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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

नुक्कड़ का दर्द

रामचंद्र सिंह, रंगमंच कलाकार

http://www.gaanvtola.blogspot.com/
नुक्कड़ एक ऐसा सशक्त माध्यम , जो लोगो में रक्त संचार को चार गुना तेज कर देता है, जहाँ दर्शक खुद एक महत्वपूर्ण किरदार होता है. जहाँ मुद्दे नकलीपन के साथ नहीं उठते हैं. एक आम आवाज़ आम लोगो के बीच खुले वातावरण में उठकर खास हो जाती है, पूरा वातावरण एक साथ हँसता है, एक साथ रोता है, एक साथ आक्रोशित होता है. दर्शक अपने जीवन के उस पक्ष से जुड़ता है, जिसे उसने नज़रअंदाज कर दिया, या कभी ध्यान नहीं दिया. जहाँ दर्शक यह नहीं महसूस करता की वह ठगा हुआ है, बल्कि यह महसूस करता है की वह कहीं ज़रूर ठगा जा रहा है. आज के दौर में कहाँ है नुक्कड़, कौन कर रहा है नुक्कड़, क्या यह सवाल आप को नहीं कचोटता है. मुझे कचोटता है.? जब यही सवाल मैंने रंगमंच के एक कलाकार रामचंद्र सिंह से पूछी तो कहने लगे दुर्भाग्य है की सामंती व्यवस्था ने इस क्षेत्र को भी नहीं छोड़ा है. रामचन्द्र पिछले दो दशक से नाटक, रंगमंच से सजीव रूप से जुड़े हैं. हबीब तनवीर के बनाए रंगमंच टोली नया थीयेटर का निर्देशन अब इनके हाथ में है. मोतीहारी (जन्मभूमि) से सफ़र शुरू कर लखनउ, डेल्ही होते भोपाल में हैं. पिछले दिनों पटना में नाटक के सिलसिले में इनका आना हुआ, बताने लगे कि अब कैसे नुक्कड़ होते हैं? . अब वो नुक्कड़ कहा होते हैं जहाँ बिन पैसे के लोग जनविरोधी नीतियों को , अपनी समस्याओं को खुले आसमान में उठाते थे, आवाज़ में इतनी शक्ति होती थी कि बहरे भी सुन लिया करते थे, साजिशन महगाई बढ़ी हर पढने- लिखने वाला समझने वाला आर्थिक रूप से कमज़ोर हुआ. खासकर ऐसे लोग जिन्होंने जीवन रंगमंच को दिया. उनका जीवन चलना मुश्किल हो गया, बाज़ार ने इसका फायदा उठाया. तुरंत नुक्कड़ नाटक पर भी अपना कब्ज़ा कर लिया. परिणाम आपके सामने है. जो नुक्कड़ आपको दीखते हैं क्या है उनमे ट्रक्टर- बैटरी बेचने की बात है या सरकारी योजना का गुडगान है, या जानकारी बाटने के नाम पर झूटी सरकारी प्रसंशा, ही बची है. हम भी इस दौर में कभी - कभी घोर निराशा में चले जाते हैं जब हमारे घरों में चार-चार दिनों तक चूल्हा नहीं जलता. इस कला को समाप्त करने में दर्शको का भी हाथ है, हम झेलते हैं जब एक नाटक के पीछे हम एक सप्ताह कड़ी मेहनत करते हैं, और नाटक के दिन पता चलता है की दर्शक आये ही नहीं, जो आये वो टिकेट नहीं खरीदना चाहते हैं.
हज़ारो रूपये खर्च कर पोप कोर्न के साथ रुपहले परदे पर रंग-बिरंगी लाइट की चका-चौंध, ग्लैमर, सपने , देखना दर्शको को अच्छा लगता है. खुले आसमान में कहां कोई कुछ देखना चाहता है, या यूँ भी कह सकते हैं की लोगो ने अपना सच देखना ही छोड़ दिया है. सरकार भी अगर एक मंच बनाती है तो उसमे हमारा प्रयोग करना चाहती है. वह हमे दरबारी कलाकारों की तरह देखते है. हबीब जी हमेशा कहते थे दुनिया का सबसे मुश्किल काम है सहज बनना, उसी राह पर चल रहा हूँ, हमारी सहजता का अनायास फायदा भी लोग उठाते है, लेकिन सहजता के साथ यह जुड़ा हुआ दुर्गुण है. कलाकार हूँ , मुश्किल हालात में भी कलाकार ही रहना चाहता हूँ. बस दर्शको से अपील है की कम से कम वे न्याय करे हमारे साथ.
यह नुक्कड़ का दर्द है, जो कह रहा है की क्या आप इस दौर में भी मुझे नहीं समझ रहे. मुझे जीवित रखिये, मेरे अपने रूप में , आप कलाकार नहीं है तो क्या हुआ, कम से कम एक अच्छे दर्शक बनकर अपनी जिम्मेवारी निभा दीजिये, सब कुछ अब आपके हाथ में है.

बुधवार, 28 सितंबर 2011

तुम मुझे यू भुला न पाओगे..........




"तेरा जाना दिल के अरमानो का लुट जाना" .....विदर्भ की जनता पर आज हिंदी फिल्म का यह पुराना गाना सौ फीसदी सच साबित हो रहा है.... अपने किसी जन नेता के खोने का गम किसी को कैसा सताता है यह इस गाने से बखूबी साबित हो जाता है... बीते दिनों कांग्रेस के वरिष्ठ नेता बाबू साहब उर्फ बसंत राव साठे की मौत की खबर से पूरे विदर्भ वासी शोकमग्न है... साठे का गुडगाव में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया .... ८६ वर्षीय साठे इंदिरा , राजीव, नरसिंह राव की तीनो सरकार में वरिष्ठ मंत्री और अन्य पदों पर रहे थे ......उनके निधन से महाराष्ट्र के विदर्भ ने एक बड़े जन नेता को खो दिया .......... साठे से जुडी कुछ बातें ......... ........वे अंतिम समय तक गाँधीवादी नेता बने रहे ...कांग्रेस में उनकी गिनती शुरुवात से नेहरु गाँधी परिवार के प्रति बनी रही......

विदर्भ के कट्टर समर्थक ---- सार्वजनिक जीवन में रहते हुए २००३ में साठे ने अपने सहयोगी एन के पी साल्वे के संघ कांग्रेस का त्याग किया था ... यह कदम उन्होंने स्वतन्त्र विदर्भ की मांग के समर्थन में उठाया था .....

मिलिटरी स्कूल में शिक्षा --- साठे ने अपनी आरंभिक पदाई नासिक के भोंसले मिलिटरी स्कूल से की .... नागपुर विश्व विद्यालय से उन्होंने अर्थशास्त्र राजनीतिक विज्ञान में स्नातक की डिग्री ली ... साथ ही उन्होंने अपनी वकालत भी की.....

बाक्सिंग चैम्पियन---- विचारो से गाँधीवादी , आत्मा से समाजवादी पड़ी के दरमियान खेलो में भी आगे रहे.... मौरिस स्कूल से वह बाक्सिंग चैम्पियन भी रहे....

समाजवादी से कांग्रेसी ---- साठे मशहूर वक्ता होने के साथ ही सामाजिक जीवन से समाजवादी नजर आये... १९४८ में उन्होंने लोहियावाद से प्रेरित होकर समाजवादी पार्टी में प्रवेश लिया ... १९६४ में अशोक मेहता से प्रेरित होकर उन्होंने कांग्रेस पार्टी में राजनीती को करियर के रूप में चुना......अकोला से सांसद -----साठे ने अपना पहला लोक सभा चुनाव १९७२ में अकोला से लड़ा था .... १९७० में वह य़ू एन ओ में भारतीय प्रतिनिधित्व भी कर चुके थे.....

इंदिरा के साथी---- आपातकाल और उसके बाद विपरीत परिस्थितियों में उन्होंने इंदिरा गाँधी का साथ दिया.... १९७७ में इसके फलस्वरूप उनको कांग्रेस संसदीय दल का उपनेता बनने का मौका मिला...... १९७९ तक वह पार्टी के प्रवक्ता भी रहे......

कलर टी वी योगदान --- १९८० में साठे कांग्रेस सरकार में सूचना प्रसारण मंत्री बनाये गए.....इस दौर में उन्होंने भारत में टी वी के युग की शुरुवात की.....हम लोग, बुनियाद जैसे सेरियालो की नीव डालने और १९८३ के एशियन गेम को टी वी में दिखाकर उन्होंने सबसे सामने खुद का लोहा मनवाया था.....

८० में वर्धा से निर्वाचित---- १९७२ में अकोला संसदीय इलाके से चुनाव जीतने के बाद साठे १९८० में महात्मा गाँधी की कर्म स्थली वर्धा से चुनाव जीतकर केंद्र में मंत्री बने ....... ७२ में योजना आयोग के सलाहकार नियुक्त हुए .... ८० से ९० तक लगतार वर्धा का प्रतिनिधित्व भी किया... इस दरमियान वह इस्पात, रसायन, उर्वरक कोयला मंत्री भी रहे ....... विदर्भ में उद्योग को गति भी सही मायनों में साठे ने ही दी......

लेखक भी रहे--- बसंतराव लेखन से भी जुड़े रहे.... २००५ में अपना ८१ वा जन्म दिन मनाते समय उन्होंने अपनी आत्मकथा " मेमोरीज ऑफ़ ऐ रेशेंलिस्ट " लिखी...उन्होंने नए भारत नयी चुनौतिया , भारत में आर्थिक लोकतंत्र समेत तकरीबन आठ किताबे लिखी......इन आठो किताबो में उनकी काले धन पर लिखी गई एक किताब खासी महत्वपूर्ण है....

उतारा था यूनियन जेक----- बसंतराव में बचपन से देश प्रेम की भावना कूट कूट कर भरी हुई थी.... १९४२ में नागपुर की जिला अदालत की ईमारत पर चदकर उन्होंने अंग्रेजी शासन के प्रतीक यूनियन जेक को नीचे उतारकर तिरंगा फहराया था....

विदर्भ से नाता गहरा --- उनका विदर्भ से गहरा नाता था ॥ दिल्ली की राजनीती में रमे रहने के बाद भी वह समय निकालकर वर्धा आते थे ... यहाँ आकर काम करवाया करते थे.... जिस दिन उनकी मौत करता समाचार लोगो ने सुना तो आखें नम हो गई.... लोग कह रहे थे अगर वो ९१ में वर्धा से नहीं हारते तो शायद नर सिंह राव की जगह प्रधानमंत्री होते.....राजीव की हत्या के बाद वह लगातार हाशिये में चले गए... ९१ की हार के बाद पार्टी ने उन्हें १९९६ में दुबारा वर्धा से टिकट दिया लेकिन वह अपनी सीट नहीं बचा पाए....इसके बाद से उन्होंने कभी इस संसदीय इलाके में कदम नहीं रखा .....उनकी मौत के बाद भी आज विदर्भ में उनके प्रशंसको की कमी नहीं है... शायद यही कारन है आज भी लोग उनकी गिनती इस इलाके में "विकास पुरुष"के रूप में करते है.........

रिक्शा विज्ञापन वाला....


हमरी फोटो छाप के का करियेगा? नगीना
बुधवार, २८ सितम्बर रिपोर्टिंग  के लिए निकला, हमारी तनख्वाह से ही काट कर नवरात्रि पर आज ही बोनस मिला था सो जेब गरम थी.  खुद को अमीर समझ रहा था. हालांकि अपनी अमीरी की सीमा रिक्शा तक ही है. ये कुछ बाते निकल कर आई सो आप से बया कर रहा हूँ. ..... www.gaanvtola.blogspot.com 
 
टना राजधानी में रिक्शा चालक सिकंदर और नगीना अब अमीर हो चुके हैं. उन्हें अपनी अमीरी का अंदाजा नहीं था.मैंने पूछा कितना कमाते हैं बताने लगे खाने पीने भर. मैंने कहा खुल कर बताये ,कुछ देर तो चुप रहे फिर बड़ी असकत से बोले दिन भर में  डेढ़ सौ से दो सौ रुपया.मैंने कहा आप तो अमीर हैं, इस पर वे चौके नहीं,एक खास भाव-भंगिमा बनाकर और बड़े ही सहज भाव से बोले-सही कह रहे हैं, मज़ाक उड़ाने के लिए हम ही लोग तो हैं. मैंने कहा ये अमीरी का पैमाना मै नहीं सरकार बता रही है. रोज़ ३२ रुपया कमाने वाले अमीर माने जायेंगे. वे  बोले सरकार- वरकार हम क्या जाने? गरीब आदमी हैं साहब !
बैल का काम करते हैं,  रोज़ कूआं खोदो रोज़ पानी पियो.अपनी यही जिंदगी है. सरकार कौन ची कर रही है हमरे लिए, सब तोह भूखा है.
फिर प्रसंग बदल गया. 
रिक्शा आपका है ? सिकंदर और नगीना बोले-  काश! होता.  
 मालिक का है? हाँ.
 कितना लेते है?  इस सवाल पर दोनों  का चेहरा तिलमिला उठा,  बोले-
अभी हाल से ही तो १० रुपया किराया बढा दिया है, पूरा तीस  रुपया मालिक वसूलता है, कितना मिला इससे मतलब नहीं है.   पिंचर  हो जाए तो खुद झेलो, ग्राहक कम दे तो चुप चाप ले लो, नहीं तो मार खाओ. ऐसे भी अब ग्राहक एसी बस और ऑटो में जाता है, ग्राहक मिलते कहा है. जो मिलते हैं उन्हें लगता है की हम अधिक किराया बता रहे हैं.नगीना बोला हमरे पीछे पांच लोगन का परिवार है. यंहा के कमाई से  से कुछ होता है. १०० रुपया तो अपने पर दिन में खर्च होता है.सिकंदर मुजफ्फरपुर से हैं. नगीना छपरा से. दोनों एक दशक बिता चुके पटना में रिक्शा चलाते. बताते हैं पटना में रिक्शा मालिक की संख्या करीब दो  हज़ार है. सभी के पास औसत 2० रिक्शा है. कोई सप्ताह में पूरा पैसा वसूलता है तो कोई महिना में. इस धंधे में भी नए लोगो की इंट्री बिना जान-पहचान के मुश्किल है. बैंक की तरह गारेंटर चाहिए. रिक्शा के पीछे जो विज्ञापन छपता है उसका ६० रुपया हमी को मिलता है, लेकिन एक विज्ञापन तब तक रहता है जब तक कोई दूसरा मिल न जाए.  हर रिक्शा तीस रुपया किराए के हिसाब से पटना में एक मालिक रोज का600 रुपया व् महीने का १८ हज़ार कम से कम कमाता है, औसत 2० रिक्शा के हिसाब से पटना में २००० मालिकों  के पास कुल ४० हज़ार रिक्शा हैं हर रिक्शा से तीस रूपये किराए के हिसाब से सभी मिलकर  रोजाना एक लाख बीस हज़ार की कमाई करता है.महीने में यह हिसाब ३ करोड़ ६० लाख बैठता है. मार्केट में एक नए रिक्शे की कीमत १२ हज़ार है.
रिक्शे विज्ञापन वाले- 







हमरी फोटो अखबार में छपेगी? सिकंदर 

मंगलवार, 27 सितंबर 2011

डूब गया विकास, तैर रहा सुशासन

खबर पटना से. २७ सितम्बर 
मंगलवार की सुबह धूप खिलखिला उठी,  राजधानी की कुछ मुख्य सडको पर पानी नहीं बचा,   कुछ सडको पर पानी रहा या  पानी पर सड़के. यह स्थिति भ्रांतिमान अलंकार का बोध कराती रही.   राजधानी के कुछ इलाके आज भी  पानी से डूबे रहे, सुशासन तैरता दिखाई दिया. शाम होते करीब २० मिनट की ज़ोरदार बारिश ने रही सही कसर पूरी कर दी. वही राजधानी के आस - पास  इलाकों में तो विकास पूरी तरह से डूबता दिखाई दिया. कुछ तस्वीरे हैं देखिये कितना डूबा विकास , कितना तैरा सुशासन..... 
सभी  तस्वीरे 27 सितम्बर,२०११ को कैमरे में कैद  
जल में डूबा जल्ला (पटना आस-पास क्षेत्र 
  

जल में डूबा जल्ला (पटना आस-पास क्षेत्र )

पटना - दानापुर  

पटना - दानापुर

पटना - दानापुर

   

बस याद आ गयी......


घर गए हुए काफी दिन हुआ. पिछली बार जब घर गया तो पहली बार कैमरे वाला मोबाइल खरीदने का मौका लगा. बस यूँ ही दो- दो हाथ में तस्वीरे खीची. ताकि याद आती रहे.......


बिहार, आरा स्टेशन के पास रेलगाड़ी रुकी. और यह तस्वीर मोबाइल में कैद हो  गयी. 


उत्तर प्रदेश, बहराइच, अपने घर की एक शाम 

सोमवार, 26 सितंबर 2011

बारिश के बाद उजाले में पटना

 बारिश के बाद उजाले में पटना और आस पास  का क्षेत्र कैसा दिखता है?  ज्यादा क्या कहूँ फोटो देख लीजिये.... आज सोमवार को कोई खास बारिश नहीं हुई. सब रविवार को एक दिन हुई बारिश का असर है.. एक सप्ताह बरस गया तो क्या हाल होगा... ये हम नहीं मसौढ़ी के महंगू , फुलवारी के दुर्गा और शहर में रिक्शा और मजदूरी कर रहे नेतराम और सिध्हो को  कहना है.........
                                 (सभी फोटो २६ सितम्बर २०११ की है.)


मसौढ़ी पटना - आस पास क्षेत्र

मसौढ़ी पटना - आस पास क्षेत्र

मसौढ़ी पटना - आस पास क्षेत्र

मसौढ़ी पटना - आस पास क्षेत्र

फुलवारी,  पटना - आस पास क्षेत्र

राजधानी - कंकडबाग

राजधानी - मौनिल हक स्टेडियम  

१० जनपथ का पावर हॉउस यानी अहमद पटेल...........



संसदीय राजनीती के मायने भले ही इस दौर में बदल गए हो और उसमे सत्ता का केन्द्रीयकरण देखकर अब उसे विकेंद्रीकृत किये जाने की बात की जा रही हो लेकिन देश की पुरानी पार्टी कांग्रेस में परिवारवाद साथ ही सत्ता के केन्द्रीकरण का दौर नही थम रहा है .....

दरअसल आज़ादी के बाद से ही कांग्रेस में सत्ता का मतलब एक परिवार के बीच सत्ता का केन्द्रीकरण रहा है....फिर चाहे वो दौर पंडित जवाहरलाल नेहरु का हो या इंदिरा गाँधी या फिर राजीव गाँधी का ... राजीव गाँधी के दौर के खत्म होने के बाद एक दौर ऐसा भी आया जब कांग्रेस पार्टी की सत्ता लडखडाती नजर आई..... उस समय पार्टी के अध्यक्ष पद की कमान सीता राम केसरी के हाथो में थी..... यही वह दौर था जिस समय कांग्रेस पार्टी सबसे बुरे दौर से गुजरी..... यही वह दौर था जब भाजपा ने पहली बार गठबंधन सरकार का युग शुरू किया और अपने बूते केन्द्र की सत्ता पायी थी....


उस दौर में किसी ने शायद कल्पना नही की थी कि एक दिन फिर यही कांग्रेस पार्टी भाजपा को सत्ता से बेदखल कर केन्द्र में सरकार बना पाने में सफल हो जाएगी.... यही नही वामपंथियों की बैसाखियों के आसरे अपने पहले कार्यकाल में टिकी रहने वाली कांग्रेस अन्य पार्टियों से जोड़ तोड़ कर सत्ता पर काबिज हो जाएगी और "मनमोहन" शतरंज की बिसात पर सभी को पछाड़कर दुबारा "किंग" बन जायेंगे ऐसी कल्पना भी शायद किसी ने नही की होगी ......

दरअसल इस समूचे दौर में कांग्रेस पार्टी की परिभाषा के मायने बदल चुके है ....उसमे अब परिवारवाद की थोड़ी महक है और कही ना कहीं भरोसेमंद "ट्रबल शूटरो" का भी समन्वय.....इसी के आसरे उसने यू पी ऐ १ से यू पी ऐ २ की छलांग लगाई है ....सोनिया गाँधी ने जब से हिचकोले खाती कांग्रेस की नैय्या पार लगाने की कमान खुद संभाली है तब से सही मायनों में कांग्रेस की सत्ता का संचालन १० जनपथ से हो रहा है ..... यहाँ पर सोनिया के भरोसेमंद कांग्रेस की कमान को ना केवल संभाले हुए है बल्कि पी ऍम ओ तक को इनके आगे नतमस्तक होना पड़ता है .....


इस दौर में कांग्रेस की सियासत १० जनपथ से तय हो रही है जहा पर कांग्रेस के सिपहसलार समूची व्यवस्था को इस तरह संभाल रहे है कि उनके हर निर्णय पर सोनिया की सहमती जरुरी बन जाती है.... दस जनपथ की कमान पूरी तरह से इस समय अहमद पटेल के जिम्मे है....जिनके निर्देशों पर इस समय पूरी पार्टी चल रही है....."अहमद भाई" के नाम से मशहूर इस शख्स के हर निर्णय के पीछे सोनिया गाँधी की सहमती रहती है.... सोनिया के "फ्री हैण्ड " मिलने के चलते कम से कम कांग्रेस में तो आज कोई भी अहमद पटेल को नजरअंदाज नही कर सकता है...


अहमद पटेल की हैसियत देखिये बिना उनकी हरी झंडी के बिना कांग्रेस में पत्ता तक नही हिला करता ....कांग्रेस में "अहमद भाई" की ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी के किसी भी छोटे या बड़े नेता या कार्यकर्ता को सोनिया से मिलने के लिए सीधे अहमद पटेल से अनुमति लेनी पड़ती है.....अहमद की इसी रसूख के आगे पार्टी के कई कार्यकर्ता अपने को उपेक्षित महसूस करते है लेकिन सोनिया मैडम के आगे कोई भी अपनी जुबान खोलने को तैयार नही होता है ....मेरे राज्य से ताल्लुक रखने वाले कांग्रेस नेता के एक बेहद करीबी व्यक्ति ने मुझे बीते दिनों बताया कि कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्री अहमद पटेल से अनुमति लेकर सोनिया से मिलते है ....


अहमद भाई को समझने के लिए हमें ७० के दशक की ओर रुख करना होगा.....यही वह दौर था जब अहमद गुजरात की गलियों में अपनी पहचान बना रहे थे.....उस दौर में अहमद पटेल "बाबू भाई" के नाम से जाने जाते थे और १९७७ से १९८२ तक उन्होंने गुजरात यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष पद की कमान संभाली .....७७ के ही दौर में वो भरूच कोपरेटिव बैंक के निदेशक भी रहे.....


इसी समय उनकी निकटता राजीव के पिता फिरोज गाँधी से भी बढ़ गई क्युकि राजीव के पिता फिरोज का सम्बन्ध अहमद पटेल के गृह नगर से पुराना था..... इसी भरूच से अहमद पटेल तीन बार लोक सभा भी पहुचे ... १९८४ में अहमद पटेल ने कांग्रेस में बड़ी पारी खेली और वह "जोइंट सेकेटरी" तक पहुच गए लेकिन पार्टी ने उस दौर में उन्हें सीधे राजीव गाँधी का संसदीय सचिव नियुक्त कर दिया था ......


इसके बाद कांग्रेस का गुजरात में जनाधार बढाने के लिए पटेल को १९८६ में गुजरात भी भेजा गया .... गुजरात में पटेल को करीब से जाने वाले बताते है पूत के पाँव पालने में ही दिखाई देते है... शायद तभी अहमद पटेल ने राजनीती में बचपन से ही पैर जमा लिए थे......पटेल के टीचर ऍम एच सैयद ने उन्हें ८ वी क्लास का मोनिटर बना दिया था.....यही नही जोड़ तोड़ की कला में पटेल कितने माहिर थे इसकी मिसाल उनके टीचर यह कहते हुए देते है कि अहमद पटेल ने उस दौर में उनको उस विद्यालय का प्रिंसिपल बना दिया था.....


शायद बहुत कम लोगो को ये मालूम है कि गुजरात के पीरमण में अहमद पटेल का जीवन क्रिकेट खेलने में भी बीता था उस दौर में पीरमण की क्रिकेट टीम की कमान खुद वो सँभालते थे .....टीम में उनकी गिनती एक अच्छे आल राउनडर के तौर पर होती थी.....अहमद पटेल की इन्ही विशेषताओ के कारण शायद उन्हें उस पार्टी में एक बड़ी जिम्मेदारी दी गई जो देश की सबसे बड़ी पार्टी है .....यहाँ अहमद पटेल सोनिया गाँधी के राजनीतिक सलाहकार है .....


अहमद की इसी ताकत का लोहा आज उनके विपक्षी भी मानते है.....यकीन जान लीजिये पार्टी को हाल के समय में बुरे दौर से उबारकर सत्ता में लाने में अहमद पटेल की भूमिका को किसी तरह से नजर अंदाज नही किया जा सकता....हाँ ये अलग बात है भरूच में कांग्रेस लगातार ४ लोक सभा चुनाव हारती जा रही है फिर भी हर गुजरात में होने वाले हर छोटे बड़े चुनाव में टिकटों कर बटवारा अहमद पटेल की सहमती से होता आया है जो यह बतलाने के लिए काफी है कि आज पार्टी में उनका सिक्का कितनी मजबूती के साथ जमा हुआ है ....


अहमद पटेल की ताकत की एक मिसाल २००४ में देखने को मिली जब पहली बार कांग्रेस यू पी ऐ १ में सरकार बनाने में कामयाब हुई थी .... इस कार्यकाल में सोनिया के "यसबॉस " मनमोहन बने ओर वह अपनी पसंद के मंत्री को विदेश मंत्रालय सौपना चाहते थे लेकिन दस जनपद गाँधी पीड़ी के तीसरे सेवक कुवर नटवर सिंह को यह जिम्मा देना चाहता था लेकिन मनमोहन नटवर को भाव देने के कतई मूड में नही थे.....

जहाँ इस नियुक्ति में मनमोहन सिंह की एक ना चली वही नटवर के हाथ विदेश मंत्रालय आ गया ....मनमोहन का झुकाव शुरू से उस समय अमेरिका की ओर कुछ ज्यादा ही था.... लेकिन अपने कुंवर साहब ईरान और ईराक के पक्षधर दिखाई दिए....


कुंवर साहब अमेरिका की चरण वंदना पसंद नही करते थे और परमाणु करार करने के बजाए ईरान के साथ अफगानिस्तान , पकिस्तान के रास्ते भारत गैस पाइप लाइन लाना चाहते थे ... इस योजना में कुंवर साहब को गाँधी परिवार के पुराने सिपाही मणिशंकर अय्यर का समर्थन था ......वही मणिशंकर जो आज कांग्रेस पार्टी को सर्कस कहने और उसके कार्यकर्ताओ को जोकर कहने से परहेज नही करते ......


कुंवर , मणिशंकर मनमोहन को १० जनपथ का दास मानते थे.....लेकिन समय ने करवट ली और "वोल्कर" के चलते नटवर ना केवल विदेश मंत्री का पद गवा बैठे बल्कि पार्टी से भी बड़े बेआबरू होकर निकल गए..... लेकिन इसके बाद भी मनमोहन अपनी पसंद के आदमी को विदेश मंत्री बनाना चाहते थे लेकिन १० जनपथ के आगे उनकी एक ना चली ....और प्रणव मुखर्जी को विदेश मंत्री की जिम्मेदारी मिली......प्रणव की नियुक्ति से परमाणु करार तो संपन्न हो गया लेकिन देश की विदेश नीति वैसे नही चल पाई जैसा मनमोहन चाहते थे.....लेकिन २००९ में जब अपने दम पर मनमोहन ने अपने को "मजबूत प्रधानमंत्री के तौर पर स्थापित किया तो दस जनपद के आगे उनकी चलने लगी.....


इसी के चलते मनमोहन ने अपनी दूसरी पारी में एस ऍम कृष्णा, शशि थरूर , कपिल सिब्बल को अपने हिसाब से केबिनेट पद की कमान सौपी......आई पी एल में थरूर के फसने के बाद जब १० जनपथ ने उनसे इस्तीफ़ा माँगा तब अकेले मनमोहन उनका बीच बचाव करते नजर आये......इस समय १० जनपथ की और से प्रधानमंत्री मनमोहन को जबरदस्त घुड़की पिलाई गई थी .....तब १० जनपथ की ओर से मनमोहन को साफ़ संदेश देते हुए कहा गया था आपको ओर आपके मंत्रियो को १० जनपथ के दायरे में रखकर काम करना होगा .....

यही नही अहमद पटेल ने तो उस समय शशि थरूर को लताड़ते हुए यहाँ तक कह डाला था वे यह ना भूले वह किसकी कृपा से यू पी ऐ में मंत्री बने है......दरअसल यह पूरा वाकया दस जनपथ में अहमद पटेल की ताकत का अहसास कराने के लिए काफी है....


दस जनपथ शुरुवात से नही चाहता कि मनमोहन को हर निर्णय लेने के लिए "फ्री हेंड" दिया जाए....अगर ऐसा हो गया तो मनमोहन अपनी कोर्पोरेट की बिसात पर सरकार चलाएंगे....ऐसी सूरत में आने वाले दिनों में कांग्रेस पार्टी क भावी "युवराज " के सर सेहरा बाधने में दिक्कतें पेश आ सकती है .....इसलिए कांग्रेस के सामने यह दौर ऐसा है जब उसके हर मंत्री की स्वामीभक्ति मनमोहन के बजाए १० जनपथ में सोनिया के सबसे विश्वासपात्र अहमद पटेल पर आ टिकी है...

एक दौर ऐसा भी था जब अहमद पटेल की पार्टी में उतनी पूछ परख नही थी......लेकिन जोड़ तोड़ की कला में बचपन से माहिर रहे अहमद पटेल ने समय बीतने के साथ गाँधी परिवार के प्रति अपनी निष्ठा बढ़ा ली और सोनिया के करीबियों में शामिल हो गए.....राजनीतिक प्रेक्षक बताते है कि पार्टी में अहमद पटेल के इस दखल को पार्टी के कई नेता और कार्यकर्ता पसंद तक नही करते लेकिन सोनिया के आगे इस पर कोई अपनी चुप्पी नही तोड़ता....

बताया जाता है अहमद पटेल की आंध्र के पूर्व दिवंगत सी ऍम राजशेखर रेड्डी से कम बनती थी..... दोनों के बीच ३६ का आकडा जगजाहिर था ...कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्य मंत्रियो में वह अकेले ऐसे थे जो अहमद पटेल के ज्यादा दखल का खुलकर विरोध करते थे......अब राजशेखर इस दुनिया में नही रहे इसका असर यह हुआ है अहमद पटेल ने पूरी पार्टी "हाईजेक" कर ली है....

यही वजह है उन्होंने दिवंगत राजशेखर के बेटे जगन मोहन के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला बनाकर उन्होंने इसमें सोनिया की सहमती ली है और अब मामले की सी बी आई जांच कराने में जुटे है .... आखिर बड़ा सवाल यह है इतने सालो से आन्ध्र की राजनीती में राजशेखर का जब वर्चस्व था तब कांग्रेस पार्टी को यह ध्यान क्यों नही आया कि रेड्डी के पास इतनी ज्यादा अकूत धन सम्पदा कैसे आई.....? कही कर नही यह कांग्रेस को कठघरे में खड़ा कर रहा है......

कुलमिलाकर आज कांग्रेस में अहमद पटेल होने के मायने गंभीर हो चले है ....किसको मंत्री बनाना है ... किस नेता को अपने पाले में लाना है ... जोड़ तोड़ कैसे होगा ? यह सब अहमद पटेल की आज सबसे बड़ी ताकत बन गई है .....


अहमद की इसी काबिलियत के आगे जहाँ कांग्रेस हाईकमान नतमस्तक होता है वही बेचारे मनमोहन अपने मन की बेबसी के गीत गाते नजर आते है..... फिर अगर आज के दौर में कांग्रेस के कार्यकर्ता अगर यह सवाल पूछते है कि २४ अकबर रोड नाम मात्र का दफ्तर बनकर रह गया है तो जेहन में उमड़ घुमड़ कर कई सवाल पैदा होते है ..... कही न कही इसी के चलते पार्टी को आने वाले दिनों में मुश्किलों का सामना ना करना पड़ जाए....वैसे भी इस समय कांग्रेस के सितारे इस समय गर्दिश में है......
हर्ष.................


(लेखक "विहान " मासिक पत्रिका के संपादक और राजनीतिक विश्लेषक है .... आप बोलती कलम ब्लॉग पर जाकर इनके विचारो को पढ़ सकते है)

पानी रे पानी तेरा रंग कैसा?



भोपाल - सूखा रे सूखा 
कोसी का दर्द 
















कही पानी की कमी से लोग मरते हैं, तो कही पानी की अधिकता से. मध्य प्रदेश भोपाल में पानी की कमी से लोगो का खून होता है. बिहार में पानी से लोगो का खून किया जाता है.इसी की बानगी है बिहार  2008 की कोसी बाढ़, लाखो घर पानी की तबाही में बर्बाद हुए, हज़ारो  मारे गए. जो बचे वो न्याय की आस लगाए जी रहे है. कुछ ने कहा दैवीय आपदा है. कुछ ने कहा मेरी किस्मत. चालाक हत्यारे गरीबो की इन्ही आह और भोलेपन के पीछे छुपते रहे है. मध्य प्रदेश में भी  २६ साल पहले भोपाल गैस त्रासदी का हस्र किसी से छुपा नहीं है. एक पीढ़ी न्याय के आस में दुनिया से जा चुकी है. जो अधमरे बचे लोग है, वो आस लगाए है. न्यायपालिका दोनों जगह फेल हो गयी. बिहार में  तो कोसी जांच आयोग बना दिया गया.जो 2009 से अब तक एक करोड़ से अधिक जांच के लिए खर्च कर चुका है. लेकिन  कोसी के हत्यारे अभी भी किसी बहुमंजिला इमारत पर पानी से बचने की कोशिश कर रहे है. 
अश्विन  का महीना है, किसान और कवि घाघ दोनों के मुताबिक़ बारिश का समय है, किसान सीने पर हाथ रख कभी आसमान तो कभी अपने घर तो कभी अपने खेतो को देखते हैं, 
कुछ नेता और हत्यारे इस महीने में दीवालो की छूटती पेंट और अपने छोटे लान को देखते हैं. 
कई गाँवों में उत्सव- जश्न बारिश की वजह से मनाया जा रहा है, तो कुछ गाँव अभी भी सदमे में है, कही घर न डूब जाए. कुछ नेता और हत्यारे इस अश्विन  को रंगीन करने की सोच रहे हैं, बारिश हो और शाम- जाम  सजे.   आखिर सवाल उठेगा ही पानी रे पानी तेरा रंग कैसा? 
बिहार भी २०११ के भादो से अश्विन तक भीग रहा है , धीरे-धीरे  बारिश हो रही है. राजधानी को भी डर सताने  लगा है. सोचिये कोसी सदमे से जो अभी तक नहीं उबरे उनका क्या होगा? कई गाँवों में गले तक पानी पहुच गया है, लेकिन राजधानी में घुटने तक इसलिए विकास के फलसफे पर काम करने वाले नेता जी को अभी चिंता नहीं है. विकास की मानक बनने का दावा करने वाली राजधानी की स्थिति कुछ फोटो से देखिये, गाँव का क्या होगा अंदाजा लगा लीजियेगा, लेकिन नेता जी के सचिव अभी गणित में उलझे हैं..........    

दानापुर - पटना से सटा इलाका (25 सितम्बर,2011 की फोटो)  
 25 सितम्बर,२०११ को राजधानी का कुछ ये हाल रहा, ये सभी फोटो कल ही खीची गयी है. 






रविवार, 25 सितंबर 2011

खबर गोरखपुर से,,, गोरखनाथ मंदिर में हुआ जोरदार धमाका...


रविवार 25 सितम्बर की रात गोरखनाथ मंदिर परिसर में जोरदार धमाका होने से मंदिर में सनसनी फैल गया...धमाका भीम ताल के पास हुआ...घटना के वक्त वहां कोई पर्यटक या दर्शनार्थी नहीं था...चुंकि रात का समय था..इसलिए किसी के वहां मौजूद न रहने से जान- माल के किसी प्रकार की कोई क्षति नहीं हुई...घटना के तुरंत बाद वहां पुलिस के आला अधिकारी पहुंच गये...छानबीन करने पर पता लगा कि कोई पटाका रख गया था...गौरतलब है कि मंदिर परिसर में ही गोरखपुर सदर सांसद योगी आदित्यनाथ और उनके गुऱू महंथ अवैद्यनाथ रहते हैं ....

शुक्रवार, 23 सितंबर 2011

भारतीय राजनीती में गहराता परिवारवाद .........

हमारे देश की राजनीती में परिवारवाद तेजी से गहराता जा रहा है.....जिस तेजी से परिवारवाद यहाँ पैर पसार रहा है उसके हिसाब से वह दिन दूर नहीं जब देश में कोई भी ऐसा नेता मिलना मुश्किल हो जायेगा जिसका कोई करीबी रिश्तेदार राजनीती में नहीं हो ..... राजनीतिक परिवारों के लिये भारतीय राजनीती से ज्यादा उर्वरक जमीन पूरे विश्व में कही नहीं है.....आज का समय ऐसा हो गया है राजनीती का कारोबार सभी को पसंद आने लगा है ॥ तभी सभी अपने नाते रिश्तेदारों को राजनीती में लाने लगे है....ऐसे हालातो में वो लोग" साइड लाइन" होने लगे है जिन्होंने किसी दौर में पार्टी के लिये पूरे मनोयोग से काम किया था...


आज के समय में नेताओ का पुत्र होने लाभ का सौदा है .... अगर आप किसी नेता के पुत्र है तो सारा प्रशासनिक अमला आपके साथ रहेगा ........यहाँ तक की मीडिया भी आपकी ही चरण वंदना करेगा ....अगर खुशकिस्मती से आप अपने रिश्तेदारों की वजह से टिकट पा गए तो समझ लीजिये आपको कुछ करने की जरुरत नही है ..... चूँकि आपके रिश्तेदार किसी पार्टी से जुड़े है इसलिए उनके साथ कार्यकर्ताओ की जो फ़ौज खड़ी है वो खुद आपके साथ चली आएगी...... इन सब बातो के मद्देनजर वो कार्यकर्ता अपने को ठगा महसूस करता है जिसने अपना पूरा जीवन पार्टी की सेवा में लगा दिया...


धीरे धीरे भारतीय राजनीती अब इसी दिशा में आगे बढ़ रही है ..... राजनीती में गहराते जा रहे इस वंशवाद को अगर नहीं रोका गया तो वो दिन दूर नहीं जब हमारे लोकतंत्र का जनाजा ये परिवारवाद निकाल देगा .......भारतीय राजनीती आज जिस मुकाम पर है अगर उस पर नजर डाले तो हम पाएंगे आज राष्ट्रीय दल से लेकर प्रादेशिक दल भी इसे अपने आगोश में ले चुके है..... कांग्रेस पर राजनीतिक परिवारवादी के बीजो को रोपने का आरोप शुरू से लगता रहा है लेकिन आज आलम यह है कल तक परिवारवाद को कोसने वाले नेता भी आज अपने बच्चो को परिवारवाद के गर्त में धकेलते जा रहे है..... देश की विपक्षी पार्टी भाजपा में भी आज यही हाल है ... उसके अधिकांश नेता आज परिवारवाद की वकालत कर रहे है....."हमाम में सभी नंगे है" कमोवेश यही हालात देश के अन्य राजनीतिक दलों में भी है........ भारतीय राजनीती में इस वंशवाद को बढाने में हमारा भी एक बढ़ा योगदान है.....



संसदीय लोकतंत्र में सत्ता की चाबी वैसे तो जनता के हाथ रहती है लेकिन हमारी सोच भी परिवारवाद के इर्द गिर्द ही घुमा करती है .... वह सम्बन्धित व्यक्ति के नाते रिश्तेदार को देखकर वोट दिया करती है....जबकि सच्चाई ये है , चुनाव में राजनीतिक परिवारवाद से कदम बढ़ने वाले अधिकाश लोगो के पास देश दुनिया और आम आदमी की समस्याओ से कोई वास्ता ओर सरोकार नहीं होता ......वो तो शुक्र है ये लोग अपने पारिवारिक बैक ग्राउंड के चलते राजनीती में अपनी साख जमा लेते है ...... ऐसे लोगो ने भारतीय राजनीती को पुश्तैनी व्यवसाय बना दिया है .......जहाँ पर उनकी नजरे केवल मुनाफे पर आ टिकी है.....इसी के चलते आज वे किसी भी आम आदमी को आगे बढ़ता हुआ नहीं देखना चाहते......


वंशवाद अगर इसी तरह से अगर आगे बढ़ता रहा तो आम आदमी का राजनीती में प्रवेश करने का सपना सपना बनकर रह जायेगा ........परिवारवाद को बढाने वाले कुछ लोगो ने राजनीती को अपनी बपोती बना कर रख दिया है......यही लोग है जिनके चलते आज "जन लोकपाल " बिल पारित नहीं हो पा रहा है.... अन्ना सरीखे लोगो ने आज इन्ही की बादशाहत को खुली चुनोती दे दी है ......जिसके चलते खुद को सत्ता का मठाधीश समझने वाले इन नेताओ को आज उनका सिंहासन खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है.........

हर्ष ....

बुधवार, 21 सितंबर 2011

खोखले दावे खोखला विकास..

andhere me bhavishya ke ujaale

चपन में जब गाँव में थे तो जब भी किसी लड़की की शादी होती तो स्कूल बंद,  अगर गाँव में कोई नेताजी आते , तो स्कूल बंद,  प्रवचन देने के लिए कोई साधु महात्मा आते तो स्कूल बंद,  हमारे स्कूल के बंद होने की वजह शिक्षको का सामाजिक होना या इन अवसरों में शामिल होने की हम बच्चो  जिद नहीं होती थी. दरअसल स्कूल तो इसलिए बंद कर दिया जाता ताकि इन अवसरों पर इकठ्ठा होने वाले मेहमानों की खातिरदारी ठीक से हो सके. पूरे गाँव में हमारा स्कूल ही ऐसी जगह थी जहा साफ-सफाई के साथ पानी की व्यवस्था तो थीं हीं साथ ही साथ किसी तरह के तोड़-फोड़ होने पर भी कोई हस्तक्षेप करने वाला कोई नहीं था. हम बच्चे तो छुट्टी के नाम पर हीं खुश हो जाते. वैसे तो हर हफ्ते स्कूल में इतवार की छुट्टी होती थी, लेकिन इन अतिरिक्त छुट्टियों पर हमारी खुशियाँ दुगनी हो जाया करती. लेकिन अब जब बड़े हो गए तो चीजों को देखने और समझने का नजरिया बदल गया.  आज जब सोचती हूँ कि हमारे स्कूल को बंद क्यों किया जाता था तो यही समझ आता कि बच्चों की पढाई को हमेशा बच्चों की तरह ही छोटा समझा जाता है, जिस पर धर्मं और संस्कृति हमेशा से हावी रही हैं. इसका दूसरा पहलू ये भी है की राजनीती को शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर इसी तरह लादा जाता है जिसका ताउम्र असर रहता है. जिसमे सभी बड़ो की सहमति शामिल होती थी. आज बिहार अपने विकास के नए कीर्तिमान गढ़ रहा है, तो इस बदलते बिहार में पिछले दिनों एक ऐसी ही घटना अखबारों में देखने को मिली. मामला था.       वैशाली जिले का... जहाँ भाजपा नेताओ की दो दिन की  बैठक की वजह से दो प्राथमिक विद्यालयो को बंद कर दिया गया और इन विद्यालयो में नेताओ की सुरक्षा के लिए आये पुलिस वालो को ठहराया गया. ऐसी घटनाओं को प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर ही राजनीती की घुसपैठ कहना गलत न होगा.
चौथी क्लास के ८५ फीसद छात्र भाग नहीं दे पाते -
हाल ही में बिहार सरकार ने यूनीसेफ के सहयोग से प्राथमिक विद्यालयों का सर्वेक्षण कराया जिसकी
रिपोर्ट चौकाने वाले हैं. रिपोर्ट में ये कहा गया है की चौथी क्लास के ८५ फीसद छात्र तीन अंकों को दो अंकों से भाग नहीं दे पाते हैं,  वही ६८ फीसद छात्र पथ को ठीक से नही पढ़ पाते हैं. पहली और दुसरी कक्षा के २१ और ५२ फीसद छात्र हीं अपने पथ को ठीक से पढ़ पाते है. वहीं एक्शन फॉर स्कूल admission  रिफोर्म्स के एक सर्वेक्षण की रिपोर्ट ये बताती है की पांचवी कक्षा के ७० फीसद छात्रों का बौद्धिक क्षमता दूसरी कक्षा के स्तर से ऊपर नहीं है. इन आकड़ों के दीर्घावधि परिणाम डराने वाले हैं. शिक्षा और ब्लैक बोर्ड का रिश्ता बहुत हीं महत्वपूर्ण है. बच्चे सुनने की बजे चीजों को देखकर आसनी से समझ लेते हैं. लेकिन सर्वे में यह बात सामने आई है की ६५ फीसद स्कूलों में ब्लैक बोर्ड का इस्तेमाल नही किया जाता. पिछली बार जब गाँव गयी थी तो पास के प्राईमरी स्कूल की पढाई के तौर तरीकों को देखा तो पाया की मास्टर साहिबा बच्चों की क्लास रोज मैदान में नीम के पेड़ के नीचे हीं लगाती थी, और खुद कुछ बुनती रहती और कुर्सी पर हीं जमी रहती थीं. ऐसे में ब्लैक बोर्ड या हर बच्चे की पढाई पर शिक्षकों का गौर फरमाना बेमानी साबित होता हैं और ये हाल तब तक देखा जब तक की मैं गाँव में थी .
न तो पूरी किताबें होती हैं और न हीं पढाई
आज पूरी दुनिया में जहाँ बच्चों की शिक्षा को रुचिकर बनाने के लिए तरह-तरह से प्रयास किये जा रहें हैं, वहीं हमारे यहाँ के प्रयासों को देखकर ये कहना गलत न होगा की हमने तो प्रयास शुरू भी नही किया. इन बच्चों के पास न तो पूरी किताबें होती हैं और न हीं पढाई की और चीज़ें ही.यहाँ तो पढ़ते वक़्त बैठने तक की सुविधा नही हैं और तो दूर की बात हैं.

शहरों में छोटे बच्चों के लिए क्रेच या प्लेयिंग स्कूल होते हैं. जो पूरे दिन बच्चों की देखभाल करते हैं. आमूमन ये संस्थाएं प्राइवेट होती हैं.इसी तर्ज़ पर गाँव में आँगनबारी की व्यवस्था सरकार ने की है (ये अब शहरों में भी हैं.). इसके लिए सरकार लाखों टन आनाज के साथ खानें पीने की और सामग्री जैसे बिस्कुट, नमकीन आदि भी देती है जो बच्चों को कम हीं नसीब हो पता है, और सारा माल तो यहाँ काम करने वालों के घर हीं जाता हैं. बच्चों को खाने के नाम पर अक्सर खिचड़ी या नमक डला हुआ भात हीं मिलता है. कई बार तो २ चाकलेट से हीं मामला रफा-दफा कर दिया जाता हैं. चाहें जो हो सरकार अपनी इन हवाई योजनाओ के बदले पीठ थपथपाते हुए नही थकती . जिन बच्चों का पेट ठीक से नही भरता उन्हीं से ये उम्मीद की जाये की कल को ये हमारे देश को उज्जवल भविष्य देंगे तो क्या ये न्याय होगा. जब कल इन्हीं बच्चों को आधुनिकता की चकाचौंध में छोड़ दिया जायगा तो इनमें से प्रतिशत छात्र पढाई को दरकिनार करके कोई और काम करना बेहतर समझेंगें. तब यही सरकार इन बच्चों को वापिस स्कूल में लेन के लिए तरह-तरह से उपाय करेगी और जिका परिणाम भी सिफर हीं होगा. इन सब के लिए ज़िम्मेदार कौन होगा ? वो सरकार जिसने नीतियाँ तो बनायीं , लेकिन ज़मीनी हकीकत को जानने की पहल नही की, या वो मास्टर साहिबा जो पढ़ने के समय बुने करती थी, या वो माता-पिता जिन्होंने ऊपर वाले बाबुओं से शिकायत करने के बजाय मूक दर्शक बने रहें. ये सरे सवाल तो अपनी जगह ही रह गए लेकिन सबसे अहम् बात बच्चों को मिल रही बेमानी शिक्षा का हैं. आखिर ये बच्चे कब तक सरकार के खोखले विकास के खोखले दावों का शिकार हो. हुकूमतें बदल जातीं हैं लेकिन बिहार की शिक्ष जस की तस हीं बनी रहती है. आखिर में बच्चें को हीं तो दुनिया का सामना करना पड़ता हैं.
पिछले दिनों अख़बार में दक्षिण भारत के एक आई ए एस आफीसर का अपनी बच्ची को सरकारी स्कूल में पढ़ने की बात सामने आयी जो काबिले गौर है. सरकार की नीतियों के निर्माण से ले कर उनके कार्यान्वयन का काम इन्हीं ब्योरोक्रेट्स के हीं हाथों में हीं होता है तो ऐसे में अगर इनके बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढना आनिवार्य कर दिया जाय तो समस्या में काफी हद तक सुधार किया जा सकता हैं.

जब बदलाव की बात करोगे तो विरोध होगा ही...

प्रभात खबर, पटना में कार्यरत मुकेश की लेखिका मैत्रेयी पुष्प के साथ  ९-११-२००९  को हुई बातचीत को कैव्स टुडे के ज़रिये आप तक पहुचाया जा रहा है ..... इनका ब्लॉग www.kahakahi.blogspot.com है.....
.(समाग्री का सम्पादन ब्लॉग की गुणवत्ता को ध्यान रख किया गया है. )



मैत्रेयी  पुष्पा 

हिंदी कथा को नई दिशा देने वाली साहित्य के विभिन्न सम्मान  से पुरष्कृत लेखिका मैत्रेयी  पुष्पा कहती हैं की लेखक क्या होते हैं, मैं नहीं जानती थी. मुझे पता नहीं था की एक दिन मैं भी लिखूंगी. पता नहीं वह कौन सी खरोंच थी जो मुझे बार बार याद आ जाती. धीरे-धीरे जिसने मुझे लेखिका बना दिया.  पटना तो पहली बार आई हूँ, लेकिन  सम्बन्ध किशोरा  अवस्था से ही है.  २५ साल में शादी की.  पत्नी और माँ की भूमिका निभाने के साथ लिख पढ़ रही हूँ. लिखने का शौक  ४३ साल की अवस्था से लगा.
पुष्पा कहती हैं की जब कोई औरत कुछ लिखती है तो इस तरह से लिखती है की घर वाले उस पर उंगली न उठाये और मै भी इसी तरह से लिखती थी. पति को लगता था की मैं उनके लिए  लिख रही हूँ, जबकि ऐसा नहीं था. मै उन्हें धोखा  नहीं दे रही थी. मै उनसे बस जान बचा रही थी.

आपका नाम मैत्रेयी पुष्पा क्यों ?
मैत्रेयी मेरे जन्म का नाम है, जो पंडित ने नामकरण किया था और पुष्पा पुकारू नाम और बाद में चल कर मै मैत्रेयी पुष्प हो गई. एक औरत जो घर में रहती थी वह दिल्ली में रहकर भी दिल्ली की नहीं हो सकी, उसके बाद लिखने का सिलसिला शुरू हो गया. मैं उस भूमि पटना में बैठी हूँ जहाँ   पहली बार मुझे पहचान मिली. सबसे पहले हिंदुस्तान पेपर में लिखना शुरू किया. इतने पाठक मिले  की  खुद को साहित्यकार समझने लगी. मैंने अपनी लेखनी में औरत को कभी प्रमुख नहीं किया, बल्कि अपने आप लिखते गई और स्त्री पक्ष को प्रमुखता मिलती गयी.

अल्मा कबूतरी लिखने की प्रेरणा कैसे मिली ?
मेरे पास जो अनुभव था, उसकी  गहराई मैं समझ रही थी.  वही कहानियां मेरे पास थी, जिसे मैंने महसूस किया था. जो कहानियां मैंने लिखी वो ऐसी में बैठकर नहीं लिखी जा सकती. मैंने गाँव में जाकर उसको जिया फिर लिखा. मैंने लोकगीत व् लोक कथाओं  से लिखा और सब कुछ उसमे कलमबद्ध किया . पढाई से ज्यादा लोक गीत पसंद था . माँ ने पीट कर पढाया. मेरे पास लोक गीत लोक कथा के सिवा कोई धरोहर नहीं मौजूद था.
राजेंद्र यादव से बहुत कुछ सीखी-  
राजेंद्र साहब के साथ मेरा नाम लिया जाता है. उन्होंने मेरे लिए बहुत कुछ किया . एक एक उपन्यास और किताबें पढ़ने को दिए. मुझ अज्ञान सी औरत के लिए बहुत कुछ किया. मुझे लगता था कोई तो है जो बता रहा है. सिखा रहा है.
जब इंकार किया तो लोग नाराज हो गए-
लड़कियों और स्त्रियों की दशा-दिशा पर जब उनसे पूछा गया तो  उन्होंने कहा की जब बदलाव की बात करोगे तो विरोध होगा ही.  हमारी संस्कार और परंपरा  बहुत महान है. लेकिन मेरे हिसाब से जब मैंने समाज की स्त्रीयों के प्रति मानसिकता को मानने से इनकार किया, संस्कार और परंपराओं को तोड़ने का काम किया तो लोग नाराज हो गए. बदलाब की बात सोंचो तो विरोध होता ही है.
मुझे समीक्षक नहीं पाठक मिले, मेरी लेखनी के न्याय की कचहरी पाठक हैं, पाठकों ने मुझसे लिखवाते चले गए. स्त्रियों की दशा-दिशा ही मेरी लेखनी का आधार है.
शरीर के सिवा कुछ भी नहीं
शरीर के सिवा औरत के पास कुछ भी नहीं है. जब शरीर के आधार पर ही उसे जलाया जाता है मारा जाता है बदनाम किया जाता है और हर पीड़ा दी जाती है तो फिर शरीर को हथियार क्यों नहीं बनाया जाये , शरीर के सिवा उसके पास कुछ भी नहीं है . जब तक किसी की पत्नी , बहु बेटी न हो उसे सम्मान नहीं मिलता . विधवा रहकर जरा जी लें? , समाज में लोग शरीर को सेक्स का एक टूल क्यों समझते हैं ? क्या स्त्री के  शरीर में क्या खाली  अश्लीलता है? आधी उम्र हमने घूँघट ओढा है. उतरा तो बदनाम हो गए. जवाब देने लगे तो बाचाल हो गए , औरत के शरीर पर ही सारा बंधन होता है ,  पुरुष सेक्स चाहे तो ठीक और औरत चाहे तो बदचलन ? औरत की भी कुछ स्वाभाविक इच्छाएं हैं.
पुरुष और स्त्री दोनों बाजारबाद की चपेट में बाजारबाद और स्त्री यह भी एक नया नारा है. आते तो पुरुष भी हैं लेकिन लोगों की निगाहें लड़कियों पर ही  जाती है. पुरुष और स्त्री आज दोनों बाजारबाद की चपेट में हैं.

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

मैं भी अन्ना तू भी अन्ना ................


घोटालो और भारतीय राजनीती का चोली दामन का साथ रहा है बरसो से यहाँ की राजनीती के बारे में एक जुमला चला आ रहा है जिसके अनुसार यहाँ की राजनीती में सब कुछ जायज है लेकिन बीते एक माह में भारतीयों को अन्ना के रूप में एक ऐसा शख्स मिला है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ एक बड़ी आवाज बनकर खड़ा खड़ा हो गया और उसने पूरे देश को एक मंच पर लाकर खड़ा कर दिया सही मायनों में शहर दर शहर अन्ना के समर्थन में जिस तरीके से हर तबके का हुजूम उमड़ा उसने हर देशवासी को भ्रष्टाचार से लड़ने को मजबूर कर दिया हमारी आम जिन्दगी में रीति रिवाजो की तरह से शामिल हो चुके भ्रष्टाचार के प्रति आक्रोश तो पहले से ही था लेकिन अभी तक इसे व्यक्त करने की जेहमत कोई नहीं उठा पा रहा था जंतर मंतर पर जन लोकपाल को लेकर अन्ना के अनशन और ५ जून २०११ को रामदेव पर पुलिसिया अत्याचार की कार्यवाहियों ने आम आदमी को भ्रष्टाचार से लड़ने और अपने गुस्से को बाहर निकालने का एक मौका दे दिया ७४ वर्षीय हजारे ने घोटालो से तंग आ चुकी जनता को एकजुट होने का एक मौका दे दिया सही मायनों में भ्रष्टाचार पर अन्ना ने देश के आम आदमी का दिल जीत लिया वह लोगो को ये अहसास करा पाने में कामयाब हो गए भ्रष्टाचार रुपी रावण का संहार हो गया तो घर घर में उजाला होगा और खुशहाली आएगी अन्ना ने जन लोकपाल को लेकर अपनी लड़ाई को "अगस्त क्रांति" के जरिये घर घर तक पहुचने में सफलता पायी इसी के चलते हर तबके के लोगो ने अन्ना के सामने " मै भी अन्ना तू भी अन्ना " के नारे लगाये और पूरी सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया

यू भी अन्ना ने अपनी लड़ाई को उसी मैदान से शुरू किया जहाँ कभी जेपी ने सत्ता को "सिंहासन खली करो की जनता आती है" गाकर चुनोती दी थी इसी मैदान पर जहाँ इंदिरा ने पाक के जश्न में १९७२ में रैली की थी वही शास्त्री ने इसी मैदान से जय जवान जय किसान का नारा लगाया था यही नहीं राम न नाम लेकर सत्ता में आई भाजपा ने भी इसी रामलीला मैदान के जरिये अपने अयोध्या आन्दोलन की हुंकार भरी थी अन्ना ने पहली बार किसी गैर राजनीतिक मंच के जरिये जिस तरीके से सत्ता को शीर्षासन कराने को मजबूर कर दिया उसने आम आदमी के सामने भ्रष्टाचार की मशाल को जलाए रखा क्युकि उस आम आदमी के सरोकार इस दौर में बिना बेमानी के हक़ का जीवन जीना चाहते थे

अन्ना के पहले भी इस देश में जेपी, वी पी के बड़े आन्दोलन हुए थे लेकिन उस दौर में संचार साधन पर्याप्त नहीं थे .. आज का दौर ऐसा है जहाँ इन्टरनेट और समाचार चैनलों ने दूरियों को छोटा कर दिया है एक दशक पूर्व तक लोग अख़बार, रेडियो से खबरे पाते थे और इन्ही के जरिये देश के हालातो पर चर्चा किया करते थे लेकिन न्यू मीडिया के आने के बाद स्थितिया बदल गई सोसिअल नेटवर्किंग साईट, वेब , ब्लॉग की दुनिया आज सभी के लिए खुली है जहाँ खुलकर किसी भी मसले पर अपने विचार रखने की आज़ादी है इस देश की ६० फीसदी युवा आबादी ने भी अन्ना के आन्दोलन में भागीदारी कर जैसा उत्साह दिखाया उसने अन्ना के आन्दोलन को सबसे बड़ा आन्दोलन बना दिया शहर दर शहर अन्ना की आंधी से पूरा देश प्रभावित हुआ और सरकार की खासी फजीहत हुई जन लोकपाल रुपी मर्म को समझने में भले ही आम आदमी इस आन्दोलन में नाकाम रहा हो लेकिन भ्रष्टाचार रुपी रावन के अंत के के लिए उसे अन्ना के रूप बड़ा प्रतीक मिल गया इससे भी बड़ी भूमिका इस आन्दोलन किस सफलता में मीडिया की रही जिसने रामलीला मैदान से सीधे लाइव घर घर दिखाकर लोगो को आन्दोलन की व्यापकता का अहसास कराया इसी के आसरे अन्ना के समर्थन में विदेशो से प्रवासियों का सैलाब निकल आया


मीडिया , एस ऍम एस , इन्टरनेट से ग्लोबल बनी अन्ना की इस क्रांति ने पूरी दुनिया के सामने नयी मिसाल पेश कर दी आज़ादी के बाद हमारे देश का यह ऐसा जनांदोलन था जिसने अहिंसक राह के जरिये रामलीला मैदान जीत लिया और सरकार को दोनों सदनों में जन लोकपाल के मसले पर बहस कराने को मजबूर होना पड़ा इसी की परिणति आज ये है आज यह बिल स्टेंडिंग कमेटी के पास भेजा गया है जिसके बाद संभवतया नए साल में हमें एक सशक्त लोकपाल की सौगात देखने को मिल सकती है...... (क्रमश ........)

सोमवार, 19 सितंबर 2011

चलो सुन्दर कैव्स परिवार बनाए.....


दोस्तों, 
 मैं मानता हूँ  मुख्य आत्मा ही है.  इसी तरह से इस ब्लॉग की आप लोग आत्मा  हैं.
 कैव्स टुडे व्यक्तिवादी नहीं है. सबका है, सबके लिए है. इसी भावना से यह पिछले एक साल  से बढ़ रहा है. जिसमे आपकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण रही है. इस परिवार के निर्माण का उद्देश्य भी आपस में जुड़ना है. एक सामूहिक आवाज बनना है. जिसमे यह अभी बीस प्रतिशत काम ही कर सके  है. अस्सी प्रतिशत की उम्मीद है, आशा है.
एक महत्वपूर्ण बात जिस पर आपकी सच्ची प्रतिक्रिया चाहता हूँ -  
यह मेरा सोचना है,  हो सकता है इससे आप इत्तेफाक न रखे या फिर हो सकता है की आप का रास्ता अलग हो तो आप इसमें रूचि न ले..   

मेरे एक परम मित्र परमार ने मुझे कल एक सलाह दी.....  दूसरो से उम्मीद छोड़ो. खुद आगे बढ़ो. मुकाम हासिल करो, फिर बदलाव करना. लेकिन मुझे लगता है की हम सबकी मंजिल एक है, रास्ते अलग- अलग हो सकते हैं तो हम सब मिलकर कुछ कर सकते हैं. खास वहा जहा कुछ अर्थ यानी धन  नहीं लग रहा. 
 मेरे कुछ सवाल है आपसे
१.क्या हम केव्स टुडे को अपने कंटेंट से एक मजबूत स्तम्भ नहीं बना सकते ?
२. क्या हमारी लेखनी या किसी चीज की देखने की दृष्टि समाप्त हो चुकी है ?
३. हम क्यूँ राष्ट्रीय मुद्दे में अपने विचार देकर उसे हाई क्लास रखते है? क्या ज़मीन पर आँख के सामने घट रही छोटी घटनाओं को नहीं लिख-पढ़  सकते?
४. क्या हम उस पात्र की आवाज नहीं बन सकते जिसे सब ने छोटा मुद्दा माना या फिर उसमे रूचि नहीं ली?
५. क्या इस मंच को हम अपनी भाषा, कंटेंट, स्टाइल, इत्यादि से धनी नहीं कर सकते?
मै उठाता हूँ जिम्मेदारी क्या आप तैयार हैं?
आज मैंने ब्लॉग का रंग रूप बदला है. इस उम्मीद के साथ की नयी शुरुआत किया जाए.. मै यह जिम्मेदारी भी उठाता हूँ की आपकी पोस्ट में जो भी शाब्दिक त्रुटियाँ होंगी उन्हें सुधारूँगा, हेडिंग मजबूत करूंगा. इसके अलावा जो कुछ भी लिख-पढ़ सकता हूँ. कैव्स परिवार को समर्पित करूंगा.  
कई ऐसे अपने साथी इस परिवार से जुड़े जिनके नाम केवल एक किनारे लिखे हैं. उनका योगदान नहीं मिला लेकिन उम्मीद ही बनी रही की कम से कम जुड़े हैं.    
आप अपने तेज से  रोज प्रकाश दे रहे हैं. इसकी चमक दिनों-दिन बढ़ रही है. ब्लॉग की सुन्दरता आपके लेखन से है.  चलो इसे सुन्दर बनाए.....

गुरुवार, 15 सितंबर 2011

खबर भोपाल से,,,,,,, '' ये क्या कह दिया पी.एल पुनिया महोदय ने !''










बुधवार यानि 14 सितम्बर को पी एल पुनिया भोपाल में मौजूद थे....पुनिया महोदय ने मीडिया से चर्चा के दौरान कहा कि दिल्ली और लखनऊ के मेडिकल कॉलेजों में अनुसुचित जाति के छात्रों को कॉलेज प्रबंधन द्वारा जानबूझकर फेल कर दिया जाता है....सामान्य वर्ग के छात्र जहां तय समय पर एमबीबीएस की पढ़ाई पुरी कर लेते हैं....वहीं अनुसुचित जाति के छात्रों को जानबूझकर फेल कर दिया जाता है.....पुनिया महोदय का ये बयान अनुसुचित जाति के उन छात्रों के हक में जाए जाए.... लेकिन समाज में नफरत फैलाने का काम जरूर कर रहा है....होना ये चाहिए था कि पुनिया महोदय पहले आरोपियों की जांच कराकर दोषियों को सजा दिलाते.....फिर इस बात के लिए जाहे जितना प्रेस कांफ्रेंस करते.... तब पूरा समाज उनके साथ रहता..... लेकिन दलित वोट की खातिर और अपने आकाओं की नजर में आने की खातिर पुनिया महोदय ने कार्रवाई करने की बजाय राजनिति करना शुरू कर दिया है..... आज जब पूरा देश बाबा साहब भीम राव अंबेडकर के बनाए संविधान पर चल रहा है....हर विद्वान को इज्जत मिल रही है....फिर भी कुछ राजनेता समाज में जाति-धर्म की फसल उगाकर सत्ता में बने रहना चाहते हैं....जो कि सर्वथा निंदनीय है....इस मामले में अगर कोई दोषी पाया जाता है तो उसे कठोर से कठोर सजा मिलनी चाहिए......लेकिन अपने शिक्षा व्यवस्था में भी जरा सुधार कर लेते तो ठीक रहता.....मेरे खयाल से जो दोष हैं वे ये हैं कि------------------
(1)
एक जाति के स्टूडेट को 90 परसेट नम्बर पाने के बाद भी एडमिशन नहीं मिलता, किसी दूसरे जाति के स्टूडेट को आरक्षण की वजह से काफी कम परसेट नम्बर पाने के बाद भी एडमिशन मिल जाता है.....हो सकता है कि फेल होने वाला छात्र भी कम परसेंट पाकर एडमिशन लेने वाला ही हो.....ऐसे में उसके फेल होने का दोषी कोई और नहीं बल्कि हमारे देश की वर्तमान शिक्षा व्यवस्था है
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(2)
दुसरी बात ये है कि कुछ लोग समाज में ऊंच-नीच की बात करके ही टिके हुए हैं....ऐसे लोगों ने अपने उस वर्ग के लोगों का भला कम ही किया है जिनके लिए ये लोग आवाज उठाते हैं, लेकिन अपना भला खुब और खुब किया है.........हाल ही में आई आरक्षण मूवी को सरकारों को प्रोत्साहन देना चाहिए था, टैक्स फ्री कर देना चाहिए था, लेकिन वोट बैंक की राजनिति ने उस फिल्म पर रोक ही लगाने का बंदोबस्त कर दिया.....डर लगता है कि कहीं आरक्षण व्यवस्था का पुर्नमूल्याकंन हो जाए.....कहीं कुछ उलटा हो जाए.....कहीं जाति-धर्म की फसल को पाला न मार दे......वो तो भला हो भारत के न्यायपालिका की जो सच को जिंदा रहने की इजाजत देती रहती है....वरना सच का गला घोंटकर अपनी राजनिति चमकाने वाले जो यदा कदा सफल रहते हैं, हमेशा सफल हो जाते।