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सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

मुसाफिर जाएगा कहाँ .....


हाल में आपने  रिक्शा विज्ञापन वाला...शीर्षक से पटना में रिक्शा मालिक और चालक के अर्थशास्त्र को जाना था. उसी क्रम में आगे बढ़ रहा हूँ.  पढ़िए और देखिये रिक्शावान की जिंदगी....जो राह चलते सबसे कहता है मुसाफिर जाएगा कहाँ ........
दिन-रात सड़क पर बिताने वाले रिक्शा चालक टिंकू को उस दिन राहत मिली, जब उसने सुना कि, इस अजनबी शहर में भी सोने-रहने  के लिए एक जगह होगी. सर पर एक छत, अपना डेरा होगा. बिहार सरकार ने कुछ साल पहले पटना  में रिक्शा चालको के लिए बेकार पड़ी लैंड पर 35  रैनबसेरा बनाया. कई अत्यंत गरीबों का पंजीकरण हुआ. पंजीकृत लोगो को एक-एक बक्सा भी दिया गया. ताकि वे अपना सामान सुरक्षित रख सके. ये रिक्शा चालक इन रैनबसेरो में शिफ्ट हो गए. लेकिन १० फीसदी को ही जगह मिल सकी. बाकी ९० फीसदी का रैन-बसेरा अभी भी सडक हैं.जिनमे एक टिंकू भी शामिल है. 
जिन १० फीसदी को जगह और छत मिली, वे अपने रैनबसेरों में एक टोले की तरह रह रहे हैं. उन्ही में देखिये इस एक रैनबसेरे की हालत-  

दिन के बारह बज रहे हैं, मै पटना के मध्य एक सरकारी रिहायशी इलाके में हूँ. तारामंडल से सीधी एक डेढ़ किलोमीटर चमचमाती सड़क. आधा किलोमीटर चला. तो  दायें से कटी एक किलोमीटर की लम्बी सड़क दिखी. सड़क के एक और लम्बी दीवार, दूसरी और जेल के बैरक जैसे ७ से ८ घर. इन्ही को सरकार ने रैन बसेरा नाम दिया है.पूरे क्षेत्र का नाम है चीना कोठी, हालाँकि अंग्रेजी में यहाँ लोग चाइना कोठी लिखते हैं. टोला गौर से देखने पर एक देश है. इस बसेरे की खासियत यह की कहीं भी कोई गेट नहीं. फिर भी चोरी होने का कोई डर नहीं. शायद सरकार को यह मालूम रहा होगा. की यहाँ  चोरी हो सकने वाली कोई चीज कभी आएगी ही नहीं. दीवालों के उपरी पट्टी पर जगह का लिखा नाम ऐतिहासिक हो चुका है.हालांकि भवन निर्माण दो-चार सालों का है. 



अधिकांश लोग इस समय अपने रैनबसेरे से काम के लिए निकल चुके हैं, कुछ रैन बसेरे वीरान भी हैं. हज़ारों सालों की गंदगी इस इलाके में, सरकार-प्रशासन  की तरह किसी को कोई फर्क नहीं.  कुछ अधेड़ सोते मिले.क्यूंकि रात में रिक्शा चलाने जाना है.


तो  कुछ बच्चे काम करते दिखे

मैंने पुछा क्या नाम है. तो बताया रोहित. पढ़ते हो ? हाँ छठी कक्षा में. तो यहाँ ये काम. हाँ बाबू निकल गए रिक्शा चलाने हम लोग खाने का प्रबंध कर रहे हैं. रोज़ करते हो? नहीं हमारे स्कूल में छुट्टी है, बीबी नासिर्गंज में पढ़ते हैं. यहाँ कुछ कहानी की किताब लाये हैं उसे पढ़ रहे हैं.
घर के अन्दर घुसा तो रहस्य और रोमांच दोनों दिखा. रहस्य यह की इतनी कम जगह में कोई कैसे सोयेगा, रोमांच यह की फुर्सत के पल को कैसे एन्जॉय किया जाए. जोगी बताने लगे की साहब इस बार बाजी हमारी है. राजा और एक्का दोनों अपने पास. ५२ पत्तियों में फुर्सत का संसार दिखा.


रिक्शा चालक ननके बताते हैं की खुले में दाढ़ी बनवाने का अपना मज़ा है.वैसे भी मेरे दोस्त को विज्ञापन करने की ज़रुरत नहीं है. औज़ार देख के ही लोग समझ जाते हैं की बाल कतरन दूकान यही है.




कुछ दूर बढ़ने पर गरीबी का आर्कीटेक्चेर दिखा. सवाल वही जो राह चलते सबका हो सकता है? कैसे रहते होंगे इसमें.


  आगे देश के भविष्य दिखे, जो अपना भविष्य पहले से ही जान चुके हैं. नन्हे-मुन्हे कहते हैं की बाबू  रिक्शा चलाएंगे. रिक्शा हमारा खिलौना है..


 




 

 
पटना में कम से कम ४० हज़ार रिक्शा चालक मौजूद हैं. जिनमे से ८० फीसदी ने बिहार के छोटे जिलो से निकलकर राजधानी का कूच किया है. कुछ तो हालत से जूझकर पहुचे हैं तो कुछ हालात से जूझने पहुचे हैं. डेहरी आन्सोल से 1980 में पटना काम की तलाश में पहुचे टोनी बताते हैं, जब से आये रिक्शा पकड़ लिया. तब १० रूपये किराए में आप पूरा पटना घूम सकते थे. उस दशक में हम 80 रूपये तक रोज़ कमाते थे जिसमे से हम ४० रूपये खर्च के बाद बचाते थे. आज के समय में एक रिक्शा चालक राजधानी में प्रतिदिन औसत ३०० रूपये कमाता है. कमाई से हर रोज़ ३० रूपये मालिक को जाता है. दिनभर के खाने-पीने में हम ५० से ६० रूपये  खर्च करते हैं. १०० रूपये घर के लिए निकालते हैं. इस तरह से रोज़ करीब १०० रूपये बचता है. जिसे वे अपने बिना ब्याज देने वाले बैंक (बक्से) में जमा करते हैं. रहने और सहने का तब भी कोई खर्च नहीं लगता था और आज भी. क्यूंकि हम सड़क पर ही सोने के आदि हो चुके हैं. रैनबसेरा की स्थिति तो आप देख ही रहे हैं. इससे अच्छा हम सड़क पर ही सो जाया करे.  

  विकास, आय व् गरीबी पर व्यापक शोध की ज़रुरत
अर्थशास्त्री व् इंडियन कौंसिल ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के अध्यक्ष सुखदेव थोराट 08 अक्टूबर,२०११ को पटना में थे. समावेशी विकास पर उनका व्याख्यान सुनने को मिला. उन्होंने कहा की अब तक  ११ पंचवर्षीय योजनाओं के बाद जो शोध व्  डाटा संग्रहण हुए हैं, उनसे यह पता चलता है की विकास का फायदा सबको हुआ है.गाँव और शहर दोनों जगह संगठित और असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूर अभी भी गरीबों में गरीब हैं. इन्हें १२वी पंचवर्षीय में कैसे फायदा पहुचाया जाए,  इसी तरह के नीतियों पर विचार किया जा रहा है.  भारत में सोशल स्टडीज़ में शोध के लिए देश भर में कुल १४ संस्थान हैं. जबकि चाइना में ४०. यह संख्या इसलिए की अपने देश में सोशल स्टडीज़ की शाखाएँ बढनी चाहिए. दूसरा-  विकास, आय व् गरीबी के साझा रिश्ते पर व्यापक शोध की ज़रुरत है. 
भारत में जाति, धर्म, जेंडर के आधार पर भी शोध की जरूरत है. क्यूंकि अभी तक प्राप्त सरकारी आंकड़े के आधार पर जो गरीबो में भी गरीब हैं, उनमे सबसे ज्यादा आदिवासी (एस.टी),  एस.सी. और उसके बाद मुसलमान और फिर महिलायें हैं.  जो अत्यंत गरीब हैं, उनमे भी लाभ - हानि का इन सब बातों का महत्वपूर्ण रिश्ता है.  


1 टिप्पणी:

  1. कुछ नेता बंधु गरीबों की बातें करते हैं....और मौका मिलते ही गरीबों का हक मार लेते हैं....गरीबी तो एक मुद्दा है वोट मांगने का, लेख लिखने का, चर्चा करने का...... फिर भी उम्मीद करता हूं सारे नेता-पत्रकार और बकबक करने वाले लोग ऐसे नहीं होंगे...विवेक की रिपोर्ट अच्छी लगी....लेखन जारी रहे।

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