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सोमवार, 30 अगस्त 2010

निराकार को आकर देता
मन को देता ठिठुरन
आब को आप से मिलाता
कर को मनचाहे मन से
करवाता ................
कहता सबको चल,
चढ़ पर्वत पर
गिरने का न डर तू पाल
पाला जो मन में ऐसा कुटिका
तो चल लेले सन्यास......
भाई बड़ा भाबंदर आपना पथ है
कलम की मिट गयी धार

2 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छी कविता लिखी है आपने .......... आभार

    कुछ लिखा है, शायद आपको पसंद आये --
    (क्या आप को पता है की आपका अगला जन्म कहा होगा ?)
    http://oshotheone.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं