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शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

जहाँ दूल्हे पहनते है गुटखों की मालाएं

शादी में दुल्हे के गले में फूलों की माला नहीं..बल्कि राजश्री और विमल जैसे पान मसालों क़ी माला होती है...बड़ा अजीब लगा देखकर...एक तरफ तो लोग दूल्हे के जीवन की दूसरी पारी शुरू करने की शुभकामनाये देते है...तो दूसरी ओर उनके गले में मौत का सामान लटकाकर शगुन की रस्म अदायगी की जाती है...बड़ी विडंवना है....कैंसर जैसी भयावह बीमारियों को जन्म देने वाल्व पान मसालों को गले मे लटकाकर दूल्हे दुल्हन को विदा करने जाते है....ऐसे में अब दुल्हन के सुहाग के जीवित रहने की गारंटी कौन ले... की तस्वीर देखी तो पाया क़ी भाले उस घर में खाने को दो जून की रोटी न हो लेकिन हर घर में मोबाइल और पान मसालों के पाउच जरूर मिल जायेगे...मतलब खाने से ज्यादा जरूरत लोगों को मोबाइल क़ी...सूचना क्रांति की ऐसी बयार अन्यत्र कहीं नहीं देखी....ना पान मसालों के प्रति दीवानगी...
भारत गाँवों का देश कहा जाता है...किसानों को ग्राम देवता के नाम से नवाजा गया है.. भारत की आत्मा गाँवों में बसती है...एहसास तब हुआ जब आदिवासी इलाकों के गाँव-गाँव जाकर सच से रु ब रु हुआ...सवाल विकास का था..मुद्दा विकास कार्यों के क्रियान्वयन का था...सो रतलाम,झाबुआ,अलीराजपुर के ग्राम देवताओं से मिलने पहुच गए..स्वर्ग सी सुन्दरता की चादर ओढ़े गाँवों में...वहां कि खूबसूरती के क्या कहने...लेकिन एक बात मुझे अब तक समझ नहीं आई कि रतलाम के गाँवों के बच्चे गाड़ी के रुकते ही उलटे पैर भागना क्यों शुरू कर देते थे...काफी उधेड़बुन के बाद शायद सोच पाया हूँ..कि जब बचपन में बच्चा शैतानी करता है..तो मां कहती है बेटा बाबा पकड़ लेगा या आ जायेगा...और शायद वे बच्चे हम लोगों को बाबा का ही रूप मान लेते थे...खैर..डर भयानक होता है...गाँव के विकास की तस्वीर जब हम लोगों ने देखी तो लगा कि सरकार विकास की गंगा बहाने में लगी हुई है...कहीं पर तालाब निर्माण किया गया तो कहीं नादाँ फलोद्यान दिया गया...यानी किसानो के पलायन रोकने और उनके विकास करने को लेकर सरकार कटिबद्ध है.
मगर अफ़सोस भी हुआ कि यदि पूरा पैसा इस विकास में लग पाता तो शायद तस्वीर कुछ और होती...क्यों कि केवल बारिश कि फसल लेने वाले किसान अब साल में तीन फसल लेने लगे है...सामाजिक कार्यों में रूचि लेना भी शुरू कर दिया है...इसमें अधिलारियों का बहुत बढ़ा योगदान है...बिना आला अधिकारीयों कि पहल के कुछ भी संभव नहीं था...गाँव पहुंचकर जब लोगों का व्यवहार देखा तो समझ में आया..कि मेरे देश में मेहमानों क़ी कैसी आवभगत होती है...
मेरे देश में मेहमानों को भगवान कहा जाता है
वो यहीं का हो जाता है,जो कहीं से भी आता है
शायद यही वजह थी..क़ी मेरा भी मन उस आदिवासी इलाके में रमने लगा...वहां की संस्कृति..परम्पराओं से परिचित होने का मौका मिला...अद्भुत अनुभव रहा...शादी का माहौल आदिवासियों का देखा...उनके गाने और महिलाओं के शराब पीकर नाचने का अंदाज बहुत पसंद आया...चलते चलते आदिवासी लड़कियां लाल रंग क़ी चुनरी ओढ़े दिख जाती थी...पूंछने पर बताया गया..क़ी ये कुवांरी लड़कियों का संकेत है...वहां की औरतो की वेशभूषा देखी..तो एहसास हुआ क़ी हम लोग कपडे पहनना सिख गए..और अब कपडे काम भी कर दिए लेकिन वो महिलाये अभी तक पूरे कपडे पहनना नहीं सीखी....
एक गाँव में सरपंच के घर पर स्वागत ऐसे किया गया जैसे लड़की क़ी गोद भराई क़ी रस्म पूरी करने वाले आये हों...मक्के के भुट्टों से स्वागत किया गया..लाजवाब था...इतना प्यार और दुलार देखा तो समझ में आया क़ी हिंदुस्तान का दिल आजादी के ६४ साल बाद भी क्यों गाँव में बसता है...जबकि शहर में किसी को अपने पडोसी के बारे में भी खबर नहीं होती...गाँव का प्यार और दुलार हमेशा अविस्मरनीय रहेगा....ग्राम देवताओं को प्रणाम...
कृष्ण कुमार द्विवेदी
(छात्र मा.रा.प.वि.वि,भोपाल)

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