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मंगलवार, 19 मई 2015

अभी नहीं मिली है मुझे सुकून की नींद: अरुणा

समाज में मुझे इसकी इजाजत नहीं देता लेकिन ये जिंदगी मेरी है। और मेरे साथ जो कुछ भी हुआ, उसे इस समाज को बताने का मुझे पूरा हक है। कम से कम उस समय जब मैं मर रही हूं... हार रही हूं। मैं शिकायत करना चाहती हूं और गुजारिष भी। मैं अरुणा शानबाग।

मैं 24 साल की ही तो थी जब एक जानवर ने मेरे साथ वो सब कुछ किया, जिसे बर्दाश्त
 करने के लिए असीम ताकत चाहिए थी। वह जानवरे ही था। अगर इंसान होता ऐसा कुछ करने की सोचते भी ना और मर्द पुरुष होता तो इस हद तक ना गिर जाता। जिस उम्र में मैं जमीन पर बदहवास पड़ी आत्मा को चूरचूर कर देने वाला दर्द हो झेल रही थी। अमूनन उस उम्र में कोई लड़की अपने पंख फैलाए दूर आसमान तक उड़ान भरने के सपने देखती है। खुद के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए, देश के लिए कुछ कर गुजरने की कोशिश करती है। मेरे मन में भी ख्वाइष थी। लोगों की सेवा करने की। मैं कर्नाटक से मुंबई आई थी। मुझे सुकून मिलता था-मरीजों की सेवा करके, उनकी तकलीफ को दूर करने के लिए लड़ते रहने में। पर...
वो हादसा 42 साल पहले 27 नवंबर 1973 को मंगलवार के दिन हुआ। भले ही उस वक्त वार्ड ब्वाॅय सोहनलाल वाल्मीकि ने मुझे जो दर्द दिया था उसकी पीड़ा कुछ महीने बाद खत्म हो गई लेकिन जो दर्द मुझे इस समाज में दिया वो आज भी मुझे तकलीफ देता है। मुझे जानवर समझा गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे कुत्ते की जंजीर से जकड़कर दर्द दिया गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे कोमा में पहुंचा दिया गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुंबई के अस्पताल किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के वार्ड नंबर में चार में मैं चार दशक तक मन से निकालने के देने वाले अरमानों को मन में ही घूंट लिया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मेरे गूंगेपन के कारण मेरा अपराधी जिसे कानूनी तौर पर कोर्ट से आजाद कर दिया। बावजूद इसके मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे तकलीफ उस वक्त हुई जब मैं अपने लिए इच्छा से मौत चाहती थी लेकिन 8 मार्च 2011 को अपने फरमान में मुझे कोर्ट ने मौत नहीं देने का फैसला किया। मुझे उस समय तकलीफ हुई जब अंतिम सांस तक उस हादसे को याद करते रहने के लिए मुझे जिंदा रहने का फैसला सुनाया। मुझे तब तकलीफ होती जब मेरी कहानी जानने के बाद भी इस आए दिन हर एक अरुणा शानबाग मरती है। मुझे तब तकलीफ होती है जब लोगों के सामने, इस समाज के सामने सब कुछ हो रहा होता है लेकिन सब के सब मुर्दा बने रहते हैं। गाहे बगाहे कुछ लोग किसी चैक चैराहे पर मेरे जैसी कईयों के नाम व तस्वीर की तख्ती लेकर हल्लाबोल करते हैं और फिर शांत हो जाते हैं। ऐसे तो न सोच बदलेगी और न समाज। 
कुछ लोग कहते हैं पुलिस अपना काम नहीं कर रही है। इसलिए ऐसे अपराध पनप रहे हैं। कुछ कहते हैं हमारा कानून ही कमजोर है। कुछ कहते हैं लोगों को बदलना होगा। नजरिया और सोच, बदलनी होगी। घर से बदलाव की शुरुआत करनी होगी। लोगों को सब कुछ पता है कि ऐसे अपराधों को कैसे खत्म करना है लेकिन बदलने की शुरुआत करने की जगह लोग बस कह ही रहे हैं।
लोगों को लगा मैं कोमा में हूं। इसलिए मौन हूं। उन्हें यह भी लगता था कि मुझे अब कोई दर्द नहीं, कोई तकलीफ नहीं होती। लेकिन मैं तो कभी चुप नहीं थी। हर दिन मैं चीख चीखकर अपने लिए इंसाफ मांगती थी। ऐसा इंसाफ जो दूसरों के लिए मिसाल बने। ऐसी सजा जिसे देखने वाला हर कोई शख्स भविष्य में कभी ऐसी हरकत ना करने की सोचे जैसे मेरे साथ हुई। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तीन साल सात महीने बाद ही सही लेकिन ईष्वर ने मेरी मुराद पूरी कर दी। वो मुझे मृत्यु दे रहा है। मेरे जन्म के 13 दिन पहले ही मैं इस दुनिया से जा रही हूं। हो सकता है कि आप लोगों को लग रहा हो कि मैं दूसरी दुनिया में सुकून से रहूंगीं लेकिन हर बार जब देखूंगी कि मेरी ही जैसी कोई अरुणा फिर किसी जानवर के नीचे पिस रही है, मैं तड़पूंगी और तब तक तड़पती रहूंगी। जब तक चर्चाएं खत्म न हो जाएं और जब तक बदलाव की बयार न बहने लगे। कोई एक बदल जाएगा और दूसरे को बदलने के लिए कोशिश करता रहेगा। फिर देखना एक दिन मेरी ही जैसी एक अरुणा शानबाग अपना काम खत्म करके बेसमेंट में अपने कपड़े बदलेगी। न उसे कोई बिना कपड़े देखने के लिए कहीं छुपा होगा। न उसके साथ कोई दुराचार करने की ताक में होगा। वो शाम को सही सलामत अपने घर पहुंचेगी।

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