मंगलवार, 18 जनवरी 2011
वक़्त कि कसौटी पर दम तोड़ती एक फिल्म
शकील "जमशेदपुरी"
http://www.gunjj.blogspot.com/
शाम के करीब सात बजे थे. University से रूम पर आया और FM आन किया. गाना आ रहा था- "पहली-पहली बार मोहब्बत की है....." गाने की इस बोल को सुनते ही इस फिल्म के दृश्य आँखों के सामने तैरने लगे. यह गाना "सिर्फ तुम" फिल्म का है. यह फिल्म पिछली सदी के अंतिम दशक के अवसान के समय रिलीज़ हुई थी. 1999 में आयी संजय कपूर और प्रिय गिल अभिनीत यह फिल्म बेहद सफल रही थी.
इस फिल्म को पहली बार मैंने 2003 में देखा था. तब में 9वी कक्षा में पढता था. शुक्रवार को दूरदर्शन पर देखे गए इस फिल्म के दृश्य दिल पर अंकित हो गए. फिल्म में दिखाया गया था कि किस तरह एक लड़का, एक लड़की को बिना देखे, सिर्फ पत्राचार के ज़रिये ही प्यार करने लगता है. यदा-कदा दोनों एक दूसरे से बात भी कर लेते थे, पर चेहरे से अनजान रहते थे. सिर्फ कल्पनाओं में ही दोनों का प्यार परवान चढ़ता है. फिल्म में दोनों एक-दूसरे से कई बार मिलते भी हैं, पर पहचानने से महरूम रह जाते हैं. फिल्म का अंत रेलवे स्टेशन पर होता है, जहाँ लड़की, लड़के को दिए अपने गिफ्ट (स्वेटर) से पहचान लेती है. लड़की का चलती ट्रेन से कूद कर, लड़के के जानिब दौड़ कर आने वाला दृश्य मुझे आज भी रोमांचित करता है.
आज एक दशक बाद यह फिल्म कितना अप्रसांगिक सा लगता है. क्या आज के दौर में ऐसा प्यार संभव है? Facebook, Orkut, E-mail, 3G, Video Confrencing वगैरह के ज़माने में बिना एक-दूसरे को देखे प्यार मुमकिन है? प्यार का स्वरुप कितनी तेज़ी से बदला है और तकनीक ने इनके मूल्यों पर भी असर डाला है. उस फिल्म में दोनों के मिलने की ख्वाहिश या एक-दूसरे को देखने की इच्छा अपने चरम पर होती थी. इन्हीं ख्वाहिशों ने दोनों के बीच आत्मीय लगाव पैदा कर दिया था. केरल और नैनीताल की भौगोलिग़ दूरी ने उन दोनों के दिलों को बेहद करीब ला दिया था. आज के दौर में यह संभव नहीं. आज के प्यार में मिलने की ख्वाहिशें होती ही कहाँ है. क्यूंकि स्कूल और कॉलेज में दोनों साथ-साथ रहते हैं. उसके बाद देर रात तक किसी रेस्तरां, पार्टी या बार में समय बिताते हैं. रात में जब तक जागते हैं, फ़ोन पर बातें होती रहती है. अगली सुबह तो फिर मिलना है ही. ऐसे में मिलने की ख्वाहिशें पैदा होने का समय ही कहाँ मिलता है! आज भौगोलिक दूरियां एक-दूसरे को करीब नहीं लाती, बल्कि सदा के लिए दूर कर देती है. नए शहर में उसे नया प्यार मिल जाता है. वाकई...वक़्त की कसौटी पर कितना अप्रासंगिक हो गया है वह फिल्म!!!!!!!!!
फिल्म में एक संवाद है, जो पूरी फिल्म का निचौड़ है. एक दृश्य में लड़की कहती है (ठीक से याद नहीं)- "लोगों का प्यार आँखों से शुरू होकर दिल तक पहुँचता है. पर हमारा प्यार दिल से शुरू हो कर आँखों तक पहुंचेगा." इस संवाद के पहले भाग की प्रसंगिकता भले ही थोड़ी बहुत बची हो, पर दूसरा भाग तो आज महज़ कल्पना ही लगता है. सच्चाई तो यह है कि आज का प्यार आँखों से नहीं, बल्कि चेहरे से शुरू होकर, दिल तक नहीं पहुँचता है, बल्कि बेडरूम में जाकर ख़त्म हो जाता है.
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यही कारण है की आज के प्रेम में वाह ठहराव नहीं हो देखने को मिल रहा है. वह प्रेम आत्मा का था , यह प्रेम कुछ और ही है . सफल लेख है .
जवाब देंहटाएंThanks.....////
जवाब देंहटाएंbada prasangik hai ye mudda...yuvaon ko prerna leni chahiye
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