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शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

असुरक्षित 'सुरक्षा'

रात के साये में सरसराती ठण्डी हवा, झींगुर की आवाज का ये अहसास कराना कि शहर में सन्नाटा लगभग पसर गया है। रात जैसे गहरी होती जाती डर की काली छाया अपना वेश विकराल करती जाती। ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही नहीं शहर में रह रहे उन तमाम लोगों की दास्तां है जो ताकतवर घरानों या षोहरत हासिल किये हुए नहीं हैं। मैं शबनम। मेरी एक 3 महीने की बच्ची आयत। हम कश्मीरी हैं। अब्बू तासीर आलम। हमारा कपड़े का धन्धा है। पहले अब्बू दूकान चलाया करते थे। पिछले एक साल से मैं चला रही हूं। अम्मी इस काबिल नहीं कि काम काज कर सकें लेकिन शाम के समय हमेशादस्तरखां वहीं लगाती हैं। खानदान में अब और कोई नहीं... हां खाला थीं वो भी कष्मीर के खौफ ज़दा माहौल से परेशां परिवार के साथ जम्मू चलीं गयीं।

अब्बू काफी नेक दिल और इस्लाम परश्त थे। ऐसा सिर्फ मैं ही नहीं कहती। मोहल्ले के और लोगां भी बोला करते थे। लेकिन अब तो हालात ही बिल्कुल बदल गये। अब्बू को जब से वर्दीवाले पकड़ के ले गये सभी की निगाह ग़लत हो गयी है।

आज भी वो दिन याद करके दिल दहला जाता है। सभी रात का खाना खाकर आराम कर रहे थे। समय का तो ध्यान नहीं पर काफी रात हो चली थी। अचानक दरवाजे को जोर-जोर से पीटते हुए कुछ लोगां अब्बू को दरवाजा खोलने के लिए बोल रहे थे। हम सभी घबरा गए। मन में चल रहा था कि दरवाजे पर कौन होगा अलगाववादी, चरमपंथी या आतंकवादी। वैसे तो वसूली के नाम पर महनवारी दहशतगर्दों के पास पहुंच जाती थी लेकिन इतनी देर गये.. इस तरह से... रात में आना...रूह तक कांप रही थी।

अब्बू सोच में पड़ गये और कहने लगे हमारा तो कोई बेटा नहीं जिसे ये दहशतगर्द अपने गुट मेंशामिल करने के वास्ते हमसे छीनने आयें हों। फिर क्यों आये होंगे ये... अम्मी मेरी तरफ देखने लगीं और कस कर मुझे सीने से लगा लिया। और अब्बू से रोते हुए बोलीं कि मैं अपनी बच्ची को उनदहशतगर्दों के हवाले नहीं करूंगी। अकसर ऐसा सुनने में आया करता था कि ये दहशतगर्द अपनी हवस मिटाने के लिए घरों से जवान बेटियां उठा लाया करते हैं।

अम्मी को भी यही लग रहा था कि अब मैं भी...। तभी फिर से अब्बू का नाम लेते हुए कुछ लोगों ने दरवाजा जोर से खटखटाया। हिम्मत करके अब्बू ने आवाज दी कि आता हूं, थोड़ा सबर करो। अब्बू दरवाजा खोलने चले गये। अम्मी ने मुझसे कहा जाओ कोठरी में छुप जाओ और जब तक मैं न कहूं बाहर मत आना... चाहे जो हो जाए।

दरवाजा खुलते ही वर्दी पहने कुछ हथियारबन्द लोग घर में घुस आये। अब्बू कुछ पूछते उससे पहले ही वे लोग अब्बू से हाथापाई करने लगे। अम्मी ने उन्हें रोकने की कोशिश की... पर उन्होंने अम्मी को भी नहीं बख्शा...। मैं अपने आप को रोक नहीं पायी और कोठरी से बाहर आ गयी। एकदम से घर में सन्नाटा पसर गया। मारपीट बन्द कर सभी मेरी तरफ देख रहे थे।

एक ही थाली में कई लोगों की भोज करने की घटनाएं कई बार सुनने में आयीं थीं। लेकिन उनकीनिगाहें इस बार ये कह रही थीं कि आज श्याद मैं इस घटना का एक और पात्र बनने वाली हूं। उनके कदम मेरी ओर बढ़े। मेरी धड़कनों की रफ्तार बढ़ गयी। गला सूख गया था। अम्मी और अब्बू ने उन्होंने रोकने की कोशिश की। ताकत के सामने हम लाचार पड़ गये। अम्मी और अब्बू का मुंह और हाथ बांधकर उन्हें जमीन पर पटक दिया गया।

आगे की कहानी की दासतां बताने के लिए जिस हिम्मत की जरूर होती है वो अब मुझमें नहीं रही। बस यही जानिए कि उस दिन उस थाली में चार वर्दीधारियों ने भोज किया था। अम्मी और अब्बू का कलेजा मंुह को आ गया था। बेबस लाचार अब्बू का दर्द आंखों से साफ झलक रहा था और अम्मी तो बदहवा सी हो गयी थीं। और मैं... जिस्म के उन भूखों के साथ काफी देर तक लड़ती रही। मेरी चीखें मेरी आत्मा को ताकत दे रही थी। लेकिन कुछ देर बाद वो भी ठण्डी पड़ गयी। एक समय के बाद मेरी सिसकियां भी शांत पड़ गयीं। उन बेरहमों का भोज खतम होते ही मेरी अस्मिता का दिया बुझ गया।

मैं... बेसुध घर के आंगन में पड़ी हुई थी। धुंधली आंखों से बस इतना देख पायी कि वे वर्दीधारी अब्बू को घसीटते हुए घर से बाहर ले जा रहे हैं। बदहवास अम्मी ये ही नहीं समझ पा रही थीं कि सम्भालें तो किसे? पहले तो रोते बुलखते, अब्बू को छुड़ाने दौड़ीं। ऐसा लगा कि जोर-जोर से ^उन्हें छोड़ दो, उन्हें छोड़ दो' कहते हुए कुछ दूर तक जीप का पीछा भी किया फिर अचानक भागती हुई मेरे पास आयीं। आसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो इस जिन्दगी में अब कुछ नहीं बचा।

हांसी आती है जब बड़ी गर्व के साथ 15 अगस्त और 26 जनवरी पर सीमा पर लड़ने वाले जवानों की तारीफों के पुल बान्धे जाते हैं। क्यों हांसी आती है मुझे यही सोच रहे हैं? क्योंकि मेरे साथ, मेरे परिवार के साथ जो घटना घटी वो इन्हीं वर्दीधारियों की ही कृपा थी। यह इन देश के सिपाहियों का एक और घिनौना रूप भी है जो देश की जनता के सामने नहीं है।

न जाने वो कौन सी घड़ी थी जिस दिन मेरा घर निशाना बना। अब्बू को बिना ज़ुर्म गिरफ्तार कर लिया जिन्हें आज तक नहीं छोड़ा गया। और मुझे अपनी हवास का साधन।

मेरे इस बरबादी का उन्होंने जो तोहफा दे दिया उसे क्या बताऊंगी कि वो किसकी औलाद है। सुन के ताजिब लगेगा लेकिन मेरी कहानी से मिलती जुलती आप को यहां बहुत सी कहानियां मिला जाएगी। बड़े-बड़े लोगां बोला करते हैं कि मेरे पर जो बीती है उस तरह की घटनाएं सिर्फ कश्मीर में ही नहीं पूर्वोत्तर के प्रदेशों में भी है।

सबकी दांसता एक जैसी ही है पता नहीं कब शबनम जैसी लड़कियों की आत्मा तार-तारहोती रहेगी। हांलाकि हाल ही में सुनने में आया है कि भारत प्रशासित कश्मीर क्षेत्र से जल्दही सेना विशेषाधिकार कानून और अशांत क्षेत्र अधिनियम हट जाएगा। इस बात से एक आसतो जरूरी जागी होगी, उन कश्मीरियों के मान में जों इस तरह की घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी याभुग्तभोगी रहे हैं कि अब कोई परिवार इस तरह से देश के जवानों द्वारा नहीं बरबाद कियाजाएगा। वैसे एक प्रश्न आप के लिए कि अगर सेना के जवान इस तरह की घटनाओं कोअनजाम देते हैं तो उनके साथ क्या किया जाना चाहिए? और उस पीडि़त जनता को कैसेविश्वास दिया जाए कि ये जवान उनके रक्षक है न कि भक्षक

1 टिप्पणी:

  1. ये दर्द भरी कहानी कश्मीर के जाने कितने घरों की होगी । इसका कोई इलाज़ है क्यूंकि कश्मीरी भी तो आतंक वादियों को शह देते हैं चाहे दबाव में या मन से ।

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