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शुक्रवार, 13 अगस्त 2010

भूमण्डलीकरण की कृषि...

यह लेख माखनलाल पत्रकारिता विश्विद्यालय भोपाल में प्रसारण पत्रकारिता के छात्र "आशुतोष  शुक्ला" द्वारा लिखा गया है-

भारत एक कृषि प्रधान देश है। केवल इतना कहने भर से ही भारत कृषि में हालत सुधरने वाली नहीं है। भारतीय कृषि की हालत दिन पर दिन भयावह होती जा रही है। कुछ लोगो का मानना है की इस दुर्दशा के लिए भारतीय किसान खुद जिम्मेदार है। ऐसे हे लोगो के मुखार्विन्दों से अक्सर यह सुनने को मिलता है की भारतीय किसानो को भूमण्डलीकरण के इस दौर में यदि टिके रहना है तो उन्हें प्रतिस्पर्धी होना होगा , पैदावार मे उसमे वृद्धी ही इस पर्तिस्पर्धा में बने रहने का एक मात्र रास्ता है। आज कल के सम्मेलनों में आप वैज्ञानिको से या अर्थशास्त्रियों से यह अक्सर सुनते पाएंगे की किस तरह उत्पादकता ही कृषि समुदाय के अस्तित्व को कायम रखने में निर्णायक साबित होती है। जो किसान अपनी उत्पादकता नहीं बढ़ा सकते वह न सिर्फ हाशिये पर चले जायेंगे बल्कि भीरे धीरे उनका अस्तित्व भी समाप्त हो जायेगा या वे कृषि जगत से ही बाहर हो जायेंगे। कम उत्पादकता के लिए भारतीय किसानो के ऊपर अक्षम होने का लेबल चिपका दिया जाता है , और यह लेबल कृषि व्यापर उद्योग को सरकारी मदद दिलाने वाली नीतियों में बदलाव को जायज़ ठहराने के लिए काफी है। हालाँकि यह बहस भ्रामक है की भारतीय किसान अक्षम है। सच तो है की भारतीय किसान विश्व के सबसे सक्षम किसानों में से एक है। वास्तव में, भारतीय किसान किस तरह अपनी उत्पादकता को बढ़ा सकता है जबकि उसके पास महज़ दो और तीन एकड़ भूमि हो , तब वह साल दर साल उपज बढ़ाएगा या अपने परिवार का भरण - पोषण करेगा। क्या यह चुकाने वाला तथ्य नहीं है की औसत भारतीय किसान १।४ हेक्टयर कृषि योग्य भूमि पर अपनी आजीविका के लिए निर्भर रहता है वहीं अमेरिका में एक किसान के पास केवल अपनी गाय का पेट भरने के लिए लग्भाक १० हेक्टेयर की जमीन प्राप्त है। किसी उन्नत किसान से यदि आप १।४ हेक्टेयर भूमि पर खेती करने को कहेंगे तो वह आपके ऊपर हंसेगा। वास्तविकता में विकसित देशों में किसान जमीन के छोटे- छोटे टुकड़ों पर खेती करने की बात सोच भी नहीं सकता।
सरकार का यदि यही रवैया रहा तो देश के न जाने कितने और जिले विदर्भ और बुंदेलखंड बन जायेंगे। इसे एक विरोधाभास ही कहा जायेगा की जिस सरकार ने कभी जमींदारी उन्मूलन जैसा कदम उठाया था आज वही सरकार गाँव में फिर से महाजनी व्यवस्था को लागु करने की बात सूच रही है। विदर्भ या बुंदेलखंड या देश के किसी भी कोने में हो रही किसानो की आत्महत्याओं ने ही ग्रामीद इलाकों में क़र्ज़ मिलने के सवाल को प्रमुखता से उभरा है। इसी के फलस्वरूप रिजर्व बैंक ने जोहल कार्य समीति का गठन किया था जिसमे बैंक मुश्किल में जी रहे किसानो की परेशानियों का अध्ययन किया जाना तय है। ज़रा सोचिये कमेटियां बनाकर किसानो का भला किस प्रकार किया जा सकता है ?
रहत पैकेज देकर कितनो दिनों तक किसानो पर एहसान किया जायेगा ? श्री लाल शुक्ल द्वारा लिखे राग दरबारी की एक लाइन है की "सूखा और अकाल सरकारी अफसरों के भाग्य से आता है ।" अधिकारीयों के पास पैकेज के प्रस्ताव बनाने का काम राहत पहुँचाने से बड़ा काम हो गया है।
कुछ बरस पहले तक बुंदेलखंड के बारे में एक शब्द भी ना बोलने वाले आज वह दिन रात रैलियाँ कर रहे है । पैकेज दिलाने की होड़ मची हुई है। लेकिन उसके बाद भी यहाँ की मूल समस्या की जड़ में जाने की ज़रुरत किसी को महसूस नहीं हो रही है । सच तो ये है की हमें खासकर किसानो को राज नेताओं से कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए । क्यूंकि अपने रानीतिक स्वार्थ के मेल में सभी पार्टियां एक है । सरकार किसानो की सब्सिडी के बारे में सोचना भी नहीं चाहती है। विकसित देशों के किसान दक्ष इसलिए है क्यूंकि वहा पर उन्हें साल दर साल भारी सब्सिडी मिल जाती है। कपास उत्पादन को ही ले लीजिये अमेरिका में करीब बीस हजार कपास उत्पादक किसान है , जिनके द्वारा हर साल लगभग चार अरब डालर मूल्य का कपास पैदा किया जाता है। ये किसान कपास का उत्पादन बंद ना करे इस लिए अमेरिकी सरकार अपने राजकोष से लगभग साढ़े चार अरब डालर से अधिक सब्सिडी बांटती है। जिसके फलस्वरूप अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कपास का मूल्य ४५% तक गिर जाता है , नतीजतन विदर्भ के किसानों को आत्महत्या करनी पड़ती है । भारत के लिए तात्कालिक कदम यही होना चाहिए की आने वाले विश्व व्यापार संगठन के सम्मलेन में विकास संबंधी समझौते के अंतिम रूप लेने से पहले यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए की ओ ई सी डी के देश अपने यहाँ दी जाने वाली सब्सिडी को पूरी तरह ख़तम करें ।
यदि हमारे राजनेता इतना भी करने में कामयाब नही हो पाते है तो इसे किसानों का और देश का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा , और हमारे पास केवल राजनैतिक आरोप - प्रत्यारोप के अलावा और कुछ भी नहीं बचेगा । फिर हमारे पास केवल यही कहने को बचेगा -

" सख्त मिटटी को नरम बनाते -बनाते ,
जिन हाथों में आज पड़ गई है गाँठ
हवा में हिल रहे है उनके हाथ
गेहूं की बालियों की तरह । "

1 टिप्पणी:

  1. bahut sahee bat likhee hai aapne aur ek bat urvarko ke pryog se jameen banjar ho rahee hai agar jaldee hee jaivik kheti kee or dhyan nahee diya gaya to halat bahut kharab honge...

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