आखिर कहाँ है राजनीति की संवेदना
गैस त्रासदी को लेकर चल रही राजनीति और राजनीतिक दलों का आपसी जंग लड़नें का इसे सुसज्जित अखाड़ा बना लेने की प्रवृति जो इतने सालों से चली आ रही है उसे देखते हुये जनता के मन में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आखिर कहाँ गई राजनीति की संवेदना ? जब आम आदमी और पीड़ितों की आवाज़ बुलंद होती है तो सारे राजनीतिक दल तो काँप ही जाते हैं साथ ही साथ तात्कालिक दोषियों की भी धड़कनें तेज़ हो जाती हैं और हड़बड़ाहट में कुछ की कुछ बयानवाजी कर बैठते हैं। वे सायद जानते हुये भी भुलानें की कोशिश कर रहे हैं कि यह जो दोषियों को बचाने की पटकथा, पटकथा लेखक से लिखवाई जा रही है वह हकी़क़त की ज़िन्दगी में काम नही आने वाली क्योंकि रील और रियल लाइफ में बहुत अंतर होता है। अब वह ज़माना गया जब जनता सिर्फ सिनेमा की स्क्रीन पर दिखने वाले अभिनेता और अभिनेत्रियों को सबकुछ समझती थी। अब उसे भलीभाँति ख़बर हो चुकी है कि दिखने वाले मोहरे के अलावा और इसे सफल बनाने के पीछे उस कहानी की आइडिया दिमाग़ में आना शूटिंग की बजट और लोकेशन निर्धारित करना, कैमरा मैन, सहायक, भीड़ जुटाना, फि़ल्म जनता तक आसानी से पहुँच सके उसकी मार्केटिंग करवाना आदि-आदि। इन सबके बीच अभिनेता का चाँकलेटी चेहरा और कैमरे के सामने अपने आप को कहानी के हिसाब से प्रस्तुत कर सकने की क्षमता के कारण चेहरे में इस्नो-पाउडर लगा कर अभिनय करादिया जाता है। ऐसा नही की अगर फ़िल्म ग़लत बन रही है तो इसके लियें अभिनेता दोषी नही है क्योंकि अभिनय से पहले कहानी पढने और उसे भली भाँति समझनें का अधिकार अभिनेता के पास मौजूद है, तब भी ग़लती करे तो अभिनेता दोषी ज़रूर है। लेकिन इससे भी ज़्यादा गुनहगार तो वह है जिसके मन में इस प्रकार की सोच ने जन्म लिया और तो और हद तो तब हो गई जब उसने इस कहानी पर बाकायदा खेल रचाना शुरू कर दिया। उसने यह भी नही सोचा कि इसका असर उस पर क्या पड़ेगा जो इसका आखिरी लक्ष्य है। ठीक इसी प्रकार की आँख मिचौली भारतीय राजनीति में भोपाल गैस त्रासदी को लेकर चल रही है। कुछ तो इस प्रकार से चल रहा है कि पीड़ित जनता और उसके अंगभंग हुये शरीर को ऐसे उपयोग किया जा रहा जैसे फ़िल्म की किसी सीन को आकर्षक बनानें के तिये अभिनय कराया जाता है। जहाँ एक हिस्सा सुध ही नही लेना चाहता इसे सबकी नजरों से ओझल रखना चाहता है वही दूसरी और दूसरा हिस्सा इन्ही तस्वीरों की खासी बड़ी होर्ड़िंग बनवाकर बीच चौराहों में लगवादेता है और कोने में अपना निसान लगाना नही भूलता। जिससे जनता यह कह सके कि कम से कम किसी ने सुध तो ली। अगली वोटिंग तक यही सिलसिला चलता रहता है। लेकिन वोटिंग खत्म होने के बाद वहीं पर बेरोक टोक कोई दूसरी होर्ड़िंग लगजाती है और यहाँ पर यह कहावत चरितार्थ होती नजर आती है कि रात गई बात गई। लेकिन भोपाल की जनता उस रात और उस बात दोनों को कैसे जाने दे सकती है। अगर इसकी कोशिश भी करते हैं तो उनकी जमीर इसकी इजाज़त नही देती। जिस प्रकार एक ड़ाँक्टर अपने मरीज से यह जता देता है कि कोई मर्ज़ ज़्यादा बिकरार रूप ले इसके पहले परहेज करना और दबा लेना शुरू कर दे। बरना अगर संभव हुआ तो आँपरेशन से पीड़ा देकर मर्ज़ ठीक किया जायेगा। लेकिन मर्ज़ अगर ऐसा निकला जिसका आँपरेशन संभव न हो तो दबा के सहारे कुछ दिन ही जिन्दा रहा जा सकता है। इस राजनीतिक सेहत की जानकारी जनता के पास बखूबी विद्यमान है और वह अपने हितों की रक्षा के लिये इनका उपयोग करना भी जानती है।
रोहित सिंह चौहान
बघवारी,सीधी,(म.प्र.)
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sahi baat bhai bhopal kee janta ke saath siyast kar roti seki jaa rahi hai lekin bhopal kee janta ko nyaay nahi mila
जवाब देंहटाएंbhopalian suffered from long way of minimizing periodical term of the politics because there only resion is leader has been forgotten his & her responsibilities that they should lead us in our problem................
जवाब देंहटाएं.............................................................................................................................................