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बुधवार, 8 अगस्त 2012

जाने कहाँ गए वो दिन...

साप्ताहिक छुट्टी होने की ख़ुशी में जब बारिश में शहर घुमने की चाहत हुई तो अल्हड़पन, आवारगी की अदा के साथ निकल पड़े...बारिश ने जब ज्यादा सताया...तो फिर पहुच गए एक ऐसी जगह...जो कभी साहित्यकारों, शायरों और विचारकों का अड्डा हुआ करता था...बोले तो कॉफ़ी हाउस...अब यहाँ मुझे कोई साहित्यकार नहीं दीखता,कोई विचारक नहीं दीखता...दीखते है तो सिर्फ आशकी के चंगुल में फंसे कुछ नवजवान साथी...यहाँ बैठकर जब सोचा तो लग...
ा कि या तो शहर में कोई विचारक नहीं बचा...या फिर ये अड्डा उनके लायक नहीं बचा...वजह कोई भी...फर्क व्यापर में भी नहीं पड़ा...फर्क पड़ा तो यहाँ के बातचीत के विषयों पर...ये वही जगह थी...जिसके बारे में मेरे एक मित्र ने सुबह ही जिक्र किया था...उसने बताया था कि नोएडा के सेक्टर 16 में इसी कॉफ़ी हाउस के होने के क्या मायने है...शायद बेरोजगारी झेलने वाला इंसान को रोजगार मिल जाये...खैर विचारों के झंझावातों से झूझता हुआ...देखा तो कॉफ़ी ठंडी हो चुकी थी....तो पीछे बैठे एक जोड़े की बातों को सुनकर...मुझे वहां से निकलना ही ठीक लगा...और फिर कॉफ़ी की गर्मी से गरमाया एक इंसान....विचारों से ठन्डे पड़े लोगों के बिच से मौसम का मजा लेने फिर निकल पड़ा...

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