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रविवार, 29 सितंबर 2019

भगत सिंह को क्यों पढ़ा जाना चाहिए?

भगत सिंह को क्यों पढ़ा जाना चाहिए?
इस सवाल से पहले हम बात करते हैं कि 23 वर्षीय इस युवा एवं उनके साथी राजगुरु, सुखदेव को बचाने के लिए किसने, कितनी कोशिश की। अभिलेखागार एवं संसाधन केंद्र दिल्ली के मानद सलाहकार व भगत सिंह के दस्तावेजों के संपादक प्रोफेसर चमनलाल के अनुसार धार्मिक संगठनों, धार्मिक संगठनों से खड़े हुए राजनीतिक संगठनों ने भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने की कोई कोशिश नहीं की।
कोशिश करने वालों में मोतीलाल नेहरु जो प्रसिद्ध वकील थे गम्भीर बीमार होने के बाद भी 31 जनवरी 1931 को लाहौर जेल में क्रांतिकारियों से मिलने गए। कानूनी सहायता उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया। हालांकि भगतसिंह ने विरोध किया। फिर भी मोतीलाल नेहरू ने फांसी की सजा के खिलाफ अपील करने की तैयारी की। कागजात मंगाकर अध्ययन भी किया। 8 अगस्त 1929 को जवाहरलाल नेहरु ने भी क्रांतिकारियों से मुलाकात की थी। कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ सुभाष चंद्र बोस, वाम दलों के नेताओं ने भी बहुत प्रयास किये, लेकिन सफल नहीं हुये। भगतसिंह की लोकप्रियता से दक्षिण भारत भी अछूता नहीं था। एशिया के पैगम्बर माने जाने वाले ईवी रामास्वामी पेरियार ने भी भगत सिंह व साथियों को बचाने के लिए तमिल जनरल "कुदई अरासु" में संपादकीय लिखा। साथ ही भगत सिंह की पुस्तक "मैं नास्तिक क्यों हूं" का तमिल में अनुवाद करवाया। महात्मा गांधी ने भी 31 जनवरी 1931 को इलाहाबाद में अपने संबोधन में कहा कि मत्यु दंड वाले व्यक्ति को फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए। फांसी रोकने के लिये एक बार वायसराय से बन्द कमरे में मुलाकात भी की। बतौर प्रोफ़ेसर "गांधी की छवि और कद उस समय बहुत बड़ा था। अंग्रेज भी उनकी ताकत को भलीभाँति समझते थे। गांधी ने जितने प्रयास होना चाहिए थे, उतने नहीं किये"।
अब हम भगत सिंह को क्यों पढ़ा जाना चाहिए। इस पर बात करते हैं। "भगत सिंह के संपूर्ण लेख" पुस्तक, जिसको प्रोफेसर चमनलाल ने लिखा है। जो उनके पत्रों पर आधारित है।
इसके पृष्ठ नंबर 167 की बात करना चाहता हूं। जिसमें भगत सिंह सुभाष चंद्र बोस और नेहरू में से नेहरू को चुनने की बात करते हैं। साथ ही क्यों चुनना चाहिए, इस पर भी वे विस्तार से लिखते भी हैं और समझाते भी हैं। साथ ही पंजाब सहित अन्य युवाओं को चेताते हैं कि नेहरू के भी अंधे पैरोकार नहीं बने। जो सही लगे उसका समर्थन करें।
इसके अगले पृष्ठ पर वह धर्म पर भी जबरदस्त कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि यह बात फलां वेद, पुराण या कुरान में लिखी गई है या उसमें अच्छा बताया गया है। इस बात पर नहीं मानी जानी चाहिए। बल्कि समझदारी की परख पर साबित न हो तब तक नहीं मानी जानी चाहिए। उनके विचार आधुनिकतावादी थे। उन्होंने वर्तमान और भविष्य के भारत, राजनीति सहित कई मुद्दों पर खुलकर लिखा।
मेरे विचार:-भरत सिंह का कद उस समय गांधी से थोड़ा ही कम था। वैसे तो सम्पूर्ण देश मे वे लोकप्रिय थे, लेकिन पंजाब, हरियाणा और उससे सटे इलाकों में वे ज्यादा प्रसिद्ध थे। युवाओं के वह आइकॉन थे। शायद गांधी को इसी बात का डर रहा होगा। हालांकि भगतसिंह ने न तो अपने स्तर पर गिरफ्तारी से बचने का प्रयास किया और न ही फांसी से बचने का। वो 23 साल की उम्र में ही अपने साथी राजगुरु और सुखदेव के साथ 23 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर झूल गये।
यह भी सच है कि देश आज भी उनकी उम्मीदों तक नहीं पहुंचा है जो उन्होंने सोचा था।
हालांकि देशवासियों के दिलों में वे हमेशा जीवित रहेंगे।
112 वीं जयंती पर उनको नमन। 

सोमवार, 16 सितंबर 2019

भला नाना और नानी का भी...कोई नाम होता है? वह खुद ही अपने आप में नाम और पहचान होते हैं।

भला नाना और नानी का भी...कोई नाम होता है?
वह खुद ही अपने आप में नाम और पहचान होते हैं।
खुशियों का खजाना और हर तमन्ना साकार करना उन्हें आता है।
...भला नाना का भी कोई नाम होता है। 
...भला नानी का भी कोई नाम होता है।
अधिकांश लोग और मैं भी आज तक अपने नाना, नानी का नाम नहीं जान पाया और जरूरत भी नहीं पड़ी।
...क्योंकि नाना और नानी का नाम ही काफी था। 
उनका लाड़, प्यार, उनका हम सब पर सब कुछ लुटा देना।
....यही काफी था हमारे लिये।
बाजार जाने पर उनका घर आना मतलब साफ था। 
...कि बहुत कुछ आने वाला है, बहुत कुछ मिलने वाला है। 
घर आते ही हम सबकी नजरें झोले पर होती थीं।
...कि अब सिम सिम दरवाजा खुलने वाला है, बहुत कुछ मिलने वाला है। 
वह भी थोड़ा तड़फ़ाते थे और कहते थे सोचो क्या लाया हूं,  तुम्हारे लिये।,,,,,,,कोई बता सकता है।
हमारा अनुमान फल-फ्रूट, मिठाई तक ही सीमित रहता था।
,,,लेकिन वह तो खजाना थे। 
पैसे भले ही उनकी जेब में कम हों, लेकिन दिल बहुत बड़ा था। उधारी ही सही हमारी तमन्ना कभी मर नहीं पाती थी।
,,,क्योंकि नाना और नानी का भी कोई नाम होता है।
उनका नाम ही काफी होता है। 
उनके कच्चे मकान और थोड़ी गरीबी भले ही हो, लेकिन उनका घर हमारे सपनों का संसार रहता है।
हम सबके जीवन में नाना और नानी का बड़ा प्यार रहता है। 
बड़ा लाड़ रहता है। बड़ा दुलार रहता है। 
हर पल वह हमारी फ़िक्र करते थे।
कहीं ऊंचाई पर चढ़ गए या कहीं पेड़ पर चढ़ गए या कहीं खतरनाक जगह पहुंच गए तो उनकी जान निकल जाती थी।  तुरंत चिल्ला पड़ते थे। 
,,,,,,अरे वहां कैसे पहुंच गए। (तेज आवाज में)।
,,,तुरंत पीछे आओ, तुरंत वापस आओ, गिर जाओगे, 
लग जाएगी,,,चलो वापस आओ। 
तुरन्त आओ, तुम्हें कुछ दिलाता हूं।
कितनी फिक्र और कितनी चिंता रहती थी उनको।
सामने थोड़ा न दिखूं तो तुरंत पूछते थे नाम लेकर 
,,,,,फलां नहीं दिख रहा है। कहां गया है? 
कहाँ गायब है?,,,सो गया क्या?
जब तक जवाब नहीं मिल जाता। 
वह पूछते ही रहते थे।
कहीं बुखार आ गया तो नीम-हकीम, टोना-टोटका से,,,
लेकर अस्पताल तक भागते थे।
जब तक सही नहीं हुआ, तब तक चैन की सांस नहीं लेते थे।
अंगुली पकड़कर हर जगह ले जाना और जानकारी देना।
लोगों के पूछने पर बताना,कि यह फलां बेटी का फलां बेटा है।
कहानी सुनाना और फिर जोर से गुदगुदाना।
जी भर हंसाना और मिलकर खिलखिलाना।
रूठने पर हर जानवर की आवाज निकालना।
यहां तक कि जानवर बनकर भी दिखाना।
और जब तक हंस न जाएं,,,हर करतब दिखाना।
हमें सब याद है,,, नाना और नानी जी। 
,,,अब न नाना हैं और न नानी हैं,,,लेकिन जब भी
वो चेहरे याद आते हैं तो आंखों में आँसू आ जाते हैं।
उनका चेहरा झूलने लगता है। 
हम यादों के उसी पल में चले जाते हैं।
हमारे जीवन में नाना-नानी का ये रिश्ता कितना अनमोल होता है।
,,,,क्योंकि नाना और नानी का भी कोई नाम होता है क्या?।
(फ़ोटो में नाना नानी,,,ग्राम बरोदिया बीना म.प्र.)
उनके चरणों की धूल को नमन, वंदन।,,,,फूलशंकर।