विहार में पहले चरण का चुनाव 21 अक्तूबर को
तमाम आरोपों प्रत्यारोपों के बीच 20 अक्तूबर को आखिरकार चुनाव प्रचार खत्म हो गया. बिहार विधानसभा चुनाव के पहले चरण के मतदान के लिए सभी दलों ने शंखनाद किया. कोसी-सीमांचल क्षेत्र में 21 अक्तूबर से होने जा रहे पहले चरण के चुनाव में विकास मुख्य मुद्दा रहा. वर्तमान नीतीश सरकार विकास के नाम पर लोगों से वोट जुटाने में लगी रही तो वहीं कांग्रेस और राजद-लोजपा गठबंधन ने विकास कहा हुआ के नारे के साथ नीतीश एनडीए गठबंधन को घेरते नजर आए. गौरतलब है कि इस क्षेत्र में कोसी बाढ़ आपदा के समय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जो काम किया था उसे अभी तक यहां के लोगबाग नहीं भूले होंगे. लेकिन उनके हाथों हुए एक गुनाह को भी यहां की जनता अभी तक भूल नहीं सकी है और वों था, इस क्षेत्र के दिग्गज नेता जगन्नाथ मिश्र के सुपुत्र नीतीश मिश्र को बिना कसूर के पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाना. इस कारण भी यहां के सवर्ण वोट खासकर ब्राह्मण शायद इनसे खफा है और इस चुनाव में वों अपना रंग दिखा सकते हैं. हालांकि चुनाव के मद्देनजर सबे के मुखिया ने अपनी गलती को सुघार का जामा पहनाते हुए एक बार फिर नीतीश मिश्र को गले लगा लिया है. फिर भी उनके द्वारा किए जाने वाले अवसर बाद की राजनीति को सीमांचलवासी अच्छी तरीके से समझ चुके हैं. अबकी सामाजिक, आर्थिक,मुद्दों के साथ-साथ स्थानीय मुद्दें जैसे कि बिजली,पानी बेरोजगारी भी चुनाव पर अपना रंग बिखेरने को तैयार है. जदयू-भाजपा गठबंधन की ओर से 55 बनाम 5 साल की तरक्की का नारा पूरे बिहार में तेजी के साथ गूंज रहा है. बिदित हो कि कोस-सीमांचल क्षेत्र के जिन 47 सीटों के लिए चुनाव होने जा रहे हैं, उनसे 28 सीटों पर एनडीए का ही कब्जा रहा है. लेकिन इस दफा चुनावी समीकरण साफ नहीं होने के कारण कुछ भी कहना मुश्किल है कि कौन इस क्षेत्र में फतह हासिल करेगा और कौन पराजय का मुंह देखेगा. कांग्रेस के पास खोने को तो कुछ भी नहीं है मगर पाने के लिए बहुंत कुछ है. अगर इस बार कांग्रेस यहां मुसलमान वोट हासिल करने में सफल रही तो इसका सबसे बड़ा खामियाजा अगर किसी को भुगतना पड़ेगा तो वह है जेडीयू-भाजपा गठबंधन को. राहुल गांधी कांग्रेस के स्टार प्रचारक रहें हैं, जिन्होंने उत्तर प्रदेश लोक सभा चुनाव के दौरान अपना जलावा दिखाया था. इसके अलावा प्रधानमंत्री और कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया के किशनगंज रैली ने जरूर नीतीश के नीव को हिलाने का काम किया है. आनंद मोहन, लवली आनंद, पप्पू यादव सरीखे नेता के कांग्रेस के साथ चले जाने से सभी चुनावी समीकरण बिगड़ता नजर आ रहा है. पिछले साल एनडीए की रणनीति बनाने वाले किशोर कुमार मुन्ना के निर्दलीय चुनाव लड़ने से राजपूतों का वोट भी खिसकता नजर आ रहा है. जेदयू के दो यादव चहरे बिजेंद्र यादव और दिनेश चंद्र यादव के आपसी रस्सा-कशी के कारण भी वर्तमान सरकार को नुकसान झेलना पड़ सकता हैं. यदि बात करें शरद यादव की तो उनका प्रभाव केवल मधेपुरा तक ही सिमटा है. अति पिछड़े वोटों का लाभ एनडीए को मिल सकता है,बशर्ते वे लोग मतदान केंद्र तक पहुंचे. नीतीश की महादलित खेमे का लाभ जरूर उनके पक्ष में जायेगा, मगर सवाल यह है कि क्या केवल इनके आने से चुनावी समीकरण बदल जाएंगे. किशनगंज में कांग्रेस का दबदबा कायम है, इसका जीता जागता सबूत है सोनिया की रैली, लेकिन नीतीश ने भी कांग्रेस के घर में सेंध डालने के उदेश्य से मुसलमान वोट को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इलाके के दिग्गज नेता तस्लीमुद्दीन को अपने साथ जोड़ लिया है, जिससे जरूर नीतीश मजबूत स्थिति बनाने में सफल नजर आ रहे हैं, मगर एक बाद साफ है कि नीतीश के इस कारनामें से उनका साथी दल भाजपा कतई खुश नहीं हैं. इसका कारण यह कि भाजपा शुरू से ही तस्लीमुद्दीन का विरोद्ध करती आई ही ऐसे में यदि उसका साथी ही उसे गले लगाने के लिए आतुर है तो वह बेचारा आखिर क्या कर सकता है. बहादुरगंज और ठाकुरगंज में बीजेपी के अधिकार क्षेत्र में आता है, जहां वह एक तरफे वोट से बिजयी होता रहा है. इन क्षेत्रों में बीते 15 साल से अपना अधिकार जमाए राजद को पिछले विधानसभा चुनाव में करारा हार का सामना करना पड़ा था, फिलहाल मई को वापस अपने साथ जोड़ने के उदेश्य से लालू भी ऐड़ी चोटी का दम लगाए हुए है. यादव और मुसलमान वोट के समीकरण के बुते ही लालू राबड़ी 15 सालों तक बिहार को अपने कब्जे में किए रहें. इसके परे यदि बात करें लोजपा की तो हालही में हुए लोकसभा चुनाव में नेस्तनाबूत पासवान ने तो यहां तक कह दिया है कि सत्ता में आए तो उपमुख्यमंत्री एक मुसलमान को ही बनायेंगे. ऐसे तो बिहार की राजनीति पर किसी प्रकार का कोई टिप्पणी देना मुश्किल है कि अबकी सत्ता किसके पक्ष में जा रहीं हैं. लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि विकास के बल पर सरकार का निर्माण होगा तो एक बार फिर नीतीश ही दिखेंगे. यहां की राजनीतिक सरजमी पर विकास कम जाति फेक्टर ज्यादा अहम होता है, इसलिए तो उम्मीवारों की सूची भी इलाकों की आबादी और जाति की बाहुलता को ध्यान में रखते हुए तैयार की गई हैं. जाति की दृष्टिकोण से बात रखी जाए तो सीमांचल क्षेत्रों में मुसलमान की संख्या अधिक है साथ ही इस इलाके में यदि कोई बाहुबल है जो सारे समीकरण का फेरबदल कर सकते है तो वह है भूमिहार जो बिहार की सत्ता के असल मालिक होते हैं. ब्राह्मण भी सक्रिय है लेकिन वे आपसी रस्सा-कशी में ही मशगूल रहते हैं. राजपूत की रणनीति कभी भी साफ तौर पर सामने नहीं उभर पाती है कि वे किसके साथ है. कुल मिलाकर बिहार विधानसभा चुनाव में दिग्गजों का सम्मान दांव पर लगा हुआ है. पासवान चारों खाना चीत होने के बाद एक बार फिर खड़ा होना चाहते हैं, वहीं दूसरी ओर लालू मई को वापस हासिल करने के लिए कुछ भी करने को तैयार डटे हुए है. नीतीश के साथ उनका विकास दौड़ रहा है तो भाजपा इमेज सुशील मोदी और सीपी ठाकुर खुद को असल निर्णायक सिद्ध करने में जुटे हुए है.
एक नजर बिहार विधानसभा चुनाव के असल सफलता के मानकों पर......
चुनाव छह चरणों में होंगे –पहला चरण 21 अक्तूबर को 47 सीटों के लिए, दूसरा चरण 24 अक्तूबर को 45 सीटों के लिए, तीसरा चरण 28 अक्तूबर 48 सीटों के लिए, चौथा चरण 1 नवंबर को 42 सीटों के लिए, पांचवा चरण 35 सीटों के लिए, छटा और अंतिम चरण 26 सीटों के लिए, इसके साथ ही 24 नवंबर को परिणाम सामने आएंगे.
कुल विधानसभा सीट - ( 243 ), रिर्जव एस सी - 38, रिर्जव एस टी - 02, कुल मतदाता - 5.5 करोड़, वर्तमान जंनसख्या - 8,28,78,796, इसमें से पुरूष जंनसख्या - 4,31,53,964, महिला जंनसख्या - 3,97, 24, 832,
साक्षरता – 47.52 प्रतिशत
प्रकाश पाण्डेय
बुधवार, 20 अक्तूबर 2010
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