मैं
क्या हूं ये जानने से पहले बताना चाहूंगा कि यहीं भारत के पंजाब के एक
छोटे से गांव भिखीविंड में मेरा जन्म हुआ था। मेरी पहचान के तौर पर,
पाकिस्तान मुझे आतंकी के रूप में जानता है और पूरी दुनिया इस पहचान के
साथ-साथ भारत का जासूस मानती है। लेकिन मैं एक किसान था। हां ऐसा कथित तौर
पर यह भी सुनने में आया कि मैं एक शराब तस्कर भी था। वर्ष 1990, उस दौरान
लाहौर और फैसलाबाद में दो सिलसिलेवार धमाके हुए। चौदह लोगों के मरने की
पुष्टि हुई। चुंकि बम हादसा बड़ा था तो धमाके के जिम्मेदारों को भी खोजने
की पड़ताल भी जोरों पर थी। करीब तीन महीने बाद 30 अगस्त 1990 को मुझे कौसर
सीमा पर गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के बाद मुझसे गहन पूछताछ होना लाजमा
था। कारण, एक तो दहशत के खौफजदा माहौल में मैं पकड़ा गया ऊपर से भारतीय
नागरिक भी ठहरा। मेरे पाकिस्तान में मौजूदगी की वजह पूछी गई। रास्ता भटक
गया था मैंने बताया लेकिन मेरी बात पर उन्हें भरोसा कहां होता। मैं कब कैसे
किन परिस्थितियों में पाकिस्तान पहुंचा इस पर दिमाग खपाना अब किस काम का
क्योंकि अब यह सचाई तो मेरी मौत के साथ ही मिट्टी में मिल गई। कागजों पर अब
मैं हमेशा एक आतंकी और भारतीय जासूस के तौर पर ही जाना जाऊंगा...लेकिन
भारत को छोड़कर।
मुझे दुख नहीं कि पाकिस्तान ने मुझे सजा-ए-मौत दी। कोई भी देश होता तो 14 मासूम लोगों की हत्या के जुर्म में यही सजा सुनाता जो मुझे सुनाई गई। भारत में भी तो यही सजा सुनाई गई... अफजल और कसाब को। बस दुख है तो इस बात का कि मेरे सरीखे पाकिस्तन की जेलों में बंद भारतीय कैदियों के साथ बर्बर व्यवहार की घटनाएं जब-कब जगजाहिर होती रहती थीं फिर न तो भारत कुछ कर पाया और न ही मानवाधिकार की वह वैश्विक संस्था ही कुछ नहीं कर पाई जो गाहे-बगाहे किसी न किसी देश को अपनी रिपोर्ट सौंप नसीहत देती रहती है।
बंटवारे के बाद से चली आ रही दो देशों के बीच रंजिश के बीच एक आम नागरिक फंस गया, राष्ट्रों की कूटनीति के तहत एक आम नागरिक जासूस बना दिया गया... मुझे मेरे साथ ऐसा होने का अफसोस नहीं है। मुझे इस बात का भी दुख नहीं है कि पाक जेल की चार दीवारी में मेरे शरीर के हर एक अंग को चोटें पहुंचाई गईं। चीख और दर्द के साथ मैंने अपने जीवने के आखिरी 22 साल बिताए। मुझे दुख नहीं है। मुझे दुख है कि मेरे नाम पर देश के पक्ष-विपक्ष ने जमकर राजनीति खेली। और पाकिस्तान के साथ किए जा रहे हर मजाक को हर बार बस सामान्य की तरह हमारा देश झेलता रहा। दुख है कि एक आस लिए मैंने भारत सरकार को कई बार अपने दर्द का बयान किया, जान का खतरा है ऐसा कई बार बताया। ऐसा मैं अकेला कैदी नहीं था हमारे वतन के कई और भी इसी पीड़ा से जूझ रहे थे फिर भी सरकार उदासीन बनी रही।
बस खुशी है तो इस बात कि मेरी बहन ने मेरे लिए अपना परिवार छोड़ा। मेरे बच्चों को गोद लिया। अकेले उसने मुझे वतन वापस लाने की मुहिम शुरू की। लेकिन दुख है कि देश के ही बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों ने उसके इस भातृ प्रेम को भी स्वार्थ बता डाला। अपनी लेखनी चलाकर लोगों ने लिख डाला कि मेरी रिहाई के मुद्दे को मेरी बहन भुनाकर अपना नाम कर रही है।... लेखक कुछ भी नहीं लिखते लेकिन क्या है कि अब लोकतंत्र का हवाला देकर कुछ भी लिखने वाले अब लेखक बन गए हैं।
...एक बाप के साए में उसके बच्चे बड़े होते हैं लेकिन मेरी दोनों बच्चियां मेरी तस्वीर देख के बड़ी हुईं। और मैंने अपने 22 साल सिर्फ उनकी प्यारी सी मुस्कान और किल्लारियों के सहारे काट दिए। मुझे मेरी बहन के हौसले से एक बारी लगने लगा था कि दम तोड़ने से पहले अपनी बच्चियों को सीने से लगा सकूंगा लेकिन मेरे सपनों से कहीं ज्यादा हकीकत मुझे दर्द दे रही थी। उनकी मार से अक्सर जान हलक तक आकर अटक जाती थी। लेकिन कम्बख्त मौत भी मेरे साथ खिलावड़ कर रही थी।
मैं पाकिस्तान की नजर में एक गुनहगार था। वहां भी मेरे मौत को लेकर राजनीति की गई। ऐसा सुनने में आया था कि पीपीपी की स्थिति डावांडोल चल रही थी। उनके पास सत्ता में वापस आने का एक ही मुद्दा बचा था। जनता की भावनाओं को वोट में बदलने का। सो...मेरी हत्या का ताना बाना बुन डाला गया।
हम भारतीयों की आत्मा इतनी भी दूषित नहीं कि यूं ही किसी को काट लें। मेरी पाक की उस जेल में सभी से दुआ-सलामा होती थी। मैं इस मामले में तो पाक था, मुझे लगा कि पाक में भी सभी मेरी तरह पाक हैं लेकिन कब जेल में मेरे ऊपर हमला हुआ कब मैं मौत के आगोश में सो गया कुछ पता ही नहीं चला।
गजब की बात है मेरे जीते जी किसी ने न तो मेरी सुध ली न ही मेरी परिवार की। और मेरे मरते ही राहुल और बादल मुझे कंधा देने पहुंच गए। केंद्र से 25 और प्रदेश से 1 करोड़ की राशि और मेरी बेटियों को सरकारी नौकरी। गजब की फुर्ती और दरिया दिली दिखाई दोनों ने। लेकिन मुझे कोई हक नहीं कि मैं ऐसा कुछ मदद के लिए बढ़े हाथों के लिए कुछ बोल सकूं। बड़ी बात ये है कि मेरे मरने के बाद सही लेकिन किसी ने तो मेरी चिंता दूर की। इसलिए मुझे भी लगता है कि कांग्रेस की प्रदेश और केंद्र की लोकसभा चुनाव की चिंता पंजाब राज्य से कुछ हद तक से तो कम हो ही जाएगी।
वैसे मजे की बात यह है कि अपने यहां मुर्दे पर भी जुबानी जंग सुनने वाली होती है। अपनी ही बात करूं तो ज्यादा बेहतर होगा। मेरे परिवार ने मुझे शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग सरकार से की थी साथ ही राजकीय सम्मान के साथ मुझे अंतिम विदाई देने की मांग की थी। मुझे भारत में आए एक दिन भी नहीं बीता था कि लोकतंत्र का मजा ले रहे एक लेखक ने मुझे शहीद कहे जाने और मुझे राजकीय सम्मान के साथ जलाए जाने पर प्रश्न खड़ा कर इस अनुचित बता डाला।
वैसे मेरे लिए अब इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। बस ये बताने की कोशिश कर रहा था कि इस स्वार्थ भरी दुनिया में वेदनाओं और रिश्तों की कोई कीमत नहीं। हर कोई आज बस उन्हें अपने स्वार्थ के लिए भुनाने में लगा हुआ है और जो सच में इनका सम्मान करते हैं उन्हें भी मोहरा बना इस्तेमाल कर लिया जाता है। लो एक और नया वाकया सामने आया अभी हाल ही में मुझे भारतीय खूफिया एजेंसी रॉ के पूर्व अधिकारी ने सार्वजनिक घोषित कर दिया कि मैं रॉ का एजेंट था। देखता हूं अब मेरी मौत पर आगे क्या गुल खिलाया जाएगा। वैसे मैं सरबजीत हूं...सरबजीत सिंह...
मुझे दुख नहीं कि पाकिस्तान ने मुझे सजा-ए-मौत दी। कोई भी देश होता तो 14 मासूम लोगों की हत्या के जुर्म में यही सजा सुनाता जो मुझे सुनाई गई। भारत में भी तो यही सजा सुनाई गई... अफजल और कसाब को। बस दुख है तो इस बात का कि मेरे सरीखे पाकिस्तन की जेलों में बंद भारतीय कैदियों के साथ बर्बर व्यवहार की घटनाएं जब-कब जगजाहिर होती रहती थीं फिर न तो भारत कुछ कर पाया और न ही मानवाधिकार की वह वैश्विक संस्था ही कुछ नहीं कर पाई जो गाहे-बगाहे किसी न किसी देश को अपनी रिपोर्ट सौंप नसीहत देती रहती है।
बंटवारे के बाद से चली आ रही दो देशों के बीच रंजिश के बीच एक आम नागरिक फंस गया, राष्ट्रों की कूटनीति के तहत एक आम नागरिक जासूस बना दिया गया... मुझे मेरे साथ ऐसा होने का अफसोस नहीं है। मुझे इस बात का भी दुख नहीं है कि पाक जेल की चार दीवारी में मेरे शरीर के हर एक अंग को चोटें पहुंचाई गईं। चीख और दर्द के साथ मैंने अपने जीवने के आखिरी 22 साल बिताए। मुझे दुख नहीं है। मुझे दुख है कि मेरे नाम पर देश के पक्ष-विपक्ष ने जमकर राजनीति खेली। और पाकिस्तान के साथ किए जा रहे हर मजाक को हर बार बस सामान्य की तरह हमारा देश झेलता रहा। दुख है कि एक आस लिए मैंने भारत सरकार को कई बार अपने दर्द का बयान किया, जान का खतरा है ऐसा कई बार बताया। ऐसा मैं अकेला कैदी नहीं था हमारे वतन के कई और भी इसी पीड़ा से जूझ रहे थे फिर भी सरकार उदासीन बनी रही।
बस खुशी है तो इस बात कि मेरी बहन ने मेरे लिए अपना परिवार छोड़ा। मेरे बच्चों को गोद लिया। अकेले उसने मुझे वतन वापस लाने की मुहिम शुरू की। लेकिन दुख है कि देश के ही बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों ने उसके इस भातृ प्रेम को भी स्वार्थ बता डाला। अपनी लेखनी चलाकर लोगों ने लिख डाला कि मेरी रिहाई के मुद्दे को मेरी बहन भुनाकर अपना नाम कर रही है।... लेखक कुछ भी नहीं लिखते लेकिन क्या है कि अब लोकतंत्र का हवाला देकर कुछ भी लिखने वाले अब लेखक बन गए हैं।
...एक बाप के साए में उसके बच्चे बड़े होते हैं लेकिन मेरी दोनों बच्चियां मेरी तस्वीर देख के बड़ी हुईं। और मैंने अपने 22 साल सिर्फ उनकी प्यारी सी मुस्कान और किल्लारियों के सहारे काट दिए। मुझे मेरी बहन के हौसले से एक बारी लगने लगा था कि दम तोड़ने से पहले अपनी बच्चियों को सीने से लगा सकूंगा लेकिन मेरे सपनों से कहीं ज्यादा हकीकत मुझे दर्द दे रही थी। उनकी मार से अक्सर जान हलक तक आकर अटक जाती थी। लेकिन कम्बख्त मौत भी मेरे साथ खिलावड़ कर रही थी।
मैं पाकिस्तान की नजर में एक गुनहगार था। वहां भी मेरे मौत को लेकर राजनीति की गई। ऐसा सुनने में आया था कि पीपीपी की स्थिति डावांडोल चल रही थी। उनके पास सत्ता में वापस आने का एक ही मुद्दा बचा था। जनता की भावनाओं को वोट में बदलने का। सो...मेरी हत्या का ताना बाना बुन डाला गया।
हम भारतीयों की आत्मा इतनी भी दूषित नहीं कि यूं ही किसी को काट लें। मेरी पाक की उस जेल में सभी से दुआ-सलामा होती थी। मैं इस मामले में तो पाक था, मुझे लगा कि पाक में भी सभी मेरी तरह पाक हैं लेकिन कब जेल में मेरे ऊपर हमला हुआ कब मैं मौत के आगोश में सो गया कुछ पता ही नहीं चला।
गजब की बात है मेरे जीते जी किसी ने न तो मेरी सुध ली न ही मेरी परिवार की। और मेरे मरते ही राहुल और बादल मुझे कंधा देने पहुंच गए। केंद्र से 25 और प्रदेश से 1 करोड़ की राशि और मेरी बेटियों को सरकारी नौकरी। गजब की फुर्ती और दरिया दिली दिखाई दोनों ने। लेकिन मुझे कोई हक नहीं कि मैं ऐसा कुछ मदद के लिए बढ़े हाथों के लिए कुछ बोल सकूं। बड़ी बात ये है कि मेरे मरने के बाद सही लेकिन किसी ने तो मेरी चिंता दूर की। इसलिए मुझे भी लगता है कि कांग्रेस की प्रदेश और केंद्र की लोकसभा चुनाव की चिंता पंजाब राज्य से कुछ हद तक से तो कम हो ही जाएगी।
वैसे मजे की बात यह है कि अपने यहां मुर्दे पर भी जुबानी जंग सुनने वाली होती है। अपनी ही बात करूं तो ज्यादा बेहतर होगा। मेरे परिवार ने मुझे शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग सरकार से की थी साथ ही राजकीय सम्मान के साथ मुझे अंतिम विदाई देने की मांग की थी। मुझे भारत में आए एक दिन भी नहीं बीता था कि लोकतंत्र का मजा ले रहे एक लेखक ने मुझे शहीद कहे जाने और मुझे राजकीय सम्मान के साथ जलाए जाने पर प्रश्न खड़ा कर इस अनुचित बता डाला।
वैसे मेरे लिए अब इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। बस ये बताने की कोशिश कर रहा था कि इस स्वार्थ भरी दुनिया में वेदनाओं और रिश्तों की कोई कीमत नहीं। हर कोई आज बस उन्हें अपने स्वार्थ के लिए भुनाने में लगा हुआ है और जो सच में इनका सम्मान करते हैं उन्हें भी मोहरा बना इस्तेमाल कर लिया जाता है। लो एक और नया वाकया सामने आया अभी हाल ही में मुझे भारतीय खूफिया एजेंसी रॉ के पूर्व अधिकारी ने सार्वजनिक घोषित कर दिया कि मैं रॉ का एजेंट था। देखता हूं अब मेरी मौत पर आगे क्या गुल खिलाया जाएगा। वैसे मैं सरबजीत हूं...सरबजीत सिंह...
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें