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बुधवार, 21 सितंबर 2011

जब बदलाव की बात करोगे तो विरोध होगा ही...

प्रभात खबर, पटना में कार्यरत मुकेश की लेखिका मैत्रेयी पुष्प के साथ  ९-११-२००९  को हुई बातचीत को कैव्स टुडे के ज़रिये आप तक पहुचाया जा रहा है ..... इनका ब्लॉग www.kahakahi.blogspot.com है.....
.(समाग्री का सम्पादन ब्लॉग की गुणवत्ता को ध्यान रख किया गया है. )



मैत्रेयी  पुष्पा 

हिंदी कथा को नई दिशा देने वाली साहित्य के विभिन्न सम्मान  से पुरष्कृत लेखिका मैत्रेयी  पुष्पा कहती हैं की लेखक क्या होते हैं, मैं नहीं जानती थी. मुझे पता नहीं था की एक दिन मैं भी लिखूंगी. पता नहीं वह कौन सी खरोंच थी जो मुझे बार बार याद आ जाती. धीरे-धीरे जिसने मुझे लेखिका बना दिया.  पटना तो पहली बार आई हूँ, लेकिन  सम्बन्ध किशोरा  अवस्था से ही है.  २५ साल में शादी की.  पत्नी और माँ की भूमिका निभाने के साथ लिख पढ़ रही हूँ. लिखने का शौक  ४३ साल की अवस्था से लगा.
पुष्पा कहती हैं की जब कोई औरत कुछ लिखती है तो इस तरह से लिखती है की घर वाले उस पर उंगली न उठाये और मै भी इसी तरह से लिखती थी. पति को लगता था की मैं उनके लिए  लिख रही हूँ, जबकि ऐसा नहीं था. मै उन्हें धोखा  नहीं दे रही थी. मै उनसे बस जान बचा रही थी.

आपका नाम मैत्रेयी पुष्पा क्यों ?
मैत्रेयी मेरे जन्म का नाम है, जो पंडित ने नामकरण किया था और पुष्पा पुकारू नाम और बाद में चल कर मै मैत्रेयी पुष्प हो गई. एक औरत जो घर में रहती थी वह दिल्ली में रहकर भी दिल्ली की नहीं हो सकी, उसके बाद लिखने का सिलसिला शुरू हो गया. मैं उस भूमि पटना में बैठी हूँ जहाँ   पहली बार मुझे पहचान मिली. सबसे पहले हिंदुस्तान पेपर में लिखना शुरू किया. इतने पाठक मिले  की  खुद को साहित्यकार समझने लगी. मैंने अपनी लेखनी में औरत को कभी प्रमुख नहीं किया, बल्कि अपने आप लिखते गई और स्त्री पक्ष को प्रमुखता मिलती गयी.

अल्मा कबूतरी लिखने की प्रेरणा कैसे मिली ?
मेरे पास जो अनुभव था, उसकी  गहराई मैं समझ रही थी.  वही कहानियां मेरे पास थी, जिसे मैंने महसूस किया था. जो कहानियां मैंने लिखी वो ऐसी में बैठकर नहीं लिखी जा सकती. मैंने गाँव में जाकर उसको जिया फिर लिखा. मैंने लोकगीत व् लोक कथाओं  से लिखा और सब कुछ उसमे कलमबद्ध किया . पढाई से ज्यादा लोक गीत पसंद था . माँ ने पीट कर पढाया. मेरे पास लोक गीत लोक कथा के सिवा कोई धरोहर नहीं मौजूद था.
राजेंद्र यादव से बहुत कुछ सीखी-  
राजेंद्र साहब के साथ मेरा नाम लिया जाता है. उन्होंने मेरे लिए बहुत कुछ किया . एक एक उपन्यास और किताबें पढ़ने को दिए. मुझ अज्ञान सी औरत के लिए बहुत कुछ किया. मुझे लगता था कोई तो है जो बता रहा है. सिखा रहा है.
जब इंकार किया तो लोग नाराज हो गए-
लड़कियों और स्त्रियों की दशा-दिशा पर जब उनसे पूछा गया तो  उन्होंने कहा की जब बदलाव की बात करोगे तो विरोध होगा ही.  हमारी संस्कार और परंपरा  बहुत महान है. लेकिन मेरे हिसाब से जब मैंने समाज की स्त्रीयों के प्रति मानसिकता को मानने से इनकार किया, संस्कार और परंपराओं को तोड़ने का काम किया तो लोग नाराज हो गए. बदलाब की बात सोंचो तो विरोध होता ही है.
मुझे समीक्षक नहीं पाठक मिले, मेरी लेखनी के न्याय की कचहरी पाठक हैं, पाठकों ने मुझसे लिखवाते चले गए. स्त्रियों की दशा-दिशा ही मेरी लेखनी का आधार है.
शरीर के सिवा कुछ भी नहीं
शरीर के सिवा औरत के पास कुछ भी नहीं है. जब शरीर के आधार पर ही उसे जलाया जाता है मारा जाता है बदनाम किया जाता है और हर पीड़ा दी जाती है तो फिर शरीर को हथियार क्यों नहीं बनाया जाये , शरीर के सिवा उसके पास कुछ भी नहीं है . जब तक किसी की पत्नी , बहु बेटी न हो उसे सम्मान नहीं मिलता . विधवा रहकर जरा जी लें? , समाज में लोग शरीर को सेक्स का एक टूल क्यों समझते हैं ? क्या स्त्री के  शरीर में क्या खाली  अश्लीलता है? आधी उम्र हमने घूँघट ओढा है. उतरा तो बदनाम हो गए. जवाब देने लगे तो बाचाल हो गए , औरत के शरीर पर ही सारा बंधन होता है ,  पुरुष सेक्स चाहे तो ठीक और औरत चाहे तो बदचलन ? औरत की भी कुछ स्वाभाविक इच्छाएं हैं.
पुरुष और स्त्री दोनों बाजारबाद की चपेट में बाजारबाद और स्त्री यह भी एक नया नारा है. आते तो पुरुष भी हैं लेकिन लोगों की निगाहें लड़कियों पर ही  जाती है. पुरुष और स्त्री आज दोनों बाजारबाद की चपेट में हैं.

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