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शनिवार, 26 जून 2021

दूरदर्शी राजर्षि साहू जी महाराज

 दूरदर्शी राजर्षि साहू जी महाराज 

19वीं शताब्दी के ऐसे महाराजा जिनके अनेक सामाजिक कार्यों की छाप देश के संविधान में झलकती है। शिवाजी महाराज के वंशज साहू जी महाराज ने 1894 में कोल्हापुर की गद्दी सम्भाली। उस दौर में जातिप्रथा की बेड़ियां बहुत मजबूत थीं। अछूत सेवक गंगाराम काम्बले ने जब तालाब का पानी छू लिया तो उच्च जाति के लोगों ने बुरी तरह पीट दिया। जब महाराज को जानकारी हुई तो पीटने को सजा मिली। साथ ही उन्होंने गंगाराम को राजकोष से चाय की दुकान खुलवाई। नाम रखा सत्यशोधक। उनकी दुकान पर बहुत कम लोग जाते थे। साहू जी महाराज अपने सैनिकों के साथ पहुंचे और सबने चाय पी। पैसा भी दिया। देवदासी प्रथा, बाल विवाह, छुआछूत को रोकने के कानून बने, विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया। 1902 ई. में जातिगत एकाधिकार को समाप्त करके सभी पदों पर 50% वंचितों को आरक्षण की व्यवस्था कर दी। यह देश के इतिहास में पहला कदम था। छात्रावास खोले और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये छात्रवृत्ति की व्यवस्था की। खेलकूद को बढ़ावा दिया। 6 मई 1922 को जनप्रिय महाराजा को परिनिर्वाण की प्राप्ति हुई। 

आरक्षण के जनक, सामाजिक न्याय के पुरोधा, समतामूलक समाज का सपना देखने वाले साहू जी महाराज की आज 147वीं जयंती है। 

,,,नमन।

बुधवार, 9 जून 2021

ऐसे थे धरती आवा,,,बिरसा मुंडा जी।

 ऐसे थे धरती आवा,,,बिरसा मुंडा जी।

बिन कपड़ों का आधा तन, हाथों में तीर कमान और मन में जन, जंगल और जमीन बचाने के असीम सपने। ऐसे थे

आदिवासियों के धरती आवा अर्थात धरती पिता, लोक नायक, अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले वीर बिरसा मुंडा जी। आज शहादत दिवस है। उनका जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गाँव में हुआ था।

अंग्रेजों ने ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित करके जमींदारी व्यवस्था लागू कर दी। आदिवासियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। वो गाँव, जहां वे सामूहिक खेती करते थे, ज़मींदारों और दलालों में बांटकर नयी व्यवस्था लागू कर दी और फिर शुरू हुआ अंग्रेजों, जमींदार व महाजनों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का शोषण। इसके खिलाफ बिरसा मुंडा जी खड़े हो गये। उन्हें

आदिवासी इलाके में ब्रितानी हुकूमत का दखल नामंजूर था। वो तीर कमानों से अत्याधुनिक फौज वाली अंग्रेजी हुकूमत से लड़ रहे थे। 1894 में बारिश न होने से छोटा नागपुर में भयंकर अकाल और महामारी फैली गयी। उन्होंने पूरे समर्पण से अपने लोगों की सेवा की। इलाज के प्रति जागरूक किया और  ‘धरती आबा’ यानि ‘धरती पिता’ कहलाये।

उनकी एकता और परम्परागत लड़ाई अंग्रेजों को खल रही थी। अकाल पड़ने पर वे लगान माफ़ करने के लिये संघर्ष छेड़े हुये थे। बाद में उनको पकड़ लिया गया और 9 जून 1900 को ज़हर देकर सांसे छीन ली। वो भले ही मर गये हों, लेकिन 25 वर्षीय जीवन में उन्होंने जो किया, हमेशा याद किया जाएगा। 

आदिवासी साहित्यकार हरीराम मीणा उनकी याद में यह कविता लिखी।

‘‘मैं केवल देह नहीं

मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ

पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं

मैं भी मर नहीं सकता

मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता

उलगुलान!

उलगुलान!!

उलगुलान!!!’’

गोरों के जाने के बाद जब देश आजाद हुआ तो सरकारों ने जंगलों पर निर्भर इस आदिवासी समुदाय की तरक्की के लिये ठोस कदम नहीं उठाये। नये-नये वन अधिकार अधिनियम तो आते गये, मगर विकास की पटकथा उनको बेदखल और बंचित करके ही लिखी गयी। करीब 30 करोड़ की आबादी पर न तो मीडिया और न ही समाज की नजर है। सरकारें तो उनको मानव ही नहीं समझती हैं। मेरा मानना है ऐसे एकतरफा विकास नहीं हो सकता। 

महामारी में काल में लोगों को जंगल बचाने की थोड़ी सुध आयी। मगर जरूरी नहीं कि वनों को उजाड़ने के षड्यंत्र सब तक पहुंचे और भूलने की आदत किसको नहीं है।

,,,धरती आवा को नमन।