आदित्य कुमार मिश्रा -गोरखपुर।
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनाव में सपा-बसपा के अघोषित गठजोड़ ने भारतीय जनता पार्टी को पराजित कर दिया है। इस परिणाम के पीछे सपा-बसपा के गठजोड़, गोरखपुर में योगी की पसंद का प्रत्याशी न उतारा जाना( ब्राम्हण-ठाकुर फैक्टर), योगी और मोदी के काम से जनता की नाराजगी जैसे अलग-अलग विश्लेषण समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों, वेबसाइटों और लोगों की जुबान पर आ रहे हैं।अगर गोरखपुर में योगी की पसंद का प्रत्याशी न उतारे जाने वाले तथ्य को सही माना जाए तो स्पष्ट है कि यह पराजय योगी और उनके नजदीकी समर्थकों के लिए अप्रत्याशित नहीं होगी, भाजपा भी इससे पूरी तरह परेशान नहीं होगी, लेकिन आम जनता और राजनीतिक विश्लेषक जिन्हें अंदरुनी ख़बर न हों उनके लिए यह परिणाम जरुर चौंकाने वाला दिख रहा है। विशेषकर गोरखपुर सीट का परिणाम, जहां से योगी आदित्यनाथ पिछले पांच बार लगातार जीत दर्ज कर चुके थे।
गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा क्षेत्रों में हुए उपचुनाव में सपा-बसपा के अघोषित गठजोड़ ने भारतीय जनता पार्टी को पराजित कर दिया है। इस परिणाम के पीछे सपा-बसपा के गठजोड़, गोरखपुर में योगी की पसंद का प्रत्याशी न उतारा जाना( ब्राम्हण-ठाकुर फैक्टर), योगी और मोदी के काम से जनता की नाराजगी जैसे अलग-अलग विश्लेषण समाचार पत्रों, न्यूज चैनलों, वेबसाइटों और लोगों की जुबान पर आ रहे हैं।अगर गोरखपुर में योगी की पसंद का प्रत्याशी न उतारे जाने वाले तथ्य को सही माना जाए तो स्पष्ट है कि यह पराजय योगी और उनके नजदीकी समर्थकों के लिए अप्रत्याशित नहीं होगी, भाजपा भी इससे पूरी तरह परेशान नहीं होगी, लेकिन आम जनता और राजनीतिक विश्लेषक जिन्हें अंदरुनी ख़बर न हों उनके लिए यह परिणाम जरुर चौंकाने वाला दिख रहा है। विशेषकर गोरखपुर सीट का परिणाम, जहां से योगी आदित्यनाथ पिछले पांच बार लगातार जीत दर्ज कर चुके थे।
बात सपा-बसपा के 'अघोषित गठबंधन' की-
यूं तो राजनीति में धर्म-जाति का बोल-बाला पूरे देश में देखने को मिलता है लेकिन यूपी-बिहार की राजनीति में धर्म और जाति सबसे असरदार फैक्टर के रुप में काम करता है। अब यह किसी से छिपा नहीं है कि गोरखपुर के उपचुनाव में भी जातिवाद ने अहम भूमिका अदा की, जिसकी सूत्रधार रहीं बसपा प्रमुख मायावती। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में एक भी सीट न जीत पाने, उ.प्र. विधानसभा चुनावों में महज 19 सीटों तक सीमित रहने और विपरीत परिस्थितियों में राज्यसभा से अपनी खुद की सदस्यता छोड़ने के बाद राजनीतिक रुप से काफी कमजोर स्थिति में दिख रही मायावती ने इस उपचुनाव को अवसर के रुप में लिया। गोरखपुर और फूलपुर दोनों ही सीटों पर अपना प्रत्याशी न खड़ा करके सपा प्रत्याशियों को बसपा का समर्थन दे दिया गया। जिसका परिणाम है कि योगी का अभेद किला 'गोरखपुर' ढह चुका है और प्रवीण निषाद के रुप में गोरखपुर की जनता को एक नया सांसद मिल चुका है और मायावती यूपी की राजनीति के केंद्र में आ गयी हैं। यूं तो राजनीतिक रुप से गोरखपुर हमेशा ही चर्चा में रहता है और योगी एवं उनके समर्थक हर बार लीड लिये रहते हैं लेकिन इस बार राष्ट्रीय राजनीति में गोरखपुर की चर्चा तो है लेकिन बढ़त विरोधियों के पास है। जीत अखिलेश के प्रत्याशियों की हुई है लेकिन जीत के केंद्र में मायावती हैं। भाजपा के खिलाफ गोरखपुर में मिली जीत से सपा, बसपा, कांग्रेस, राजद, वामपंथी दलों समेत एनडीए विरोधी लगभग सभी छोटे-बड़े दलों को संजीवनी मिल गयी है। गौरतलब है कि चुनाव परिणाम सामने आने पर अखिलेश यादव ने बसपा प्रमुख के घर जाकर उनसे मुलाकात की है। इस मुलाकात के दूरगामी परिणाम देखा जाए तो 2019 के आम चुनावों के लिए अखिलेश यादव को कांग्रेस के अलावा गठबंधन के लिए बसपा के रुप में एक मजबूत साथी मिल गया है। भाजपा द्वारा सपा-बसपा के इस गठबंधन को सांप-छूछूंदर का (असंभव) गठबंधन बताया जाता रहा है। लेकिन 14 मार्च 2018 को सपा-बसपा की इस जीत ने असंभव समझे जाने वाले इस गठबंधन की नींव डाल दी है। 2019 में अगर यह गठबंधन इस तरह का कोई भी उलटफेर करने में कामयाबी हासिल करेगा तो 2022 में भी यह प्रयोग जरुर दोहराया जाएगा....और उसके बाद आज का दिन (14 मार्च 18) योगी आदित्यनाथ और उनके समर्थकों के लिए न भूलने वाला दिन और कभी न भूलने वाली पराजय साबित होगा।
मायावती और अखिलेश की मुलाकात के मायने-
पहले मुश्किल समझे जाने वाले लेकिन अब व्यवहारिक दिख रहे सपा-बसपा के इस संभावित गठबंधन की संभावनाओं पर बात करें तो अखिलेश और मायावती को मिलकर तय करना होगा कि 2022 में दोनों में से किसके नेतृत्व में उ.प्र. विधानसभा का चुनाव लड़ा जाएगा। भले ही उपचुनाव में दो सीटें इन्हें मिल गयी हैं लेकिन 2019 में मोदी लहर से पार पाने के लिए इन दोनों में से किसी एक को 2022 की लड़ाई के लिए मुख्यमंत्री की कुर्सी का मोह छोड़ना होगा जो कि दोनों के लिए दुष्कर है। यह भी हो सकता है कि दोनों ही दल मोदी से घबराए अन्य दलों को साथ लेकर अपनी-अपनी सुविधा से उ.प्र. की सीटें आपस में बराबर-बराबर बांटकर चुनाव लड़ें और सरकार बनाने लायक परिणाम आने पर सबसे बड़े दल का नेता सीएम की कुर्सी संभाले। वहीं दूसरा नेता केंद्र की राजनीति करे। इसके लिए कांग्रेस का साथ लेना जरुरी है। कांग्रेस के लिए भी सपा-बसपा का साथ पाना मुहंमांगी मुराद पाने जैसा है। कांग्रेस चाहें जितनी सिकुड़ती चली जा रही हो लेकिन प्रधानमंत्री पद की दावेदारी के लिए नरेंद्र मोदी के मुकाबले राहुल गांधी ही सबसे बड़े उम्मीदवार दिखाई देते हैं। राहुल को पीएम बनाने के लिए कांग्रेस को समर्थन देकर माया-अखिलेश दोनों में से कोई एक (जो कि सीएम पद का मोह त्याग सका हो) समर्थन के बदले कांग्रेस से उप-प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या किसी दूसरे बड़े पद की मांग सकता है।
सपा-बसपा गठजोड़ पर क्या करेगी भाजपा-
2014 से छोटे-मोटे पराजयों को छोड़कर ज्यादातर मौकों पर सफल दिख रही मोदी-शाह की जोड़ी सपा-बसपा को इतनी आसानी से उनके ख्वाब पूरा नहीं करने देगी। सपा-बसपा के चाल और इरादे अभी से ज़ाहिर होने लगे हैं लेकिन मोदी-शाह कौन सी चाल चलेंगे इसका अनुमान लगा पाना सपा-बसपा के लिए कठिन है। दूसरी तरफ अगर ये बात सच है कि "गोरखपुर में उपेन्द्र शुक्ल योगी की पसंद नहीं थे, उन्होंने खुद तो शुक्ल के समर्थन में प्रचार किया लेकिन हिन्दू युवा वाहिनी और अन्य असरदार कारक इस उप चुनाव में निष्क्रिय रहे और चुनाव परिणाम योगी की इच्छानुसार आया" तो भाजपा के लिए ये एक और चुनौती है। तमाम चुनावी विश्लेषणों को देखें तो लगता है मानों योगी ये बताना चाहते हैं कि गोरखपुर सीट जो कि पिछले 29 सालों से लगातार मठ के परिधि में थी आगे भी मठ के परिधि (योगी की इच्छा) में ही सुरक्षित है। बाहर का व्यक्ति चाहें वह भाजपा का पुराना से पुराना कार्यकर्ता या पदाधिकारी ही क्यों न हो, वह गोरखपुर संसदीय सीट के लिए जिताऊ नहीं है। एैसी स्थिति में एक तरफ भाजपा नेतृत्व को सपा-बसपा से गठजोड़ से मुकाबला करना है तो दूसरी तरफ मोदी के उत्तराधिकारी समझे जा रहे योगी से भी पार पाना होगा। 2022 का चुनाव मोदी के चेहरे पर लड़ा जाएगा। गोरखपुर में मोदी-शाह की जोड़ी योगी के सामने झुकने की बजाय यहां चुनाव का मोर्चा खुद हाथ में ले सकती है। 2022 जो कि स्वंय मोदी के कार्यों और वर्चस्व की परीक्षा होगी उसमें मोदी अपनी पूरी ताकत झोंक देंगे। मोदी के चेहरे के आगे बड़े से बड़ी बाधा दूर हो सकती है। योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री की कुर्सी देते समय उन्होंने हर परिस्थिति का अनुमान लगाया होगा। वर्तमान परिस्थिति के लिए भी उनके पास कोई न कोई चौंकाने वाली चाल जरुर होगी। फिलहाल सपा-बसपा का गठजोड़ विपक्षी एकता में जान फूंक चुका है। विपक्षी दल अगर आपसी स्वार्थ को त्यागकर मोदी का विकल्प तलाशने का प्रयास करेंगे तो मोदी के लिए 2019 का मुकाबला आसान नहीं होने जा रहा है। योगी आदित्यनाथ भी इस बात से वाकिब होंगे कि 2019 का चुनाव अगर हाथ से निकल गया तो 2022 में दुबारा सीएम की कुर्सी हासिल कर पाना उनके लिए भी मुश्किल होगा। अखबारों-चैनलों और न्यूज वेबसाइट्स की माने तो फिलहाल योगी अपनी ताकत दिखा चुके हैं। अब मोदी-शाह की बारी है। इस बार योगी को मोदी-शाह का साथ देना होगा तभी 2022 उनके लिए सुलभ होगा।
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