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शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

कहीं खट्टी तो नहीं मेदी की न्यूक्लियर डील

हर वक्त किसी भी मुद्दों पर बहसबाजी राजनीति के प्रोटोकाॅल में शायद नहीं आती। और कई बार वक्त ही ऐसा माहौल बना देता है कि प्रोटोकाॅल फाॅलो नहीं हो पाता। जैसे इन दिनों हो रहा है। दिल्ली विधानसभा ने देश भर की राजनीति को मानो कुछ दिनों के लिए सुस्त कर दिया है। विदेश मंत्री चीन दौरे पर गईं और वापस भी आ गईं लेकिन कहीं कोई शोर गुल नहीं कि मंत्री जी सरकारी पैसे पर उतनी दूर गईं तो वहां क्या करके आईं। या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आगामी चीन यात्रा को लेकर बस माहौल बनाकर ही चली आईं। इससे पहले की बात करते हैं। अमेरिका और भारत के बीच परमाणु समझौता हुआ। आवाम इस वर्श के कई बड़े समझौतों में से इस एक के बार में जानना चाहती है। जानना चाहती है कि समझौता कितना जरूरी था? किसको इससे ज्यादा फायदा होने वाला है? यह डील भारत के लिए कितनी लाभाकारी है? कितने क्षेत्र इसका लाभ उठा सकेंगे? पहले की अपेक्षा अब कितनी बिजली बनेगी? कितने गांव और रोशन हो सकेंगे? डील में हम ठगे गए या दांव मार गए? लेकिन कहीं कोई चूं तक नहीं कर रहा। और चूं नहीं ही करेगा। क्योंकि अभी बताया ना कि हर वक्त राजनीति नहीं की जाती।
इसका भी अपना प्रोटोकाॅल है। मुद्दा उठ भी गया तो बिना बहस के फीका पड़ जाएगा। इसीलिए सभी विपक्षी पार्टियां चुप्पी साधे बैठी हैं। चुनाव खत्म होने का इंतजार कर रही हैं। उसके बाद सभी भाजपा पर टूट पड़ेंगीं। जैसे सन् 2006 में कांग्रेस के शासन के समय हुए परमाणु समझौता में हुआ था। हफ्तों बहस चली थी। कई दिन तक लगातार संसद भी ठप रही थी। भारत की सुरक्षा को दांव पर लगाकर समझौता करने के आरोप कांग्रेस पर लगाए गए थे। हालांकि हादसे के समय उत्तरदायित्व के सवाल को लेकर यह डील अटक गई थी। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में कहा था कि परमाणु ऊर्जा की मुख्यधारा में आने की दशकों पुरानी मुश्किल दूर हो गई है। अब एक बड़ा इश्योरेंस पूल बनाया जा रहा है, इससे किसी नए विधेयक की जरूरत नहीं होगी। मजेदार बात यह है कि अब आठ साल बाद इसी डील को मोदी ने पूरा किया। और मीडिया रिपोर्टों से भी स्पष्ट हो गया है कि परमाणु संयंत्र से अगर कोई हादसा होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी इंश्योरेंस कंपनी की होगी। वैसे डील देश के लिए कितना फायदेमंद होगी यह तो वर्तमान सरकार के मैनेजमेंट पर निर्भर करता है। पर विश्लेषकों की मानें तो इस समझौते से क्रांतिकारी लाभ होने वाला नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार पल्लव बागला कहते हैं कि आधुनिक परमाणु रिएक्टर की लागत भारतीय परमाणु रिएक्टर की तुलना में कम से कम तीन गुना ज्यादा होती है। इधर, सूचना है कि डील के तहत अमेरिका कम से कम आठ परमाणु रिएक्टर बनाएगा। इसके लिए दो प्रमुख आपूर्तिकर्ता कंपनियों जनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंग हाउस इलेक्ट्रिक कंपनी गुजरात और आंध्र प्रदेश में रिएक्टर बनाने के लिए जमीन तलाश रही है। एक और विश्लेषण में सामने आया कि इस डील से हमें कम फायदा होगा। अमेरिकी मशीनरी से परमाणु बिजली के लिए रूसी संयंत्रों के मुकाबले दो गुनी कीमत चुकानी पड़ेगी। दरअसल अमेरिकी कंपनी वेस्टिंग हाउस छह रुपए प्रति किलोवाट की दर से बिजली बेच रही है। जबकि रूसी सहायता से बने कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र से बिजली सिर्फ साढ़े तीन रुपए प्रति किलोवाट में उपलब्ध है। अमेरिकी कंपनी का इतनी महंगी बिजली देने के पीछे बीमा वजह है। जबकि कुडनकुलम संयंत्र की तीसरी और चैथी इकाइयों के निर्माण के लिए हुए समझौते में ऐसी कोई भी शर्त नहीं है। वैसे, आने वाले वक्त में स्थिति पेचीदा हो सकती है। बिजली महंगी हो सकती है। एंटी-न्यूक्लियर लाॅबी उग्र हो सकती है। कुडनकुलम संयंत्र शुरू करने के लिए हुई हिंसा का कई बार रिपीटटेलीकास्ट भी हो सकता है। सरकार 2032 तक 63 हजार मेगावाट परमाणु ऊर्जा उत्पादन को अपना लक्ष्य मानकर चल रही है। यह लक्ष्य वर्तमान क्षमता से 14 गुना ज्यादा है। भारत के पास 22 आण्विक केंद्र हैं और अगले 20 सालों में इनकी संख्या बढ़ाकर 60 तक करने की योजना है।

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

संविधान की प्रस्तावना के दो शब्दों पर हंगामा क्यों है बरपा?

भारतीय जनता पार्टीवर्तमान में देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। इसी ने देश को कई कीर्तिमान रचने वाला प्रधानमंत्री भी दियानरेंद्र मोदी। दोनों में एक समानता है। हमेशा से ही दोनों की छवि कठोर हिंदूवादी रही है। इनकी यही पहचान विदेशों में भी है। कहींइसीलिए तो नहीं हाल में भारत दौरे पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जाते-जाते विकास के लिए भारत को या अप्रत्यक्ष रूप से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धर्मनिरपेक्ष होने का मंत्र दिया। ओबामा ने सिरीफोर्ट सभागार में अपने संबोध में कहा कि धार्मिक आधार पर बंटवारे के प्रयासों से सतर्क रहना होगा क्योंकि धार्मिक सहिष्णुता ही सफलता का मूल है। उनके जाने के बाद ये वक्त था सलाहकारों द्वारा उनके संबोधन के अर्थ समझकर देश हित में सोचने का लेकिन ऐसा कुछ होता कि उससे पहले ही केंद्र सरकार उसी मुद्दे को लेकर विवाद में  गई जिसे ओबामा ने उठाया था। दरअसल केंद्र सरकार ने एक विज्ञापन प्रकाशित करवाया जिसमें संविधान के संकल्पों में से धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द हटा दिए गए। तब मोदी सरकार के ही केंद्रीय आवास और गरीबी उन्मूलन मंत्री ने ऐसा किए जाने के पीछे तर्क दिया कि कहाये शब्द मूल प्रस्तावना में नहीं थे। इन्हें आपातकाल में समय जोड़ा गया और सरकारी विज्ञापन मूल प्रस्तावना के बारे में था। वहीं सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने कहा कि विज्ञापन में संविधान की मूल काॅपी का ही इस्तेमाल किया गया है। जो भी हो लेकिन सरकार शायद यह भूल गई कि संविधान में संशोधन गलतियां  दोहराने के लिए ही किए जाते हैं।सन् 1997 में 42वें संशोधन के जरिए धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द को संविधान में शामिल किया गया। और तब से लेकर आज तक बनीं सभी सरकारें उन्हीं संकल्पों की शपथ लेती आईं हैं। इस बार मोदी सरकार ने भी इन्हीं संकल्पों के आधार पर जनता से भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाए रखने का वादा किया है। मामला शांत होता  कि उससे पहले सरकार के एक और केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दोनों शब्दों को हटाने जाने पर बहस होने की इच्छा जाहिर कर दी। बहरहाल मंत्री के इस बयान से राजनीति गरमा गई। और इसमें उन्हीं की समर्थक पार्टी शिवसेना के नेता के बयान ने आग में घी डालने का काम किया। संजय राउत ने धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से बाहर निकालने की मांग करते हुए कहा कि इसे स्थायी तौर पर हटा दिया जाना चाहिए। इस पर सभी राजनीतिक दलों ने एक सुर में सरकार के ऐसे रुख की निंदा करते हुए इन शब्दों को संविधान से हटाए जाने की वकालत की हैं। हालांकि इस बीच केंद्रीय मंत्री एमवेंकैया नायडू ने कहा कि सरकार धर्मनिरपेक्षता को लेकर प्रतिबद्ध है। इसे हटाने का कोई विचार नहीं है। लेकिन सवाल ये है कि सरकारी विज्ञापनों के कंटेंट में ऐसा हेरफेर सिर्फ एक त्रुटि मात्र ही था या फिर यह त्रुटि इरादतन थी। क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर प्रकाशित होने वाला विज्ञापन जो सरकार की मंशा को दर्शाएमें ऐसे बदलाव होने के बाद किसी के द्वारा भी आपत्ति ना उठाया जाना मौन स्वीकृति का भी संकेत माना जाएगा। सवाल यह भी है कि केंद्र सरकार आखिर संविधान की किस प्रस्तावना पर विश्वास करती है। मूल या संशोधित प्रस्तावना पर। वैसे यह तो आत्मविदित है कि संशोधन के बाद पूर्ववर्ती वस्तु का कोई अर्थ नहीं रह जाताउसका नया स्वरूप ही प्रभावी माना जाता है। वैसे संविधान निर्माताओं का कहना था कि सरकार द्वारा देश में संविधान का पालन करवाने से पहले यह बेहद जरूरी है कि खुद सरकार को संविधान की प्रस्तावना पर अटूट आस्था और विश्वास होना चाहिए।