any content and photo without permission do not copy. moderator

Protected by Copyscape Original Content Checker

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

संविधान की प्रस्तावना के दो शब्दों पर हंगामा क्यों है बरपा?

भारतीय जनता पार्टीवर्तमान में देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। इसी ने देश को कई कीर्तिमान रचने वाला प्रधानमंत्री भी दियानरेंद्र मोदी। दोनों में एक समानता है। हमेशा से ही दोनों की छवि कठोर हिंदूवादी रही है। इनकी यही पहचान विदेशों में भी है। कहींइसीलिए तो नहीं हाल में भारत दौरे पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जाते-जाते विकास के लिए भारत को या अप्रत्यक्ष रूप से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धर्मनिरपेक्ष होने का मंत्र दिया। ओबामा ने सिरीफोर्ट सभागार में अपने संबोध में कहा कि धार्मिक आधार पर बंटवारे के प्रयासों से सतर्क रहना होगा क्योंकि धार्मिक सहिष्णुता ही सफलता का मूल है। उनके जाने के बाद ये वक्त था सलाहकारों द्वारा उनके संबोधन के अर्थ समझकर देश हित में सोचने का लेकिन ऐसा कुछ होता कि उससे पहले ही केंद्र सरकार उसी मुद्दे को लेकर विवाद में  गई जिसे ओबामा ने उठाया था। दरअसल केंद्र सरकार ने एक विज्ञापन प्रकाशित करवाया जिसमें संविधान के संकल्पों में से धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द हटा दिए गए। तब मोदी सरकार के ही केंद्रीय आवास और गरीबी उन्मूलन मंत्री ने ऐसा किए जाने के पीछे तर्क दिया कि कहाये शब्द मूल प्रस्तावना में नहीं थे। इन्हें आपातकाल में समय जोड़ा गया और सरकारी विज्ञापन मूल प्रस्तावना के बारे में था। वहीं सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने कहा कि विज्ञापन में संविधान की मूल काॅपी का ही इस्तेमाल किया गया है। जो भी हो लेकिन सरकार शायद यह भूल गई कि संविधान में संशोधन गलतियां  दोहराने के लिए ही किए जाते हैं।सन् 1997 में 42वें संशोधन के जरिए धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द को संविधान में शामिल किया गया। और तब से लेकर आज तक बनीं सभी सरकारें उन्हीं संकल्पों की शपथ लेती आईं हैं। इस बार मोदी सरकार ने भी इन्हीं संकल्पों के आधार पर जनता से भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाए रखने का वादा किया है। मामला शांत होता  कि उससे पहले सरकार के एक और केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दोनों शब्दों को हटाने जाने पर बहस होने की इच्छा जाहिर कर दी। बहरहाल मंत्री के इस बयान से राजनीति गरमा गई। और इसमें उन्हीं की समर्थक पार्टी शिवसेना के नेता के बयान ने आग में घी डालने का काम किया। संजय राउत ने धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से बाहर निकालने की मांग करते हुए कहा कि इसे स्थायी तौर पर हटा दिया जाना चाहिए। इस पर सभी राजनीतिक दलों ने एक सुर में सरकार के ऐसे रुख की निंदा करते हुए इन शब्दों को संविधान से हटाए जाने की वकालत की हैं। हालांकि इस बीच केंद्रीय मंत्री एमवेंकैया नायडू ने कहा कि सरकार धर्मनिरपेक्षता को लेकर प्रतिबद्ध है। इसे हटाने का कोई विचार नहीं है। लेकिन सवाल ये है कि सरकारी विज्ञापनों के कंटेंट में ऐसा हेरफेर सिर्फ एक त्रुटि मात्र ही था या फिर यह त्रुटि इरादतन थी। क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर प्रकाशित होने वाला विज्ञापन जो सरकार की मंशा को दर्शाएमें ऐसे बदलाव होने के बाद किसी के द्वारा भी आपत्ति ना उठाया जाना मौन स्वीकृति का भी संकेत माना जाएगा। सवाल यह भी है कि केंद्र सरकार आखिर संविधान की किस प्रस्तावना पर विश्वास करती है। मूल या संशोधित प्रस्तावना पर। वैसे यह तो आत्मविदित है कि संशोधन के बाद पूर्ववर्ती वस्तु का कोई अर्थ नहीं रह जाताउसका नया स्वरूप ही प्रभावी माना जाता है। वैसे संविधान निर्माताओं का कहना था कि सरकार द्वारा देश में संविधान का पालन करवाने से पहले यह बेहद जरूरी है कि खुद सरकार को संविधान की प्रस्तावना पर अटूट आस्था और विश्वास होना चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें