उत्तर प्रदेश का सबसे छोटा और पिछड़े जिला में शुमार,आल्हा ऊदल की नगरी के नाम से ख्याति प्राप्त,वीर भूमि वसुंधरा के नाम से उद्बोधित..पानों का नगर..महोबा अपने में कई ऐतिहासिक तथ्यों को अपने में लीन किये है...बुंदेलखंड क्षेत्र से सबसे ज्यादा मंत्री होने के बावजूद ये जिला अपने काया कल्प और विकास के लिए आज भी सरकारी बाट जोह रहा है...पता नहीं कब तस्वीर बदलेगी..इस क्षेत्र की..यहाँ के नुमाइंदों की...खैर आज राजनैतिक बातें नहीं...मुद्दे की बात.. जिसने लोगों की सेवा में लगा दिया अपना बचपन .. जिले से राज्य और फिर राष्ट्र स्तर के बटोरे ढेरों पुरस्कार....जिस पर राष्ट्रपति भी हो गए निहाल..और दिया राष्ट्रपति सम्मान..जो बना युवाओं का आदर्श...मगर अफ़सोस कि वो मुफलिसी से हार गया..पेट की भूंख और रिश्तों के निर्वहन के दायित्व ने उसे तोड़ कर रख दिया..विधवा मां की बीमारी और तंगहाली से जूझने की राह ढूंढने में नाकाम हो गया वो.. लेकिन अभी भी उसमे हौसला है..उसको है अपनी जिम्मेदारियों का एहसास...जिसके लिए वो गिट्टी तोड़ने में हाड़तोड़ मेहनत कर वह अपनी पढ़ाई भी करता है और बीमार मां व बहन की परवरिश भी... मां के इलाज व बहन की शादी के लिये पैसे से लाचार ये कर्मवीर अब इस उधेड़बुन में है कि किसी तरह बहन के हाथ पीले करे.. इस कर्म योद्धा की कहानी सुनकर मुझे एक गीत कि पंक्तियाँ याद आती हैं... बचपन हर गम से बेगाना होता है... मगर कबरई कस्बे के राजेंद्र नगर के निवासी 17 साल के श्यामबाबू को नहीं पता कि बचपन क्या होता है...इसके होश संभालने के पहले पिता का साया इसके ऊपर से उठ चुका था..जिस उम्र में इसे अपने हम उम्र साथियों के साथ खेलना चाहिए था..उस समय इसके हाथ अपने परिवार को पालने के लिए हथौड़ा चलाते लगे... जब इसको अपना जीवन संवारना चाहिए तो इसे अपनों की रुश्वाइयों का शिकार होना पड़ा....बड़े भाई ने बीमार मां व छोटे भाई बहनों को छोड़ अपनी अलग दुनिया बसा ली...न रहने को मकान था और न एक इंच जमीन, कोई रोजगार भी नहीं.. इन कठिन हालात में इस कर्मवीर ने कस्बे के पत्थर खदानों में हाड़तोड़ मेहनत कर स्वयं मां व छोटे भाई बहनों की रोटी तलाश की...समाजसेवा का जज्बा होने के कारण अध्ययन के दौरान विविध गतिविधियों में हिस्सा ले खुद को तपाया...स्काउट गाइड, रेडक्रास सोसायटी, राष्ट्रीय अंधत्व निवारण कार्यक्रम, राजीव गांधी अक्षय ऊर्जा कार्यक्रम जैसे तमाम आयोजनों में इस मेधा को प्रशिस्त पत्र दे सम्मानित किया गया...सम्मान और पुरस्कारों का क्रम जिले से शुरू हो राज्य और राष्ट्र स्तर तक पहुंचा...12 साल की उम्र में राज्यपाल टीवी राजेश्वर और 14 जुलाई 10 को राष्ट्रपति ने स्काउट गाइड के रूप में बेहतर सेवा के लिये इसे सम्मानित किया.... राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित यह किशोर अभी भी पत्थर खदानों में मजदूरी कर रहा है... बीमार मां के इलाज और सयानी बहन की शादी कैसे हो यह सवाल उसे खाये जा रहा है...हर पल उसे चिंता की आग में जला रहा है... जिले का गौरव बढ़ाने वाले इस किशोर के पास रहने को झोपड़ी तक नहीं...अब तक नाना नानी के घर में शरणार्थी की तरह रहने वाले इस परिवार को अब वहां भी आश्रय नहीं मिल पा रहा है... जिले से राष्ट्रीय स्तर तक तमाम प्रतियोगिताएं जीत चुका यह किशोर असल जिंदगी की प्रतियोगिता का मुकाम हासिल नहीं कर पा रहा है.. शादी योग्य बहन के हाथ पीले न कर पाने की लाचारी में वह इसे देख निगाहें झुका लेने को मजबूर है..राज्य स्तर के ढेरों पुरस्कारों व स्काउट गाइड में राष्ट्रपति से सम्मानित श्यामबाबू को किसी सरकारी योजना में शामिल नहीं किया गया... इसके पास न रहने को घर है न एक इंच भूमि... परिवार में कोई कमाने वाला भी नहीं... हद यह कि इस परिवार को गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन का कार्ड भी हासिल नहीं हुआ... प्रशासन चाहता तो कांशीराम आवास योजना के तहत इसे छत तो दे ही सकता था पर वह भी नसीब नहीं हुई... इंदिरा और महामाया आवास भी नहीं मिले... हालात से जाहिर है जिले में ऐसे जरूरतमंद उंगलियों में गिनने लायक ही होंगे.... लेकिन ऐसे इन्हीं लोगों को जब छत और रोजगार न मयस्सर हो तो फिर सरकारी योजनाओं का लाभ किसे दिया जा रहा है....अपने आप में एक बड़ा सवाल है.... प्रतिभा तोडती पत्थर या पत्थरों से टूटती प्रतिभा इसे क्या कहा जाए..आप खुद सोचिये.. |
गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011
....वह तोड़ता पत्थर
बुधवार, 23 फ़रवरी 2011
कदम से कदम मिले...
लो तैयार हो गया काफिला
जुल्म से जुल्म टकराये
लो आगाज़ हो गया क्रान्ति का...
घर घर में लगायी आग
लो दौर शुरू हो गया विद्रोह का...
तितर बितर रक्त छिटकता रहा
लो उठा खड़ा हुआ सैलाब लाल का...
जगह-जगह लोग कहते हैं
कभी दौर हुआ करता था आजादी का...
तभी दस्तक दी भगत-सुखदेव-राजगुरू ने
लो फिर से आगाज हुआ इन्क़लाब का...
करवॅट पे करवॅट वक्त लेता है
सर्वाहारी पर हावी पूंजीपति रहता है
जन-जन से जन सैलाब तैयार हो गया
फिर से शुद्धिकरण शुरू होगा समाज का...
मंगलवार, 22 फ़रवरी 2011
कदम से कदम मिले...
लो तैयार हो गया काफिला
जुल्म से जुल्म टकराये
लो आगाज़ हो गया क्रान्ति का...
घर घर में लगायी आग
लो दौर शुरू हो गया विद्रोह का...
तितर बितर रक्त छिटकता रहा
लो उठा खड़ा हुआ सैलाब लाल का...
जगह-जगह लोग कहते हैं
कभी दौर हुआ करता था आजादी का...
तभी दस्तक दी भगत सुखदेव राजगुरू ने
लो फिर से आगाज हुआ इन्क़लाब का...
करवॅट पे करवॅट वक्त लेता है
सर्वाहारी पर हावी पूंजीपति रहता है
जन-जन से जन सैलाब तैयार हो गया
फिर से शुद्धिकरण शुरू होगा समाज का...
मीडिया के पतन में आखिर दोषी कौन?
कलम और कैमरे की ताकत से कायल युवा सिर्फ ग्लैमर, नाम-पहचान, रूपया से प्रभावित हो पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने कदम रख रहे हैं। इनकी तादात तो इतनी है कि हर साल हजारों युवा पत्रकारिता की डिग्री लेकर निकलते हैं लेकिन चौंकाने वाली बात तो यह है कि उसमें से करीब एक चौथाई युवा भी नामचीन समाचार पत्रों व चैनलों में नौकरी नहीं पा पा रहे हैं और पत्रकारिता का गुण रखने वाले जिन युवाओं को नौकरी मिल रही है उनमें से भी कुछ सिफारिशी टट्टू होते हैं। वैसे, जैसे-तैसे इन लोगों की नईय्या तो पार हो जाती है लेकिन इनमें से अधिकतर का जीवन गुमनामी के अन्धेरे में ही सिमटकर रह जाता है। मतलब अब जो पत्रकारों की फौज खड़ी हो रही है उनमें इतनी क्षमता नहीं रह गयी कि वे अपनी कलम-लेख से अपनी पहचान बरकरार रख सकें। रही बाकी लोगों की बात तो इनमें से कुछ पहले ही हार मानकर अपनी दिशा बदल लेते हैं और जिनमें लड़ने की क्षमता बाकी रहती हैं वे किसी क्षेत्रीय समाचार पत्र या चैनल में अपना जीवन झोंक देते हैं। इसलिए नहीं कि छोटे स्तर पर सीखने को ज्यादा मिलेगा बल्कि इसलिए कि भागते भूत की लंगोटी भली। चुंकि गरज इन भटकते युवाओं की है इसलिए खुद मीडिया संस्थान शुरुआत में इन्हें निःस्वार्थ भाव से सेवा करने के लिए कहते हैं फिर एक आध साल के बाद इनकी कीमत एक हजार रूपये या बहुत ज्यादा पन्द्रह सौ रूपये लगाते हैं। ये कहानी सिर्फ क्षेत्रीय समाचार पत्रों की ही नहीं राष्ट्रीय समाचार पत्रों की भी और चैनलों में इन्हीं गरजुओं को तीन से चार हजार रूपया मिलता है। मतलब एक मजदूर की मेहनतहाना के लगभग बराबर। 3-3 लाख रूपये की डिग्री लेने के बाद युवा तीन हजार की नौकरी ख़ुशी-ख़ुशी कर हैं... सस्ती पत्रकारिता कर रहे हैं और असल में यही है मीडिया की वास्तविकता जो युवाओं को अनुभव देने के नाम पर उनका शोषण करते हैं जब तक खुद वो युवा संस्थान नहीं छोड़ देता। उसके संस्थान छोड़ते ही कोई दूसरा अनुभव के नाम पर शिकार हुआ युवा उसकी जगह ले लेता है। जिससे संस्थानों की अपनी दूकान तो चलती रहती है लेकिन पत्रकार बनने आये युवाओं के साथ सिर्फ खिलवाड़ होता रहता है।
सस्ती पत्रकारिता का साफ अर्थ है कि पत्रकारिता के चरित्र का पतन होना। इस पतन के लिए शायद दो कारण हो सकते हैं। पहला ये कि पत्रकारिता के लिए जो पठ्यक्रम तैयार किया जा रहा है। उससे उन युवाओं का बौद्धिक और शाब्दिक ज्ञान का विकास शिथिल पड़ा रहता है। हां, तकनीकि ज्ञान एक आध मीडिया स्कूलों में जरूर दिया जा रहा है। ज्ञान के अभाव के कारण भाषा पर इनकी पकड़ कमजोर होती चली जा रही है। साथ ही इनमें बहुआयामी सोच का विकास नहीं हो पा रहा है और जब ऐसे युवा पत्रकार बनेंगे तो पत्रकारिता का स्वरूप बदलना लाज़मी ही है। दूसरा कारण यह है कि जब कोई युवा तीन लाख रूपये लगाने के बाद तीन हजार की नौकरी करता है तो स्वतः ही उसका नजरिया पत्रकारिता के लिए बदल जाता है। वह पत्रकारिता को एक ज़रिया समझकर उससे धनोत्पार्जन करने के दांव पेंच खेलना शुरू कर देता है। तो जब पत्रकार ही अपने पथ से भटक जाएगा तो पत्रकारिता का पथ भ्रष्ट होना तय है। यही कारण है कि अब मीडिया गम्भीर होने के बजाए अर्थहीन होती जा रही है। क्या कारण है कि इतना मंहगी पढ़ाई करने के बाद भी पत्रकारिता के क्षेत्र में जाने माने चेहरों में किसी युवा पत्रकार का चेहरा नहीं दिखई दे रहा है? हां अपवाद के तौर पर इने गिने चेहरे ही हर जगह दिखाई देते हैं। कोई और चेहरे क्यों नहीं सामने निकलकर आ पा रहे हैं? आखिर गलती कहां पर हो रही है और किससे हो रही है? वैसे प्रभाष जोशी, पुण्यप्रसून वायपेयी, आशुतोष, राहुल देव, प्रभू चावला जैसे पत्रकारिता के दिग्गज खिलाड़ी आज के उन मीडीया स्कूलों पर उंगली उठा रहे हैं जो पत्रकार बनने आये छात्रों से लाखों रूपये वसूल कर रहे हैं उसके बावजूद भी आज पत्रकारिता पथभ्रष्ट होती नजर आ रही है...
सोमवार, 21 फ़रवरी 2011
योजनाओ का सहारा
आगामी विधान सभा चुनावी सरगमी उत्तराखंड राज्य अपने पैर पसारती जा रही है . जैसे -२ चुनाव नजदीक आते जा रहे है ....वैसे -२ निशंक के चेहरे की भाव भंगिमाए दिनों दिन बढती जा रही है ...वोट पाने के लिए प्रदेश सरकार योजनाओ का सहारा ले रही है ...डा. निशंक नितीश और मोदी की रहा पर चलना चाह रहे है ..निशंक की तुलना अगर नितीश और मोदी से कर भी दी जाये ..... तो शायद हसी के पात्र भी बन सकते है... निशंक सरकार कों इन दोनों की राह पर चलने की लिए ,बहुत कुछ सीखना पड़ेगा तभी जाकर इनकी बराबरी कर पायेगे ....आगामी विधान सभा चुनावो की रणनीति कों लेकर सभी राजनीति दलों अपनी - २ गोटी फेलानी शुरू कर दी है...जहा एक और उत्तराखंड ने अपनी स्थापना का एक दशक पूरा किया ..वही दूसरी और राज्य अपने विकास के रोने रो रहा है ...उत्तराखंड ने अब तक प्रदेश कों पांच मुख्यमंत्री दिए ... लेकिन किसी ने अब तक इसके विकास के बारे में नहीं सोचा ....
मीडिया सलहाकार समिति अध्यक्ष( उत्तराखंड)----देवेन्द्र भसीन
करीब डेढ़ माह पहले देहरादून में A 2 Z टीवी चेंनल. के एक पत्रकार की दुर्घटना में हुई मोत से राज्य के सभी पत्रकारों ने इस पर शोक व्यक्त किया लेकिन मुख्यमंत्री ने पत्रकार की मोत के प्रति कोई शोक सवेदना व्यक्त नहीं की.... मुख्यमंत्री के पास इतना समय ही नहीं है की वे किसी के लिए थोडा समय निकाल सके......... मुख्यमंत्री निशंक चुनावो की रणनीति के खाका बनाने में व्यस्त है....... राष्टीय पत्रकार संघ ने अपने स्तर इस पर कार्यवाई की तो निशंक ने पत्रकार संघ के दबाव के चलते मृतक पत्रकार कों दो लाख का चेक देने की घोषणा की ..
रविवार, 20 फ़रवरी 2011
एक अपील केव्स टुडे संस्था के नाम..
गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011
हम उपभोक्ता नहीं निर्माता हैं...
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
नन्ही चीटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना,गिरकर चड़ना न अखरता है
.......
हरिवंशराय बच्चन की ये पंक्तियाँ बरबस ही याद आ गई...
राजधानी भोपाल के पास एक ग्राम पंचायत कुकरीपुरा का गाँव त्रिवेणी...जिसमे लोगों की मदद और सरकारी योजना के चलते बिजली से जगमग हो गया...एक ओर जहाँ राज्य सरकार केंद्र सरकार पर कोयला न देने का आरोप लगा रही है...और बिजली की कमी का रोना रो रही है....तो दूसरी ओर ग्रामीणों का सकारात्मक प्रयास से गाँव बिजली से रोशन हो गया...वहीँ त्रिवेणी के आसपास के गाँव अँधेरे में डूबे रहते है....करीब छह सौ की आबादी वाला ये गाँव जिसमे आधे से ज्यादा घरों के शौचालयों के टैंक सीवर लाइन से जोड़े गए...और फिर केंद्र सरकार की ग्रामीण स्वच्छता योजना के तहत इस मल से बायो गैस के ज़रिये बिजली उत्पादन किया जा रहा है...करीब ५ मेगावाट बिजली उत्पादित हो रही है इस गाँव में...गाँव के लोग अब बिजली के लिए अँधेरे में एक दूसरे का मुंह नहीं तकते हैं...बल्कि इस बिजली से गलियों में ट्यूब लाईट जलाई जाती है...किसी की शादी विवाह में भी रोशनी के लिए इसका उपयोग किया जा रहा है...सामुदायिक भवन भी रोशन हो रहा है...गाँव वालों का कहना है कि अभी जब पूरे घरों के सीवर टैंक इससे जुड़ जायेगे तो उत्पादन और बढ़ जायेगा..अब ग्रामीण न केवल टेलीवीजन चलाते हैं बल्कि एफ.एम. का आनंद भी लेते है....खैर...मेहनत तो रंग लाती ही है...बस जरूरी होता है ज़ज्बा..जोश..जूनून...और काम के प्रति लगन...
आप मेरी तकदीर क्या लिखेगें दादू?वो मेरी तकदीर है..जिसका नाम है विधाता....संजय दत्त का ये डायलोग विधाता फिल्म का याद आ गया....इस गाँव को देख कर क्या कहू...समझ नहीं आ रहा है...इतना खुश हूँ कि गाँव में रहने वाले दीन हीन लोग भी अब अपनी तरक्की के लिए आगे आ रहे हैं...और अपने विकास की इबारत भी खुद ही लिख रहे हैं....बस यही ज़ज्बा सब में आ जाये तो हिंदुस्तान को विकसित राष्ट्र बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा....
बुधवार, 16 फ़रवरी 2011
हर्ष ने दिया दुःख
दुश्मनों ने तो ज़ख्म देने ही थे, ये उनकी फितरत थी,
दोस्तों ने भी जब दगा की, यह हमारी किस्मत थी!
कल शाम जब मेरे एक मित्र का सन्देश मेरे मोबाइल पर आया...तब अनायास ही ये शब्द लिख कर भेजे थे मैंने उसे...अचानक ही निकला था मेरे मन से ये शेर...नहीं जानता था कि आज मेरे अपने ही मुझे जुदाई का गम देने वाले हैं....समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस साल कि शुरुवात में हमसे क्या गलती हुई...कि ये नीली चादर वाला भी मेरे हांथो की मजबूती जो मेरे मिरता हैं..एक एक कर छीनता जा रहा है...जनवरी के महीने में मनेन्द्र....और अब मेरे जीवन से यमराज हर्ष भी छीन कर ले गया...बड़ा प्यारा था वो...एक दम गोल मटोल गोलू की तरह...सम्मान में झुकता तो ऐसे था लगता था अगर हाथ नहीं रखा तो वही स्थिति बना कर रखेगा...मेरी चौथी पीढ़ी का सदस्य था वो....ज्यादा तो मुलाकात नहीं हुई...मगर जितनी भी बार हुई...दिल जीत लिया था उसने...मगर ऊपर वाले को कुछ और ही मंजूर था....
पीपुल्स पत्रकारिता शिक्षण संस्थान का बी.एस.सी प्रथम वर्ष के दो छात्र हर्ष शर्मा और प्रकाश पांडे...जो भोपाल में अयोध्या बाय पास रोड से कॉलेज की ओर आ रहे थे...अचानक एक ट्रक से हुई टक्कर से हर्ष की जिंदगी की रफ़्तार मौके पर ही रुक गई...जबकि प्रकाश अभी भी जिन्दगी और मौत के बीच झूल रहा है...दुर्घटना इतनी भयावह थी कि प्रकाश के शरीर से मांस के लोथड़े निकल गए..कल कि ही बात है एक सोशल साईट पर मेरे पास मित्रता के लिए अर्जी भेजी थी....शाम को जब हर्ष के पिता उसे देखने आये...तो बेटे का चेहरा देखने की ताक़त उनमे नहीं थी...आँख से आंसू का एक भी कतरा नहीं गिरा...पर दिल बहुत रोया....पता नहीं मेरे मित्रों को किसकी नज़र लग गई...सवाल कॉलेज पर उठता है कि जब कॉलेज का समय १० बजे से शाम ५ तक है...तो ३.३० बजे ये छात्र बाहर कैसे निकले....खैर होनी को कौन टाल सकता है...मौत कोई न कोई बहाना लेकर आती है...कल जब हर्ष से मेरे मित्रों ने कहा कि बाइक के ब्रेक ठीक करा लेना...तो जानते हो क्या जवाब था उसका...भैया मौत ही तो होगी...इससे ज्यादा क्या...और सच कर दिया उसकी बात को ईश्वर ने...लोगों ने डांटा भी...ऐसा नहीं कहते...लेकिन गर्म खून कब शांत होता है...और पत्रकारिता जगत का एक और नाविक बिना नाव को खेये चला गया...मैं अब भी इस घटना पर विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ...लेकिन सच का घूँट तो पीना पड़ेगा...स्वीकार तो करना पड़ेगा...भीगी पलकों और रुंधे गले से एक गुजारिश अपने नव युवक साथियों से जरूर करूँगा..कि जब भी बाइक चलाये धीमी गति से चलाये...पूरी सावधानी से चले...अपने जीवन के लिए...अपने परिवार के लिए...और दोस्तों अपने इस नाचीज मित्र के लिए...मैं नहीं चाहता हूँ कि मेरा अब कोई अंग क्षतिग्रस्त हो...जिंदगी के इस पथ पर मुझे आपके सहयोग की जरूरत है...इस पत्रकारिता के उत्थान के लिए....इस भारत महान के लिए..दोस्त इस गुजारिश पर गौर कीजिये...
वैलेंटाइन डे के बहाने .............
हर जगह विदेशी संस्कृति पूत की भांति पाव पसारती जा रही है ..... हमारे युवाओ को लगा वैलेंटाइन का चस्का भी इसी कड़ी का एक हिस्सा है... विदेशी संस्कृति की गिरफ्त में आज हम पूरी तरह से नजर आते है ... तभी तो शहरों से लेकर कस्बो तक वैलेंटाइन का जलवा देखते ही बनता है...आज आलम यह है यह त्यौहार भारतीयों में तेजी से अपनी पकड़ बना रहा है... वैलेंटाइन के चकाचौंध पर अगर दृष्टी डाले तो इस सम्बन्ध में कई किस्से प्रचलित है...
इस अवसर पर प्रेमी होटलों , रेस्ताराओ में देखे जा सकते है... प्रेम मनाने का यह चलन भारतीय संस्कृति को चोट पहुचाने का काम कर रहा है... यूं तो हमारी संस्कृति में प्रेम को परमात्मा का दूसरा रूप बताया गया है ॥ अतः प्रेम करना गुनाह और प्रेम का विरोधी होना सही नही होगा लेकिन वैलेंटाइन के नाम पर जिस तरह का भोड़ापन , पश्चिमी परस्त विस्तार हो रहा है वह विरोध करने लायक ही है ....वैसे भी यह प्रेम की स्टाइल भारतीय जीवन मूल्यों से किसी तरह मेल नही खाती.....
आज का वैलेंटाइन डे भारतीय काव्य शास्र में बताये गए मदनोत्सव का पश्चिमी संस्करण प्रतीत होता है... लेकिन बड़ा सवाल जेहन में हमारे यह आ रहा है क्या आप प्रेम जैसे चीज को एक दिन के लिए बाध सकते है? शायद नही... पर हमारे अपने देश में वैलेंटाइन के नाम का दुरूपयोग किया जा रहा है ...
वैलेंटाइन की स्टाइल बदल गई है ... गुलाब गिफ्ट दिए ,पार्टी में थिरके बिना काम नही चलता .... यह मनाने के लिए आपकी जेब गर्म होनी चाहिए... यह भी कोई बात हुई क्या जहाँ प्यार को अभिव्यक्त करने के लिए जेब की बोली लगानी पड़ती है....? कभी कभार तो अपने साथी के साथ घर से दूर जाकर इसको मनाने की नौबत आ जाती है... डी जे की थाप पर थिरकते रात बीत जाती है... प्यार की खुमारी में शाम ढलने का पता भी नही चलता .... आज के समय में वैलेंटाइन प्रेमियों की तादात बढ रही है .... साल दर साल ...
आज प्यार की परिभाषा बदल गई है .... वैलेंटाइन का चस्का हमारे युवाओ में तो सर चदकर बोल रहा है , लेकिन उनका प्रेम आज आत्मिक नही होकर छणिक बन गया है... उनका प्यार पैसो में तोला जाने लगा है .... आज की युवा पीड़ी को न तो प्रेम की गहराई का अहसास है न ही वह सच्चे प्रेम को परिभाषित कर सकती है... उनके लिए प्यार मौज मस्ती का खेल बन गया है .......
(लेखक युवा पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक है ... आप समसामयिक विषयो पर इनके विचार बोलती कलम ब्लॉग पर जाकर पढ़ सकते है ......)
सोमवार, 14 फ़रवरी 2011
अल्हड़ता,अक्खड़ता की अनोखी अदा
शनिवार, 12 फ़रवरी 2011
जहाँ दूल्हे पहनते है गुटखों की मालाएं
गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011
बुधवार, 9 फ़रवरी 2011
मायावी दौरा नौकरशाह चुस्त
मुख्यमंत्री मायावती का 11 फरवरी को श्रावस्ती में निरीक्षण प्रस्तावित है। इसी के मद्देनजर जिले का प्रशासनिक अमला अंबेडकर गांवों को चमकाने के लिए दिन रात जुटा हुआ है। विकास कार्यो तथा प्रशासनिक व्यवस्था की समीक्षा के लिए बुधवार को मंडलायुक्त श्री सिंह जिला मुख्यालय भिनगा पहुंचे और अधिकारियों की कलेक्ट्रेट सभागार में बैठक कर अंबेडकर गांवों की समीक्षा की। सीएचसी भिनगा में निरीक्षण के दौरान मंडलायुक्त को तमाम खामियां मिली। जिसपर उन्होंने जिलाधिकारी अजय कुमार सिंह व सीएमओ एसके महराज को तत्काल अव्यवस्थाओं को सुधारने के निर्देश दिए। सीएमओ को उन्होंने फटकार लगाई। इसके बाद मंडलायुक्त ने तहसील तथा कोतवाली की स्थिति का भी जायजा लिया। नगर में सफाई व्यवस्था को लेकर मंडलायुक्त ने अधिशाषी अधिकारी को भी फटकारा। कांशीराम शहरी आवासों की स्थिति बदहाल पाई गई। जिसके लिए डीएम को सुधारने के निर्देश दिए। ईदगाह तिराहे को समय से इंटरलाकिंग पूरा कराने का निर्देश दिया। इस दौरान जिलाधिकारी अजय कुमार सिंह, पुलिस अधीक्षक डॉ. वीबी सिंह, अपर जिलाधिकारी राम नेवास, सीडीओ रघुनाथ शरण समेत सभी जिलास्तरीय अधिकारी मौजूद थे।
गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011
किसानों के सपने शिखर पर, संसाधन सिफर
भारत-नेपाल सीमा पर स्थित श्रावस्ती की अंतराष्ट्रीय महत्ता को देखते हुए मुख्यमंत्री मायावती ने वर्ष 1997 की 22 तारीख को जिले का गठन कर इसका मुख्यालय भिनगा बनाया। श्रावस्ती के विकास के लिए पुल, सड़कों का जाल बिछाने के लिए भिनगा के विधायक दद्दन मिश्र को राज्य मंत्री बनाया। किन्तु यहां के किसानों कोई पुरसाहाल नहीं है। जिले में संसाधन न होने के बाद भी आलू का उत्पादन साल दर साल बढ़ता जा रहा है। लेकिन यहां न तो मंडी है न ही कोल्ड स्टोरेज बनाया गया है। न ही इसकी कोई ऐसी योजना भी बनी है। लिहाजा तराई के आलू किसानों को दूसरे जिले पर निर्भर रहना पड़ता है। मंडी और कोल्ड स्टोरेज के अभाव में किसानों को आलू औने-पौने दामों पर बेचने को विवश होना पड़ता है। जिससे उनके पसीने की गाढ़ी कमाई माटी के मोल बिक जाता है। इस वर्ष जिले में 1810 हेक्टेअर क्षेत्रफल में आलू बोया गया है। 200 कुंतल प्रति हेक्टेअर के हिसाब से 36 हजार कुंतल आलू उत्पादन की संभावना जताई जा रही है। जबकि पिछले वर्ष 1775 हेक्टेअर क्षेत्रफल में आलू की फसल बोई गई थी। लगभग 33 हजार कुंतल आलू का उत्पादन हुआ था। परेवपुर के किसान अरुणेश प्रताप सिंह कहते हैं कि किसानों का हौसला तो है लेकिन संसाधन के अभाव में उनके सपने टूट रहे हैं। आलू पैदा करने के बाद किसान बेचने के लिए दर-दर भटकते रहते हैं। पूरे खैरी के किसान राम सूरत यादव ने बताया कि मंडी न होने से हांड़ तोड़ मेहनत करके पैदा की जाने वाली आलू को औने-पौने भाव में सब्जी मंडियों पर बेंच दिया जाता है। जिससे लागत भी नहीं निकल पाता है। इसी गांव की महिला किसान शांती देवी बताती है कि इस वर्ष तो पाला और कोहरा के कारण आलू का उत्पादन कुछ प्रभावित हुआ है। जिसे भी बेचने में काफी दिक्कतें आ रही हैं। केवलपुर के श्याम यादव कहते हैं कि जब किसानों का आलू पैदा होता है तो तीन सौ रुपये कुंतल बिकता है और जब उनकी जरुरत होती है तो 12 रुपये किलो खरीदना पड़ता है।
जिला उद्यान अधिकारी हरिहर प्रसाद कहते हैं कि मंडी और कोल्ड स्टोरेज न होने से आलू के किसानों को दिक्कतें उठानी पड़ती है। उनके उत्पादन पर असर पड़ता है। संसाधन न होने के कारण यहां आलू की खेती कराने के लिए कोई लक्ष्य भी विभाग की ओर से निर्धारित नहीं किया जाता है। फिर भी लक्ष्य के सापेक्ष आलू की बुआई अधिक क्षेत्रफल में की जाती है।