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गुरुवार, 20 सितंबर 2012

खारे पानी के पीछे कूटनीति करता चीन



अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के विश्लेषकों ने व्दितीय विश्व युद्ध के बाद ऐसा कई बार ऐलान किया कि अगर तीसरे विश्व युद्ध की सम्भावनाएं जन्म लेती हैं तो उसके पीछे एक मात्र कारण होगा, पानी। एशिया महाव्दीप में फैली अशान्ति के पीछे कुछ यही कारण सामने आ रहे हैं। वैसे तो पशिचम के देश साम्राज्य के विस्तार की नीति तो कब का भूल चुके हैं लेकिन दिन ब दिन अपने ताकत का विस्तार करने वाला एशिया का एकमात्र शक्तिशाली देश चीन अपनी जमीन विस्तार की नीति को हर दम पर सफल करने में जुटा हुआ है। यही नहीं अब तो इसकी विस्तार नीति में जमीन के साथ-साथ पानी भी शामिल हो गया है। हालांकि हमेशा की तरह उसकी हर विस्तारवाद की नीति विवादों-चर्चाओं में बनी रहती है।

पिछले वर्ष से चीन व्दारा एक नये मुद्दे को तूल दिया गया जब भारत ने दक्षिण चीन सागर में कच्चा तेल निकालने का कार्यक्रम शुरू किया। वैसे अगर देखा जाए तो ये विवाद पुराना है लेकिन इस क्षेत्र में काम शुरु होने से चीन को अपना वर्चस्व खोता दिखा जिसके बाद से ही उसने नाना प्रकार से इस क्षेत्र को अपने प्रभाव में लाने के लिए प्रयास शुरु कर दिए।

चीन व्दारा भारत के काम पर प्रतिबन्ध लगाने की चेतावनी व तल्ख अन्दाज में धमकी देने के बाद से दोनों देशों के बीच माहौल कुछ गरम तो जरुर हुआ था लेकिन भारत की विदेशनीति ने उस माहौल को ज्यादा देर गरम नहीं रहने दिया। चीन का दक्षिण चीन सागर में अपना एकाधिकार जताना विवादों को न्योता देना जैसा ही है। इसी मसले पर जापान, फिलीपीन्स, विएतनाम, मलेशिया से उसने दक्षिण चीन सागर पर अपना एकाधिकार कर के चलते दुश्मनी मोल ले ली। एक तरफ जहां जापान ने विवादित सेनकाकू टापू को खरीदने की घोषणा कर दी है। वहीं चीन भी इस टापू पर अपने अधिकार की बात दोहरा रहा है। जापान अगर टापू को लेकर अपनी मंशा नहीं खतम करता है तो चीन घोषणा कर चुका है कि जापान को भविष्य में इसके बुरे परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। जापान अमेरिका की बीच रक्षा संधि है जिसके चलते अमेरिका का चीन की ऐसी प्रतिक्रया पर सामने आना निश्चित हो गया। यही कारण है कि विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन चीन गयी थीं लेकिन राष्ट्रपति जिनपिंग ने मिलने से मना कर दिया था। हालांकि उसके बाद से चीन ने अपने रिश्तों को सुधारने के लिए व्यापार का सहारा लिया लेकिन चीन को यह नहीं भूलना चाहिए कि अमेरिका को कूटनीतिज्ञों का बादशाह कहा जाता है।

हाल ही में चीन के रक्षामंत्री जनरल लियांग गुआंगली आतकंवादल को रेकने के लिए संयुक्त सैन्य अभ्यास का प्रस्ताव लेकर भारत दौरे पर आए थे। मालूम हो कि प्रणब मुर्खजी रक्षामंत्री के रुप में 6 साल पहले चीन की यात्रा पर गए थे और सैन्य शिष्टाचार के तहत चीन के रक्षामंत्री को भारत यात्रा पर आना था लेकिन बार-बार भारत व्दारा याद दिलाने के बावजूद भी चीन भारत नहीं आया। ऐसे में अचानक चीन के रक्षामंत्री का भारत दौरा पर आना कई प्रश्न खड़े करता है।

मुलाकात के दौरान चीनी रक्षामंत्री ने क्यों किसी भी उस मुद्दे पर चर्चा नहीं की जो भारत के साथ विवादित हैं। पाक कब्जे वाले कश्मीर पर चीनी सेना की तैनाती या भारतीय सीमा पर चीनी सैनिकों की घुसपैठ, चीन के चहेते अरूणाचल प्रदेश का विवाद आदि कई अन्य ऐसे मुद्दे जिन पर चर्चाएं होना स्वाभाविक था पर चीन ने इन सभी मुद्दों को भुलाकर बैठक के दौरान संयुक्त सैन्य अभ्यास का प्रस्ताव रख दिया लेकिन भारत नियमित वीजा वाली घटना को कैसे भूला सकता है। याद हो कि इससे पहले भारत की पहल पर चीन के साथ संयुक्त सैन्य अभ्यास किया जाना तय हुआ था लेकिन भारत ने संयुक्त सैन्य अभ्यास को उस वक्त रोक दिया जब चीन ने भारत के उत्तरी सैन्य कमांडर को यह कहकर नियमित वीजा देने से इन्कार कर दिया था कि वह कश्मीर में तैनात है।

हालांकि भारत हमेशा से उदार रहा है इसलिए इस तरह की घटनाएं भारत को सम्बंधों को बिगाड़ने के लिए प्रेरित नहीं कर सकती लेकिन यकायक चीन के रवइय्ये में ऐसी लचक आना पच नहीं रहा है। भारत की वैश्विक स्तर पर पैठ और अन्य देशों का विश्वास भारत के प्रति खासा बढ़ा है। एशियाई क्षेत्र में भी उसकी मजबूती बढ़ी है। वैश्विक पटल पर भारत की सक्रीय प्रतिभागिता के चलते चीन का भारत आने का लक्ष्य कहीं वैश्विक स्तर पर चल रहे उसके विवादों के प्रति भारत का रवइय्या जाना, एशियाई इलाकों में हो रही राजनैतिक हलचल के प्रति भारत की तैयारी या इससे इतर को और गम्भीर कारण तो नहीं है। 

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