेरी यही खामोशी एक दास्तां हो गई

जागते अरमां को अब सुलाए रखते हैं
दिल जलाते हैं और शम्मा बुझाए रखते हैं

परेशान है लोग वोडाफोन की चोरी से....

वोडाफ़ोन एक नेटवर्क कम्पनी जो लोगो को सस्ते दामो पर सेवाए प्रदान करने का विज्ञापन करती है और हच कम्पनी को खरीद कर भारत आयी है आज लोगो की जेबों पर भरी पड़ रही है, कही यह एक साजिश तो नहीं कुछ हो पर इसका काम करने का अंदाज ईस्ट इंडिया कम्पनी की याद दिलाती है इस कम्पनी ने हमरे देश के गाँव गाँव तक पहुच बना लेने के बाद अब देश की गरीब औए अशिक्षित जनता की जेब पर डाका डालने का काम शुरु कर दिया ।
हमारे देश की बड़ी आबादी जो गाँवो में रहती है वो या तो अशिक्षित या यूँ कह ले की अल्प शिक्षित है खास तौर से तकनीकी संबंधी जानकारी रखने वालो की संख्या तो न के बराबर है वह जनता बेबाकी से इस संचार क्रांती युग में मोबाईल फ़ोन का प्रयोग करती है ऐसे में वोडाफ़ोन कम्पनी ग्राहक की मांग के बिना ही उनके फ़ोन पर विभिन्न तरह की सेवाए शुरू कर देते है और उसके एवज में मासिक किराया उनके बैलेंस से कट लेते है लोग दुखी तो बहुत होते है मेरा पैसा कट लिया गया पर वो इसके बारे में शिकायत कहा करे इसका ज्ञान उनको नहीं और वो संतोष कर के बैठ जाते है की चलो इतना ही कटा फिर कटेगा तब किसी से बात करेंगे और इस बहाने कंपनी को लाखो का फायदा चोरी से हो जाता है, यह क्रम लगातार महीने दर महीने चलता रहता है और लोग परेशां होकर भटकते रहते है , उनके पास एक उपाय है की वो नंबर बदल दे लेकिन समस्या यह है की उनके घर के लोग परदेश कमाने गए होते है और नया नंबर लेने में तमाम तरह की कानूनी औपचारिकताये पूरी करनी पड़ती है जो एक नाजायज खर्च भी है।
इस समस्या के बारे में मै सुनता तो बहुत दिन से था पर भरोसा तब हुआ जब दीपावली की छुट्टी पर मै घर गया मेरे गावों के वोडाफोन उपभोक्ताओ में से ८०% लोग इस समस्या से पीड़ित थे जिनमे से कईयों के लिए मैंने कस्टमर केयर पर फ़ोन करके उनकी सेवाए बंद करवाई और भी प्रबल भरोसा तब हुआ जब बिना मेरी अनुमति लिए यह सुबिधा मेरे फ़ोन पर चालू कर दी गयी, जब मैंने इस बीमारी के बारे में जनसंपर्क स्थापित किया तो लोग इस कंपनी को गालिया देकर कह रहे थे की यह कम्पनी चोर है और बिमारो की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी मेरे घर के सभी लोगो ने अपना सिमकार्ड बदल दिया था कारण पूछा तोबस वही वोडाफ़ोन चोर है ।
समस्या इतनी ही होती तो भी काम चल सकता था पर आगे की कहानी कुछ यूँ है की जब मेरा पैसा कटा गया तो मैंने भी निर्धारित प्रक्रिया की तरह कस्टमर केयर में बात की वहा से पहला जबाब यह आया की की सर अगर आपका पैसा काट लिया गया है तो निश्चित ही आपने इस सेवा के लिए मांग की होगी अर्थात मै झूठा कई तरह से संतुस्ट करने के बाद मुझे कई अंको का एक शिकायत नंबर दिया गया और साथ ही यह बतया गया की आप निश्चिन्त रहे अगर आप का पैसा गलत कटा गया होगा तो ७२ घंटो के अन्दर आप को वापस कर दिया जायेगा । धीरे धीरे ७२ घंटे बीते पैसा वापस नहीं आया मैंने फिर बात की जवाब - सर अगर आपका पैसा वापस नहीं हुआ है तो इसका मतलब आपका पैसा सही कटा गया है और आपने इस सेवा की मांग अवश्य की होगी । इसके बाद सब ख़तम पैसा भी गया झूठे भी बने और अब कुछ नहीं करसकते है सिर्फ एक रास्ता की सिम बदल दू । अब से पहले मैंने अपने आपको इतना कमजोर कभी नहीं समझा था मै लाचर था मेरे पास सब कुछ है सबूत है गवाह है खुद को सही प्रमाणित करने के लिए पर मै कुछ नहीं कर सकता ज्यादा से ज्यादा अपनी भड़ास निकालने के लिए फिर से उस गरीब को गली दे सकता हू जो इस विदेशी चोर कंपनी की गुलामी कर रहा है लेकिन मै जनता हू वह तो मजबूर है ...
पर वह रे हमारी भारतीय निजी क्षेत्र की कंपनी एयरटेल एक फोन पर पैसा वापस बस इतना बताना पड़ा की बिना मेरी अनुमति के फला नंबर पर यह सुबिधा लगा दी गयी है जिसके एवज में पैसा काट कर मुझे दुविधा में दल दिया गया है मै छठा हू की इस सुबिधा को मेरे फोन से हटा दिया जाये और मेरा पैसा वापस कर दिया जाये -जबाब ओके सर कुछ देर में आपके फोन पर एक सन्देश आएगा और आपका पैसा वापस कर दिया जायेगा और ५ मिनट के अन्दर पैसा वापस ....
इन विदेशियों से निपटने की कोई कारगर योजना सरकार बना नहीं रही या बनाना नहीं चाहती यह तो मै नहीं जनता पर यह जरूर जनता हू की यह सब बड़े पैसे वाले लोग है और कुछ भी खरीद सकते है लोगो की जमीर को भी और तो किया था ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने दूसरी बात थ्री जी स्पेक्ट्रम यह भी बताता है की अब कोई भी बिक सकता है बस कीमत मुफीद हो .......
मै तो बस इतना ही कहूँगा की लोग वोडाफोन की चोरी से परेशान हैबाकी जाने सरकार और जनता........

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2010

....जब से यह करम हुआ.

शकील "जमशेदपुरी"
तस्वीर गूगल के सौजन्य से!
छत पे तुम जो आ गई तो लोगों पे सितम हुआ
अमावस की रात में भी चांद का भ्रम हुआ

जिंदगी लगी थिरकने दूर रंजो-गम हुआ
मुझपे तेरे प्यार का जब से यह करम हुआ

याद तेरी आ गई और मुझसे यूं लिपट गई
गीत लिखने के लिए हाथ में कलम हुआ

लोग पूछते है मुझसे राज मेरे गीत का
क्या कहूं मैं उनसे कि बेवफा सनम हुआ

मिट सकेगी क्या कभी हीर-रांझे की दास्तां
"शकील" तेरे प्यार का किस्सा क्यों खत्म हुआ?

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

करीब से देखा मैंने ...................

चीख पुकार का वो मोत का मंज़र ,
उस मनहूस रात कों करीब से देखा मैंने ...

न जाने कितने गुनहगारो कों लील गयी वो
अपने ही हाथो से मोत कों फिसलते हुए, करीब से देखा मैंने...

धरती कों प्यासा छोड़ गयी वो
भूख से तडपते हुओ कों करीब से देखा मैंने ...

शहर का हर वो कोना जिसमे बस लाशे ही लाशे
कयोंकि लाशे से पटती धरती कों करीब से देखा मैंने .....

चिमनी से निकलता हुआ वो ज़हरीला धुँआ
शहर कों मोत की आगोश में सोते हुए, करीब से देखा मैंने ..

२६ साल स बाकि है अभी वो दर्द
लोगो को आंधे,बहरे और अपंग होते हुए, करीब से देखा मैंने ....

याद आता है माँ का वो आचल
माँ के आसुओ कों बहते हुए, करीब से देखा मैंने ....

(मेरे यह कविता भोपाल गैस त्रासदी के ऊपर लिखी गयी है, जिसको २ & ३ दिसंबर कों पूरे २६ वर्ष होने जा रहे है ....)
.वर्ष १९८४ की वह मनहूस रात कों यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक सयंत्र से मिथाईल आइसोनाइड गैस का रिसाव होने से हज़ारो लोगो की मोत हो गयी थी

ललित कुमार कुचालिया
09752395352