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गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

कहीं लोकतंत्र की मार तो कहीं लोकतंत्र के लिए मार

सिर्फ 20वीं शताब्दी की शुरूआत से ही बात करें तो उस समय गुलाम भारत देश को आजाद कराने के लिए लोग संगठित हो रहे थे और उधर यूरोप में क्रांतिकारी सत्तापरिवर्तन में लगे हुए थे। 20 के दशक में भारत में कुछ उसी तरह की क्रांती ने जन्म लिया। ये क्रांती यूरोप से ही प्रेरित थी। यूरोप में जिस परिस्थिती में क्रांती तख्तापलट कर रही थी ठीक वैसी ही परिस्थितियां भारत में उस समय तक पनप चुकी थीं। भगतसिंह के बाद से आयी क्रांतिकारियों की पीढ़ी यूरोपीय क्रांतिकारियों व वहां की क्रांती से काफी प्रभावित थे और उन्हीं के आदर्शों व घटनाओं का उदाहरण लेकर भारत में क्रांती का विस्तार कर रहे थे।नरम दल के समर्थक अंग्रेजों से मुक्त होना ही देश की स्वतंत्रता मान रहे थे। जबकि गरम दल व क्रांतिकारियों की नजर में स्वतंत्रता की संज्ञा-शक्ति के स्थानान्तरण से न होकर जनता की स्वतंत्रता से था। दोनों की दलों का देश की स्वतंत्रता में काफी योगदान था. इसलिए एकतरफ देश को स्वतंत्र बनाकर गरम दल का मुंह बन्द करने की कोशिश की गयी और शक्ति का हस्तान्तरण कर नरम दल ने अपनी मनमानी भी कर ली और शक्ति का स्थानान्तरण कर जिस प्रकार की व्यवस्था स्थापित की गयी थी आज उसके परिणाम किसी से भी नहीं छुपे हैं।2-जी स्पैक्ट्रम घोटाला, पामोलीन घोटाला, आदर्श सोसाइटी घोटाला, पीजे थॉमस की नियुक्ति, बोर्फोस घोटाला, शेयर घोटला, शीतल पेय मामला, गोधरा कांड, बाबरी मस्जिद विधवंस, नक्सलवाद का जन्म, काले धन का भूत, न जाने कितने भूमि घोटाले, मालेगांव धमाका, मंहगाई का बढ़ता कद, गरीबों की न घटती जनसंख्या, भुखमरी, कुपोषण, कृषि का घटता दायरा, बढ़ती बेरोजगारी, पुरानी पद्धति पर आधारित शिक्षा, शासन में भाई-भतीजावाद, किसानों की बद से बदत्तर होती स्थिति, लोगों की बीच असन्तुलित आर्थिक स्थिति, भ्रष्टाचार, अपराध, महिला शोषण, मानवाधिकारों व मौलिक अधिकारों का हर आये दिन होता तिरस्कार, मानव भावनाओं का राजनीति के दांव पेंच में बेहिचक इस्तेमाल, राज्यों का जल विवाद, राज्यों में बढ़ती बंटवारे की मांग आदि न जाने कितनी उपलब्धियां हमने सिर्फ 63 वर्षों में प्राप्त कर ली हैं। इन तमाम उपलब्धियों से हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि देश की जनता कितने सुकून में होगी। शायद यही कारण है कि इस सुकून की पहली प्रतिक्रिया जनता और सामाजिक संगठनों ने अभी हल ही में 30 जनवरी गांधी जी की पुण्य तिथि पर विरोध रैली के तौर पर व्यक्त की और प्रतिक्रिया एक नहीं, दो नहीं 60 शहरो में व्यक्ति की गयी लेकिन गांधीवादी तरीके मतलब अहिंसात्मक तरीके से।इत्तेफाक भी कितना सटी है कि ठीक ऐसी ही परिस्थितियां अरब देशों में हैं। इसी समय अरब देशों में भी जनता सड़कों पर उतर आयी है। सत्ता के शासन और वही कारण जिनसे भारत भी त्रस्त है, से तंग आकर उन्होंने भी विरोध शुरू कर दिया है लेकिन हिंसात्मक तरीके से। इनका इस तरह से हिंसात्मक रूप में विद्रोह करने के दो कारण हो सकते हैं। पहला कि इन्हें गांधी जी जैसे राष्ट्रपिता नहीं मिले और दूसरा कि अगर मिले हैं तो बापू जैसे व्यक्तित्व वाले उन व्यक्तियों के विचार उनकी पीड़ा के सामने खोखले साबित हो गये। भारत भी अपने विरोध का तरीका हिंसात्मक चुन सकता था लेकिन शायद सरकार ने अभी अपनी अप्रत्यक्ष क्रूरता की लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी है। वैसे सरकार अगर जनता द्वारा शान्ति तरीके से किये गये विरोध से सबक नहीं लेती है या उनके विरोध को अनसुना कर देती है तो उसे एक बात हमेशा अपने संज्ञान में रखना होगा कि भारत देश सिर्फ गांधी जी का देश ही नहीं, भगतसिंह का भी है। ‘‘आज भी बहरों को सुनाने के लिए हजारों भगत सिंह देश में मौजूद हैं।’’सत्तासम्भाल रहे देश के शासकों की तानाशाही से तंग लोगों द्वारा ट्यूनीशिया से उठायी गयी, मिश्र, यमन, लेबनान, जॉर्डन और शनैः-शनैः पूरे अरब राष्ट्र पर काबिज होने वाली ये चिंगारी लोकतंत्र की मांग कर रही है।वहीं भारत की आन्तरिक परिस्थितियां भी कुछ शुभ संकेत नहीं दे रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि या तो अगले कुछ वर्षों में भारत गृह युद्ध से ग्रसित हो जाएगा फिर भारत को चलाने वाले ठेकेदारों/सरमायेदारों को, मिश्र की तरह पूरे देश में उठे, जनता के आक्रोश का सामना करना होगा। भारत की स्थिति में अगर जल्द ही सकारात्मक परिवर्तन नहीं लाये गये तो यहां की जनता भी एक अलग तंत्र की मांग करेगी।आज अरस्तु द्वारा दिया गया एक तर्क चरितार्थ हो रहा है। अरस्तु ने शासन प्रणाली का वर्गीकरण कर कहा था कि अभिजात तंत्र ( समाज से कुछ खास चुने गये लोगों द्वारा चलाया जा रहा तंत्र) जब भ्रष्ट हो गुटतंत्र में परिवर्तित होगा तब जनता त्रस्त होकर सत्ता के परिवर्तन की मांग कर वर्तमान तंत्र का उखड़ा फेंक, बहुतंत्र (लोकतंत्र का सामन्य रूप) को स्थापित करेगी और जब लोकतंत्र भ्रष्ट होकर अपनी निधार्रित सीमा को लांघ जाएगा तब जनसैलाब विरोध कर उस शासन का नष्ट कर अपने बीच किसी एक व्यक्ति को तंत्र सौंप कर उसे शासनसंचालित करेगा जिसे राजतंत्र कहते हैं और इसी तरह ये चक्र चलता रहेगा।यही मिश्र समेत अरब के कई देशों में हो रहा है। जनता लोकतंत्र को स्थापित करने के लिए आमादा हो गयी है और इधर अव्यवस्थाओं के दौर से गुजर रहे भारत देश की सरकार ने अगर देश की स्थिति सुदृढ़ नहीं की तो उस दिन के आने में वक्त नहीं लगेगा जब भारत भी लोकतंत्र के बिगड़े रूप को खत्म करने की मांग उठा एक बार फिर अरस्तू के तर्क को यथार्थ रूप दे देगा।

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