मानसून सत्र में संसद की गतिविधियों में सकारात्मक हलचल की अपेक्षाएं जनता को कुछ ज्यादा ही थी लेकिन यूपीए-2 की कोलगेट कांड की आग ने इस सत्र को खाक कर दिया बाकी जो रही सही कसर थी उसे पदोन्नति में भी आरक्षण चाहने वालों ने पूरी कर दी।
पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की अगर रिपोर्ट मानें तो 15वीं लोकसभा में 13 दिन हंगामा हुआ और 6 दिन हुआ विधायी काम। इस सत्र में 15 बिल पेश किए जाने थे, महज 4 ही पेश किए जा सके। 399 तारांकित प्रश्नों की सूची तैयारी की गयी थी जिसमें 11 ही प्रश्नों के जवाब मिल पाए। 4 सप्ताह चलने वाले मानसून सत्र में 3 सप्ताह तो हंगामों की भेंट चढ़ गए साथ ही चढ़ गए इस मानसून सत्र की व्यवस्थओं में लगे 117 करोड़ रूपये। इतिहास को देखा जाए तो वर्ष 1952 के पहले आम चुनाव के बाद से 15 वें संसद के अब तक चले सत्रों में सबसे कम काम इस मानसून सत्र में हुआ। अब जब बीते पन्नों को खोल ही दिया गया है तो इनता जानना है कि संसदीय प्रणाली की डगर चलने वाले भारत देश की संसद का हाल आजादी के तुरन्त बाद कैसा था? जब देश को नये नेतृत्व ने सम्भाला था। जब देश बेरोजगारी, भुखमरी और कंगाली के चंगुल में फंसा हुआ था।
1950 के दशक में लोकसभा की औसत बैठक हर साल 127 दिन चली थी वहीं अब यह संख्या घटकर 70-75 दिन रह गई है। 2008 में तो लोकसभा और राज्यसभा की बैठक 46 दिन से अधिक नहीं चल पाई। यही हाल संसद में पारित विधेयकों का होता जा रहा है। 1952 में जहां संसद के दोनों सदनों में 82 विधेयक पारित किए गए थे वहीं हाल के सालों में इनकी संख्या घटाकर 40-45 रह गई है। महत्वपूर्ण विषयों पर होने वाली बहस में सांसदों का कोरम तक नहीं जुट पाता है।
असल में तरक्की का सिगूफा फैलाने वाले संसद की कार्यप्रणाली के ग्राफ को दिन ब दिन नीचे ही गिराते जा रहे हैं। संसद की ऐसी दुर्दशा के पीछे दोषी कौन है\ उत्तर साफ है कमजोर नेतृत्व। ये देश की उस सर्वोच्च संस्था का हाल है जिसे 83 लाख रूपये की लागत से तैयार किया गया था।
18 जनवरी 1927 को भारत के तत्कालीन वायसरॉय लार्ड इरविन ने संसद भवन का उद्घाटन कियाA जिसकी पहली बैठक 13 मई 1952 को आरम्भ हुई। हाल ही में 3 मई 2012 को संसद ने अपनs 60 वर्ष पूरे कर एक गौरव गाथा लिखी है। इस विशिष्ट अवसर पर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल ने दोनों सदनों को सम्बोधित करते हुए कहा था कि जीवन्त और स्वस्थ लोकतन्त्र के रूप में स्थापित होना हमारे लिए सबसे बड़ी चुनौती है।
मतलब साफ है कि हम वर्षों बाद भी उस लोकतांत्रिक देश में सांस नहीं ले रहे हैं जिसकी कल्पना हमने की थी अपितु पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी द्वारा कही गयी बात साफ बयां करती है कि वर्तमान में जिस लोकतंत्र में हम रह रहे हैं वह शुद्ध नहीं है और शुद्धता के पैमाने तक पहुंचाने के लिए हमें काफी मशक्कत करनी पड़ेगी।
अन्ना के लोकपाल को संसद पर हमला बताकर एक तरफ तो राजनीतिज्ञ स्वयं को संसद के प्रति खुद को वफादार साबित करने की कोशिश करते हैं तो वहीं दूसरी तरफ संसद सत्रों के नियमों को ताक पर रखकर उसकी गरिमा को हर बार किसी न किसी तरीके से तार करते रहते हैं। इनके इस व्यवहार से तो कुछ यही आभास होता है कि या तो ये राजनेता राजनीति का पाठ भूल गये हैं या फिर ये जनता को मूर्ख समझते हैं। बहरहाल अगर इस तरह के नेतागण पिछले 60 सालों से इसी तरह की राजनीति करके आज भी देश की सत्ता पर काबिज हैं तो यह वास्तव में पहुंच कर लोकतंत्र का गला घोंट रहे हैं जबकि नेतृत्व को चुनने का अधिकार सिर्फ हमें यानी जनता को मिला हुआ है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें