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शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

नूरजहाँ हो गयी है इत्र



शेखावत की चलंत दुकान

रोगी, जोगी, भोगी कोई नहीं बच सका इत्र की खुशबू से. हमेशा से सभी को इत्र मोहती रही. नवाबो , ज़मीदारों के हमाम में भी इत्र ने अपनी जगह बनायी,  तो गरीबों के घरों में विशेष मौको का एहसास भी इत्र ने कराया. किसी के लिए दवा बनी तो किसी के लिए दुआ. रीति- रिवाजों में भी इत्र का विशेष स्थान रहा. मुग़ल काल में नूरजहाँ की यह खोज आज  इतिहास बनने को तैयार है.आज के समय यूँ कहे की नूरजहाँ हो गयी है इत्र. 
२६ वर्षों से इत्र , सुरमा घर-घर तक पहुचाने वाले शेखावत बताते हैं की कभी इस धंधे ने इतना जोर पकड़ा था की किसी और धंधे में मन न लगा. मोतिहारी में जन्मे शेखावत इत्र की परिभाषा कुछ यूँ देते हैं - वह सुगंध जो अंतरात्मा तक पहुच जाए. वाकई बचपन में लौटे तो इत्र की कुछ समझ बन सकती है. जब मोहल्ले की किसी गली में कोई शेखावत  पहुचता. तो एक अजीब और आकर्षक महक हमे ही नहीं, बूढ़े , जवान सबको अपनी ओर खीच  लेती. सब उसे घेर लेते, अधिकांश लोग खरीदने के बहाने  फ्री में ही थोडा इत्र लगाकर भीड़ से कल्टी मार लेते थे. बाद में कोई बेला पर गुमान करता तो कोई गुलाब पर इतराता. शेखावत कहते हैं की वे अर्थशास्त्र के ग्यानी तो नहीं हैं लेकिन देशी अर्थशास्त्र उन्हें खूब मालूम है. अपने अनुभव का ज़िक्र करते कहते हैं की तब  महक का मतलब महक ही था. क़द्र होती थी, खुशबू के कद्रदान भी थे. आज तो महक के क्या-क्या मतलब हैं पता नहीं. शेखावत के मुताबिक़ पटना में आज घर- घर घूम कर इत्र सुरमा बेचने वाले ५०० से घट कर ५० बचे हैं. बिहार के बाहर नेपाल तक कभी उनकी इत्र के कद्रदान हुआ करते थे, आज वे कुछ फिक्स ग्राहक के अलावा विशेष मौकों पर ही इत्र बेचने निकलते हैं, बड़े अफ़सोस से कहते हैं मेरा पुराना धंधा है तो छोड़ नहीं सकता. ऐसे ही हालात रहे तो ज़रूर छूट जाएगा. बिहार में ही नहीं कई जगह कन्नोज के इत्र की खासी मांग है, इसके बाद मुंबई , डेल्ही, कोलकाता जैसी जगहों से भी इत्र उनके पास आता है. फिरदौश, खस, चन्दन, बेला, हिना, मुसम्बर हज़ारों वेरायटी कभी उनके बक्से में बंद रहती थी, आज कुछ खास ही बक्से में रहती हैं. शेखावत डॉक्टर को चुनौती देते हुए बोलते है की उनके सुरमे के अलावा सब दावा बेकार है, डॉक्टर का क्या है? खुद दारू पीते हैं हमे दारू पीने से मना करते हैं.  हमारा सुरमा आज भी आँखों को तरावट देता है. शेखावत ने अंत में कहा 
साहब कुछ छापियेगा नहीं. एगो धंधा है, उहू ख़त्म हो जाएगा तो क्या करेंगे ?  वैसे भी सब का विशवास अब इस पर नहीं रहा. कुछ तो कहते हैं की सुंघा कर बेहोश कर देगा. अब हम का करे साहब सलीके से सुगंध बेचना भी अपराध है, और बड़ी - बड़ी कंपनी कुछु पैक कर के कोई दुर्गन्ध बेच दे, उनका कुछ नहीं.         

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