andhere me bhavishya ke ujaale |
बचपन में जब गाँव में थे तो जब भी किसी लड़की की शादी होती तो स्कूल बंद, अगर गाँव में कोई नेताजी आते , तो स्कूल बंद, प्रवचन देने के लिए कोई साधु महात्मा आते तो स्कूल बंद, हमारे स्कूल के बंद होने की वजह शिक्षको का सामाजिक होना या इन अवसरों में शामिल होने की हम बच्चो जिद नहीं होती थी. दरअसल स्कूल तो इसलिए बंद कर दिया जाता ताकि इन अवसरों पर इकठ्ठा होने वाले मेहमानों की खातिरदारी ठीक से हो सके. पूरे गाँव में हमारा स्कूल ही ऐसी जगह थी जहा साफ-सफाई के साथ पानी की व्यवस्था तो थीं हीं साथ ही साथ किसी तरह के तोड़-फोड़ होने पर भी कोई हस्तक्षेप करने वाला कोई नहीं था. हम बच्चे तो छुट्टी के नाम पर हीं खुश हो जाते. वैसे तो हर हफ्ते स्कूल में इतवार की छुट्टी होती थी, लेकिन इन अतिरिक्त छुट्टियों पर हमारी खुशियाँ दुगनी हो जाया करती. लेकिन अब जब बड़े हो गए तो चीजों को देखने और समझने का नजरिया बदल गया. आज जब सोचती हूँ कि हमारे स्कूल को बंद क्यों किया जाता था तो यही समझ आता कि बच्चों की पढाई को हमेशा बच्चों की तरह ही छोटा समझा जाता है, जिस पर धर्मं और संस्कृति हमेशा से हावी रही हैं. इसका दूसरा पहलू ये भी है की राजनीती को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर इसी तरह लादा जाता है जिसका ताउम्र असर रहता है. जिसमे सभी बड़ो की सहमति शामिल होती थी. आज बिहार अपने विकास के नए कीर्तिमान गढ़ रहा है, तो इस बदलते बिहार में पिछले दिनों एक ऐसी ही घटना अखबारों में देखने को मिली. मामला था. वैशाली जिले का... जहाँ भाजपा नेताओ की दो दिन की बैठक की वजह से दो प्राथमिक विद्यालयो को बंद कर दिया गया और इन विद्यालयो में नेताओ की सुरक्षा के लिए आये पुलिस वालो को ठहराया गया. ऐसी घटनाओं को प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही राजनीती की घुसपैठ कहना गलत न होगा.
चौथी क्लास के ८५ फीसद छात्र भाग नहीं दे पाते -
हाल ही में बिहार सरकार ने यूनीसेफ के सहयोग से प्राथमिक विद्यालयों का सर्वेक्षण कराया जिसकी
रिपोर्ट चौकाने वाले हैं. रिपोर्ट में ये कहा गया है की चौथी क्लास के ८५ फीसद छात्र तीन अंकों को दो अंकों से भाग नहीं दे पाते हैं, वही ६८ फीसद छात्र पथ को ठीक से नही पढ़ पाते हैं. पहली और दुसरी कक्षा के २१ और ५२ फीसद छात्र हीं अपने पथ को ठीक से पढ़ पाते है. वहीं एक्शन फॉर स्कूल admission रिफोर्म्स के एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट ये बताती है की पांचवी कक्षा के ७० फीसद छात्रों का बौद्धिक क्षमता दूसरी कक्षा के स्तर से ऊपर नहीं है. इन आकड़ों के दीर्घावधि परिणाम डराने वाले हैं. शिक्षा और ब्लैक बोर्ड का रिश्ता बहुत हीं महत्वपूर्ण है. बच्चे सुनने की बजे चीजों को देखकर आसनी से समझ लेते हैं. लेकिन सर्वे में यह बात सामने आई है की ६५ फीसद स्कूलों में ब्लैक बोर्ड का इस्तेमाल नही किया जाता. पिछली बार जब गाँव गयी थी तो पास के प्राईमरी स्कूल की पढाई के तौर तरीकों को देखा तो पाया की मास्टर साहिबा बच्चों की क्लास रोज मैदान में नीम के पेड़ के नीचे हीं लगाती थी, और खुद कुछ बुनती रहती और कुर्सी पर हीं जमी रहती थीं. ऐसे में ब्लैक बोर्ड या हर बच्चे की पढाई पर शिक्षकों का गौर फरमाना बेमानी साबित होता हैं और ये हाल तब तक देखा जब तक की मैं गाँव में थी .
न तो पूरी किताबें होती हैं और न हीं पढाई
रिपोर्ट चौकाने वाले हैं. रिपोर्ट में ये कहा गया है की चौथी क्लास के ८५ फीसद छात्र तीन अंकों को दो अंकों से भाग नहीं दे पाते हैं, वही ६८ फीसद छात्र पथ को ठीक से नही पढ़ पाते हैं. पहली और दुसरी कक्षा के २१ और ५२ फीसद छात्र हीं अपने पथ को ठीक से पढ़ पाते है. वहीं एक्शन फॉर स्कूल admission रिफोर्म्स के एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट ये बताती है की पांचवी कक्षा के ७० फीसद छात्रों का बौद्धिक क्षमता दूसरी कक्षा के स्तर से ऊपर नहीं है. इन आकड़ों के दीर्घावधि परिणाम डराने वाले हैं. शिक्षा और ब्लैक बोर्ड का रिश्ता बहुत हीं महत्वपूर्ण है. बच्चे सुनने की बजे चीजों को देखकर आसनी से समझ लेते हैं. लेकिन सर्वे में यह बात सामने आई है की ६५ फीसद स्कूलों में ब्लैक बोर्ड का इस्तेमाल नही किया जाता. पिछली बार जब गाँव गयी थी तो पास के प्राईमरी स्कूल की पढाई के तौर तरीकों को देखा तो पाया की मास्टर साहिबा बच्चों की क्लास रोज मैदान में नीम के पेड़ के नीचे हीं लगाती थी, और खुद कुछ बुनती रहती और कुर्सी पर हीं जमी रहती थीं. ऐसे में ब्लैक बोर्ड या हर बच्चे की पढाई पर शिक्षकों का गौर फरमाना बेमानी साबित होता हैं और ये हाल तब तक देखा जब तक की मैं गाँव में थी .
न तो पूरी किताबें होती हैं और न हीं पढाई
आज पूरी दुनिया में जहाँ बच्चों की शिक्षा को रुचिकर बनाने के लिए तरह-तरह से प्रयास किये जा रहें हैं, वहीं हमारे यहाँ के प्रयासों को देखकर ये कहना गलत न होगा की हमने तो प्रयास शुरू भी नही किया. इन बच्चों के पास न तो पूरी किताबें होती हैं और न हीं पढाई की और चीज़ें ही.यहाँ तो पढ़ते वक़्त बैठने तक की सुविधा नही हैं और तो दूर की बात हैं.
शहरों में छोटे बच्चों के लिए क्रेच या प्लेयिंग स्कूल होते हैं. जो पूरे दिन बच्चों की देखभाल करते हैं. आमूमन ये संस्थाएं प्राइवेट होती हैं.इसी तर्ज़ पर गाँव में आँगनबारी की व्यवस्था सरकार ने की है (ये अब शहरों में भी हैं.). इसके लिए सरकार लाखों टन आनाज के साथ खानें पीने की और सामग्री जैसे बिस्कुट, नमकीन आदि भी देती है जो बच्चों को कम हीं नसीब हो पता है, और सारा माल तो यहाँ काम करने वालों के घर हीं जाता हैं. बच्चों को खाने के नाम पर अक्सर खिचड़ी या नमक डला हुआ भात हीं मिलता है. कई बार तो २ चाकलेट से हीं मामला रफा-दफा कर दिया जाता हैं. चाहें जो हो सरकार अपनी इन हवाई योजनाओ के बदले पीठ थपथपाते हुए नही थकती . जिन बच्चों का पेट ठीक से नही भरता उन्हीं से ये उम्मीद की जाये की कल को ये हमारे देश को उज्जवल भविष्य देंगे तो क्या ये न्याय होगा. जब कल इन्हीं बच्चों को आधुनिकता की चकाचौंध में छोड़ दिया जायगा तो इनमें से प्रतिशत छात्र पढाई को दरकिनार करके कोई और काम करना बेहतर समझेंगें. तब यही सरकार इन बच्चों को वापिस स्कूल में लेन के लिए तरह-तरह से उपाय करेगी और जिका परिणाम भी सिफर हीं होगा. इन सब के लिए ज़िम्मेदार कौन होगा ? वो सरकार जिसने नीतियाँ तो बनायीं , लेकिन ज़मीनी हकीकत को जानने की पहल नही की, या वो मास्टर साहिबा जो पढ़ने के समय बुने करती थी, या वो माता-पिता जिन्होंने ऊपर वाले बाबुओं से शिकायत करने के बजाय मूक दर्शक बने रहें. ये सरे सवाल तो अपनी जगह ही रह गए लेकिन सबसे अहम् बात बच्चों को मिल रही बेमानी शिक्षा का हैं. आखिर ये बच्चे कब तक सरकार के खोखले विकास के खोखले दावों का शिकार हो. हुकूमतें बदल जातीं हैं लेकिन बिहार की शिक्ष जस की तस हीं बनी रहती है. आखिर में बच्चें को हीं तो दुनिया का सामना करना पड़ता हैं.
पिछले दिनों अख़बार में दक्षिण भारत के एक आई ए एस आफीसर का अपनी बच्ची को सरकारी स्कूल में पढ़ने की बात सामने आयी जो काबिले गौर है. सरकार की नीतियों के निर्माण से ले कर उनके कार्यान्वयन का काम इन्हीं ब्योरोक्रेट्स के हीं हाथों में हीं होता है तो ऐसे में अगर इनके बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढना आनिवार्य कर दिया जाय तो समस्या में काफी हद तक सुधार किया जा सकता हैं.
shaandaar lekh....
जवाब देंहटाएंachhaa aur mahtvpoorn hai,
unicef ke aakdon ka achha pryog.
aise hee likhte rahe.....
Thanks vivek.....:)
जवाब देंहटाएंठीक ठाक लेकिन बहुत अच्छा नहीं।
जवाब देंहटाएंbahut bdiya likha rahi ho ese hi likhte rahe .....
जवाब देंहटाएंaapke lekh ne school kee yaaden taaja kar dee.
जवाब देंहटाएंchandan ji se kahunga ठीक-ठाक siyasi shabd hai. cheeze ya to achhi ya to buri hoti hai, mere hisaab se lekh achha hai.
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपके लेख की पहली लाईन --- ''बचपन में जब गाँव में थे तो जब भी किसी लड़की की शादी होती तो स्कूल बंद'' पूरे लेख को पढ़ने के लिये प्रेरित कर रहा है...आगे पढ़ने पर एक जगह लिखा है कि....आज बिहार अपने विकास के नए कीर्तिमान गढ़ रहा है..जो कि आपके द्वारा लिखे गये हेडलाईन 'खोखले दावे खोखला विकास' का खंडन कर रहा है....उसके आगे की लाईन...चौथी क्लास के ८५ फीसद छात्र तीन अंकों को दो अंकों से भाग नहीं दे पाते हैं, वही ६८ फीसद छात्र पाठ को ठीक से नही पढ़ पाते हैं. पहली और दुसरी कक्षा के २१ और ५२ फीसद छात्र हीं अपने पाठ को ठीक से पढ़ पाते है....पढ़कर शिक्षा व्यवस्था पर दुख होता है- ये केवल बिहार की स्टोरी नहीं है...बल्कि हिंदुस्तान के ज्यादातर हिंदी राज्यों की स्टोरी है...खुशी और संतोष की बात ये है कि बच्चे अब पहले से ज्यादा संख्या में स्कुल जा रहे हैं....आगे चलकर वे मेहनत करके अपना राह खुद बनाएंगे....
जवाब देंहटाएं---------RUBI इतने अच्छे और महत्वपूर्ण टॉपिक पर लिखने के लिए धन्यवाद...