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बुधवार, 13 अप्रैल 2016

नीतीश की नीति अब राष्ट्रीय राजनीति

सही समय पर सही मुद्दा उठाना किसी राजनीतिज्ञ के लिए के जरूरी पैमाना है। अगर दोनों में तालमेल नहीं बन पाया तो वही हश्र होता है जो बिहार में विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा का हुआ। और तालमेल बैठ गया तो आप चमक जाते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री भी इन दिनों कुछ ऐसा ही तालमेल बैठाने की कोशिश कर रहे हैं।
बिहार में पूर्णशराबंदी के बाद अब पिछड़ों व अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की 50 फीसदी सीलिंग खत्म कर इसे बढ़ाने के मांग जाहिर करता है कि नीतीश कुमार का जोर अब राष्ट्रीय राजनीति की ओर है। उन्होंने शनिवार को कहा कि पिछड़ों के लिए आरक्षण के वर्तमान मॉडल में बदलाव की जरूरत है। इसके लिए संविधान में जरूरी संशोधन भी होना चाहिए। आरक्षण के दायरे में दलित मुसलमान व दलित ईसाई के लोग भी शामिल हों। धर्म बदलने से इनलोगों को आरक्षण से वंचित नहीं कर सकते। निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की मांग की
गत सप्ताह नीतीश कुमार की शराबंदी की घोषणा से जिस वर्ग के लोगों को राहत मिली है, उन्हीं लोगों को आरक्षण का यह मूद्दा सबसे ज्यादा आकर्षित करेगा। और यह तथ्य स्वीकार्य है कि सिर्फ बिहार ही नहीं देश में भी ऐसे वर्ग की तादाद सबसे ज्यादा है। नीतीश ने शराबबंदी और आरक्षण, इन दो मुद्दों को हवा दे दी है। इसलिए इनके राजनीतिक निहितार्थ पर भी चर्चा होनी स्वाभाविक है। दोनों ही मुद्दों का राष्ट्रीय महत्व है, जिनके कई राजनीतिक आयाम भी देखे जा सकते हैं। पहला यह कि नीतीश का जदयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना, जो उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में हर समय दखल देने का मौका देगा।
दूसरा, एक ऐसा मंच तैयार होने की प्रक्रिया को बल मिलना जो मुख्य रूप से पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के लिए अगुवा हो। ठीक वैसा ही मंच जैसा सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव 2015 में चाह रहे थे। मुलायम मंच की अगुवाई का सपना देख रहे थे जो अब फिलहाल दूर की कौड़ी साबित होता दिखाई दे रहा है। खैर, अगर इस मंच के बनने की प्रक्रिया को रूप मिल जाता है तो संभवत: नीतीश कुमार ही इस मंच के सारथी बनें। वैसे मालूम हो कि एक मजबूत तीसरे दल जदयू, झविमो और अजीत सिंह के नेतृत्ववाले राष्ट्रीय लोकदल के विलय की बात चल रही है। अगर नीतीश ऐसे ही सामाजिक मुद्दों को भुनाते रहे तो कुछ और भी छोटे दल शामिल हो सकते हैं या उनसे रिश्ता बनाने में जदयू को सहूलियत हो। देश में भाजपा विरोधी तीसरे मोर्चे की गोलबंदी को इससे बल मिलेगा। नीतीश अगर पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के बीच आधार विस्तार में सफल रहे तो ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, असम, कर्नाटक, हरियाणा आदि प्रदेशों के छोटे दल साथ आ सकते हैं। इससे इन दलों को नीतीश को आगे रखकर राष्ट्रीय राजनीति में अपनी दावेदारी जताने में आसानी होगी। यह याद रखना भी जरूरी है कि नीतीश कुमार ने बिहार को विशेष राज्य का दर्जा की मांग पर सभी पिछड़े राज्यों की तीव्र विकास की आकांक्षा को आवाज देने की कोशिश की थी। अपनी उस भूमिका के लिए उनके तरकश में अब एक और तीर आ गया है।
तीसरा, बिहार बनाम गुजरात मॉडल। नीतीश शराबबंदी का फैसला हो या फिर आरक्षण का मुद्दा दोनों ही गुजरात के मॉडल को चुनौती देता दिखाई दे रहा है या ये कहें कि बराबरी करता हुआ। नीतीश के फैसले और मांग सामाजिक न्याय के साथ विकास के नारे को मजबूत करेगा। पूर्ण शराबबंदी को प्रदेश के गरीबों खासकर महिलाओं का जिस तरह समर्थन मिला है, वह इस बात की पुष्टि करता है। चौथा, और सबसे बड़ा पहलू यह कि राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों की छवि सकारात्मक होने के साथ-साथ मजबूत होगी। 1990 के दशक में और पिछली यूपीए सरकार के दौरान क्षेत्रीय दलों को विकास में बाधक बताया जा रहा था। इन्हें जातिवाद, पिछड़ापन, अपराधीकरण जैसी बुराइयों की जड़ बताया जा रहा था। अगर नीतीश का एजेंडा कुछ हद तक भी जमीन पर आ गया तो क्षेत्रीय दलों को विकास विरोधी कहना संभव नहीं होगा। इसके विपरीत अब राष्ट्रीय दलों से सवाल पूछा जा सकेगा कि उनके शासित प्रदेश अंतिम आदमी के बारे में कितने संवेदनशील हैं।

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