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रविवार, 12 दिसंबर 2010

नौकरशाह, राष्ट्रमंडल खेल और भारतीय खिलाड़ी

1930 एक ऐसा दौर जब भारत गुलामी जन्जीरों को तोड़ने के लिए अपने बाजू मजबूत कर रहा था। भारत की हर गली आन्दोलकारियों की आवाज से गूंज रही थी। वहीं कैनेडा के एक शहर में राष्ट्रमण्डल खेलों की शुरूआत हुई थी। चौदह देशों के करीब 400 खिलाड़ियों ने छः खेलों में प्रतिभाग किया था। उस समय भारत ऐसे दौर से गुजर रहा था कि उसने ये सोचा भी नहीं होगा कि वह कभी राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी भी करेगा। लेकिन मात्र 21 साल के अन्दर भारत को ये मौका मिला उसके बाद १९८२ में। क्यों? शायद इसलिए कि भारत ने विश्व पर बहुत जल्दी अपनी एक अलग और प्रभावशाली छाप डाली है। इस वर्ष राष्ट्रमण्डल खेलों की शुरूआत भारत की राजधानी और दिल वालों के शहर दिल्ली में 3 अक्टूबर को हुई जो कि 13 अक्टूबर तक चले, जिसमें 71 राष्ट्र के 6700 प्रतिभागियों ने 17 खेलों के लिए भाग लिया। भारतियों में उस समय खुशी की लहर दौड़ गयी जब 2003 में भारत को वर्ष 2010 में राष्ट्रमण्डल खेलों की मेजबानी के लिए चुना गया। कहते हैं न कि हाथी के दांत खाने के कुछ और दिखाने के कुछ और होते हैं असल में भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष समेत अन्य सदस्यों के चहरे पर जो खुशी झलक रही थी उसका मुख्य कारण मेजबानी हासिल करने के पीछे छिपी शकुनी चाल का पहला चरण पार करने की थी। मतलब सभी अपने धन को कुबेर धन में तब्दील करने के सपने को साकार होता देख, खुश हो रहे थे। इन खेलों के बजट की गिनती बढ़ते-बढ़ते करीब 70000 करोड़ रूपये जा पहुंची है। कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर इस आंकड़े के आकार को समझाने के लिए इसकी तुलना देश भर के किसानों की कर्ज माफी पर खर्च करीब 65 हजार करोड़ रूपये से करते हैं तो कई लोग इसे केन्द्र सरकार के सालाना शिक्षा बजट से बड़ी राशि बताते हैं। एक बात यह भी सुनने में आती है कि खेलों के बदले जनता का पैसा लुटाने का सिलसिला भारतीय ओलंपिक संघ के अध्यक्ष और राष्ट्रमण्डल खेल आयोजन समिति के महासचिव सुरेश कलमाडी ने वर्ष 2003 में जमैका में लगी बोली से शुरू कर दिया था। भारत की दावेदारी को मजबूत करने के लिए कलमाडी ने अपनी मर्जी से हरेक प्रतिभागी देश को एक-एक लाख डॉलर देने की पेशकश करी थी। भारत को वर्ष 2010 राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी मिलने में इस पेशकश ने अहम भूमिका निभाई। उस समय खेल मंत्री रहे भाजपा के विक्रम वर्मा कहते हैं ‘‘राष्ट्रमण्डल के सदस्य देशों को करीब 50-50 लाख रूपये देने की पेशकश कलमाडी का व्यक्तिगत निर्णय था। दरअसल यह मेजबानी हासिल करने के लिए दी जाने वाली रिश्वत थी।’’मेजबानी तो मिल गयी लेकिन वर्ष 2003 में मेजबानी मिलने के बाद वर्ष 2005 तक न तो भारतीय ओलंपिक संघ और न ही खेल मंत्रालय ने आयोजन को लेकर किसी भी तरह की तैयारी को आगे बढ़ाया। आयोजन के दावों और वादों के बीच चार साल निकल गये। आयोजन समिति का सचिवालय भी वर्ष 2007 में सुचारू हुआ। इसके बाद शुरू हुआ तैयारियों के बजाए खेलों के नाम पर ज्यादा से ज्यादा खर्च और कमाई से नए-नए तरीके निकालने का खेल। आयोजन का मास्टर प्लान तो वर्ष 2008 के आखिर में तैयार हुआ। इस देरी ने अटके कामों को पूरा करने का खर्च और धांधली की गुंजाइश दोनों को बढ़ा दिया। पिछले साल तक भी जमीनी तैयारियों पटरी पर नहीं दिखीं तो राष्ट्रमंडल खेल महासंघ के अध्यक्ष माइकल फेनेल ने इस सम्बन्धन प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी और अपनी चिंता जतायी। इसी बीच मीडिया ने राष्ट्रमंडल खेलों में भ्रष्टाचार की कलाई खोलनी शुरू कर दी उदाहरण के तौर पर- पूर्व केन्द्रीय मन्त्री मणिशंकर अय्यर ने मीडिया में इस मुद्दे के उछलने के बाद खूलासा किया कि सुरेश कलमाडी ने 2003 में इन खेलों पर सिर्फ 150 करोड़ रूपये का खर्च आने की बात कही थी लेकिन अब उद् घाटन और समापन समारोह पर ही 300 करोड़ रूपये खर्च होने की बात कही गयी है।गलती तो धनलोलुप नेताओं और उनके चेलाओं ने तो जरूर की और मीडिया द्वारा, इस घोटाले का खुलासा भी होना अति आवश्यक था लेकिन ऐसे समय पर जब खेल शुरू होने में बस कुछ सप्ताह ही बाकी हों, मीडिया द्वारा इस मामले को तूल देना क्या सही था? क्योंकि मीडिया में इस मामले के उछलने के बाद विदेशों में ओलंपिक संघ के अध्यक्ष समेत भारत व भारतीय सरकार की थू-थू हुई। अब शायद ही भारत को राष्ट्रमण्डल खेल या अन्य अन्तर्राष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं की मेजबानी के लिए अवसर मिले। वैसे ये कहा जा सकता है कि मीडिया ने नेताओं ने को नहीं छोड़ा और नेताओं ने देश को, लेकिन ऐसी स्थिति में सिर्फ एक वर्ग ही ऐसा था जिसने बिना किसी स्वार्थ, लालच के देश की शान को बरकरार रखा, देश के खिलाड़ी। खिलाड़ियों ने राष्ट्रमण्डल खेलों में कुल 101 पदक भारत के लिए प्राप्त किये। जिसमें 38 स्वर्ण, 27 रजत व 36 कांस्य हैं। बहरहाल काफी अव्यवस्थाओं के रहते हुए भी खेल सकुशल निपट गये और किसी भी घटना ने दस्तक भी नहीं दी। नहीं तो इसके पहले कई जगह निर्माण कार्य चल रहा था तो कहीं कार्य पूरा होने के बाद ढ़ांचा गिर रहा था।जो भी हो, अन्तिम समय में सरकार ने जब एक बार दम भरा तो काम पूरा करने के बाद ही सांस ली। ये बात अलग है कि एक आध छुट-पुट काम तब भी करने को बाकी रह गये थे। खिलाड़ियों की सुविधा के लिए एयरपोर्ट से ही एक अलग राजमार्ग बनवाया गया था जो खिलाड़ियों को सीधे स्टेडियम पर उतारने के लिए था। रोड के दोनों ओर बड़ी-बड़ी होर्डिंग लगवायी गयीं थी जिसमें तमाम प्रसिद्ध खिलाड़ियों की खेलते हुए तस्वीर थी, प्रसिद्ध इमारतों की तस्वीर आदि थी। उस समय तो दिल्ली मानों किसी अतिविकसित देश की भांति लग रही थी जहां न तो कहीं कूड़ा था और न ही कोई बिखारी। हां...... बिखारी! उन दिनों एक भी बिखारी दिल्ली की सड़कों पर नहीं था। ये भी सच है कि भारत में दिल्ली भी एक ऐसी जगह के तौर पर देखी जाती है जहां बिखारी बहुतायत में हैं। तो फिर ये बिखारी गये कहां? शहर से बाहर। अपनी झूठी शान बनाने के चक्कर में किसी भी बिखारी, रिक्शेवाले, ठेलेवालों को शहर में नहीं रूकने दिया गया। न ही शहर के बाहर उनके रहने खाने का कोई इन्तजाम किया गया। ऐसे में भीड़ भाड़ का तो कोई सवाल ही नहीं उठता है क्योंकि पूरा दिल्ली 10 दिन के लिए बंद करा दिया गया था।लेकिन सरकार के ये तमाम ढ़कोसले धरे के धरे रह गये। क्योंकि इस बार मीडिया ने इनकी करतूतों पर पानी फेर दिया। खेल खत्म होते ही अगले दिन भारत सरकार ने पूर्व महालेखा परीक्षक आयुक्त वी.के. शुंगलू समिति, खेलों में हुए भ्रष्टाचार की जांच के लिए गठित कर दी। इधर कई प्रकरणों के चलते विवादों में घिरी केन्द्र सरकार ने येन केन प्रकारेण सुरेश कलमाड़ी को उनके पद से मुक्त कर दिया। लेकिन प्रश्न ये उठा है कि इस तरह भारत की अस्मिता के साथ खेलने वाले व्यक्तियों की सजा सिर्फ पद से मुक्तिभर कर देना ही रह जाएगी या ऐसे आरोपियों पर कार्रवाई का ये पहला कदम माना जाए?

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