शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011
shoot out the evil one
मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011
Happy Dipawali
I deliver special thanks to vivek mishra for provide us a way where we Pen down some word for each other...... happy dipawali
रविवार, 23 अक्टूबर 2011
Make distance from ism
शनिवार, 22 अक्टूबर 2011
Donot hold the hand of rubber
असुरक्षित 'सुरक्षा'
रात के साये में सरसराती ठण्डी हवा, झींगुर की आवाज का ये अहसास कराना कि शहर में सन्नाटा लगभग पसर गया है। रात जैसे गहरी होती जाती डर की काली छाया अपना वेश विकराल करती जाती। ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही नहीं शहर में रह रहे उन तमाम लोगों की दास्तां है जो ताकतवर घरानों या षोहरत हासिल किये हुए नहीं हैं। मैं शबनम। मेरी एक 3 महीने की बच्ची आयत। हम कश्मीरी हैं। अब्बू तासीर आलम। हमारा कपड़े का धन्धा है। पहले अब्बू दूकान चलाया करते थे। पिछले एक साल से मैं चला रही हूं। अम्मी इस काबिल नहीं कि काम काज कर सकें लेकिन शाम के समय हमेशादस्तरखां वहीं लगाती हैं। खानदान में अब और कोई नहीं... हां खाला थीं वो भी कष्मीर के खौफ ज़दा माहौल से परेशां परिवार के साथ जम्मू चलीं गयीं।
अब्बू काफी नेक दिल और इस्लाम परश्त थे। ऐसा सिर्फ मैं ही नहीं कहती। मोहल्ले के और लोगां भी बोला करते थे। लेकिन अब तो हालात ही बिल्कुल बदल गये। अब्बू को जब से वर्दीवाले पकड़ के ले गये सभी की निगाह ग़लत हो गयी है।
आज भी वो दिन याद करके दिल दहला जाता है। सभी रात का खाना खाकर आराम कर रहे थे। समय का तो ध्यान नहीं पर काफी रात हो चली थी। अचानक दरवाजे को जोर-जोर से पीटते हुए कुछ लोगां अब्बू को दरवाजा खोलने के लिए बोल रहे थे। हम सभी घबरा गए। मन में चल रहा था कि दरवाजे पर कौन होगा अलगाववादी, चरमपंथी या आतंकवादी। वैसे तो वसूली के नाम पर महनवारी दहशतगर्दों के पास पहुंच जाती थी लेकिन इतनी देर गये.. इस तरह से... रात में आना...रूह तक कांप रही थी।
अब्बू सोच में पड़ गये और कहने लगे हमारा तो कोई बेटा नहीं जिसे ये दहशतगर्द अपने गुट मेंशामिल करने के वास्ते हमसे छीनने आयें हों। फिर क्यों आये होंगे ये... अम्मी मेरी तरफ देखने लगीं और कस कर मुझे सीने से लगा लिया। और अब्बू से रोते हुए बोलीं कि मैं अपनी बच्ची को उनदहशतगर्दों के हवाले नहीं करूंगी। अकसर ऐसा सुनने में आया करता था कि ये दहशतगर्द अपनी हवस मिटाने के लिए घरों से जवान बेटियां उठा लाया करते हैं।
अम्मी को भी यही लग रहा था कि अब मैं भी...। तभी फिर से अब्बू का नाम लेते हुए कुछ लोगों ने दरवाजा जोर से खटखटाया। हिम्मत करके अब्बू ने आवाज दी कि आता हूं, थोड़ा सबर करो। अब्बू दरवाजा खोलने चले गये। अम्मी ने मुझसे कहा जाओ कोठरी में छुप जाओ और जब तक मैं न कहूं बाहर मत आना... चाहे जो हो जाए।
दरवाजा खुलते ही वर्दी पहने कुछ हथियारबन्द लोग घर में घुस आये। अब्बू कुछ पूछते उससे पहले ही वे लोग अब्बू से हाथापाई करने लगे। अम्मी ने उन्हें रोकने की कोशिश की... पर उन्होंने अम्मी को भी नहीं बख्शा...। मैं अपने आप को रोक नहीं पायी और कोठरी से बाहर आ गयी। एकदम से घर में सन्नाटा पसर गया। मारपीट बन्द कर सभी मेरी तरफ देख रहे थे।
एक ही थाली में कई लोगों की भोज करने की घटनाएं कई बार सुनने में आयीं थीं। लेकिन उनकीनिगाहें इस बार ये कह रही थीं कि आज श्याद मैं इस घटना का एक और पात्र बनने वाली हूं। उनके कदम मेरी ओर बढ़े। मेरी धड़कनों की रफ्तार बढ़ गयी। गला सूख गया था। अम्मी और अब्बू ने उन्होंने रोकने की कोशिश की। ताकत के सामने हम लाचार पड़ गये। अम्मी और अब्बू का मुंह और हाथ बांधकर उन्हें जमीन पर पटक दिया गया।
आगे की कहानी की दासतां बताने के लिए जिस हिम्मत की जरूर होती है वो अब मुझमें नहीं रही। बस यही जानिए कि उस दिन उस थाली में चार वर्दीधारियों ने भोज किया था। अम्मी और अब्बू का कलेजा मंुह को आ गया था। बेबस लाचार अब्बू का दर्द आंखों से साफ झलक रहा था और अम्मी तो बदहवा सी हो गयी थीं। और मैं... जिस्म के उन भूखों के साथ काफी देर तक लड़ती रही। मेरी चीखें मेरी आत्मा को ताकत दे रही थी। लेकिन कुछ देर बाद वो भी ठण्डी पड़ गयी। एक समय के बाद मेरी सिसकियां भी शांत पड़ गयीं। उन बेरहमों का भोज खतम होते ही मेरी अस्मिता का दिया बुझ गया।
मैं... बेसुध घर के आंगन में पड़ी हुई थी। धुंधली आंखों से बस इतना देख पायी कि वे वर्दीधारी अब्बू को घसीटते हुए घर से बाहर ले जा रहे हैं। बदहवास अम्मी ये ही नहीं समझ पा रही थीं कि सम्भालें तो किसे? पहले तो रोते बुलखते, अब्बू को छुड़ाने दौड़ीं। ऐसा लगा कि जोर-जोर से ^उन्हें छोड़ दो, उन्हें छोड़ दो' कहते हुए कुछ दूर तक जीप का पीछा भी किया फिर अचानक भागती हुई मेरे पास आयीं। आसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो इस जिन्दगी में अब कुछ नहीं बचा।
हांसी आती है जब बड़ी गर्व के साथ 15 अगस्त और 26 जनवरी पर सीमा पर लड़ने वाले जवानों की तारीफों के पुल बान्धे जाते हैं। क्यों हांसी आती है मुझे यही सोच रहे हैं? क्योंकि मेरे साथ, मेरे परिवार के साथ जो घटना घटी वो इन्हीं वर्दीधारियों की ही कृपा थी। यह इन देश के सिपाहियों का एक और घिनौना रूप भी है जो देश की जनता के सामने नहीं है।
न जाने वो कौन सी घड़ी थी जिस दिन मेरा घर निशाना बना। अब्बू को बिना ज़ुर्म गिरफ्तार कर लिया जिन्हें आज तक नहीं छोड़ा गया। और मुझे अपनी हवास का साधन।
मेरे इस बरबादी का उन्होंने जो तोहफा दे दिया उसे क्या बताऊंगी कि वो किसकी औलाद है। सुन के ताजिब लगेगा लेकिन मेरी कहानी से मिलती जुलती आप को यहां बहुत सी कहानियां मिला जाएगी। बड़े-बड़े लोगां बोला करते हैं कि मेरे पर जो बीती है उस तरह की घटनाएं सिर्फ कश्मीर में ही नहीं पूर्वोत्तर के प्रदेशों में भी है।
सबकी दांसता एक जैसी ही है पता नहीं कब शबनम जैसी लड़कियों की आत्मा तार-तारहोती रहेगी। हांलाकि हाल ही में सुनने में आया है कि भारत प्रशासित कश्मीर क्षेत्र से जल्दही सेना विशेषाधिकार कानून और अशांत क्षेत्र अधिनियम हट जाएगा। इस बात से एक आसतो जरूरी जागी होगी, उन कश्मीरियों के मान में जों इस तरह की घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी याभुग्तभोगी रहे हैं कि अब कोई परिवार इस तरह से देश के जवानों द्वारा नहीं बरबाद कियाजाएगा। वैसे एक प्रश्न आप के लिए कि अगर सेना के जवान इस तरह की घटनाओं कोअनजाम देते हैं तो उनके साथ क्या किया जाना चाहिए? और उस पीडि़त जनता को कैसेविश्वास दिया जाए कि ये जवान उनके रक्षक है न कि भक्षक
शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011
come dwon with ceasefire
media mean not fire it mean do good and hate evil from your, where stay you.....................................................................
गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011
खबर एमसीयू भोपाल से... सौऱभ मालवीय को मिली पीएचडी की उपाधि
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा सौरभ मालवीय को उनके शोधकार्य ‘हिंदी समाचार-पत्रों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रस्तुति का अध्ययन’ विषय पर डाक्टर आफ फिलासिफी की उपाधि प्रदान की गयी। श्री मालवीय ने अपना शोधकार्य विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला के मार्गदर्शन में संपन्न किया श्री मालवीय को उनके शोधकार्य सम्पन होने एवं डॉक्टर आफ फिलासिफी की उपाधि की ढेरों बधाईयां एवं शुभकामना।
बुधवार, 19 अक्टूबर 2011
अभी यंग हूँ दो साल और खेलूंगा...गांगुली
शनिवार, 15 अक्टूबर 2011
अब अगर प्रतिभा आडवाणी राजनीति में आती हैं तो, राजनितिज्ञों से बचा-खुचा विश्वास भी खत्म हो जाएगा......
मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011
आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा बनता नक्सलवाद......
"हमारे बाप दादा ने जिस समय हमारा घर बनाया था उस समय घर पर सब कुछ ठीक ठाक था ... संयुक्त परिवार की परंपरा थी ... सांझ ढलने के बाद सभी लोग एक छत के नीचे बैठते थे और सुबह होते ही अपने खेत खलिहान की तरफ निकल पड़ते थे ॥ अब हमारे पास रोजी रोटी का साधन नहीं है... जल ,जमीन,जंगल हमसे छीने जा रहे है और दो जून की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल होता जा रहा है ... हमारी वन सम्पदा कारपोरेटघराने लूट रहे है और "मनमोहनी इकोनोमिक्स " के इस दौर में अमीरों और गरीबो की खाई दिन पर दिन चौड़ी होती जा रही है..."
६८ साल के रामकिशन नक्सल प्रभावित महाराष्ट्र के गडचिरोली सरीखे अति संवेदनशील इलाके से आते है जिनकी कई एकड़ जमीने उदारीकरण के दौर के आने के बाद कारपोरेटी बिसात के चलते हाथ से चली गई ... पिछले दिनों रामकिशन ने ट्रेन में जब अपनी आप बीती सुनाईतो मुझे भारत के विकास की असली परिभाषा मालूम हुई.... "शाईनिंग इंडिया" के नाम पर विश्व विकास मंच पर भारत की बुलंद आर्थिक विकास का हवाला देने वाले हमारे देश के नेताओ को शायद उस तबके की हालत का अंदेशा नहीं है जिसकी हजारो एकड़ जमीने इस देश में कॉरपोरेट घरानों के द्वारा या तो छिनी गई है या यह सभी छीनने की तैयारी में है...दरअसल इस दौर में विकास एक खास तबके के लोगो के पाले में गया है वही दूसरा तबका दिन पर दिन गरीब होता जा रहा है जिसके विस्थापन की दिशा में कारवाही तो दूर सरकारे चिंतन तक नहीं कर पाई है .....
फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है.... जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को चुनोती दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कोर्पोरेट " का हित साध रहे है.........प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताते है तो समझना यह भी जरुरी हो जाता है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" करता खेल खेलना चाहती है?
मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के रूप में नक्सलवाद की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से १९६७ में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, जंगल संथाल की अगुवाई में शुरू हुई .... सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में बेरोजगार युवको , किसानो को साथ लेकर गाव के भू स्वामियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था ......उस दौर में " आमारबाडी, तुम्हारबाडी, नक्सलबाडी" के नारों ने भू स्वामियों की चूले हिला दी.... इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीती के प्रभाव से इस आन्दोलन को व्यापक बल भी मिला ..........केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इस समय आन्ध्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार , महाराष्ट्र समेत १४ राज्य नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित है.....
नक्सलवाद के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक असमानता और शोषण है.... बेरोजगारी, असंतुलित विकास ये कारण ऐसे है जो नक्सली हिंसा को लगातार बढ़ा रहे है......नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर रहे है.... चूँकि इस समूचे दौर में उसके सरोकार एक तरह से हाशिये पर चले गए है .....और सत्ता ओर कॉर्पोरेट का कॉकटेल जल , जमीन, जंगल के लिये खतरा बन गया है अतः इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में आमूल चूल परिवर्तन लाना बन गया है ......इसी कारण सत्ता की कुर्सी सँभालने वाले नेताओ और नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित करते है ......
नक्सलवाद के बड़े पैमाने के रूप में फैलने का एक कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से लागू ना हो पाना भी है....जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल के माध्यम से कई ऊँची रसूख वाले जमीदारो ने गरीबो की जमीन पर कब्ज़ा कर दिया जिसके एवज में उनमे काम करने वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू हुआ ॥ इसी का फायदा नक्सलियों ने उठाया और मासूमो को रोजगार और न्याय दिलाने का झांसा देकर अपने संगठन में शामिल कर दिया... यही से नक्सलवाद की असल में शुरुवात हो गई ओर आज कमोवेश हर अशांत इलाके में नक्सलियों के बड़े संगठन बन गए है .....
आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है .....देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में मओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे .."ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी...तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है॥ चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात है....
आज तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में है.... वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है .... सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है ....सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है....सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ॥"
कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है.... यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर " मनमोहनी इकोनोमिक्स " ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आता है....जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है ॥ मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है .... मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खायी को और चौड़ा कर रहा है ....
सरकार से हारे हुए मासूमो की जमीनों की बेदखली के बाद एक फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस कारन समाज में बदती असमानता उन्हें नक्सलवाद के गर्त में धकेल रही है ..."सलवा जुडूम" में आदिवासियों को हथियार देकर अपनी बिरादरी के "नक्सलियों" के खिलाफ लड़ाया जा रहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है...हाल के वर्षो में नक्सलियों ने जगह जगह अपनी पैठ बना ली है और आज हालात ये है बारूदी सुरंग बिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को निशाना बनाने में ये नक्सली पीछे नहीं है...
अब तो ऐसी भी खबरे है हिंसा और आराजकता का माहौल बनाने में जहाँ चीन इनको हथियारों की सप्लाई कर रहा है वही हमारे देश के कुछ सफेदपोश नेता धन देकर इनको हिंसक गतिविधियों के लिये उकसा रहे है....अगर ये बात सच है तो यकीन जान लीजिये यह सब हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है.... केंद्र सरकार के पास इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव है वही राज्य सरकारे केंद्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा करती है...
असलियत ये है कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का विषय रही है ....हमारा पुलिसिया तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है.... राज्य सरकारों में तालमेल में कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे है.... पुलिस थानों में हमला बोलकर हथियार लूट कर वह जंगलो के माध्यम से एक राज्य की सीमा लांघ कर दुसरे राज्य में चले जा रहे है ...ऐसे में राज्य सरकारे एक दुसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती है... इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेड़बुन में हम आज तक नक्सली हिंसा समाधान नहीं कर पाए है...
गृह मंत्रालय की " स्पेशल टास्क फ़ोर्स " रामभरोसे है ॥ इसे अमली जामा पहनाने में कितना समय लगेगा कुछ कहा नहीं जा सकता.....? केंद्र के द्वारा दी जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर पाने में भी अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ है ....भ्रष्टाचार रुपी भस्मासुर का घुन ऊपर से लेकर नीचे तक लगे रहने के चलते आज तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ पाए है...साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में आबादी के अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है....कॉन्स्टेबल से लेकर अफसरों के कई पद जहाँ खली पड़े है वही ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील इलाको में कोई चाहकर भी काम नहीं करना चाहता.... इसके बाद भी सरकारों का गाँव गाँव थाना खोलने का फैसला समझ से परे लगता है....
नक्सल प्रभावित राज्यों पर केंद्र को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है.... चूँकि इन इलाको में रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओ का अभाव है जिसके चलते बेरोजगारी के अभाव में इन इलाको में भुखमरी की एक बड़ी समस्या बनी हुई है.... सरकारों की असंतुलित विकास की नीतियों ने इन इलाके के लोगो को हिंसक साधन पकड़ने के लिये मजबूर कर दिया है ... इस दिशा में सरकारों को अभी से विचार करना होगा तभी बात बनेगी.... अन्यथा आने वाले वर्षो में ये नक्सलवाद "सुरसा के मुख" की तरह अन्य राज्यों को निगल सकता है....
कुल मिलकर आज की बदलती परिस्थितियों में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है... बुद्ध, गाँधी की धरती के लोग आज अहिंसा का मार्ग छोड़कर हिंसा पर उतारू हो गए है... विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने वाले आज पूर्णतः विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे है... नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कर्मियों की हत्या , हथियार लूटने की घटना बताती है नक्सली अब "लक्ष्मण रेखा" लांघ चुके है....नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसँख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों की संख्या कम है... पुलिस जहाँ संसाधनों का रोना रोती है ....वही हमारे नेताओ में इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति नहीं है ....ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी भी इसके पाँव पसारने का एक बड़ा कारन है ....
एक हालिया प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इन नक्सलियों को जंगलो में "माईन्स" से करोडो की आमदनी होती है.... कई परियोजनाए इनके दखल के चलते लंबित पड़ी हुई है.... नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "चतरा " और छत्तीसगढ़ करता "बस्तर" ओर "दंतेवाडा " जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता.... यह काफी चिंताजनक है...
नक्सल प्रभावित राज्यों में आम आदमी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहता ॥ वहां पुलिसिया तंत्र में भ्रष्टाचार पसरगया है .... साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार है यह बताने की जरुरत नहीं है.... अतः सरकारों को चाहिए वह नक्सली इलाको में जाकर वहां बुनियादी समस्याए दुरुस्त करे... आर्थिक विषमता के चले ही वह लोग आज बन्दूक उठाने को मजबूर हुए है... ऊपर की कहानी केवल रामकिशन की नहीं , कहानी घर घर के रामकिशन की बन चुकी है........
क्या नल के पानी से बुझेगी याकूब की प्यास............... ?
सोमवार, 10 अक्टूबर 2011
मुसाफिर जाएगा कहाँ .....
रविवार, 9 अक्टूबर 2011
प्रगतिशील आंदोलन की विरासतः पक्षधरता के जोखिम
दिवसीय सम्मेलन के अंतिम दिन संगठन और राजनीतिक परिस्थितियों पर खुलकर चर्चा
हुई। प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा0 नामवर सिंह ने अपने समापन वक्तव्य में
कहा कि संगठन को नई चुनौतियों को समझने और उनके जवाब प्रस्तुत करने के लिए आज
एक नए घोषणा पत्र की जरुरत है ताकि जब सौवां वर्षगांठ मनाई जाय तो लोगों को
अपने सामाजिक और राजनीतिक कार्यभार का एहसास हो। उन्होंने कहा कि आज एक व्यापक
लेखन आंदोलन खड़ा करने के लिए जरुरी है कि जलेस और जसम के साथ भी साझा मोर्चा
बनाया जाय। उन्होंने लेखक संगठन के मातृ पार्टी के साथ वैचारिक साझेपन पर भी
जोर दिया।
वरिष्ठ भाकपा नेता अतुल कुमार अंजान ने कहा कि आज साहित्य में भी आवारा पूंजी
के साथ आंवारा मीडीया और आवांरा साहित्य का उत्पादन शुरु हो गया है। जिससे आज
प्रगतिशील लेखक आंदोलन को लड़ना होगा। साहित्य और संस्कृति ही बेहतर राजनीतिक
विकल्प का रास्ता बनाते हैं आज प्रलेस को इस जिम्मेदारी को निभाना होगा।
वरिष्ठ लेखक प्रो0 चैथी राम यादव ने कहा कि सोवियत यूनियन के विघटन को
साहित्यकारों ने मार्कसवादी समाजवाद के खात्में के बतौर ले लिया जो एक भ्रामक
विश्लेषण था। उन्होंने कहा कि साहित्य को फिर से मार्कसवाद को एक विकल्प के
बतौर प्रस्तुत करना होगा यही प्रगतिशील लेखक संघ की राजनीतिक जिम्मेदारी है।
ऐसे में प्रलेस को किसान मजदूर आदि के सहवर्ती आंदोलनों से जोड़ना होगा। जनता
के प्रति प्रतिबद्धता लानी होगी तभी पक्षधरता के जोखिम सामने आएंगे।
वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि प्रगतिशील लेखक संघ आधुनिक भारत का पहला
ऐसा लेखक आंदोलन था जिसने साहित्य को राजनीति से जोड़ने का काम किया था। आज इस
परम्परा को फिर से मजबूत बनाने की जरुरत है। उन्होंने कहा कि उपनिवेशिक काल में
प्रलेस ब्रिटिश साम्रज्यवाद के साथ-साथ धार्मिक कठमुल्लावाद से भी लड़ा था आज
इस आंदोलन को फिर से इस भूमिका में आना होगा।
वाराणसी से आए मूलचंद्र सोनकर ने कहा कि आज दलितों और पिछड़ों के सवालों को भी
अपने विमर्श में रखना होगा। उन्होंने कहा कि सावित्री बाई फुले, पंडिता रमाबाई
को आप संज्ञान में नहीं लेंगे तो उनका गलत लोगों द्वारा इस्तेमाल आप नहीं रोक
पाएंगे।
दिल्ली से आए वरिष्ठ लेखक श्याम कष्यप ने कहा कि संगठन पर अपनी राजनीतिक
जिम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए जब तक संगठन का पार्टी के साथ संबन्ध रहा
आंदोलन अपनी भूमिका में ज्यादा कारगर साबित रहा। सम्मेलन में पिछले दिनों
लेखिका शीबा असलम फहमी पर हुए हमले की निंदा की गयी।
सम्मेलन मे मुख्य रुप से शामिल रहे दीनू कश्यप, प्रो0 काशीनाथ सिंह, राजेन्द्र
राजन, अली जावेद, साबिर रुदौलबी, डा0 गया सिंह, जय प्रकाश धूमकेतु, संजय
श्रीवास्तव, आनन्द शुक्ला, हरमंदिर पांण्डे, नरेश कुमार, सुभाष चंद्र कुशवाहा,
रवि शेखर, एकता सिंह, शाहनवाज आलम आदि शामिल रहे।
द्वारा-
डा0 संजय श्रीवास्तव
प्रान्तीय महासचिव प्रलेस
मो0- 09415893480
शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011
नूरजहाँ हो गयी है इत्र
शेखावत की चलंत दुकान |
गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011
मौत को मात...और मौत से मात
जिंदगी तो वेवफा है एक दिन ठुकराएगी...मौत महबूबा है अपनी साथ लेकर जाएगी...वाकई में कितनी सच्चाई नजर आती है...इन पंक्तियों में...जिंदगी और मौत दोनों जीवन की अमिट सच्चाई है...यथार्थ सच है...मगर डर किसी को मौत से नहीं है...तो जिंदगी कोई जीना नहीं चाहता...तो किसी को कोई जीने नहीं देता...बड़ी विडंबना है...इस दुनिया की...खैर जिंदगी और मौत के पहलू में क्या उलझना....सवाल सही गलत का है...बुराई पर अच्छाई का पर्व मनाया जा रहा है...लेकिन बुराईयां है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं...बुरहानपुर में मानवता को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई ...बुरहानपुर के बोहरडा गांव में एक अज्ञात व्यक्ति ने अपनी एक दिन की बेटी को जिंदा जमीन में गाढ़ दिया...लेकिन जैसे ही खेत मालिक अपने खेत में पहुंचा बच्ची के रोने की दुहाई भरी आवाज ने उसे झकझोर कर रख दिया....और इसके बाद उस बंदे बच्ची को ले जाकर अस्पताल में भर्ती कराया....जहां उसका इलाज कराया जा रहा है....इसके बाद प्रशासन और मंत्री की बारी आई...तो दोनों अस्पताल बच्ची की हालत का जायजा लेने पहुंची... डॉक्टरों का कहना है कि बच्ची बिल्कुल स्वस्थ है...तो मंत्री अर्चना चिटनीस ने आगे आते हुए...बच्ची की देखरेख की जिम्मेदारी खुद पर ली...खैर बच्ची तो बचा ली गई...लेकिन सवाल समाज पर खड़ा होने लगा...और मुख्यमंत्री की मुहिम पर भी...इतना प्रचार प्रसार करने के बाद भी लोगों पर बेटी बचाओ अभियान का असर क्यों नहीं हो रहा है....क्यों अभी तक लोग बेटी को अभिशाप मानते हैं....क्यों बेटी के लिए एक कदम आगे आते हैं....खैर बुराई है...एक दिन में खत्म नहीं हो सकती...राम रावण का युद्ध भी एक दिन में खत्म नहीं हुआ....इसके लिए राम को 14 बर्ष का वनवास झेलना पड़ा....तो दूसरी तस्वीर इंदौर के राउ की जहां अपने परिजनों का पेट पालने के लिए पटाखा फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों को अनायास ही मौत की सजा मिल गई...यानि दशहरे का दिन उनके लिए काल बनकर आया....और लील ली 7 जिंदगियां....कई घायल भी हुए...जिनका इलाज इंदौर के एमवाय अस्पताल में चल रहा है...मुआवजे की घोषणा भी सरकार की तरफ से कर दी गई...लेकिन उनका क्या जो इस दुनिया में नहीं रहे....प्रशासन की लापरवाही उजागर जरुर होती है....क्यों कि राउ के 6 घरों में विस्फोटक सामग्री भी बरामद हुई है....
जिंदगी और मौत की दो अलग अलग घटनाओं में एक ने दुधमुंही को मौत देनी चाही तो उसने मौत को ही मात दे दी....लेकिन दूसरी घटना में जिनकी परिजनों को जिनकी जरुरत थी....जो परिवार को पालते थे...वो दुनिया से चले गए...मतलब साफ है....जिसकी चाहत हम रखते हैं वो मिलता नहीं...और जो मिलता है...उससे हम संतुष्ट नहीं...दो घटनाएं तो यहीं बयां कर रही है...खैर जिंदगी चलती रहती है....लेकिन दिल के रावण को मारना होगा....तभी दशहरा पर्व सही मायने में मनाना सच साबित होगा....
-कृष्ण कुमार द्विवेदी
मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011
मुनुआ बोला पापा मंहगाई....
डाक-बँगला रोड- पटना , पर वर्ष २०११ में सजे दुर्गा पंडाल पर उमड़ी भीड़ |
जोर से बोलो जय माता दी. इस उदघोष के बाद मन्त्र-स्तुति सब समाप्त. लोगो का ध्यान शक्ति की भक्ति से टूट गया. मेले में लोग तितर-बितर भागने लगे. कभी मुनुआ, पापा से आगे निकलने की होड़ में रहता है, तो कभी अबोध मुनिया अपनी माँ के गोद में रंग-बिरंगे गुब्बारे को देखकर बस ललचा कर रह जाती है. पापा और मम्मी दोनों खुसफुसा रहे है, मै तो पहले ही कह रहा था, बहुत भीड़ होगी, मुनिया की माई गुस्से में, मुनिया को दाए कंधे से बाए कंधे पर लादते हुए- एक दिन तो मिलता है, कभी घुमाते है, नन्हे बच्चे है कम से कम यह घूम लिए, ई नहीं सोच रहे हैं. मुनुआ के पापा - सही कह रही हो बस घुमो, एक-एक रुपया खर्च करने में जान जा रही है. इतनी महगाई उफ़....इतने में उन्हें कुछ एहसास हुआ, जैसे उनकी पैंट कोई खीच रहा हो, नीचे नज़र दौड़ाई, ज़बरदस्त शोर के बीच नीचे से एक मासूम आवाज़ - एक रुपया दे दे... साहब! चल हट यहाँ से, हम खुद ही गरीब हैं, तुम्हे का देंगे, छोड़ता है पैंट की... एक रपट दूं इतना कहते ही गुस्से में जड़ दिया. मासूम आवाज़ धीमी हुई, मंद पड़ी और गायब हो गयी. कुछ देर शांति रही. आगे बढ़ते हुए मुनुआ की माई - मारने की क्या ज़रुरत थी.ऐसे नहीं किया जाता है. त्यौहार है. और आप.... हाँ तुम्हे तो जैसे दीन- दुनिया की पूरी समझ है. ई सब धंधा करता है. पैदा होते ही इन्हें छोड़ दिया जाता है, ट्रेंड है सब के सब. मारे तो कुछ हुआ, भाग गया दुम दबाकर. अब मुनिया रोने लगी. मुद्दा भी शोर में गुल हो गया. दम्पति ठहरी, ये जी! गुब्बारा कैसे दिए? जी पांच रुपया. दंपत्ति - सही पैसा लगाओ, एकदम सही पैसा है. पांच से कम न होगा. दंपत्ति - छोटी बच्ची है जी. कुछ कम कर लो. कितना गो लीजियेगा? अरे एगो लेंगे और कितना? पैसा कम न होगा बाबू जी. एकदम सही पैसा बता रहे हैं. मुनिया की माई. चलो जी नहीं लेंगे. मुनिया रोये जा रही है, कभी साड़ी संभालती तो कभी मुनिया.पिता पिघल गए, और फिर महंगाई की दुहाई.. पर्स से पांच का एक सिक्का, गुब्बारा हाथ में लिया मुनिया खुश हुई, दंपत्ति आगे बढ़ गयी. पिता जी मुनुआ को निहारने लगे, कितना अच्छा है बेचारा कुछ नहीं मांगता, कुछ दूर चले की मुनुआ रुक गया. मम्मी चोवमिन..पिता बेटा यह सब मेले में नहीं खाया जाता. पेट खराब हो जाएगा. जिद के आगे माँ बाप की एक न चली. अब अकेले कैसे खाते सभी ने स्वास्थय की चिंता छोड़ चोवमिन का मज़ा लिया. हाथ धोते हुए मुनुआ के पिता दुकानदार से कितना हुआ? दुकानदार - तीन प्लेट ६० रुपया. दम्पति एक सुर में बोली - हाफ प्लेट है, दुकानदार- हाफ ही का बता रहे हैं. मुनुआ के पिता- साला इससे अच्छा घर पर ही बना लिए होते. दंपत्ति आगे बढ़ चली- हर तरह की तृप्ति फिलहाल हो चुकी थी. मुनुआ- पापा हेलीकाप्टर....चुप चाप चल रहे हो की ........ मुनुआ चुप हो गया. मुनिया गुब्बारा पकडे- पकडे माँ के गोद में सो चुकी थी. भीड़ पीछे छूट चुकी थी . सब थक चुके थे. ये ऑटो वाले शेखपुरा चलोगे. हाँ कितनी सवारी, तीन लोग है. एक बच्ची है. कितना लोगे ४० रुपया लगेगा. इनकम टैक्स से शेखपुरा का इतना पैसा, साहब मंहगाई है. देवी जी भी कुछ न कर रही है. चालिए, सभी मजबूरी में महंगाई को कोसते हुए बैठे , मुनुआ फिर बोला पापा मंहगाई.... चुप एकदम चुप चाप..न पढना, है न लिखना, स्कूल तो वैसे ही लूट रहा है, तीन दिन से मास्टर भी टूयुसन पढ़ाने नहीं आ रहे. पैसा ससुरा को पूरा चाहिए, मुनुआ की माई बोली - आप भी लड़का को हमेशा डांटते रहते है. पिता फिर गरज पड़े- अच्छा चुप रहती हो की नहीं, आमदनी अठन्नी है, साला खर्च रूपया . बहस चलती रही. मै बीच रास्ते उतर गया, वो चले गए, टैक्सी के पीछे लिखा था ओके- टाटा.
जिंदगी,जंग और लाचारी....
जिंदगी,जंग और लाचारी....कैसा मेल है तीनों का...जिंदगी जीना है...तो जंग भी लड़नी पड़ेगी....इस जंग में जीते तो सिकंदर बनोगे....हारे तो लाचारी छा जाएगी...गजब का संयोग है...जिंदगी से लड़ने का माद्दा हर किसी में नहीं होता...ऐसे में अगर जीत से पहले ही मौत आ जाए...तो हालत कैसी होती है...जरा ये भी देख लीजिए...उससे पहले बेबसी की जरा ये तस्वीर देखिए...सिसक सिसक कर रो रही इस महिला पर मुफलिसी की ऐसी मार पड़ी कि सात जन्म का साथ निभाने वाला पति भी इसका साथ छोड़ गया...इतना ही नहीं गरीबी और मजबूरी में जब कोई आगे नहीं आया तो इस महिला को वो करना पड़ा जिसकी इजाजत हिंदू धर्म नहीं देता... गरीबी की ये दास्तां जशपुर के कोतबा नगर पंचायत की है..जहां मृतक हेम राम मजदूरी कर अपने परिवार की परविस करता था...लेकिन अचनाक हेम राम बीमार पड़ गया...और पैसे के अभाव में इलाज न करा पाने की वजह से उसे इस दुनिया से रुखसत होना पड़ा...लेकिन मरने के बाद भी लाचारी ने उसका पीछा नहीं छोड़ा...और लड़की के अभाव में बिना चिता के ही उसका अंतिम संस्कार करना पड़ा...जानकी ने कभी नहीं सोचा था कि उसकी जिंदगी में ऐसा भी दौर आएगा...पति की मौत के बाद जानकी ने चिता की लकड़ी के लिए नगर पंचायत कोतबा के सीएमओ से भी गुहार लगाई...लेकिन यहां उसकी नहीं सुनी गई...जानकी वन विभाग के वन रक्षक के पास भी गई...लेकिन यहां भी उसे निराशा मिली...थक हार कर जानकी ने स्थानीय वार्ड पार्षदों से भी फरियाद की..लेकिन क्या मजाल कोई मदद को आगे आ जाए...कुछ ऐसा ही मामला बुंदेलखंड क्षेत्र के छतरपुर का भी है....जहां एक गरीब को चिता के लिए लकड़ियां भी नसीब नहीं हुई...मानवीयता को शर्मसार करने वाली ये घटना छतरपुर के सिंचाई कॉलोनी की है..जहां रहने वाले निरपत यादव और उसकी पत्नी की पूरी जिंदगी गरीबी के बोझ तले बीती और मरने के बाद इस बदनसीब को दो गज कफन और लकड़ी भी नसीब नहीं हुई...होती भी कैसे,जिस घर में खाने के लिए अनाज का एक दाना भी न हो भला उसकी विधवा कफन औऱ लकड़ी का इस्तेमाल कहां से करती।फिर भी घर के खिड़की दरवाजे और साइकिल के टायरों से इस वृद्द महिला ने अपने पति का अंतिम संस्कार किया।
गरीबों के हित में सरकार कई योजनाएं चलाने का दावा करती है...इन गरीबों के ऐसे अंतिम संस्कार के बाद सरकार की इन योजनाओं पर भी सवालिया निशान लगता है....