रामचंद्र सिंह, रंगमंच कलाकार |
नुक्कड़ एक ऐसा सशक्त माध्यम , जो लोगो में रक्त संचार को चार गुना तेज कर देता है, जहाँ दर्शक खुद एक महत्वपूर्ण किरदार होता है. जहाँ मुद्दे नकलीपन के साथ नहीं उठते हैं. एक आम आवाज़ आम लोगो के बीच खुले वातावरण में उठकर खास हो जाती है, पूरा वातावरण एक साथ हँसता है, एक साथ रोता है, एक साथ आक्रोशित होता है. दर्शक अपने जीवन के उस पक्ष से जुड़ता है, जिसे उसने नज़रअंदाज कर दिया, या कभी ध्यान नहीं दिया. जहाँ दर्शक यह नहीं महसूस करता की वह ठगा हुआ है, बल्कि यह महसूस करता है की वह कहीं ज़रूर ठगा जा रहा है. आज के दौर में कहाँ है नुक्कड़, कौन कर रहा है नुक्कड़, क्या यह सवाल आप को नहीं कचोटता है. मुझे कचोटता है.? जब यही सवाल मैंने रंगमंच के एक कलाकार रामचंद्र सिंह से पूछी तो कहने लगे दुर्भाग्य है की सामंती व्यवस्था ने इस क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा है. रामचन्द्र पिछले दो दशक से नाटक, रंगमंच से सजीव रूप से जुड़े हैं. हबीब तनवीर के बनाए रंगमंच टोली नया थीयेटर का निर्देशन अब इनके हाथ में है. मोतीहारी (जन्मभूमि) से सफ़र शुरू कर लखनउ, डेल्ही होते भोपाल में हैं. पिछले दिनों पटना में नाटक के सिलसिले में इनका आना हुआ, बताने लगे कि अब कैसे नुक्कड़ होते हैं? . अब वो नुक्कड़ कहा होते हैं जहाँ बिन पैसे के लोग जनविरोधी नीतियों को , अपनी समस्याओं को खुले आसमान में उठाते थे, आवाज़ में इतनी शक्ति होती थी कि बहरे भी सुन लिया करते थे, साजिशन महगाई बढ़ी हर पढने- लिखने वाला समझने वाला आर्थिक रूप से कमज़ोर हुआ. खासकर ऐसे लोग जिन्होंने जीवन रंगमंच को दिया. उनका जीवन चलना मुश्किल हो गया, बाज़ार ने इसका फायदा उठाया. तुरंत नुक्कड़ नाटक पर भी अपना कब्ज़ा कर लिया. परिणाम आपके सामने है. जो नुक्कड़ आपको दीखते हैं क्या है उनमे ट्रक्टर- बैटरी बेचने की बात है या सरकारी योजना का गुडगान है, या जानकारी बाटने के नाम पर झूटी सरकारी प्रसंशा, ही बची है. हम भी इस दौर में कभी - कभी घोर निराशा में चले जाते हैं जब हमारे घरों में चार-चार दिनों तक चूल्हा नहीं जलता. इस कला को समाप्त करने में दर्शको का भी हाथ है, हम झेलते हैं जब एक नाटक के पीछे हम एक सप्ताह कड़ी मेहनत करते हैं, और नाटक के दिन पता चलता है की दर्शक आये ही नहीं, जो आये वो टिकेट नहीं खरीदना चाहते हैं.
हज़ारो रूपये खर्च कर पोप कोर्न के साथ रुपहले परदे पर रंग-बिरंगी लाइट की चका-चौंध, ग्लैमर, सपने , देखना दर्शको को अच्छा लगता है. खुले आसमान में कहां कोई कुछ देखना चाहता है, या यूँ भी कह सकते हैं की लोगो ने अपना सच देखना ही छोड़ दिया है. सरकार भी अगर एक मंच बनाती है तो उसमे हमारा प्रयोग करना चाहती है. वह हमे दरबारी कलाकारों की तरह देखते है. हबीब जी हमेशा कहते थे दुनिया का सबसे मुश्किल काम है सहज बनना, उसी राह पर चल रहा हूँ, हमारी सहजता का अनायास फायदा भी लोग उठाते है, लेकिन सहजता के साथ यह जुड़ा हुआ दुर्गुण है. कलाकार हूँ , मुश्किल हालात में भी कलाकार ही रहना चाहता हूँ. बस दर्शको से अपील है की कम से कम वे न्याय करे हमारे साथ.
यह नुक्कड़ का दर्द है, जो कह रहा है की क्या आप इस दौर में भी मुझे नहीं समझ रहे. मुझे जीवित रखिये, मेरे अपने रूप में , आप कलाकार नहीं है तो क्या हुआ, कम से कम एक अच्छे दर्शक बनकर अपनी जिम्मेवारी निभा दीजिये, सब कुछ अब आपके हाथ में है.
बेहतर...
जवाब देंहटाएंकोई भी चीज़ यदि बाज़ार का हिस्सा बनना चाहेगी...तो बाज़ार के नियमों से ही संचालित होगी...
बाज़ार का हिस्सा भी बनना चाहें...और नियमों पर रोना रोया जाए...यह नहीं जमता...
पेट ही भरना है...तो फिर वैसे ही विकल्प तलाशने होंगे...
अगर अभी भी उद्देश्य, "अब वो नुक्कड़ कहा होते हैं जहाँ बिन पैसे के लोग जनविरोधी नीतियों को , अपनी समस्याओं को खुले आसमान में उठाते थे" यही हो...तो आवाज़ों में दम पैदा हो ही जाता है...
बेहतर रपट...