दौरे दौर बदलते रहे हम माटी के मानुष मरते रहे...
जागीरों से, जमीनों से
कभी सूद पर सेठों की चोरी से
हम माटी के मानुष मरते रहे...
दौरे दौर बदलते रहे
हम माटी के मानुष मरते रहे...
देख हरियाली इन खेतों की
ना नदियों के, ना तालाबों के
ना बादलों के नीर से
पली है, बढ़ी है
ना कोठियों में रहने वाले
मालिकों के खून से
ये हरियाली छाई है
सदियों इन जंगलों को,
खेतों की इन स्यालों को
खून पसीना सिर्फ हम अपने
देते रहे हैं
देते रहे हैं
दौरे दौर बदलते रहे
हम माटी के मानुष मरते रहे...
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