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रविवार, 30 जनवरी 2011

समाजसेवा पर डॉ. विनायक सेन को सबसे बड़ा सम्मान ‘‘उम्र कैद’’

सुना है कि हम स्वतंत्र हैं। गत कुछ दिन पूर्व 62वां गणतंत्र दिवस मनाया गया और 25 जनवरी को पद्म भूषण व पद्मश्री पुरस्कार की हकदार विभूतियों की एक तालिका तैयार की गयी। जिसमें पद्म भूषण से सुषोभित किये जाने वालों में राजश्री बिड़ला, षोभना रोड़ा का नाम चयनित किया गया है, समाजसेवा के लिए। पद्म श्री के लिए समाजिक कार्यकताओं जकिन अरपुत्थम, नमिता चांडी, षीला पटेल, अनीता रेड्डी, कानूभाई हंसमुखभाई टेलर के नाम चुने गये हैं लेकिन एक सामाजिक कार्यकर्ता ऐसा है जिसे सबसे अलग और सबसे बड़ा सम्मान प्राप्त हुआ। पिछले वर्ष 24 दिसम्बर 2010 को इन्हें आईपीसी की धारा 124ए से नवाजा गया। हां, धारा 124ए जिसका अर्थ है ‘राष्ट्रद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास’। उन्हें यह सम्मान रायपुर की अदालत ने दिया। क्रिष्चियन मेडिकल कॉलेज वेल्लौर से एमबीबीएस में गोल्ड मेडिलिस्ट और जोनाथन मैन पुरस्कार से सम्मानित पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ।विनायक सेन ही वह सम्मानित व्यक्ति हैं जिन्हें देशद्रोह की आंड़ में निचली अदालत ने उम्र कैद की सजा सुनायी है। कराण सिर्फ इतना ही है कि इन्होंने अपने अन्य कार्यकर्ताओं के साथ जनता की षांति के लिए सरकार के अन्याय और दमन के खिलाफ गांधीवादी तरीके से विरोध किया था। डॉ। विनायक सेन लगभग 30 सालों से छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के स्वास्थ्य को लेकर कार्य कर रहे थे। इसमें कोई शक नहीं है कि छत्तीसगढ़ सरकार ने इनके कार्य को देखते हुए स्वास्थ्य और मानवाधिकार की प्रदेश में बनी ग्रामीण स्वास्थ्य समितियों का प्रमुख बना दिया था लेकिन 2005, रमन सिंह की सरकार में छत्तीसगढ़ में बढ़ती नक्सली गतिविधियों को रोकने के लिए आदिवासियों की एक सेना ‘सलवा जुडूम’ बनायी गयी, नक्सलवादियों के दमन के लिए, मतलब आदिवासियों के दमन के लिए, गलत इरादों की करनी भी गलत ही होती है राज्य में हिंसा ने जन्म ले लिया और उन्होंने इसी बात का विरोध शुरू कर दिया था। ये सरकार के गले ही हड्डी तब बने जब इनके समर्थकों की संख्या और आदिवासियों की पीड़ा के विरोध में सरकार के खिलाफ इनके संघर्ष का कद और बढ़ता गया। सत्तासीन झुल्लायी उसी छत्तीसगढ़ सरकार ने तुरन्त एक फरमान जारी कर दिया कि जो कोई सरकार काम में हस्तक्षेप करेगा उसे किसी सूरत में नहीं छोड़ा जाएगा।‘‘हम लोकतंत्र में रह रहे हैं संविधान ने हमें मौलिक अधिकार इसीलिए दिए है ताकि इसका प्रयोग कर हम समाज में घटित हो रहे किसी भी असामान्य कृत का विरोध कर सके, शान्तिप्रद तरीके से’’, ये सोच लेकर डॉ। विनायक सेन नहीं रूके और विरोध जारी रहा। राज्य की सारी शंक्तियाँ जिसके पास निहित हों उस सरकार ने इनका कोपभाजन करने के लिए इनके खिलाफ सबूत तैयार किये और अदालत का रास्ता दिखा दिया। अदालत में कहा जाता है कि डॉ। विनायक सेन का सम्बन्ध माओवादी नारायण सांयाल से है। नाराण सांयाल रायपुर जेल में बंद हैं और विनायक सेन 17 महीनों में 33 बार उनसे मिलने गये लेकिन इस बात को नज़रअन्दाज कर दिया गया कि मिलने की अनुमति उन्हें जेल प्रशासन ने ही दी थी और भी कई इसी तरह के सबूत अदालत में पेश किये गये जो अधूरे थे परन्तु अदालत ने उन्हें इन्हीं सबूतों के बिनाह पर देशद्रोही बताकर उम्र कैद की सजा सुना दी। आदलत का यह निर्णय स्वयं पर ही एक प्रशनचिह्न लगाता है क्योंकि माओवादी संगठन से सम्बन्ध रखने वाले को गैरकानूनी गतिविधि निरोधक कानून 1967 यूएसपीस की धारा 139 के तहत 10 साल की कैद का ही प्रावधान है। तो विनायक सेन ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया कि उन्हें उम्र कैद दी गयी?लगता है कि डॉ. विनायक सेन से जुड़े लोगों से सरकार ने अब तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी छीन ली है। षायद इसीलिए विनायक सेन की पत्नी और मानवाधिकार कार्यकर्ता इलीना सेन के खिलाफ यह आरोप मढ़ते हुए वृद्धा पुलिस थाने में मामला दर्ज कर लिया गया कि उन्होंने अपनी अगुआई वाले एक संगठन की ओर से आयोजित समारोह का दुरूपयोग किया और अपने पति समेत नक्सलियों के प्रति कथित सहानुभूति रखने वाले कुछ लोगों के लिए समर्थन मांगा है।मतलब सरकार द्वारा दबाये कुचले जा रहे आदिवासियों जिन्हें सरकार नक्सली कहती है, के प्रति कोई सहानुभूति पैदा नहीं कर सकता। जिससे एक बात तो साफ सिद्ध होती है कि राज्य और केन्द्र सरकार पिछले दो सालों से नक्सलियों को, शान्ति तरीके से सम्बन्ध स्थापित कर, मुख्यधारा से जोड़ने का जो प्रयास कर रही है वह सिर्फ एक दिखावा है और पी. चिदम्बरम की नक्सलियों के प्रति चिन्ता भी मिथ्या है।इन बातों से इतर अगर हम ध्यान दें तो सरकार के कोपभाजन में विनायक सेन के साथ सीमा आजाद़ और दंतेवाड़ा में 17 सालों से मानवाधिकार और आदिवासियों के हितों के लिए गांधीवादी तरीके से संघर्ष कर रहे हेमंत कुमार जैसे कार्यकर्ताओं के नाम भी जुड़े हैं। हमें विनायक सेन के साथ सीमा आजाद़ और हेमंत कुमार जैसे कार्यकर्ताओं को भी न्याय दिलाने के लिए मुहिम छेड़नी होगी जिन्हें ये सरकार गुमनामी के अन्धेरे में ढ़केलने के लिए प्रयास रत है।कौन कहता है कि हम स्वतंत्र हैं। हम सिर्फ स्वतंत्र शब्द कहने भर के लिए ही स्वतंत्र हैं।
लगता है कि अब एक खास इश्तेहार छपावाया जाएगा जिसमें लिखा होगा कि जिसे साफ-सुथरी और सच्ची समाजसेवा करनी है सिर्फ वही व्यक्ति समाज सेवा कर सकता है और इसके बदले में उन्हें सम्मान के तौर पर सरकार के अत्याचार-विरोध, देशद्रोही की संज्ञा और उम्र कैद के पुरस्कार से नवाजा जाएगा।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर हाई कोर्ट में दार याचिक के आधार पर सुनवाई शुरू हो चुकी है। अब देखना ये है कि हाई कोर्ट डॉ। विनायक सेन के लिए किस सम्मान को चुनती है।
‘‘1947 में बात हुई थी स्वतंत्रता की शक्ति के हस्तान्तरण की नहीं’’

ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते...


 विवेक 
www.gaanvtola.blogspot.com   
नोज़ फॉर न्यूज़ इस मुहावरे के मतलब से अपनी बात शुरू करता हूँ. मुहावरे का मतलब एक पत्रकार के भीतर कुत्ते की भांति ख़बरों को सूंघने की क्षमता से है.  और खबर शब्द का आशय सूचना से है. इन दिनों कई नवयुवक पत्रकार के रिज्यूमे को मै (एक कुत्ता ) कायदे से देख और समझ रहा हूँ , जिसमे नवयुवक इस बात का प्रमुखता से ज़िक्र कर रहा है. की उसके भीतर यह क्वालिटी मौजूद है. कई रिज्यूमे में तो नव युवा पत्रकार कई किस्म के कुत्तों से अपनी तुलना भी करते है. क्यूंकि पाठशाला में मालिक ने बताया है. इन कुत्तों के नाम बहुत कठिन है. इसलिए इनके नामों को लिख नहीं रहा हूँ . हाँ इतना ज़रूर बता सकता हूँ की उनके नामों से वे विदेशी लगते हैं. क्या रिज्यूमे में कुत्तो के ज़िक्र से सामने वाले को मतलब हम जिन मालिको को अपना रिज्यूमे देते हैं उस पर इसका कुछ असर होता होगा. निश्चित होता होगा. शायद वह इस सोच में रहता होगा की कुत्ता किस वेराइटी का है. क्यूंकि वह यानी मालिक जब किसी संस्थान में नवयुवा पत्रकार को शिक्षा देने जाता है  तो नवयुवा के स्किल को निखारने के लिए नोज़ फॉर न्यूज़ का ज़िक्र ज़रूर करता है ताकि नए व् शानदार कुत्ते तैयार हो सके. और एक समय के बाद ये मालिक  नए व् शानदार कुत्ते तैयार कर देते है. लेकिन दुर्भाग्य की कुछ नए कुत्तों की क्षमता धीरे-धीरे कर्मभूमि पर क्षीण होने लगती है. और फिर इन्ही के बीच से निकले कुछ कुत्ते आवारा और बेकार हो जाते हैं, और कुछ पालतू हो जाते हैं. पालतू  प्राकृतिक रूप से वफादार होते है. मालिकों का ऐसा मानना है. लेकिन जो आवारा और बेकार हैं उनके लिए फैज़ अहमद फैज़ की यह रचना...कुत्ते

कुत्ते 
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 ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते
कि बख्शा गया जिनको *जौके-गदाई
ज़माने की फिटकार *सरमाय इनका
जहां- भर की धुत्कार इनकी कमाई

न आराम शब् को, न राहत सवेरे
गलाज़त में घर, नालियों में बसेरे
जो बिगड़े तो इक -दूसरे से लड़ा दो
ज़रा एक रोटी का टुकड़ा दिखा दो

ये हर एक की ठोकरे खाने वाले
ये फाकों से उकता के मर जाने वाले
ये *मजलूम - *मखलूम गर सर उठाये
तो इंसान सब सरकशीं भूल जाए

ये दुनिया को चाहे तो अपना बना ले
ये *आकाओं की हड्डियाँ तक चबा ले
कोई इनको *एहसासे- ज़िल्लत दिला दे
कोई इनकी सोई हुई दम हिला दे
ये गलियों के आवारा बेकार कुत्ते..   

कठिन शब्दों के मायने ---
*जौके-गदाई-  भीख मांगने की रूचि 
*सरमाय- पूँजी 
*मजलूम - दलित-पीड़ित
 *मखलूम- प्राणी 
 *सरकशी-घमंड 
*आकाओं- मालिकों 
*एहसासे -ज़िल्लत --  अपमान का एहसास

मंगलवार, 25 जनवरी 2011

.....सीरत बदलनी चाहिए

गणतंत्र दिवस से बस एक दिन पूर्व राजधानी में गणतंत्र दिवस की स्कूल रैली जैसा माहौल दिखा..पीपुल्स समाचार की तरफ से आयोजित भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाई जा रही एक मुहीम के तहत इस रैली का आयोजन किया गया...रैली बोर्ड ऑफिस चौराहे से शुरू हुई और बीजेपी कार्यालय के पास जाकर रुक गई...निश्तित रूप से एक सराहनीय कार्य...भ्रष्टाचार को मिटाने का...लेकिन एक प्रश्न भी मष्तिष्क में आता है...की इस रैली का क्या प्रायोजन...क्या हम कलम के दम पर इस मुहीम को नहीं छेड़ सकते थे...पीपुल्स समाचार ने कई दिनों तक इस मुहीम को कलम के द्वारा भी जिलाए रखा...लेकिन समापन के मौके पर...जहाँ कई सडको पर सुरक्षा व्यवस्था चौकस थी..तो कई सडको को गणतंत्र दिवस के कारण बंद भी किया गया था...ऐसे में युवाओं का एक लम्बा हुजूम राजधानी की सड़कों पर निकल रहा है....तो यातायात व्यवस्था चरमरानी थी...वैसा ही हुआ...अब हम और लोगों से अलग कैसे हुए...जब चौथा स्तम्भ भी समाज,प्रशासन के कार्यों में सहयोग देने की बजाय...परेशानी कड़ी कर दे तो निश्तित रूप से सोचना पड़ेगा...मेरा इरादा खबर देना या आलोचना करना नहीं है...लेकिन फिर भी एक कर्तव्यबोध के नाते फ़र्ज़ मेरा मुझे ऐसा लिखने को मजबूर कर रहा था...एक प्रशंसनीय प्रयास...मेरा इरादा था की 25 जनवरी की संध्या पर लिखू...कि सूरत बदलनी चाहिए...लेकिन फिर सोचा..शायद अब ये पंक्ति प्रासंगिक नहीं रही...अब सीरत बदलनी होगी...क्यों कि भ्रष्टचारिता के हमने कई आयामों को छुआ भी और देखा भी...बोफोर्स घोटाला,कैफीन बॉक्स घोटाला,चारा घोटाला,सुगनी देवी जमीं का घोटाला,ओलम्पिक खेलों में घोटाला...और फिर भी घोटालों कि कमी महसूस की गई..तो ए.राजा की जेब से घोटाले का जिन्न ही बाहर निकल आया...इतना बड़ा घोटाला था..कि एक मदुर तो रकम सुनते ही बेहोश हो जाए...एक कर्मचारी इतनी रकम देखकर हार्ट अटैक का शिकार हो जाये...लम्बी लिस्ट है...सूरत तो बदली...फिल्मों की शूटिंग के शोट्स क़ी तरह ज्यों ही समय की रफ़्तार ने एक्शन बोला..एक नई सूरत...नए शोट्स के साथ...कट हुआ..एक्शन बोला दूसरी सूरत....लेकिन सभी की सीरत एक सी रही....भ्रष्टाचार में देश को पहला स्थान दिलाना है...और ये कोशिश आज तक जारी है...लोगों की अगर सीरत बदल जाए...कुछ चिंतन गरीबों..देश के लिए किया जाए तो कुछ सार्थक होगा...ऐसे प्रदर्शन...
लेकिन पता नहीं कब हमारा अंतर्मन जागेगा...हम कब पैसों की जगह नैतिक मूल्यों को तरजीह देंगे...ये किसी को नहीं मालूम...लेकिन करना होगा दोस्तों...आजादी का एक लम्बा अरसा ब्र्र्ट जाने के बाद भी अगर सूरत और सीरत अनहि बदल पाई..तो दोष किसका?हम सबका दोस्तों....हमें नेतील मूल्यों क़ी दुहाई नहीं देनी है...इन्हें बचाना भी होगा....इसी आवाहन के साथ....
गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाइयाँ...

रविवार, 23 जनवरी 2011

लाल चौक ही क्यूं? लाल इलाक़ा क्यूं नहीं?


फोटो गूगल के सौजन्य से.

शकील "जमशेदपुरी" 
बीजेपी एक बार फिर अपनी घिसी-पिटी सियासत लेकर मैदान में है. वह 26 जनवरी को लाल चौक पर तिरंगा फहराने की जिद पर अड़ी हुई है. इससे पहले 1992 में बीजेपी के एक अग्रिम पंक्ति के नेता मुरली मनोहर जोशी ने इसी तरह के एक कार्यक्रम का आयोजन किया था. तब उनहोंने अपनी 42 दिनों की मैराथन यात्रा के तहत पूरे देश में घूम-घूम कर देशभक्ति का ताबड़तोड़ प्रोपेगेंडा किया था. पर उस वक़्त भी बीजेपी के हाथ कुछ नहीं लगा. ना तो कश्मीर मुद्दे का कोई समाधान हुआ, ना वहां के पंडितों का मसला हल हुआ, और न ही वहाँ के हिंसा पर उतारू तबके के संकल्प में कोई कमी आई.  बीजेपी की ये नीति समझ से परे है कि आखिर कश्मीर एक राष्ट्रीय समस्या है, पर वह उसे सांप्रदायिक रंग देने पर क्यूं तुली हुई है? इससे तो वहां के अलगाववादियों को हौसला मिलता है, जो कश्मीर को एक धार्मिक मुद्दा बनाने पर आमादा हैं. एक बार फिर बीजेपी ने लाल चौक को निशाना बनाया है. आईए इसके पीछे के निहितार्थ का जायजा लेते हैं.
सबसे पहले तो हमें बीजेपी के परेशानियों को समझना होगा. असीमानंद के कथित स्वीकोरोक्ति के बाद बीजेपी के आला नेता ज़हनी तौर पर बहुत परेशान हो गए हैं. आतंकवादी गतिविधियों में संघ परिवार का नाम आने से अब बीजेपी के नेताओं के मुंह में वो ज़हर नहीं रहा, जो वो अक्सर दहशतगर्दी के नाम पर उगला करते थे. कल तक जिनके होंठ "इस्लामी आतंकवाद" कहते-कहते दुखते नहीं थे, आज आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़ने पर ऐतराज़ कर रहे हैं.  बीजेपी के वो नेता जो अपने सांप्रदायिक  नीतियों पर धर्मनिरपेक्षता का मखमली पर्दा डाल कर कहते थे कि यह सच है कि सारे मुस्लिम आतंकवादी नहीं होते, पर सारे आतंकवादी मुस्लिम होते हैं. अब तो यह कहने का मौका भी उनके हाथ में नहीं रहा. इसके उलट अब उन्हें यह सुनने को मिल रहा है कि यह सच है कि सारे संघी आतंकवादी नहीं है, लेकिन जितने आतंकवादी पकड़े जा रहे हैं, वो संघी ही क्यूं है? ऐसे में बीजेपी घबरा गयी है और इसी घबराहट में वह 10 साल पुरानी सियासत को फिर से जिंदा करने की फ़िराक में है. इस दिशा में उन्होंने लाल चौक पर तिरंगा फहराने कि घोषणा कर के वहां की हालत बिगाड़ने कि कोशिश कर रही है. 
सवाल उठता है कि आखिर लाल चौक ही क्यूं? भारत में ऐसे कई क्षेत्र हैं जहाँ तिरंगा नहीं फहराया जाता. वहां सिर्फ लाल झंडे की तूती बोलती है. बिहार, झारखण्ड, पश्चिम बंगाल, ओडिसा, छत्तीसगढ़ और यहाँ तक कि मध्यप्रदेश के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में 15 अगस्त और 26 जनवरी पर तिरंगा नहीं फहराया जाता है. वहां तिरंगे कि ज़गह लाल झंडा चलता है. वोट देने वालों का क्या हश्र होता है, यह किसी से छुपा नहीं है. क्या बीजेपी के नेताओं में इतनी हिम्मत है कि वो इन इलाकों में जाकर तिरंगा फहराए?  सच्चाई तो यह है कि इन इलाकों में तिरंगा फहराने से उन्हें कोई सियासी लाभ मिलने वाला नहीं है. अगर बीजेपी दोस्ती और देशभक्ति कि भावना से लाल चौक पर तिरंगा फहराना चाहती है, तो उन्हें यह काम नक्सली इलाकों में भी करना चाहिए.
नक्सली क्षत्रों में तो भारत का कानून तक नहीं चलता है. वहां तो उन्होंने अपनी अदालतें कायम कर रखी है. बजाब्ता उनकी जेलें भी हैं. वहां तिरंगा फहराना किसी के बस की बात नहीं है. इन इलाकों के मुकाबले तो कश्मीर में हालात फिर भी बेहतर है. श्रीनगर के बख्शी स्टेडियम और ज़म्मू के मौलाना आज़ाद स्टेडियम में गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस पर झंडोत्तोलन के कार्यक्रम होते हैं. कहने का आशय यह है कि तिरंगे की ज़रुरत लाल चौक से ज्यादा नक्सलियों के लाल इलाकों में है. क्या बीजेपी इस बात को समझेगी?
बीजेपी की जानिब से लाल चौक पर तिरंगा फहराने की घोषणा से ज़म्मू-कश्मीर की भारतीय जनता पार्टी यूनिट बहुत खुश है. पर असली ख़ुशी तो वहां के अलगाववादी गुटों को मिली है. उन्हें पता है की ऐसा कर के बीजेपी उन्हीं का काम आसान कर रही है. अलगाववादी तो ये चाहते हैं कि कश्मीर मसले को धार्मिक रूप दिया जाय. कभी उन्होंने कश्मीरी पंडितों पर ज़ुल्म ढाए और उन्हें घाटी छोड़ने पर मजबूर कर दिया. क्यूंकि वो चाहते थे कि कश्मीर मसले को मज़हबी रंग दिया जाए. बीजेपी ने भी हर बार अलगाववादियों की शाजिसों को कामयाब करने का ही काम किया. उन्होंने सिर्फ कश्मीरी पंडितों पर ढाए गए ज़ुल्म का विरोध किया. क्या अलगाववादियों ने घाटी के मुसलामानों पर ज़ुल्म नहीं ढाए? क्या कश्मीर में कश्मीरी पंडितों की तुलना में ज्यादा कश्मीरी मुसलमानों का क़त्ल नहीं हुआ? क्या अनगिनत कश्मीरी मुसलमान वादी छोड़ने पर मजबूर नहीं हुए हैं? क्या अनगिनत कश्मीरी मुसलमान नहीं हैं, जो फिर से घाटी में जाकर बसने से डरते हैं? क्या कश्मीर में मारे गए मुस्लिम रहनुमाओं को वहीं के दहशत पसंदों ने नहीं मारा?
एक बेहद अहम चीज यह कि 1992 में लाल चौक पर तिरंगा फहराने के कुछ ही वर्षों बाद बीजेपी को सत्ता में आने का मौका मिला. इस दौरान उन्होंने न तो कश्मीर मसले का कोई समाधान किया और न ही वहां से पलायन पर मजबूर कश्मीरी पंडितों के दुखों को ही दूर किया. तो फिर आज किस मुंह से बीजेपी लाल चौक को अपनी सांप्रदायिक सियासत का अखाड़ा बनाना चाहती है? फिरकापरस्ती का ये मुखौटा ज्यादा दिन तक साथ देने वाला नहीं है. बीजेपी को चाहिए कि वो अपनी ख़राब होती छवि को सुधारने के लिए इसमें देशभक्ति के असली रंग भरे. चेहरे पर देशभक्ति का मुखौटा लगा कर जोकर बनने की कोशिश न करे. 

शनिवार, 22 जनवरी 2011

ये कैसा "शिवराज" मामा ?




प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान अक्सर बड़े बड़े मंचो से खुद को मामा के नाम से प्रचारित करने में लगे रहते है..... लाडली लक्ष्मी योजना लागू करवाने के बाद से तो अपने भाषणों में शिवराज भांजियो का जिक्र करना नही भूलते....


२ सालो से शिवराज सिंह की सभाओ को कवर कर रहा हूँ कोई दिन शायद ही ऐसा बीतता होगा जहाँ पर महिलाओ का कार्यक्रम चल रहा हो और शिवराज उनकी तारीफों के कसीदे मामा बनकर ना पड़े ....मीडिया में शिव का यह दर्शन भले ही उनकी लोकप्रियता के ग्राफ को बदा देता है लेकीन शिवराज मामा की कथनी और करनी में जमीन आसमान का अंतर नजर आता है......


ऐसा ही एक मामला राजधानी भोपाल में सामने आया है.....इसको मैंने बीते साल कवर भी किया था परन्तु आज तक मामले में कोई प्रगति ही नही हुई..... आरुषि नाम की एक छोटी बच्ची के इलाज का खर्च उठाने की बात कभी शिवराज मामा ने की थी लेकिन आज मामा अपनी भांजी का हाल चाल देखने तक नही पहुचा है ......


सरकारी अस्पतालों में मरीजो के साथ खिलवाड़ होना कोई बात नही है.... फिर यह बात हजम नही होती यह सब उस मुखिया के राज में हो रहा है जो इन दिनों "स्वर्णिम मध्य प्रदेश " बनाने में लगा हुआ है ... यह कैसा प्रदेश है जिसका मुखिया मामा बनकर बेटियों को गोद में पुचकारता है...उनकी रक्षा करने का संकल्प लेता है लेकिन वादे करने के बाद भी अपनी भांजियो की सुध नही लेता है.....



आरुषि नाम की एक लड़की जिसे शिवराज ने अपनी भांजी माना पिछले साल से इलाज के लिए दर दर ठोकरे खा रही है लेकिन शिवराज और उनके नुमाइंदो को इससे कुछ भी लेना देना नही है....इससे ज्यादा दुखद बात और क्या हो सकती है आज गरीबी के चलते एक बाप को अपनी बेटी के इलाज के लिए प्रदेश की जनता से मदद मांगनी पद रही है.......


२३ जनवरी २०१० की बात है जब गाडरवाडा निवासी इन्द्र पाल सिंह राजपूत की पत्नी प्रीती राजपूत ने आरुषि नाम की एक बच्ची को जन्म दिया ... वह बच्ची सात माह की थी अतः कम दिनों की होने के कारण भोपाल के तनु श्री हॉस्पिटल की चिकित्सक डॉ कुसुम सक्सेना ने उसे प्राइवेट अस्पताल में इन्क्युबेटर पर रखने को कह दिया ॥





परिवार की माली हालत ठीक न हो पाने के चलते आरुषि के पिता इन्द्रपाल के लिए यह संभव नही था कि वह अपनी बेटी को प्राइवेट अस्पताल ले जाए लिहाजा २३ जनवरी को उन्होंने आरुषि को कमला नेहरु अस्पताल हमीदिया में भर्ती करवा दिया ....



30 जनवरी को वहां के चिकित्सको की लापरवाही से आरुषि इन्क्युबेटर के लेम्प से झुलस गई....जिससे उसका चेहरा, आँख, अंगूठा और ऊँगली जल गई....लापरवाही का आलम देखिये अस्पताल प्रबंधन ने १५ दिनों तक आरुषि के माता पिता से यह बात छिपाए रखी और उन्हें उसके वार्ड में घुसने की अनुमति तक नही।दी ... आरुषि के पिता इन्द्रपाल ने जब यह बात अस्पताल प्रबंधन के सामने रखी तो उन्हें २६ फरवरी को तीन कागजो पर हस्ताक्षर करवाकर उसे वहां से "डिस्चार्ज" कर दिया.....

जली आरुषि को लेकरउसके पिता आस्था अस्पताल ले गए जहाँ के सर्जन आनंद जयंत काले ने आरुषि के हाथ और आँख की सर्जरी जल्द किये जाने की सलाह उन्हें दी....धन की कमी के चलते महंगा इलाज करवा पाने में आरुषि के पिता असमर्थ थे अतः वह बच्ची को अपने घर ले आये.....

इसके बाद आरुषि के पिता ने अस्पताल प्रबंधन के खिलाफ मामला दर्ज करवाने की कोशिश जरुर की लेकिन आज तक आरुषि के परिजनों को न्याय नही मिल पाया है... पिछले साल 17 मार्च को आरुषि का मामला मीडिया में प्रकाश में आने के बाद कई संगठन और लोग उसकी मदद को आगे आये जिससे आरुषि के पिता ने उसका इलाज शुरू किया .....


२३ मार्च को आरुषि की आँख की शल्य चिकित्सा हुई जिसके बाद सूबे के मुख्य मंत्री शिव राज और उनकी धर्म पत्नी साधना सिंह आरुषि का हाल चाल लेने आस्था अस्पताल पहुचे ॥ उन्होंने आरुषि के परिजनों से कहा " मैं हूँ ना..... मामा है तो चिंता कैसी ? आरुषि के इलाज का सारा खर्च ये मामा उठाएगा......" एक लाख रुपये की रकम को मामा ने उसी समय मंजूरी दे दी थी......


१ अप्रैल को राज्य सरकार द्वारा स्वीकृत २ लाख पच्चीस हजार रुपयों की मदद से आरुषि को इलाज के लिए इंदौर के बोम्बे अस्पताल ले जाया गया जहाँ से १० अप्रैल को उसको डिस्चार्ज किया गया था .....इंदौर से लौटने के बाद पहले की गई आख और हाथ की सर्जरी असफल होने के कारन २३ अप्रैल को फिर से आरुषि की सर्जरी डॉ काले के द्वारा आस्था अस्पताल भोपाल में की गई ......सर्जरी के सारे खर्चे आरुषि के पिता ने उठाये ....इसके बाद डॉ काले ने परिजनों को हाथ के इलाज के लिए मुंबई जाने की सलाह दी.....


१२ मई को राज्य सरकार की मदद से वह आरुषि को मुंबई ले गए जहाँ के बॉम्बे अस्पताल के प्लास्टिक सर्जन डॉ नितिन मोकल और डॉ मुकुल ने बताया कि बदती उम्र के साथ साथ आरुषि की दस प्लास्टिक सर्जरी होंगी..... जिसमे हाथ की शल्य चिकित्सा एक साल के अन्दर करवाना पड़ेगी......जिसमे पैर की उंगुली निकालकर हाथ में लगनी पड़ेगी..... वहां के चिकित्सको की माने तो आरुषि का इलाज दस साल तक चलेगा जिस पर २० लाख का खर्चा आएगा .......



मुम्बई से लौटने के बाद आरुषि के पिता ने कई बार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से मिलने की कोशिश की लेकिन उन्हें हमेशा बैरंग लौटा दिया गया....यहाँ तक कि मुख्यमंत्री की जनसुनवाई आवेदन दिए लेकिन अभी तक मामा शिव राज ने अपनी भांजी के लिए कुछ नही कर पाये है......


आरुषि के परिजन कहते है जब मुख्यमंत्री आरुषि को देखने आस्था अस्पताल आये थे तो उनकी धर्मपत्नी साधना सिंह ने उन्हें उनके पी ऐ का नम्बर भी दिया था ताकि इलाज में अगर कोई असुविधा हो तो बात उन तक पहुचाई जा सके......लेकिन आज आलम यह है कि मामी भी मामा शिवराज के नक़्शे कदम पर चल रही है और मासूम आरुषि को नही पहचान पा रही है.....


प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री महेन्द्र हार्डिया ने भी आरुषि के पिता को यह कहते लौटा दिया कि अब क्या चाहते हो ? आरुषि के पिता कहते है उनकी माली हालत बहुत ख़राब है .... सरकार ने आरुषि के इलाज के लिए जो ३ लाख ५० हजार रुपये की रकम दी वह अब खत्म हो चुकी है....इससे ज्यादा धन आरुषि के पिता उसके इलाज में खर्च कर चुके है ... उनके पास इतनी रकम नही है जिससे आरुषि का इलाज आगे जारी रखा जा सके... अतः उन्होंने शिवराज सिंह से मदद की गुहार की है......


यहाँ पर यह बताते चले कि इन्द्रजीत और प्रीती की यह पहली बच्ची है जो शादी के ५ साल बाद हुई है...हमीदिया के चिकित्सको की गंभीर लापरवाही का खामियाजा आज यह बच्ची भुगत रही है ....आरुषि के परिजन मदद को मोहताज है .....


आरुषि की नाजुक हालत देखते हुए राजधानी के कुछ नौजवान आगे आये है जो इन दिनों इलाज के लिए दुकान दुकान जाकर व्यापारियों से चंदा इकट्टा कर रहे है ... इस घटना का सबसे दुखद पहलू ये है कि आरुषि की जिन्दगी ख़राब करने वाले चिकित्सको और नर्स पर आज तक कोई कारवाही नही हो पायी है ....ऐसे में यह सवाल गहराता जा रहा है क्या आरुषि के परिजनों को न्याय मिल पायेगा ?


आरुषि के झुलसने के महीनो बाद चिकित्सको और नर्स के खिलाफ प्रकरण तो दर्ज किया गया है लेकिन कोर्ट में चालान आज तक पेश नही किया गया है वही आरुषि का मामा बन्ने का स्वांग रचने वाले शिवराज सरकार का असली चेहरा भी जनता के सामने उजागर हो गया है उन्होंने भी आरुषि के परिजनों के साथ छल किया है......तभी बीते दिनों "दिग्गी " राजा ने उनकी तुलना "कंस" मामा से की ...
(लेखक युवा पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है .... इनके विचार "बोलती कलम " ब्लॉग पर भी पदे जा सकते है )

ब्रेकिंग न्यूज़ की बदलती शक्ल..

आजकल बड़ी ही ऊहापोह की स्थिति मै हूँ...जब दिन भर घूमकर कमरे पर जाता हूँ...तो मेरा एक जूनिअर...खैर वो जूनियर कम भाई ज्यादा है...साथ रहते रहते आत्मीयता और पारिवारिक माहौल बन गया है.....मेरा जूनियर अक्सर भोपाल में छोटे छोटे चैनलों की की आई बाढ़ के बारे में पूंछता है...कुकुरमुत्ते की तरह चैनल खुल गए हैं..क्या होगा कृष्णा भैया भविष्य का...कैसे कटेगा पूरा जीवन...छोटा कहीं हताश न हो...इसलिए हमेशा उसे समझाइश देता रहता हूँ...आशीष संघर्ष करो...मजा आएगा...जब सफलता तुम्हारे कदम चूमेगी...पर दरअसल बात ये है...कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया की पत्रकारिता को देखकर मैं भी परेशान हो जाता हूँ...कभी दिन भर हंसी के ठहाकों का चलना...तो कभी पुराने रेकॉर्डेड कार्यक्रम चलाकर दर्शकों को बेवकूफ बनाना...या बाईट के नाम पर कहीं पर भी कट लगाकर किसी को फ़साना...अजीब लगता है सब...अब एक चैनल जो खबर चलाता है कि जस्टिस के यहाँ फटा दूध...प्रमुख सचिव को काटा कौवे ने...बस इस तरह की पत्रकारिता में कैसे कटेगी जिंदगी...
एक बानगी देखिये जरा...

जस्टिस जैन के घर फटा दूध.. (bhadas4media से साभार)

ईटीवी, राजस्थान पर आजकल कुछ इसी तरह के न्यूज फ्लैश किए जाते हैं. पट्टी पर चलने वाली खबरों का स्तर बेहद गिरा है. कुछ भी चला दिया जाता है.

किसी के घर दूध फटा तो किसी ने चाय पी.... जैसी स्थितियां भी अब न्यूज है. संभव है रीजनल न्यूज चैनलों के लिए ये खबर हो. पर आप क्या मानते हैं. इस तस्वीर को ध्यान से देखिए और बताइए कि आखिर जस्टिस जैन के घर का दूध किसने फाड़ा होगा? क्या किसी आतंकवादी ने? या सरकारी साजिश है? या ग्वाले ने? आखिर किसने फाड़ा होगा पूर्व जस्टिस एनके जैन के घर का दूध....???:)

ब्रेकिंग न्यूज... मुख्य सचिव को कौवे ने काटा


ज़रा, एक और बानगी देखिये. इसे ETV, Rajasthan की पट्टी कहते हैं... "मुख्य सचिव एस अहमद को कोवे ने काटा".

अब ऐसे में जब चैनल मक्खनबाजी में ही जुटा है...तो फिर आम जानता की बात कौन करेगा...भोपाल का भी एक चैनल है...जिसमे साफ़ तौर पर निर्देश दिया गया है..कि मुख्यमंत्री के खिलाफ कुछ नहीं बोलना है...ऐसी ख़बरें चलाना साफ़ तौर पर प्रतिबंधित की गई है....पता नहीं कहाँ ले जाएगी हमें ये बे सर पैर की पत्रकारिता.....चिंतन और मनन...मै आप लोगों पर छोड़ता हूँ...

बुधवार, 19 जनवरी 2011

असीमानंद और अब्दुल कलीम से कुछ तो सीखिए!



फोटो गूगल के सौजन्य से.
 शकील "जमशेदपुरी"
http://www.gunjj.blogspot.com/
 शीर्षक थोड़ा चौकाने वाला हो सकता है। आप सोच रहे होंगे कि एक ऐसे शख्स से हम क्या सीख सकते हैं, जिन्होंने देश में धमाके की बात स्वीकार की हो। जो बम का जवाब बम से देने जैसी सोच की नुमाईंदगी करता हो। और जिन्होंने निर्दोषों की जान लेना ही अपनी जिंदगी का मकसद बना लिया था। पर मैं असीमानंद के गुनाहों का तजकिरा नहीं करने जा रहा हूँ। आज मैं असीमानंद के एक अन्य पहलू की बात कर रहा हूँ, जिससे हम काफी कुछ सीख सकते हैं। पर इससे पहले बात अब्दुल कलीम नामक युवक की। अब्दुल कलीम मक्का मस्जिद धमाके के आरोप में पिछले डेढ़ साल से जेल में बंद था। इत्तेफाक से असीमानंद को गिरफ्तार करने के बाद उसी जेल में उसी सेल में रखा गया, जिसमें अब्दुल कलीम था। कितना विचित्र दृश्य होगा वह! एक तरफ धमाके का हकीकी गुनाहगार असीमानंद और दूसरी तरफ बेगुनाह अब्दुल कलीम। जेल में मुलाक़ात के दौरान अब्दुल कलीम ने अपने और दिगर बेक़सूर मुस्लिम नौजवानों के सिलसिले में असीमानंद से बात की और उसे बताया की किस तरह बिना किसी ठोस प्रमाण के उन नौजवानों को गिरफ्तार किया गया और उस पर ज़ुल्म ढाए गए। साथ ही अब्दुल कलीम के अच्छे  बर्ताव ने असीमानंद को काफी प्रभावित किया। असीमानंद ने अपने इकबालिया बयान में खुद कहा था कि जेल में अब्दुल कलीम ने उनकी काफी मदद की। उनके लिए खाना व गर्म पानी वगैरह भी लाया करता था। साथ ही नहाने के लिए गर्म पानी भी मुहय्या करता था। इन्हीं चीजों ने असीमानंद के जमीर को झकझोर दिया। असीमानंद ने अपने इकबालिया बयान में कहा कि अब्दुल कलाम के नेक व्यवहार ने उसे गुनाहों का ऐतराफ  करने पर मजबूर कर दिया, ताकि उसली गुनहगारों को सजा मिल सके।
आखिरकार असीमानंद का अंत:करण जाग उठा। अपने गुनाहों का प्रायश्चित करने के लिए उन्होंने अपने गुनाहों को स्वीकार कर लिया। असीमानंद ने अपने जीवन मूल्यों को नए सिरे से देखा और एक सही रास्ता चुना। उन्होंने इस बात की जरा भी परवाह नहीं की कि उनके इस कदम से उनके आका नाखुश हो सकते हैं। उन्हें बाकी बची जिंदगी जेल के सलाखों के पीछे गुजारनी पड़ सकती है और उनका हश्र सुनील जोशी की तरह भी हो सकता है। अगर उन्हें परवाह थी तो बस अपने जमीर की। उन्होंने अपने अंतरात्मा की सुनी।
असीमानंद के जीवन का यह पहलू हम सबको आत्म-मूल्यांकन करने की प्रेरणा देता है। हमें चाहिए कि हम आत्ममंथन करें और अपनी गलतियों को सुधार लें। वहीं हम अब्दुल कलीम के चरित्र से भी काफी कुछ सीख सकते हैं। उन्होंने नेक व्यवहार का जो रास्ता अपनाया वो इस्लाम की बुनियादी शिक्षाओं में से एक है। उन्होंने नफरत के बजाय मोहब्बत से काम लिया और असीमानंद का हृदय परिवर्तन किया।

मैं खुद भी इस बात को मानता हूं कि आतंकवाद का कोई मजहब नहीं होता। फिर भी यह सच है कि कुछ हिंदू और कुछ मुस्लिम अपने मार्ग से भटक कर हिंसा का रास्ता अपना लेते हैं। ऎसे लोगों को चाहिए कि वो असीमानंद और अब्दुल कलाम से कुछ सबक लें। यदि वो ऎसा करते हैं तो दुनिया में अमन-चैन निश्चित है। वैसे भी इस दुनिया को प्यार की बहुत जरूरत है। पंक्तियां कितनी सटीक हैं ना!
अब तो एक ऎसा वरक तेरा मेरा ईमान हो
एक तरफ गीता हो जिसमें एक तरफ कुरआन हो
काश ऎसी भी मोहब्बत हो कभी इस देश में
तेरे घर उपवास हो जब मेरे घर रमजान हो
मजहबी झगड़े ये अपने आप सब मिट जाएंगें
और कुछ होकर न गर इंसान बस इंसान हो

मंगलवार, 18 जनवरी 2011

वक़्त कि कसौटी पर दम तोड़ती एक फिल्म


शकील "जमशेदपुरी" 
http://www.gunjj.blogspot.com/

शाम के करीब सात बजे थे. University से रूम पर आया और FM  आन किया. गाना आ रहा था- "पहली-पहली  बार मोहब्बत की है....." गाने की इस बोल को सुनते ही इस फिल्म के दृश्य आँखों के सामने तैरने लगे. यह गाना "सिर्फ तुम"  फिल्म का है. यह फिल्म पिछली सदी के अंतिम दशक के अवसान के समय रिलीज़ हुई थी. 1999 में आयी संजय कपूर और प्रिय गिल अभिनीत यह फिल्म बेहद सफल रही थी.
इस फिल्म को पहली बार मैंने 2003 में देखा था. तब में 9वी कक्षा में पढता था. शुक्रवार को दूरदर्शन पर देखे गए इस फिल्म के दृश्य दिल पर अंकित हो गए. फिल्म में दिखाया गया था कि किस तरह एक लड़का, एक लड़की को बिना देखे, सिर्फ पत्राचार के ज़रिये ही प्यार करने लगता है. यदा-कदा दोनों एक दूसरे से बात भी कर लेते थे, पर चेहरे से अनजान रहते थे. सिर्फ कल्पनाओं में ही दोनों का प्यार परवान चढ़ता है. फिल्म में दोनों एक-दूसरे से कई बार मिलते भी हैं, पर पहचानने से महरूम रह जाते हैं. फिल्म का अंत रेलवे स्टेशन पर होता है, जहाँ लड़की, लड़के को दिए अपने गिफ्ट (स्वेटर) से पहचान लेती है. लड़की का चलती ट्रेन से कूद कर, लड़के के जानिब दौड़ कर आने वाला दृश्य मुझे आज भी रोमांचित करता है.
आज एक दशक बाद यह फिल्म कितना अप्रसांगिक सा लगता है. क्या आज के दौर में ऐसा प्यार संभव है? Facebook, Orkut, E-mail, 3G, Video Confrencing वगैरह के ज़माने में बिना एक-दूसरे को देखे प्यार मुमकिन है? प्यार का स्वरुप कितनी तेज़ी से बदला है और तकनीक ने इनके मूल्यों पर भी असर डाला है. उस फिल्म में दोनों के मिलने की ख्वाहिश या एक-दूसरे को देखने की इच्छा अपने चरम पर होती थी. इन्हीं ख्वाहिशों ने दोनों के बीच आत्मीय लगाव  पैदा कर दिया था. केरल और नैनीताल की भौगोलिग़ दूरी ने उन दोनों के दिलों को बेहद करीब ला दिया था. आज के दौर में यह संभव नहीं. आज के प्यार में मिलने की ख्वाहिशें होती ही कहाँ है. क्यूंकि स्कूल और कॉलेज में दोनों साथ-साथ रहते हैं. उसके बाद देर रात तक किसी रेस्तरां, पार्टी या बार में समय बिताते हैं. रात में जब तक जागते हैं, फ़ोन पर बातें होती रहती है. अगली सुबह तो फिर मिलना है ही. ऐसे में मिलने की ख्वाहिशें पैदा होने का समय ही कहाँ मिलता है! आज भौगोलिक दूरियां एक-दूसरे को करीब नहीं लाती, बल्कि सदा के लिए दूर कर देती है. नए शहर में  उसे नया प्यार मिल जाता है. वाकई...वक़्त की कसौटी पर कितना अप्रासंगिक हो गया है वह फिल्म!!!!!!!!!
फिल्म में एक संवाद है, जो पूरी फिल्म का निचौड़ है. एक दृश्य में लड़की कहती है (ठीक से याद नहीं)- "लोगों का प्यार आँखों से शुरू होकर दिल तक पहुँचता है. पर हमारा प्यार दिल से शुरू हो कर आँखों तक पहुंचेगा." इस संवाद के पहले भाग की प्रसंगिकता भले ही थोड़ी बहुत बची हो, पर दूसरा भाग तो आज महज़ कल्पना ही लगता है. सच्चाई तो यह है कि आज का प्यार आँखों से नहीं, बल्कि चेहरे से शुरू होकर, दिल तक नहीं पहुँचता है, बल्कि बेडरूम में जाकर ख़त्म हो जाता है.  

job for ... janta tv only 18 to 20 january last date

info@jantatv.com
जनता टीवी को चाहिए योग्य पत्रकार. आप अपना बायोडाटा ऊपर दिए गए पते पर भेज सकते हैं. ध्यान रखने लायक बात--- जितनी तनख्वाह की उम्मीद रखते है लिखना न भूले साथ ही आवेदित पोस्ट भी ज़रूर लिखे.
जॉब का ऑफर सीमित समय के लिए. २० जनवरी आखिरी तारीख है आवेदन करने के लिए. चैनल को सभी पदों के लोगो की ज़रुरत है. आप ट्रेनी, रिपोर्टर, कैमरामन, स्क्रिप्ट लेखक, आदि पदों के लिए आवेदन कर सकते हैं. अधिक जानकारी http://www.jantatv.com/ पर  देख  सकते  हैं. ढेर सारी शुभकामनाएँ .  

अबला नहीं भीष्मा कहिये..

नशाखोरी समाज में इतनी भीषण तरीके से अपनी जड़ें फैला चुका है...कि बरगद कि हर एक टहनी से निकलने वाली जड़ों कि संज्ञा इसको दें तो शायद काम होगी...सवाल समाज के लोगों का है...आपका है...हम सबका है....आखिर इस मौज भरी जिन्दगी में हमें किस बात का तनाव...जब रिश्ते नाते टूट रहे है...उनमे बिखराव हो रहा है..भाई भाई को कट रहा है...बेटा मां-बाप की हत्या कर रहा है....खबरिया चैनल मानव मूल्यों की हत्या करने में लगे है....किसी को किसी के बारे में सोचने का वक़्त नहीं है...तो तनाव क्यों...हम भी बेफिक्री में क्यों नहीं जीते...पर नहीं जी सकते है दोस्त....इन रगों में आवो हवा आज भी उस गाँव की मौजूद है...उस गाँव की नदी कुओं का पानी रक्त बनकर इस जिस्म में दौड़ रहा है....जो बिसलरी की बोतल से कहीं ज्यादा पवित्र और शुद्ध है....यदि ऐसा नहीं तो गंदगी बजबजायी गंगा को हम आज भी मैया क्यों कहते है...किसी भी सोच की शुरुवात गाँव से ही होती है...ऐसी ही शुरुवात नशाखोरी मुक्त समाज की हुई है सिवनी जिले के एक गाँव से.....जहाँ की औरतों ने निश्चय किया है की यदि उनके पतियों ने शराब पी तो वे उससे तलाक मांग लेगी...यही नहीं यदि गाँव में कोई शराब बेंचता या पीता पकड़ा जाता है तो उसे डेढ़ हजार रूपए का जुरमाना ग्राम पंचायत को देना होगा...इसके अलावा शराब पीने वाले की सूचना देने वाले को ग्राम पंचायत एक हजार रूपए का इनाम देगी...जिला मुख्यालय से करीब ३५ किमी.दूर आदिवासी बाहुल्य ढुतेरा गाँव की महिलाओं ने गाँव को नशामुक्त बनाने का संकल्प किया है...एक हजार चार सौ दस लोगो की आबादी वाले इस गाँव में आज से आठ साल पहले गाँव के युवकों की शराब पीने से मौत हो गई थी...मौत के बाद गाँव के लोगों ने बैठकर शराब न पीने और बेंचने का संकल्प लिया...तब पुरुषों ने कमान संभाली..अब महिलाये इसकी केंदीय भूमिका में है....इस नेक काम में कलाबाई ने सबसे पहले अपने शराबी पति से रिश्ता तोड़ दिया है......बड़ा ही दिलेरी का काम किया है कलावती ने....हर किसी में शायद कलावती जैसी हिम्मत नहीं होती...पर शायद जब संकल्प लिया है...तो रिश्ते नाते भी दूर होगे...शायद महाभारत के पात्र अम्बा को भी तो भीष्मा कह सकते है....मुझे महाभारत की एक पात्र अम्बा का नाम याद आ रहा है....जब देवव्रत भीष्म ने.उनका हरण किया....तो वे शादी के लिए तैयार नहीं थी...हस्तिनापुर से उनकी ससम्मान विदाई कर दी गई...लेकिन शाल्वराज ने उनको अपनी अर्धांगिनी बनाने से मन कर दिया....तब वो भीष्म से शादी के लिए तैयार तो हुई..पर भीष्म ने शादी न करने की प्रतिज्ञा की थी...अब सवाल था कैसे अम्बा का जीवन कटेगा...तब अम्बा ने जो प्राण किया था की भीष्म का संहार मै करुगी...और तपस्या करने लगी...और तभी कठिन साधना के कारण उनका नाम भीष्मा पड़ा.... इस गाँव की सभी भीष्माओं को मेरा सलाम

ऐसा होता तो नहीं....

बेशक जिंदगी में हार हर इंसान देखता है
विजयी न हो ये पत्थर की लकीर तो नहीं
वादे करके पलट जाना फितरत है उनकी
हम भी ये राह ले लें ये जरूरी तो नहीं
लडखडाये कई बार राहे जिंदगी में
चोट लगने के दार से न चलूँ ये जिंदगी तो नहीं
बादलों की गरज से मेंढकों की आवाज से

ये आसमा हर बार बरस पड़े ये हकीकत तो नहीं
विश्वास रिश्तों लो संजोये रखता है , पर

रिश्ते विश्वास न तोड़ें ऐसा होता तो नहीं......

दुनिया कितनी बड़ी शैतान है....

अभी तो रखा है तूने दुनिया में कदम
तुझे क्या पता दुनिया कितनी बड़ी शैतान है
चलने से कतरा रहा था भटकने के डर से
अब मंजिल पर पहुँच कर क्यूँ तू हैरान है
मेरे आसरे को लूटकर कितना खुश हुआ था
खतरे में देख आसरे को अब तू क्यूँ परेशान है
कल तलक ना याद आई थी उनकी
अब उन्हीं की सलामती का तम्हें ख़याल है
बरसों बीत गए हमारी जुदाई को
क्यूँ लगता है फिर हाल की तो बात है
लहरों किनारों का मिलन कहाँ होने वाला
लेकिन दोनों की जिद अभी भी बरकरार है....................

शुक्रवार, 14 जनवरी 2011

job for u ...aage bhee janhit me jaari rahega

Urgent opening for Sub Editor(Business Section) with English-News Website of 'DAINIK BHASKAR' Group (Day Shift)


Our Client `I Media Corp. Ltd', a digital arm of 'DAINIK BHASKAR' Group is looking candidates for below mentioned openings.
BHASKAR GROUP (Leading Newspaper in India) is diversified industrial House having leadership in Media Business- English Daily DNA at Mumbai, Hindi Daily Dainik Bhaskar, Gujrati-Divya Bhaskar & Radio 'MY FM' in entire Northern & Western India.

Our Client Websites: daily.bhaskar.com
Dainikbhaskar.com
divyabhaskar.com
indiainfo.com

Position: Sub Editor (for Business Section of English News Website- http://daily.bhaskar.com)

Salary: Rs.20 k to Rs.24 K P.M
Job Details:
 Excellent writing skills in English is required.
 Job Timings: 8:00 am to 4:00 pm
 Candidate would have to commute on her/his own to Sector-63, Noida. (Near Fortis Hospital)
Job Role:


² Writing Business News for the Business Sections of English News website http://daily.bhaskar.com
² Edit and improve Business stories/copies that are received from various sources.
² Liaising with reporters or journalists to clarify facts and details about a story.
² Writing headlines that capture the essence of the story.
² Checking facts and stories to ensure they are accurate, and do not break the law or go against the publication's policy.
 Churn out copies with no grammatical and factual errors, as per the organisation's high editorial standard.
Job Location: Sector – 63, Noida.


Desired Candidate Profile:


Ø Should have excellent writing skills in English.


Ø Ability to hand in error-free copy within tight deadlines.


Ø Proficiency with the Internet.


Incase you are interested in the same; we would request you to send your resume to anilgarg@acdplacements.com


Do remember to mention your Current Salary on the top of your Resume.


Anil Garg

ACD Placements


Voice: 9891.01.7892
Email: anilgarg@acdplacements.com
Website: www.acdplacements.com


Office: 305, Gupta Arcade, Mayur Vihar, Delhi-92(INDIA)

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

दिग्गी का बयान.....सियासत या हकीकत?

शकील "जमशेदपुरी"

6 दिसंबर 2010 को दिग्विजय सिंह का एक बयान आया था. उनहोंने यह बयान राष्ट्रीय रोजनाम सहारा के समूह सम्पादक अज़ीज़ बर्नी के एक पुस्तक के विमोचन समारोह में कही थी. उन्होंने कहा था कि 26/11 की घटना के महज़ तीन घंटे पूर्व हेमंत करकरे ने मुझ से फ़ोन पर बात की थी. इस बातचीत में श्री करकरे ने मुझसे कहा था कि हिन्दू कट्टरपंथी से मेरी जान को खतरा है. साथ ही उन्होंने ये भी कहा था कि में बहुत तकलीफ में हूँ. मेरा 17 वर्षीय बेटा, जो विद्यार्थी है, उसे दुबई में एक बड़ा Contracter  बता कर बदनाम किया जा रहा है. मेरे परिवार वाले जो नागपुर में रहते हैं, उन्हें बम से उड़ाने कि धमकियां दी जा रही है.
 जैसे ही दिग्विजय सिंह का यह बयान आया, राजनीतिक हलकों में भूचाल आ गया. जब ये बात संघी कानों तक पहुंची तो उनकी भृकुटियाँ तन गयी. दिग्विजय सिंह के निष्ठां पर सवाल उठाए गए और उन्हें देशद्रोही तक कि संज्ञा दे दी गयी. यह भी कहा गया कि दिग्विजय सिंह दोयम दर्जे कि सियासत कर रहे हैं. कांग्रेस तो पहले से ही मुश्किलों में घिरी थी, इसलिए उन्होंने श्री सिंह के इस बयान से ही पलड़ा झाड लिया. बहरहाल दिग्विजय सिंह अपने बयान पर डटे रहे और ठीक 28 दिन बाद 4 जनवरी 2011 को बातचीत के कॉल डिटेल बतौर सबूत ज़ारी किये. गौरतलब है कि महाराष्ट्र के गृह मंत्री आर.आर पाटिल ने विधानसभा में बयान दिया था कि राज्य पुलिस के पास करकरे और सिंह के बीच 26 नवम्बर 2008 को हुई बातचीत का कोई रिकॉर्ड नहीं है. दिग्विजय सिंह द्वारा ज़ारी कॉल डिटेल से यह पता चलता है कि फ़ोन ATS मुख्यालय के लैंडलाइन  नंबर 022-23087366 से किया गया था. अब भाजपा यह कह रही है कि इससे यह साबित नहीं होता कि ATS मुख्यालय से कॉल करने वाले व्यक्ति स्वयं करकरे ही थे. खैर यह सियासत है और सियासत में पैतरेबाजी अपने शबाब पर होती है. आखरी दम तक.
           हालाँकि दिग्विजय सिंह के बयान में गंभीरता थी, पर ऐसी क्या बात कह दी उन्हों ने जो एक दम अनूठी और नयी थी. कम से कम हमारी मीडिया को तो ये पता था ही कि मालेगांव ब्लास्ट  के सिलसिले में हेमंत करकरे को लगातार धमकियां मिल रही थी. ऐसे समाचार राष्ट्रीय मीडिया में प्रकाशित-प्रसारित भी हुए. जो कुछ 26/11 की घटना से पूर्व हेमंत करकरे ने दिग्विजय सिंह से कही, वही बात उन्होंने एक दिन पूर्व अपने एक रिटायर्ड पुलिस अधिकारी श्री जुलियू रिबौरो से मुलाकात करके कही थी. यह समाचार अंगरेजी दैनिक Times Of India के अतिरिक्त अन्य समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हिया था. इस समाचार का शीर्षक था- करकरे अडवानी द्वारा लगाये आरोप से दुखी थे: जुलियू रिबौरो.
             Times Of India में प्रकाशित यह खबर जुलियू रिबौरो के हवाले से थी. इसमें श्री रिबौरो ने कहा था-" हेमंत करकरे पिछले मंगलवार को मुझसे मिलने आये थे. एल.के अडवानी के इस आरोप से उन्हें बहुत दुख पहुंचा था कि उनके नेतृत्व में ATS मालेगांव ब्लास्ट के केस में राजनीतिक प्रभाव और अव्यावहारिक ढंग से कार्य कर रहा है. अडवानी जैसे वरीष्ठ नेता के हिंदुत्व  के झंडा बरदार बनने वालों के साथ मिलकर आरोप लगाने ने उन्हें आश्चर्यचकित कर दिया था. ........."
यानि इतना तो था ही कि हेमंत करकरे संघ के रवैये से आहात थे. पर जब इसी बात का खुलासा दिग्विजय सिंह
ने किया तो हंगामा बरपा हो गया. मीडिया ने भी इस मामले को खूब हवा दी, जैसे यह एकदम नयी बात हो. वो भी तब, जब संसद JPC कि मांग को लेकर लगातार हंगामे कि भेंट चढ़ रही थी, विकिलीक्स दिन-प्रतिदिन नए खुलासे करके दुनिया भर कि मीडिया का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रहा था, और इस बीच प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने बेल्जियम तथा जर्मनी कि महत्वपूर्ण यात्रा भी कि थी. 
                     आपलोगों को शायद याद होगा कि 26/11 कि घटना के बाद तत्कालीन अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री ए.आर.अंतुले ने हेमंत करकरे कि शहादत पर सवाल उठाए थे. तब देशव्यापी विरोध प्रदर्शन हुआ था. जगह-जगह अंतुले के पुतले जलाये गए. लोगों के हाथों में पोस्टर था, जिस पर लिखा था- ए.आर अंतुले आतंकवादी है.......ए.आर अंतुले देशद्रोही है. दिग्विजय सिंह के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. 
खैर दिग्विजय सिंह ने अपने बयान के पक्ष में सबूत ज़ारी कर दिए हैं. लेकिन एक सवाल आज भी कितना ज्वलंत लगता है- 26/11 -किस की साजिश, क्या उठेगा पर्दा?

बुधवार, 5 जनवरी 2011

कसम हमने भी खायी है.....

उधर भिखारी भी मंत्री बनकर -घोटाला करके राजा कहलाते हैं.....
इधर  मेहनत करने वाले गरीब  (राजा ) लोग महंगाई के कारण भिखारी बन जा रहे हैं.....
गुनहगार कौन है.....मनमोहन सिंह ,
                                            नही वो तो इमानदार हैं......
                      ......राहुल गाँधी...
                                            नही वो तो युवराज है......
                      .......तुक्का मत लगाओ.....गुनहगार भारत की वो जनता है जिसने ......
                         इन घोटालेबाजो को पहचानने में गलती की और अपना वोट दिया.......
                       जागो-जागो-
                                       सोचो और खो..... ऐ मेरे देश तुझे क्या दूँ......चल तुझे मै क्या दे पाउँगा ....मेरे लहू का एक एक कतरा तेरा है....तेरे काम आ जाए........               

सोमवार, 3 जनवरी 2011

नई सदी की ग़मगीन शाम..

नई सदी का नया सवेरा नया वर्ष,नया उत्साह,नया हर्ष,नई उम्मीदें,आशा की नई किरण....जो कल था वो आज नहीं रहा,और जो आज समय है वो कल नहीं रहेगा...वक़्त तो अपनी रफ़्तार से दौड़ता ही रहता है....लेकिन जो वक़्त कि रफ़्तार के साथ कदम मिला के चला,वही तो बनता है सिकंदर... लेकिन पत्रकारिता विश्वविध्यालय का एक योद्धा दौड़ने के पहले ही कदम ठिठका कर खड़ा हो गया....दोस्तों ने कहा..तुझे चलना होगा....तुझे पत्रकारिता जगत को नया आयाम देना है...तुझे बोलना होगा...उठाना होगा...मौत से जीतना होगा....लड़ना है जमाने से....देखो पूरा विश्वविद्यालय बुला रहा है तुम्हे...उठो मनेन्द्र....चलो....परिक्षये ख़त्म हुई....घर पर सब इंतजार कर रहे है.......जाने नहीं देंगे तुझे...जाने तुझे देंगे नहीं....मां ने ख़त में क्या लिखा था...जिए तू जुग-जुग ये कहा था....चार पल भी जी न पाया तू........लेकिन वो ऐसे नीद के आगोश में सोया की फिर उठ नहीं पाया......

अभी कल की ही तो बात है,जब मैंने नई सदी का नया सवेरा की मंगल कामना की थी....मगर अफ़सोस की पत्रकारिता विश्वविद्यालय से समय ने एक ऐसा योद्धा छीना....जिसकी भरपाई कोई नहीं कर सकता....

भोपाल के रेडक्रास अस्‍पताल में इलाज के दौरान पत्रकारिता विश्‍वविद्यालय के एक होनहार छात्र हम सबको छोड़कर चला गया. वह विज्ञान पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था. छात्र के सहपाठियों ने इलाज करने वाले डाक्‍टर पर गलत इंजेक्शन लगाने का आरोप लगाया है. डाक्‍टर उक्‍त छात्र की मौत हार्ट अटैक के चलते होने की आशंका जता रहे है. पुलिस ने छात्र के शव को पोस्‍टमार्टम के लिए हमीदिया अस्‍पताल भेज दिया है.

रचना नगर में रहने वाले छात्र मनेंद्र पांडेय (28 वर्ष) को अचानक सीने में दर्द हुआ. जिसके बाद उसे इलाज के लिए रेडक्रास अस्‍पताल में भर्ती कराया गया. दर्द तेज होने पर वहां मौजूद डाक्‍टर अजय सिंह ने उसे इंजेक्शन लगाया. इसके करीब पंद्रह-बीस मिनट बाद मनेंद्र की मौत हो गई. मनेंद्र को इसके पहले भी सीने में दर्द हुआ था. जिसे कम करने के लिए उसने दर्द निवारक दवाएं ली थी.

पता नहीं इस नई सदी के आगाज में हम लोगो से कहाँ गलती हुई कि हमारा एक मित्र ऐसे रूठा....कि पूरा विश्वविद्यालय उसके कदमो में बैठा है...पर वह अड़ियल है....किसी कि बात नहीं मान रहा है.....वो हमसे दूर जाने की ठान चुका है....देखो कैसे हाथ छुड़ा के भाग रहा है.....कोई रोको उसे...कोई तो मनाओ.....कोई तो होगा जिसकी बात माने.....एकलव्य जी आप ही समझाए......पी.पी.सर आप ही आदेश दो इसे...आपकी बात नहीं काटेगा....

लेकिन शायद पी.पी.सर में भी अब मनेन्द्र को आदेश देने की ताकत नहीं बची....सबके गले रुंधे है....सबको मनेन्द्र से विछोह का दुःख है.....लौट आओ मनेन्द्र ...जुबान पर यही लब्ज है.....लेकिन वो जा रहा है...हम सबको अकेला छोड़कर.....

लौट आओ मनेन्द्र....हम चाय पीने चलेगे.....

प्रधानमंत्री महोदय! जिंदगी लंबी नहीं, बड़ी होनी चाहिए.

शकील "जमशेद्पुरी"
माननीय प्रधानमन्त्री महोदय! नव वर्ष और नए दशक की हार्दिक शुभकामनाएं. पत्र थोड़ा विलंब से लिख रहा हूँ. दरअसल ज़रा व्यस्तता का दौर चल रहा था जो अब टल चुका है. यह पत्र मात्र बधाई संदेश नहीं है, बल्कि शीर्षक पढ़ कर आपको कुछ-कुछ अंदाजा हो गया होगा.   
यह आपके प्रधानमंत्रित्व काल की दूसरी पारी है. कुल मिला कर सातवाँ साल. मैं यहाँ आपके पहले कार्यकाल की बात नहीं कर रहा  और न ही दूसरे कार्यकाल के पहले वर्ष की बात करने वाला हूँ. वस्तुतः मैं वर्ष 2010 के संदर्भ में आपसे संवाद करना चाहता हूँ. 
वर्ष 2010 को घपलों और घोटालों का पर्दाफाश करने वाले साल के रूप में याद किया जाएगा. Commonwealth Games के आयोजन में घोटालों की जो तस्वीर उभरी, उसने आपकी सरकार के शाख पर सीधे बट्टा लगा दिया. घोटालों का होना ज्यादा आश्चर्य की बात नहीं है. आश्चर्य तो इस बात का है कि ये सारा खेल आपकी नाक के नीचे होता रहा और आपको इसकी गंध तक न मिली. यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि एक ऐसा देश जो विश्व कि महाशक्ति बनने का सपना संजोता है, लेकिन एक खेल के आयोजन में उनकी साँसे फूलने लगती है. 
2G स्पेक्ट्रम ने तो घोटाले कि परिभाषा ही बदल दी. घोटाले कि राशि इतनी बड़ी थी कि इसे अंकों में लिखने में माथे कि नसें दुख जाएँ. यह घोटाला आपके लिए भी राजनीतिक मुश्किलों वाला रहा. संयुक्त संसदीय समिती (JPC) की मांग पर विपक्ष ऐसा अडिग हुआ कि संसद का शीतकालीन सत्र चला ही नहीं. आपको तो खुद इस मांग का स्वागत करना चाहिए. पर आपकी जिद ने विपक्ष में संशय ही पैदा किया. हालांकि आपने संसद की लोक लेखा समीति (PAC) के समक्ष खुद पेश होने की पेशकश की, बावजूद इसके विपक्ष ने अपना रुख नहीं बदला. पर यदि आपको PAC पर आपत्ति नहीं तो, JPC पर ऐतराज़ क्यूं? विपक्ष के तेवर से यह संकेत भी मिल रहा है कि फरवरी में होने वाले संसद के बज़ट सत्र पर भी JPC के छीटें पड़ेंगे. मेरे कहने का आशय यह है कि 2010 में हुए इन घोटालों पर 2011 में राजनीतिक टकराव अवश्य होगा.
सबसे मुश्किल घड़ी में ही अच्छे नेता की सबसे अच्छी खूबी सामने आती है. 2011 आपके लिए राजनितिक मुश्किलों वाला साल रहने वाला है. ऐसे में देश को इंतज़ार रहेगा आपकी सबसे अच्छी खूबी का. अक्सर आपके कम बोलने या चुप रहने पर लोग चुटकियाँ लेते हैं. लेकिन में इस फलसफे में यकीन करता हूँ कि-
परिंदों की परवाज़ होती है ऊँची
ये फैले हुए उनके पर बोलते हैं,
वो लोग खामोश रहते हैं अक्सर
ज़माने में जिनके हुनर बोलते हैं.
वर्ष 2011 में आपके "हुनर" का बोलना बेहद ज़रूरी हो गया है. क्यूंकि अब लोग सवाल करने लगे हैं कि कहाँ हैं डॉ. मनमोहन सिंह? लोग यह भी पूछने लगे हैं कि यह कैसी सरकार है जो ये तय नहीं कर पाती कि बी.टी बैगन अच्छा है या बुरा? देश में सड़कें ज्यादा होने चाहिए या पेड़?
आपकी पहचान एक ऐसे शख्स के रूप में है, जिसकी गिनती विश्व मंच पर पूरब के एक समझदार व्यक्ति के रूप में होती है. एक ऐसी  दुनिया में जहाँ सबसे प्रभावशाली नेता अपने उम्र के चौथे दशक में हैं, वहाँ आपकी स्तिथि एक बुजुर्ग और अनुभवी व्यक्ति की है. लेकिन अब देश में एक युवा और तेजतर्रार नेता कि ज़रुरत महसूस कि जाने लगी है, क्यूंकि जब भी आपका सामना राष्ट्रीय आपात स्तिथियों से होता है, तो आप उससे निपटने में अक्षम प्रतीत होते हैं. महंगाई, माववादी चुनौति, विदेश नीति में भटकाव, कश्मीर संकट, अटका सामाजिक एजेंडा, आंतरिक कलह, अनिर्णय और भ्रष्ट्राचार ने UPA को पंगु बना दिया है. जन अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए आपको ज़ोरदार पहल करनी होगी.
जानता ने आपको जिस विश्वास के साथ जनादेश दिया, उससे यही लगता है कि आप अपना दूसरा कार्यकाल भी पूरा कर लेंगे. यदि संभव हुआ तो तीसरी बार भी सत्ता में आ जाएँ. लेकिन इस लंबे कार्यकाल का क्या फायदा. संसार में ऐसे कितने ही व्यक्ति हैं, जिसने सबसे लंबे समय तक जीवित रहने का रिकॉर्ड बनाया. इनके नाम गिनीज़ बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड में तो दर्ज है, पर लोगों कि जुबां पर नहीं है. वहीं स्वामी विवेकानंद अपने जीवन का 40वां बसंत भी नहीं देख पाए. भगत सिंह मात्र 23 वर्ष की उम्र में और खुदीराम बोस 19 वर्ष की उम्र में संसार से कूच कर गए. इनका नाम भले ही रिकॉर्ड बुक में दर्ज न हो, पर लोगों की जुबां पर है. कहने का आशय मात्र इतना है की जिंदगी लंबी नहीं बड़ी होनी चाहिए.
पुनः नए साल की हार्दिक शुभकामनाओं सहित.
आपकी सल्तनत का बाशिंदा.
शकील "जमशेद्पुरी"
                            

रविवार, 2 जनवरी 2011

नई सदी का नया सवेरा

नया वर्ष,नया उत्साह,नया हर्ष,नई उम्मीदें,आशा की नई किरण....जो कल था वो आज नहीं रहा,और जो आज समय है वो कल नहीं रहेगा...वक़्त तो अपनी रफ़्तार से दौड़ता ही रहता है....लेकिन जो वक़्त कि रफ़्तार के साथ कदम मिला के चला,वही तो बनता है सिकंदर...
पुराना साल,हर साल की तरह कुछ खट्टी मीठी यादें छोड़ गया...कुछ अनसुलझे सवाल,गुत्थियाँ भी...जिनको हम आगे आने वाले समय में विचार कर सकें,और सही डगर पर चल सकें.....इस साल की शुरुआत के साथ एक ख़ुशी और...की इक्कीसवीं सदी का दूसरा दशक की शुरुवात भी हो गई.....जैसा पहला दशक निकला समाज में कुछ विसंगतियों के साथ,कुछ नए अनुभवों के साथ गुजरा....इस दशक की एक अनसुलझी गुत्थी आरुशी हत्याकांड...जिसमे सी.बी.आई. ने भी हाथ खड़े कर दिए...इसे अपराधी की शातिरता कहें या सी.बी.आई. की नाकामी...खैर...एक उम्मीद कि ये नया दशक भी कुछ उसी तरह या उससे बेहतर साबित हो.....
मुझे याद है कि जिस समय इक्कीसवीं सदी के पहले दशक कि शुरुआत होने वाली थी,उस समय मै कक्षा सात में पढने वाला गाँव का एक भोला सा आम लड़का था...जिसकी न एक अलग सोच थी...न विचार...हाँ...नए साल से एक उम्मीद जरूर थी...कि शायद दुनिया ख़त्म नहीं होगी...क्यों कि उस समय भी ये अफवाह जोरों से चल रही थी कि १ जनवरी २००० को दुनिया ख़त्म हो जायेगी....लेकिन तर्क किसी के पास नहीं था......लेकिन समय गया...गुजरा ...दुनिया आज भी कायम है....समय आज भी अपनी गति से चलायमान है....लेकिन अब २०१२ का भी दर लोगों के ज़ेहन में है.....लेकिन हम भारतीय भी आशावादी है....हम जीतेगे....क्यों कि हम सबमे परिस्थितियों से जूझने का जज्बा है...एक दशक के बाद आज मै एक ऐसे समाज का हिस्सा बन गया हूँ...जिसे अपने अलावा समाज के हर वर्ग के बारे विचार करना पड़ता है...अपने आप में एक सुखद एहसास...हर हिन्दुस्तानी की तरह मुझे भी नए साल से ढेरों उम्मीदें है....
१-क्रिकेट का वर्ल्ड कप इस बार भारत में आएगा.
२-भारत विश्व की एक महाशक्ति के रूप में उभरेगा.
३-संयुक्त राष्ट्र में स्थायी सदस्यता मिल जायेगी.
४-युवाशक्ति अपने होने का एहसास राजनीति में जरूर कराएगी.
५-साहित्य लेखन बढेगा.
६-पत्रकारिता के वेद व्यासों,और नारदों को सद्बुद्धि आएगी.
७-हर गरीब को रोजगार मिलेगा
8-हर बच्चे को पढने का अधिकार मिलेगा.
9-चिकित्सा के क्षेत्र में विकास होगा.
१०-हम आर्थिक रूप से भी मजबूत होंगे.
इन्ही अपेक्षाओं और उम्मीदों के साथ हम होंगे कामयाब की भावना के साथ सभी लोगों को
नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं'

चाँद से गुफ्तगू!

शकील "जमशेद्पुरी" 
पलकों से आसमां पर एक तस्वीर बना डाली.
उस तस्वीर के नीचे एक नाम लिख दिया;
फीका है इसके सामने चाँद ये पैगाम लिख दिया

सितारों के ज़रिये चाँद को जब ये पता चला
एक रोज़ अकेले में वो मुझसे उलझ पड़ा
कहने लगा कि आखिर ये माजरा क्या है
उस नाम और चेहरे के पीछे का किस्सा क्या है.

मैं ने कहा- ऐ चाँद क्यूं मुझसे उलझ रहा है तूं 
टूटा तेरा गुरूर तो मुझ पर बरस रहा है तूं.
वो तस्वीर मेरे महबूब की है, ये जान ले तूं
तेरी औकात नहीं उसके सामने, यह मान ले तूं.

ये सुन के चाँद ने गुसे में ये कहा-
अकेला हूँ काइनात में, तुझे शायद नहीं पता.
लोग मवाजना करते हैं मुझसे अपनी महबूब का
चेहरा दिखता है मुझ में हरेक को अपनी माशूक का.

मैंने कहा- ऐ चाँद चल तेरी बात मान लेता हूँ,
पर तेरे हुस्न का जायजा मैं हर शाम लेता हूँ
मुझे लगता है आइना तुने देखा नहीं कभी.
एक दाग है तुझमें जो उस चेहरे मैं है नहीं.

यह सुन के चाँद बोला ये मोहब्बत कि निशानी है.
इसके ज़रिये मिझे नीचा न दिखाओ ये सरासर बेमानी है.
जिस शाम लोगों को मेरी दीद नहीं होती
अगले रोज़ तो शहर में ईद नहीं होती.

मैंने कहा ऐ चाँद, तू ग़लतफ़हमी का है शिकार.
सच्चाई ये है कि तूं मुझसे गया है हार.
एक रोज़ मेरा महबूब छत पर था और शाम ढल गयी.
अगले दिन शहर में ईद कि तारीख बदल गयी.
ये आखरी बात ज़रा ध्यान से सुनना.
हो सके तो फिर अपने दिल से पूछना.

यह एक हकीक़त है कोई टीका टिप्पणी नहीं है.
जिस चांदनी पे इतना गुरूर है तुझको,
वो रौशनी भी तो तेरी अपनी नहीं है.