'' मर्द हैं न अब्बा जहाँ लाजवाब हो वहां हाथ चलाने लगे " पाकिस्तान के सोएब मसूद की फिल्म 'बोल' में ये लाइन एक बेटी अपने पिता से कहती हैं और वो भी तब जब बाप अपनी बेटी के तर्कों से हार कर उसका मुंह बंद करने के लिए एक थप्पर जर देता है. भले हीं ये फिल्म पाकिस्तानी सरज़मी पर बनी हो लेकिन ऐसी सच्चाइयों से भारत भी अछूता नही है. महिलायों की बुलंद आवाज़ और अंदाज़ को दबाने के लिए भारत में भी पुरुषों ने तरह तरह के हथकंडे अपनाये है. कुछ दिन पहले उ.प के बागपत में महिलायों पर फरमान जारी किया गया जिसमे महिलायों के फ़ोन पर बात करने से लेकर अकेले घुमने पर पाबन्दी की बात की खाप पंचायतों ने, तब किसी भी पार्टी या सर्कार को को कोई आपति नही हुई . किसी ने कहा की जीन्स पहनोगी तो तेजाब फ़ेंक देंगे, किसी ने कहा हिजाब पहन कर बाहर निकलो . किसी ने मन पसंद के लड़के से शादी करने पे रोक लगायी , तो कोई लड़कों के साथ दोस्ती पर पर पाबन्दी की बात करता दिखा . सरेआम संविधान में लिखित अधिकारों का उलंघन होता रहा लेकिन किसी ने विरोध में आवाज़ उठाने की जहमत नही उठाई. यहाँ तक की देश के युवा मुख्यमंत्री भी मूकदर्शक बने रहे. जब पत्रकारों ने सवालों की बौछार की तो उन्होंने कहा की 'कोई निर्णय चाहें सर्कार ले या सामाजिक संस्था वो लोगों की भली के लिए होना चाहिए'. ऐसा ताल मटोल का बयाँ सर्कार देगी तो ऐसी संस्थाओं के हौंसले तो और बुलंद हीं होंगे. महिलायों को काबू करने की महत्वाकांक्षाओं की हद तो तब हो गई जब इंदौर में एक महिला की योनी पर ताला उसके पति ने लगाया वो भी इसलिय क्योंकी पति को शक था की कहीं मेरी गैर मौजूदगी में किसी से सम्बन्ध तो नही बना लेगी. यहाँ तक की २० वर्ष के बेटे को लेकर भी उसके मन में शक था.
औरत के हर रूप पर मर्दों ने सवाल उठाया पर ज़वाब किसी के पास नही है. २००३ में झारखण्ड की सोनाक्षी मुखर्जी के साथ जो हुआ वो तो याद ही होगा आपको. किस तरह सरेआम उसके चेहरे पर तेजाब फ़ेंक दिया गया वो भी इसलिए क्योंकि गली मुहल्लों के उनलड़कों को उसने डांट दिया था जो उसकी ख़ूबसूरती के दीवाने थे. पुरुष चाहें
गली का गुंडा हो लेकिन महिलाओं की डांट को अपनी इज्जत का सवाल बना लेतें हैं और कितनो की आबरू के साथ खेलने से बाज नही आता है.
हाल में गोवाहाटी की एक लड़की के साथ लड़कों ने मिलकर सामूहिक छेड़छाड़ की और उसके कपडे तक फाड़ दिए . बाद में लड़की को दोषी ठहराया गया की वो ९ बजे रात को क्यों घूम रही थी. यही नही उसपर ये भी आरोप लगया गया की उसने छोटे कपडे पहन रखे थे. लड़किओं को क्या पहनना है, कैसे चलना है, किससे बात करना है, क्या ये भी पुरुष तय करेगा? बलात्कार जब व्यस्क लड़किओं के साथ होता है तो ये आरोप जर
देता है ये समाज , लेकिन जब बात मासूम लड़किओं की आती है तो समाज के ये प्रहरी चुप क्यों हो जाते हैं? ३ साल की यामिनी का क्या दोष था जो उसके हीं पडोसी ने उसे अपनी हवस का शिकार बनाया. कई बार जन्म देने वाला पिता ही अपनी संतान पर गलत नज़र रखे तो इसपर क्यों नही कुछ कहतें ये सुलेमान. क्या कहीं भी लड़की की सुरक्षा की गारंटी है...इसका ज़वाब है नही.
ज़रा सोचिये की जितनी भी गलियां हैं उसके निशाने पर कहीं न कहें औरतें ही हैं. इससे ये तो साफ़ हो जाता है की महिलाओं को अपमानित करने की प्रथा सदियों से चली आ रही है. हर बार लड़किओं को माँ बाप, आस पडोस वाले ये समझाते हुए दिख जाते है की ये करो, ये मत करो, ये सही नही है तुम्हारे लिए, ये सही है. यानि हर सीख लड़कियों के लिए. क्यों नही ये लोग अपने बेटों को सही और गलत का फर्क समझते है. सामने वालें के साथ ठीक से पेश आने की बात क्यों नही सिखाते ये अपने सपूतों को.. अगर इतना भी प्रयाश हो जाये तो काफी हद तक समस्या का हल हो सकता है. अगर पुरुषों ने इन बातों समझा ही होता तो २००१ में ४२,९६८ मामले दर्ज न होते. जिसमे से २४,२०६ मामले बलात्कार के हैं. इसमें चौकानेवाली बात है ये है की अधिकतर नाबालिक लड़कियां ही शिकार हुई है.
महिला पढ़ी लिखी हो, बच्ची हो, बूढी हो सभी शिकार हो रही है पुरुषों के हवश का.. हाल ही में गीतिका एयर होस्टेस को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. वो भी एक पॉवर फुल नेता गोपाल कांडा के यातना से तंग आ कर. आज गीतिका नही रही लेकिन क्या वो जिंदा होती और न्यायालाव की शरण में जाती तो क्या उसे न्याय मिलता ?
अब वक़्त आ गया है की ये विचार किया जाय की ये पाबंदियां केवल औरतों के लिए ही क्यों है. तो इसके लिए सर्कार की नीतियाँ भी कसूरवार हैं देश को आज़ाद हुए 60 साल से ऊपर हो चुकें है और आज भी महिलायों को संसद में ३३ फीसदी आरक्षण नही मिला. बलात्कारी बलात्कार करके आराम से समाज में घूमता रहता है .और कोई करवाई नही होती हैं. अगर होती भी है तो चंद दिनों की जेल होती है और कुछ जुर्माना होता है जिसे वो चुका कर जेल से बाहर आ जाता है, और महिला आजीवन समाज की नज़रों
में दोषी बन जाती है. वो मुंह छुपाये अपराधी बने घूमती रहती है.
लेकिन ये बात भी माननी
पड़ेगी की ऐसी सामाजिक व्यथा होने के बावजूद महिलाओं ने खुद को साबित किया है. ओल्य्म्पिक में भारतीय तिरंगे का मान बढ़ाने के लिए भारतीय बेटियों ने कोई कसर नही छोड़ी. मेरी कॉम और सायना नेहरवाल के पदक इस बात का धोतक है. आज हर भारतीय इन्हें सम्मान की नज़रों से देखता है. लेकिन इन खिलाडियों के लिए भी ये रास्ता इतना आसान न था. मेरी कॉम जो पांच बार विश्व चैम्पियन रही हैं. उनके दो बच्चें
है . घर से ले कर संघ तक के कर्मचारियों ने कहा की बच्चे पालने की सलाह दी और ताना भी मारा मुक्केबाजी तुम्हारे बस की बात नही. लेकिन कॉम ने किसी की नही सुनी और वो आगे चलती चली गई और आज परिणाम सबके सामने है. सानिया मिर्ज़ा का सिक्का इस बार ओल्य्म्पिक में न चला हो लेकिन सानिया ने भी देश के टेनिस में नया अध्याय जोड़ा है. हालाँकि सानिया मिर्ज़ा के स्कर्ट पर मुस्लिम समुदायों ने फ़तवा जारी
किया था. लेकिन सानिया इन फालतू बातों के बजाय अपना खेल खलती रही. खेल के मैदान ही नही आब तो हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपने को साबित किया है. राजनीती में भी महिलायों ने अपना अलग मुकाम
हासिल किया है. तीन दशकों तक चले बंगाल में वाम के सूर्य को अस्त
करना का काम ममता बनर्जी ने ही किया. मायावती ने भी यूपी में पूर्ण बहुमत की सर्कार बनाई और ५ सालों तक राज किया. पुरुष ये कैसे भूल जाता है की उसको धरती पर लेनवाली एक महिला ही है और उसकी सभी ज़रूरते आधी आबादी के बिना अधूरी है. सीमोँ न द बउआर ने कहा था की " औरत बनती नही बनायीं जाती है " ज़रूरत है उन्हें सही अवसर दिए जाये, और निर्णय लेने की छूट भी. तब जा के महिला को आपनी शक्तियों और कमजोरियों का अहसास होगा.
औरत के हर रूप पर मर्दों ने सवाल उठाया पर ज़वाब किसी के पास नही है. २००३ में झारखण्ड की सोनाक्षी मुखर्जी के साथ जो हुआ वो तो याद ही होगा आपको. किस तरह सरेआम उसके चेहरे पर तेजाब फ़ेंक दिया गया वो भी इसलिए क्योंकि गली मुहल्लों के उनलड़कों को उसने डांट दिया था जो उसकी ख़ूबसूरती के दीवाने थे. पुरुष चाहें
गली का गुंडा हो लेकिन महिलाओं की डांट को अपनी इज्जत का सवाल बना लेतें हैं और कितनो की आबरू के साथ खेलने से बाज नही आता है.
हाल में गोवाहाटी की एक लड़की के साथ लड़कों ने मिलकर सामूहिक छेड़छाड़ की और उसके कपडे तक फाड़ दिए . बाद में लड़की को दोषी ठहराया गया की वो ९ बजे रात को क्यों घूम रही थी. यही नही उसपर ये भी आरोप लगया गया की उसने छोटे कपडे पहन रखे थे. लड़किओं को क्या पहनना है, कैसे चलना है, किससे बात करना है, क्या ये भी पुरुष तय करेगा? बलात्कार जब व्यस्क लड़किओं के साथ होता है तो ये आरोप जर
देता है ये समाज , लेकिन जब बात मासूम लड़किओं की आती है तो समाज के ये प्रहरी चुप क्यों हो जाते हैं? ३ साल की यामिनी का क्या दोष था जो उसके हीं पडोसी ने उसे अपनी हवस का शिकार बनाया. कई बार जन्म देने वाला पिता ही अपनी संतान पर गलत नज़र रखे तो इसपर क्यों नही कुछ कहतें ये सुलेमान. क्या कहीं भी लड़की की सुरक्षा की गारंटी है...इसका ज़वाब है नही.
ज़रा सोचिये की जितनी भी गलियां हैं उसके निशाने पर कहीं न कहें औरतें ही हैं. इससे ये तो साफ़ हो जाता है की महिलाओं को अपमानित करने की प्रथा सदियों से चली आ रही है. हर बार लड़किओं को माँ बाप, आस पडोस वाले ये समझाते हुए दिख जाते है की ये करो, ये मत करो, ये सही नही है तुम्हारे लिए, ये सही है. यानि हर सीख लड़कियों के लिए. क्यों नही ये लोग अपने बेटों को सही और गलत का फर्क समझते है. सामने वालें के साथ ठीक से पेश आने की बात क्यों नही सिखाते ये अपने सपूतों को.. अगर इतना भी प्रयाश हो जाये तो काफी हद तक समस्या का हल हो सकता है. अगर पुरुषों ने इन बातों समझा ही होता तो २००१ में ४२,९६८ मामले दर्ज न होते. जिसमे से २४,२०६ मामले बलात्कार के हैं. इसमें चौकानेवाली बात है ये है की अधिकतर नाबालिक लड़कियां ही शिकार हुई है.
महिला पढ़ी लिखी हो, बच्ची हो, बूढी हो सभी शिकार हो रही है पुरुषों के हवश का.. हाल ही में गीतिका एयर होस्टेस को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. वो भी एक पॉवर फुल नेता गोपाल कांडा के यातना से तंग आ कर. आज गीतिका नही रही लेकिन क्या वो जिंदा होती और न्यायालाव की शरण में जाती तो क्या उसे न्याय मिलता ?
अब वक़्त आ गया है की ये विचार किया जाय की ये पाबंदियां केवल औरतों के लिए ही क्यों है. तो इसके लिए सर्कार की नीतियाँ भी कसूरवार हैं देश को आज़ाद हुए 60 साल से ऊपर हो चुकें है और आज भी महिलायों को संसद में ३३ फीसदी आरक्षण नही मिला. बलात्कारी बलात्कार करके आराम से समाज में घूमता रहता है .और कोई करवाई नही होती हैं. अगर होती भी है तो चंद दिनों की जेल होती है और कुछ जुर्माना होता है जिसे वो चुका कर जेल से बाहर आ जाता है, और महिला आजीवन समाज की नज़रों
में दोषी बन जाती है. वो मुंह छुपाये अपराधी बने घूमती रहती है.
लेकिन ये बात भी माननी
पड़ेगी की ऐसी सामाजिक व्यथा होने के बावजूद महिलाओं ने खुद को साबित किया है. ओल्य्म्पिक में भारतीय तिरंगे का मान बढ़ाने के लिए भारतीय बेटियों ने कोई कसर नही छोड़ी. मेरी कॉम और सायना नेहरवाल के पदक इस बात का धोतक है. आज हर भारतीय इन्हें सम्मान की नज़रों से देखता है. लेकिन इन खिलाडियों के लिए भी ये रास्ता इतना आसान न था. मेरी कॉम जो पांच बार विश्व चैम्पियन रही हैं. उनके दो बच्चें
है . घर से ले कर संघ तक के कर्मचारियों ने कहा की बच्चे पालने की सलाह दी और ताना भी मारा मुक्केबाजी तुम्हारे बस की बात नही. लेकिन कॉम ने किसी की नही सुनी और वो आगे चलती चली गई और आज परिणाम सबके सामने है. सानिया मिर्ज़ा का सिक्का इस बार ओल्य्म्पिक में न चला हो लेकिन सानिया ने भी देश के टेनिस में नया अध्याय जोड़ा है. हालाँकि सानिया मिर्ज़ा के स्कर्ट पर मुस्लिम समुदायों ने फ़तवा जारी
किया था. लेकिन सानिया इन फालतू बातों के बजाय अपना खेल खलती रही. खेल के मैदान ही नही आब तो हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपने को साबित किया है. राजनीती में भी महिलायों ने अपना अलग मुकाम
हासिल किया है. तीन दशकों तक चले बंगाल में वाम के सूर्य को अस्त
करना का काम ममता बनर्जी ने ही किया. मायावती ने भी यूपी में पूर्ण बहुमत की सर्कार बनाई और ५ सालों तक राज किया. पुरुष ये कैसे भूल जाता है की उसको धरती पर लेनवाली एक महिला ही है और उसकी सभी ज़रूरते आधी आबादी के बिना अधूरी है. सीमोँ न द बउआर ने कहा था की " औरत बनती नही बनायीं जाती है " ज़रूरत है उन्हें सही अवसर दिए जाये, और निर्णय लेने की छूट भी. तब जा के महिला को आपनी शक्तियों और कमजोरियों का अहसास होगा.
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