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शनिवार, 30 मार्च 2013

...ये हैं शिवराज सिंह की ख़ुशी के मायने !


बड़े बुजुर्ग कह गए हैं की द्विअर्थी वाणी और चरित्र वाले मित्र से एक दुश्मन अच्छा है। पिछले 9 साल के शासनकाल में भाजपा की का कथनी और करनी में अंतर बताने वाले जितने तथ्य सामने आए हैं, वे संभवत: यही इशारा करते हैं। महिलाओं, किसानों और गरीबों  को लेकर खासी आत्मीयता दिखाने वाले प्रदेश  की भाजपा सरकार की  हकीकत  इसके कदम उलट है। यह आरोप यदि विपक्ष  के नेता लगाते तो शायद इसे राजनीति से प्रेरित  करार दिया जाता, लेकिन इस वास्तविकता से पर्दा उठाने वालों में सरकार के मंत्री और भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस शामिल है। पिछले दिनों आरएसएस के एक पदाधिकारी साफ कहा की संघ सरकार से खुश नहीं है। इससे पहले भाजपा के ही एक वरिष्ठ नेता ने तो मुख्यमंत्री को घोषणावीर की ही उपाधि दे डाली थी। हालांकि उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा।
सर्कार के पिछले 9 साल के कार्यकाल पर नजर डालें तो वादे जितने सकारात्मक हुए हैं, परिणाम उतने ही नकारात्मक सामने आए हैं। इसका खुलासा खुद सरकार ने विधानसभा में किया है। सरकार महिलाओं  की खासी हितैषी बनती है, लाड़ली लक्ष्मी, कन्यादान और बेटी बचाओ आंदोलन जैसे कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपए खर्च किये जाते हैं, लेकिन यही सरकार बच्चियों के अपहरण और बलात्कार रोकने में नाकाम साबित हुई है। गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता ने खुद विधानसभा में स्वीकार किया कि सरकार पांच हजार बच्चियों का पता नहीं लगा सकी।  इनमें से कुछ मानव तश्करी के मामले हैं। बलात्कार के मामलों में मध्यप्रदेश वर्षों से नबंर वन का ताज पहने हुए है। हाल ही में दतिया में विदेशी महिला से हुए गैंगरेप का जब विरोध किया गया तो सरकर ने इसे स्वार्थ  की राजनीति  करार दिया। हालांकि भाजपा जब विरोध में थी, तब विरोध स्वरूप रेप पीड़ित महिला को सार्वजनिक सभा में लाने पर भी नहीं हिचकी थी।
खैर! भाजपा की कथनी  और करनी का अंतर यहीं खत्म नहीं होता। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जबसे मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली है, उनका एक ही ध्येय रहा है किसानी को लाभ का धंधा बनाना। लेकिन इसकी वास्तविकता भी वादे के एकदम उलट है। कर्ज में डूबे किसानों के लिए सरकार जगह-जगह मदद की घोषणा करती है लेकिन जब वक्त आता है तो मदद उद्योगपतियों की, की जाती है। प्रदेश में किसानों पर सबसे ज्यादा बिजली चोरी के केस हैं। यह आरोप नहीं है बल्कि सरकार की स्वीकारोक्ति है। ऊर्जा मंत्री ऊर्जा मंत्री राजेन्द्र शुक्ल विधानसभा में बताया था किए जनवरी 2009 से जनवरी 2011 तक उपभोक्ताओं पर  कुल 2 लाख 13605 बिजली चोरी के प्रकरण बनाए गए हैं। बिजली चोरी के कुल प्रकरण में 17429 गिरफ्तारी वारंट जारी किये गए। इस समयावधि में  किसानों के खिलाफ बिजली चोरी के सर्वाधिक 1 लाख 2994 प्रकरण दर्ज किये गए, जबकि घरेलू उपभोक्ताओं के खिलाफ 61976, व्यावसायिक 9796 और उद्योगों के खिलाफ 38839 प्रकरण दर्ज हुए। यानी किसानों  को चुन-चुनकर पकड़ा गया और उद्योगपतियों को नजरअंदाज ·किया गया।
इसके अलावा आम आदमी के लिए आशियाने की चिंता कर रही सरकार वास्तव में आम आदमी को जमीन से दूर करती जा रही है और उद्योगपतियों, बिल्डरों को खासा लाभ दे रही है। पिछले कुछ वर्षों में भोपाल में जमीन के सरकारी दाम लगातार बढ़ाए जा रहे हैं। यह नियमानुसार होते तब भी गलीमत थी, कलेक्टर गाईड लाइन में कई गुना तक दाम बढ़ा दिए जाते हैं। संदेह है कि उद्योगपतियों और बिल्डरों को लाभ पहुंचाने  की यह सुनियोजित चाल है। सत्ताधारी दल के विधायक धु्रवनारायण सिंह शहर में भू-माफियाओं की बढ़ती गतिविधियों का मामला उठा चुके हैं। दरअसल शहर में निजी बिल्डर तेजी से निर्माण कार्य में लगे हुए हैं। शहर के आसपास की जमीन बड़े पैमाने में खरीदी जा रही है। बिल्डर जो जमीन खरीदता है, सरकर की  मेहरबानी से अगले साल उस जमीन के दाम दो-तीन गुना हो जाते हैं। इसका सीधा लाभ बिल्डर को मिलता है और आम आदमी को कई गुना ज्यादा कीमत अपने आशियाने के लिए चुकानी पड़ती है। एक और बड़ा संदेह है, जिस पर आम आदमी का अभी तक ध्यान ही नहीं गया है। पिछले दिनों कैबिनेट की बैठक में एक फैसला किया गया था कि उद्योगपति आवंटित सरकारी जमीन को गिरवी रखकर कर्ज ले सकते हैं। यह बेहद खतरनाक फैसला है। अव्वल तो उद्योगपति जमीन गिरवी रखकर कर्ज ले लेगा, और बढ़ी हुई जमीन की कीमत पर उसे और अधिक कर्ज मिल जाएगा, लेकिन आवंटित जमीन को गिरवी लेकर कर्ज लेने से तो प्रदेश की वह पूरी भूमि ही बंधक हो जाएगी जो उद्योगपतियों को दी गई है। यदि उद्योगपति अपना व्यवसाय विकसित नहीं करता है और कर्ज नहीं चुका पाता है तो सरकार के पास प्रदेश में उस उद्योगपति का ऐसा क्या है जिससे वह उद्योगपति से कर्ज वसूल सके? वैसे भी यह जिम्मेदारी फिर बैंकों के कन्धों पर आ जाएगी। खुद को विकास पुरुष और प्रदेश को औद्योगिक क्षेत्र प्रचारित करने की गरज से सरकार जो फैसले ले रही है वह अंतत: प्रदेश के लिए दुखदायी ही साबित होंगे।

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

असम से आँखों देखी बराक वेळी का सच ----




                असम से आँखों देखा सच का हाल में आपको इसलिए बताना चाहता हूँ कि असम की छवि जिस तरह से भारत में बनी है उसे अब भारत के बाकि हिस्से एक अलग नज़रिए से देखने लगे है। जिसकी तस्वीर हमारे जेहन में कोकराझार जैसे मसले को लेकर बनी है या फिर असम लगातार हिंसक त्रासदी के चलते हमेशा से सुखिंयो में बना रहता है। नॉर्थ ईस्ट के सभी 7 स्टेट हिंसक त्रासदी से नहीं उभर पा रहे है। असम में कांग्रेस की तीसरी बार सरकार होने से असम की जनता हमेशा से कांग्रेस के हाथो ठगी जाती है। असम में होने वाले छोटे से छोटे चुनाव को यहाँ की भोली भाली जनता उसे एक बड़े पर्व के रूप में देखती है और देखे भी क्यों ना उन पर लाखो का खर्च जो किया जाता है यहाँ की जनता के हर एक वोट को पैसे में तोलकर जो देख जाता है। हाल ही में हुए असम पंचायत चुनाव में पैसे को पानी की तरह किस तरह बहाया गया है इसकी बानगी मैंने खुद अपनी आँखों से देखी। जब एक ग्राम पंचायत बनने के लिए  30 लाख रूपये और एक ब्लाक प्रमुख बनने के लिए 60 लाख रूपये खर्च कर सकता है तो असम के विकास की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है ......

असम के बराक वेळी के तीन जिले (कछार, करीमगंज, हैलाकांडी ) विकास की हालत पर आज भी रोने रा रहे है। असम के इन इलाको की कांग्रेस सरकार को कोई सुध नहीं है। कांग्रेस पार्टी को इन्ही इलाको में सबसे ज्यादा सीटें भी मिलती है और हाल ही में हुए असम पंचायत चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सबसे ज्यादा उम्मीदवार यही से जीते लेकिन हर बार की तरह बराक वेळी हमेशा से अपने को ठगा हुआ महसूस करती है। यहाँ का युवा वर्ग कांग्रेस पार्टी के हाथो की कठपुतली बना हुआ है कारण बस यही की यहाँ के सभी युवा वर्ग पहले ही वोट के बदले नोट में तब्दील हो जाते है। इन इलाको में सर्व शिक्षा अभिमान के तहत प्राइमरी स्कूलों की हाताल देखने पर ही पता चलता है कि पैसे का किस तरह से दुरूपयोग किया जाता है बेरोजगारी और भ्रष्टाचार अपनी चर्म  सीमा पर है। आखिर जब मैंने इन इलाको को देखा तो में एक बार सोचने पर इसलिए मजबूर हो गया है कि आखिर असम की जनता ने कांग्रेस को कैसे तीसरी बार सत्ता तक पहुचाया। इन तीनो इलाको में पनप रहे भ्रष्टाचार को लेकर असमी मीडिया क्यों चुप है और इन इलाको में दलितों एवं जनजतियों पर होने वाले उत्पीडन के मामले भी सबसे ज्यादा यही है लेकिन असम की मीडिया के लिए यह कोई खबर नहीं बनती आखिर क्यों ? क्या असमी मीडिया अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रहा है या फिर एक खास वर्ग तक ही सीमित है। बराक वेळी के अलावा आज भी यहाँ के अधिकतर हिस्सों के हालत कुछ ज्यादा खास नहीं है। यहाँ बड़े से बड़ी घटना कब और कैसे घट जाये यहाँ की लोकल और मेन स्ट्रीम मीडिया को कुछ पता ही नहीं चल पाता। लेकिन दिल्ली के मीडिया स्टूडियो में बेठाकर जो बहस की जाती है उससे असम की समस्या का हल नहीं निकल सकता।और यहाँ के बड़े से बड़े मामले को गन्दी राजनीती के चलते रफा - दफा कर दिया जाता है।  

बराक वेळी के हाफलोंग में पढने वाले एक छात्र से हुई बातचीत में पता चला कि असम में मीडिया की पहुच कुछ ज्यादा खास नहीं है इसकी पहुँच सिर्फ शहरो और शहर के आसपास वाले इलाको तक है और में एक मीडिया शोधार्थी होने नाते यह कह सकता हूँ कि असम में मीडिया की पहुँच मात्र 40 %फीसदी तक है बाकि 60% असम की जनता अभी भी इससे अनजान है। आखिर इतने बड़े गेप की भरपाई किस तरह से की जा सकती है। यह बड़ा ही एहम सवाल है असम की अवाम के लिए। असम में परिवहन भी एक बड़ी समस्या है जिसके कारण गावों और शहरों के बीच का फासला इतना ज्यादा है कि ये चाह कर संपर्क नहीं कर सकते। असम की जनता के लिए दिल्ली इतनी दूर है कि वो गुवाहाटी को ही दिल्ली समझ लेते है। असम का परिवहन विभाग हाथ पर हाथ धरे न जाने किसका इंतज़ार कर रहा है। इसलिए इन इलाकों में अधिकतर मौतें रास्ते में दम तोड़ देने से ही हो जाती है। असम का एक ओर सच अभी यह भी है कि जो मेरी यात्रा का हिस्सा रहा और जिसे में कभी भुलाया नहीं सकता। रेल मंत्री पवन कुमार बंसल ने एक सौ छह नई ट्रनों को चलाने की घोषना के साथ साथ यात्रियों की सुरक्षा के लेकर भी कुछ वादे किये।  लेकिन एक दिन के बाद ही यूपी के मुज़फ्फरनगर से चलती शताब्दी ट्रेन में से एक महिला को नीचे फेक दिया गया जिससे उसकी मौत हो गयी। आखिर पवन कुमार बंसल की घोषणा एक दिन में ही क्यों धरासायी हो गयी? असम की रेलवे का सच अब आगे----          

गुवाहाटी से करीब एक सौ अस्सी किलोमीटर की दूरी पर लामडिंग सिटी है जहा से सिलचर जाने के लिए ट्रेन मिलती है। सिलचर तक पहुँचने का बस एक मात्र यही रास्ता है जहा से सुबह और शाम में मात्र दो ट्रेने चलती है अगर एक ट्रेन छूट जाये तो पूरे` दिन का वेट करना पड़ता है और शाम में ट्रेन छूट जाये तो पूरी रातभर वेट करना पड़ेगा। लामडिंग से सिलचर की दूरी मात्र दो सौ सोलह किलोमीटर है। वैसे यह दूरी ट्रेन के हिसाब से कोई ज्यादे मायने नहीं रखती लेकिन इस रूट पर लामडिंग से सिलचर के रेल प्रोजेक्ट का काम करीब पिछले पच्चीस सालो से चल रहा है। जिसका पच्चीस फीसदी भी काम अभी तक पूरा नहीं हुआ यह काम अब तक इसलिए पूरा नहीं हो पाया है कि स्थानीय नेताओं की यहाँ दादागिरी चलती है और यह सारा खुला खेल तरुण गोगई सरकार की आखों के सामने हो रहा है। गुवाहाटी से ट्रेन दुवारा सिलचर तक पहुँचने में करीब 18 घंटे लगते है इसीलिए यहाँ की जनता के लिए गुवाहाटी ही दिल्ली है। रेलवे विभाग के लिए ये बड़े शर्म की बात है। इसीलिए बराक वेळी के तीनो जिले (कछार, करीमगंज, हैलाकांडी ) आज तक नही उभर पा रहे है। जिस रेल प्रोजेक्ट पर भारतीय रेलवे करोडो रूपये खर्च करती है और रेल मंत्री के संसद में बैठकर बड़ी - बड़ी  घोषणाये करते है क्या उससे भारतीय रेलवे के हालत सुधर पाएंगे? कहना मुश्किल है। रेल बजट के पूरे दिन मीडिया जगत सुबह से ही रेल बजट को फोकस करने में लगा हुआ था।  क्या कभी असमी मीडिया या मेन स्ट्रीम ने इस मुद्दे को संसद तक पहुचाया? अगर ये मुद्दा देश की संसद के पटल रखा जाये तो बराक वेळी की हालत काफी सुधर सकती है। अगर रेलमंत्री को भारतीय रेल का इतना ही ख्याल है तो फिर बराक वेळी के कभी आकर आकर देखे कि किस तरह की राजनीती चलती है। मंत्री जी अगर ये रेलवे प्रोजेक्ट पूरा हो जाये तो बराक वेळी की जनता अपने को भारत से जुडा हुआ महसूस करेगी। वरना बराक वेळी में बांग्लादेश से आये हुए माइग्रेंट लोगो की तादात लगातार बढती जा रही है ओर देख लेना एक दिन ऐसा आएगा कि भारत का यही हिस्सा बांग्लादेश का हिस्सा बनकर रह जायेगा।