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शकील "जमशेदपुरी"
बीजेपी एक बार फिर अपनी घिसी-पिटी सियासत लेकर मैदान में है. वह 26 जनवरी को लाल चौक पर तिरंगा फहराने की जिद पर अड़ी हुई है. इससे पहले 1992 में बीजेपी के एक अग्रिम पंक्ति के नेता मुरली मनोहर जोशी ने इसी तरह के एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. तब उनहोंने अपनी 42 दिनों की मैराथन यात्रा के तहत पूरे देश में घूम-घूम कर देशभक्ति का ताबड़तोड़ प्रोपेगेंडा किया था. पर उस वक़्त भी बीजेपी के हाथ कुछ नहीं लगा. ना तो कश्मीर मुद्दे का कोई समाधान हुआ, ना वहां के पंडितों का मसला हल हुआ, और न ही वहाँ के हिंसा पर उतारू तबके के संकल्प में कोई कमी आई. बीजेपी की ये नीति समझ से परे है कि आखिर कश्मीर एक राष्ट्रीय समस्या है, पर वह उसे सांप्रदायिक रंग देने पर क्यूं तुली हुई है? इससे तो वहां के अलगाववादियों को हौसला मिलता है, जो कश्मीर को एक धार्मिक मुद्दा बनाने पर आमादा हैं. एक बार फिर बीजेपी ने लाल चौक को निशाना बनाया है. आईए इसके पीछे के निहितार्थ का जायजा लेते हैं.
सबसे पहले तो हमें बीजेपी के परेशानियों को समझना होगा. असीमानंद के कथित स्वीकोरोक्ति के बाद बीजेपी के आला नेता ज़हनी तौर पर बहुत परेशान हो गए हैं. आतंकवादी गतिविधियों में संघ परिवार का नाम आने से अब बीजेपी के नेताओं के मुंह में वो ज़हर नहीं रहा, जो वो अक्सर दहशतगर्दी के नाम पर उगला करते थे. कल तक जिनके होंठ "इस्लामी आतंकवाद" कहते-कहते दुखते नहीं थे, आज आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़ने पर ऐतराज़ कर रहे हैं. बीजेपी के वो नेता जो अपने सांप्रदायिक नीतियों पर धर्मनिरपेक्षता का मखमली पर्दा डाल कर कहते थे कि यह सच है कि सारे मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते, पर सारे आतंकवादी मुस्लिम होते हैं. अब तो यह कहने का मौका भी उनके हाथ में नहीं रहा. इसके उलट अब उन्हें यह सुनने को मिल रहा है कि यह सच है कि सारे संघी आतंकवादी नहीं है, लेकिन जितने आतंकवादी पकड़े जा रहे हैं, वो संघी ही क्यूं है? ऐसे में बीजेपी घबरा गयी है और इसी घबराहट में वह 10 साल पुरानी सियासत को फिर से जिंदा करने की फ़िराक में है. इस दिशा में उन्होंने लाल चौक पर तिरंगा फहराने कि घोषणा कर के वहां की हालत बिगाड़ने कि कोशिश कर रही है.
सवाल उठता है कि आखिर लाल चौक ही क्यूं? भारत में ऐसे कई क्षेत्र हैं जहाँ तिरंगा नहीं फहराया जाता. वहां सिर्फ लाल झंडे की तूती बोलती है. बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, छत्तीसगढ़ और यहाँ तक कि मध्यप्रदेश के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में 15 अगस्त और 26 जनवरी पर तिरंगा नहीं फहराया जाता है. वहां तिरंगे कि ज़गह लाल झंडा चलता है. वोट देने वालों का क्या हश्र होता है, यह किसी से छुपा नहीं है. क्या बीजेपी के नेताओं में इतनी हिम्मत है कि वो इन इलाकों में जाकर तिरंगा फहराए? सच्चाई तो यह है कि इन इलाकों में तिरंगा फहराने से उन्हें कोई सियासी लाभ मिलने वाला नहीं है. अगर बीजेपी दोस्ती और देशभक्ति कि भावना से लाल चौक पर तिरंगा फहराना चाहती है, तो उन्हें यह काम नक्सली इलाकों में भी करना चाहिए.
नक्सली क्षत्रों में तो भारत का कानून तक नहीं चलता है. वहां तो उन्होंने अपनी अदालतें कायम कर रखी है. बजाब्ता उनकी जेलें भी हैं. वहां तिरंगा फहराना किसी के बस की बात नहीं है. इन इलाकों के मुकाबले तो कश्मीर में हालात फिर भी बेहतर है. श्रीनगर के बख्शी स्टेडियम और ज़म्मू के मौलाना आज़ाद स्टेडियम में गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर झंडोत्तोलन के कार्यक्रम होते हैं. कहने का आशय यह है कि तिरंगे की ज़रुरत लाल चौक से ज्यादा नक्सलियों के लाल इलाकों में है. क्या बीजेपी इस बात को समझेगी?
बीजेपी की जानिब से लाल चौक पर तिरंगा फहराने की घोषणा से ज़म्मू-कश्मीर की भारतीय जनता पार्टी यूनिट बहुत खुश है. पर असली ख़ुशी तो वहां के अलगाववादी गुटों को मिली है. उन्हें पता है की ऐसा कर के बीजेपी उन्हीं का काम आसान कर रही है. अलगाववादी तो ये चाहते हैं कि कश्मीर मसले को धार्मिक रूप दिया जाय. कभी उन्होंने कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें घाटी छोड़ने पर मजबूर कर दिया. क्यूंकि वो चाहते थे कि कश्मीर मसले को मज़हबी रंग दिया जाए. बीजेपी ने भी हर बार अलगाववादियों की शाजिसों को कामयाब करने का ही काम किया. उन्होंने सिर्फ कश्मीरी पंडितों पर ढाए गए ज़ुल्म का विरोध किया. क्या अलगाववादियों ने घाटी के मुसलामानों पर ज़ुल्म नहीं ढाए? क्या कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की तुलना में ज्यादा कश्मीरी मुसलमानों का क़त्ल नहीं हुआ? क्या अनगिनत कश्मीरी मुसलमान वादी छोड़ने पर मजबूर नहीं हुए हैं? क्या अनगिनत कश्मीरी मुसलमान नहीं हैं, जो फिर से घाटी में जाकर बसने से डरते हैं? क्या कश्मीर में मारे गए मुस्लिम रहनुमाओं को वहीं के दहशत पसंदों ने नहीं मारा?
एक बेहद अहम चीज यह कि 1992 में लाल चौक पर तिरंगा फहराने के कुछ ही वर्षों बाद बीजेपी को सत्ता में आने का मौका मिला. इस दौरान उन्होंने न तो कश्मीर मसले का कोई समाधान किया और न ही वहां से पलायन पर मजबूर कश्मीरी पंडितों के दुखों को ही दूर किया. तो फिर आज किस मुंह से बीजेपी लाल चौक को अपनी सांप्रदायिक सियासत का अखाड़ा बनाना चाहती है? फिरकापरस्ती का ये मुखौटा ज्यादा दिन तक साथ देने वाला नहीं है. बीजेपी को चाहिए कि वो अपनी ख़राब होती छवि को सुधारने के लिए इसमें देशभक्ति के असली रंग भरे. चेहरे पर देशभक्ति का मुखौटा लगा कर जोकर बनने की कोशिश न करे.
lge raho dear
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