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शुक्रवार, 28 अक्टूबर 2011

shoot out the evil one

come back on truck without lasting of bad requirement because evil make us down stair and we people born for making good society not the creation of nepotism, as per as my view on nepotism is rubbing by hard and solid handing of feeling and view to down poor one.

मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

Happy Dipawali

This dipawali make your life prosper and complete your will, which you were demanding by lord Ganesha and mother Laxmi long from, I always see our CAVS TODAY families ahead of mission journalism.... Do good & do not see behind evil mock, because lot of vagabond kind of khudara Bazaaru journalist want to rubbing our profession so negate them, and working for root via pick for good development of journalism...............

I deliver special thanks to vivek mishra for provide us a way where we Pen down some word for each other...... happy dipawali

रविवार, 23 अक्टूबर 2011

Make distance from ism

Ism always use at last of any mull over, and it's pondering back is make our mind convert as per as their requirement, but no one make any thought on that from what he achieved by, ism, Hindustan is a country where every kind of thought get place to establish for long era, which come long past and live long without any afraid of demolishing. Marxism, capitalism, orthodox ism, secularism, and new term of ism is bhajaism it made by Bhajapai and RSS subject, who follow them. Although really any ism provide you and your family two time meal at proper time, whether your reply is no then why we are swirling behind those ism maker, open the mind and see your requirement if any come before you, give opportunity to work then go otherwise rein on all thought................

शनिवार, 22 अक्टूबर 2011

Donot hold the hand of rubber

By the listing of mark diary of mine, ADITY MISHRA is a name who always write like a megalomaniac, and raise the flag of bhajpa.please it is my request to all follower of our blog do not give any comment of aditya writing.This kind of people only get born for rubbing society. our blog is not political online magazine that uses for get attention of???????????????????????????????????

असुरक्षित 'सुरक्षा'

रात के साये में सरसराती ठण्डी हवा, झींगुर की आवाज का ये अहसास कराना कि शहर में सन्नाटा लगभग पसर गया है। रात जैसे गहरी होती जाती डर की काली छाया अपना वेश विकराल करती जाती। ऐसा सिर्फ मेरे साथ ही नहीं शहर में रह रहे उन तमाम लोगों की दास्तां है जो ताकतवर घरानों या षोहरत हासिल किये हुए नहीं हैं। मैं शबनम। मेरी एक 3 महीने की बच्ची आयत। हम कश्मीरी हैं। अब्बू तासीर आलम। हमारा कपड़े का धन्धा है। पहले अब्बू दूकान चलाया करते थे। पिछले एक साल से मैं चला रही हूं। अम्मी इस काबिल नहीं कि काम काज कर सकें लेकिन शाम के समय हमेशादस्तरखां वहीं लगाती हैं। खानदान में अब और कोई नहीं... हां खाला थीं वो भी कष्मीर के खौफ ज़दा माहौल से परेशां परिवार के साथ जम्मू चलीं गयीं।

अब्बू काफी नेक दिल और इस्लाम परश्त थे। ऐसा सिर्फ मैं ही नहीं कहती। मोहल्ले के और लोगां भी बोला करते थे। लेकिन अब तो हालात ही बिल्कुल बदल गये। अब्बू को जब से वर्दीवाले पकड़ के ले गये सभी की निगाह ग़लत हो गयी है।

आज भी वो दिन याद करके दिल दहला जाता है। सभी रात का खाना खाकर आराम कर रहे थे। समय का तो ध्यान नहीं पर काफी रात हो चली थी। अचानक दरवाजे को जोर-जोर से पीटते हुए कुछ लोगां अब्बू को दरवाजा खोलने के लिए बोल रहे थे। हम सभी घबरा गए। मन में चल रहा था कि दरवाजे पर कौन होगा अलगाववादी, चरमपंथी या आतंकवादी। वैसे तो वसूली के नाम पर महनवारी दहशतगर्दों के पास पहुंच जाती थी लेकिन इतनी देर गये.. इस तरह से... रात में आना...रूह तक कांप रही थी।

अब्बू सोच में पड़ गये और कहने लगे हमारा तो कोई बेटा नहीं जिसे ये दहशतगर्द अपने गुट मेंशामिल करने के वास्ते हमसे छीनने आयें हों। फिर क्यों आये होंगे ये... अम्मी मेरी तरफ देखने लगीं और कस कर मुझे सीने से लगा लिया। और अब्बू से रोते हुए बोलीं कि मैं अपनी बच्ची को उनदहशतगर्दों के हवाले नहीं करूंगी। अकसर ऐसा सुनने में आया करता था कि ये दहशतगर्द अपनी हवस मिटाने के लिए घरों से जवान बेटियां उठा लाया करते हैं।

अम्मी को भी यही लग रहा था कि अब मैं भी...। तभी फिर से अब्बू का नाम लेते हुए कुछ लोगों ने दरवाजा जोर से खटखटाया। हिम्मत करके अब्बू ने आवाज दी कि आता हूं, थोड़ा सबर करो। अब्बू दरवाजा खोलने चले गये। अम्मी ने मुझसे कहा जाओ कोठरी में छुप जाओ और जब तक मैं न कहूं बाहर मत आना... चाहे जो हो जाए।

दरवाजा खुलते ही वर्दी पहने कुछ हथियारबन्द लोग घर में घुस आये। अब्बू कुछ पूछते उससे पहले ही वे लोग अब्बू से हाथापाई करने लगे। अम्मी ने उन्हें रोकने की कोशिश की... पर उन्होंने अम्मी को भी नहीं बख्शा...। मैं अपने आप को रोक नहीं पायी और कोठरी से बाहर आ गयी। एकदम से घर में सन्नाटा पसर गया। मारपीट बन्द कर सभी मेरी तरफ देख रहे थे।

एक ही थाली में कई लोगों की भोज करने की घटनाएं कई बार सुनने में आयीं थीं। लेकिन उनकीनिगाहें इस बार ये कह रही थीं कि आज श्याद मैं इस घटना का एक और पात्र बनने वाली हूं। उनके कदम मेरी ओर बढ़े। मेरी धड़कनों की रफ्तार बढ़ गयी। गला सूख गया था। अम्मी और अब्बू ने उन्होंने रोकने की कोशिश की। ताकत के सामने हम लाचार पड़ गये। अम्मी और अब्बू का मुंह और हाथ बांधकर उन्हें जमीन पर पटक दिया गया।

आगे की कहानी की दासतां बताने के लिए जिस हिम्मत की जरूर होती है वो अब मुझमें नहीं रही। बस यही जानिए कि उस दिन उस थाली में चार वर्दीधारियों ने भोज किया था। अम्मी और अब्बू का कलेजा मंुह को आ गया था। बेबस लाचार अब्बू का दर्द आंखों से साफ झलक रहा था और अम्मी तो बदहवा सी हो गयी थीं। और मैं... जिस्म के उन भूखों के साथ काफी देर तक लड़ती रही। मेरी चीखें मेरी आत्मा को ताकत दे रही थी। लेकिन कुछ देर बाद वो भी ठण्डी पड़ गयी। एक समय के बाद मेरी सिसकियां भी शांत पड़ गयीं। उन बेरहमों का भोज खतम होते ही मेरी अस्मिता का दिया बुझ गया।

मैं... बेसुध घर के आंगन में पड़ी हुई थी। धुंधली आंखों से बस इतना देख पायी कि वे वर्दीधारी अब्बू को घसीटते हुए घर से बाहर ले जा रहे हैं। बदहवास अम्मी ये ही नहीं समझ पा रही थीं कि सम्भालें तो किसे? पहले तो रोते बुलखते, अब्बू को छुड़ाने दौड़ीं। ऐसा लगा कि जोर-जोर से ^उन्हें छोड़ दो, उन्हें छोड़ दो' कहते हुए कुछ दूर तक जीप का पीछा भी किया फिर अचानक भागती हुई मेरे पास आयीं। आसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो इस जिन्दगी में अब कुछ नहीं बचा।

हांसी आती है जब बड़ी गर्व के साथ 15 अगस्त और 26 जनवरी पर सीमा पर लड़ने वाले जवानों की तारीफों के पुल बान्धे जाते हैं। क्यों हांसी आती है मुझे यही सोच रहे हैं? क्योंकि मेरे साथ, मेरे परिवार के साथ जो घटना घटी वो इन्हीं वर्दीधारियों की ही कृपा थी। यह इन देश के सिपाहियों का एक और घिनौना रूप भी है जो देश की जनता के सामने नहीं है।

न जाने वो कौन सी घड़ी थी जिस दिन मेरा घर निशाना बना। अब्बू को बिना ज़ुर्म गिरफ्तार कर लिया जिन्हें आज तक नहीं छोड़ा गया। और मुझे अपनी हवास का साधन।

मेरे इस बरबादी का उन्होंने जो तोहफा दे दिया उसे क्या बताऊंगी कि वो किसकी औलाद है। सुन के ताजिब लगेगा लेकिन मेरी कहानी से मिलती जुलती आप को यहां बहुत सी कहानियां मिला जाएगी। बड़े-बड़े लोगां बोला करते हैं कि मेरे पर जो बीती है उस तरह की घटनाएं सिर्फ कश्मीर में ही नहीं पूर्वोत्तर के प्रदेशों में भी है।

सबकी दांसता एक जैसी ही है पता नहीं कब शबनम जैसी लड़कियों की आत्मा तार-तारहोती रहेगी। हांलाकि हाल ही में सुनने में आया है कि भारत प्रशासित कश्मीर क्षेत्र से जल्दही सेना विशेषाधिकार कानून और अशांत क्षेत्र अधिनियम हट जाएगा। इस बात से एक आसतो जरूरी जागी होगी, उन कश्मीरियों के मान में जों इस तरह की घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी याभुग्तभोगी रहे हैं कि अब कोई परिवार इस तरह से देश के जवानों द्वारा नहीं बरबाद कियाजाएगा। वैसे एक प्रश्न आप के लिए कि अगर सेना के जवान इस तरह की घटनाओं कोअनजाम देते हैं तो उनके साथ क्या किया जाना चाहिए? और उस पीडि़त जनता को कैसेविश्वास दिया जाए कि ये जवान उनके रक्षक है न कि भक्षक

शुक्रवार, 21 अक्टूबर 2011

come dwon with ceasefire

Time shall put the requirement of demand under ground force this is the theory of economics that i found from k.n nag book while i was being perused in graduation first year. you could not make out exactly but,you will understand soon when anybody come before you, and asked you that what achievement has been getting by journalism day's which spent and live now.Many and more wisdom kind people swirling with wind wave and which they found their locality that narrate without any mull over and do not think more on past.


media mean not fire it mean do good and hate evil from your, where stay you.....................................................................

गुरुवार, 20 अक्टूबर 2011

खबर एमसीयू भोपाल से... सौऱभ मालवीय को मिली पीएचडी की उपाधि


माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा सौरभ मालवीय को उनके शोधकार्य हिंदी समाचार-पत्रों में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रस्तुति का अध्ययन विषय पर डाक्टर आफ फिलासिफी की उपाधि प्रदान की गयी। श्री मालवीय ने अपना शोधकार्य विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला के मार्गदर्शन में संपन्न किया श्री मालवीय को उनके शोधकार्य सम्पन होने एवं डॉक्टर आफ फिलासिफी की उपाधि की ढेरों बधाईयां एवं शुभकामना।

बुधवार, 19 अक्टूबर 2011

अभी यंग हूँ दो साल और खेलूंगा...गांगुली

                                पूर्व भारतीय कप्तान सौरव गांगुली  से विवेक  का साक्षात्कार
                                                                कैव्स टुडे के लिए    

विवेक-    आपके स्टेडियम पार वाले छक्के, आज भी याद आते हैं. अगला गांगुली किसमे देखते हैं? 
गांगुली- धोनी तो मारता है लम्बे छक्के, मेरी नज़रों में अगला गांगुली रोहित शर्मा, मनोज कुमार है. 


विवेक - क्रिकेट में और कब तक? 
गांगुली - दो साल शायद और खेलूँ . वैसे भी अभी यंग ही हूँ. आने वाला आई पी एल खेलूंगा.   

विवेक - हरभजन को भारतीय टीम से बाहर किया जाना  उचित है? 
गांगुली - बिल्कुल  उचित फैसला है. लेकिन मुझे उम्मीद है की वे जल्द ही टीम में फिर लौटेंगे. अपनी जगह बनायेंगे. पिच पर वही रहेगा जो फिट है. 

विवेक- भारतीय टीम लगातार हार के बाद १४ अक्टूबर को इंग्लैंड से जीती है.  जीत को किस रूप में देख रहे हैं? 
गांगुली - देखिये बहुत साफ़ है की हम अपने देश में हमेशा क्रिकेट में मजबूत रहे हैं.  हमे आगे के फोरेन टूर व् सिरीज के बारे में सोचना होगा. थोडा आराम ज़रूरी है, 

विवेक- इस मैच से पहले आपने कहा,  धोनी को आराम की जरूरत है. लेकिन मैच के कर्ण तो धोनी ही बन गए? 
गांगुली - जी सही बात है. मैंने कहा था फिर कह रहा हूँ की धोनी को आराम करना चाहिए. वे आराम डिजर्वे करते हैं. आगे कई महत्वपूर्ण सीरीज है. इसलिए उन्हें खुद बैठना चाहिए. 

विवेक - शोएब अख्तर ने अपनी बुक ( कंट्रोवर्सली योर्स) में बताया है की सचिन को उनकी गेंद से डर लगता है ?
गांगुली - यह सही बात नहीं है, सचिन उनकी गेंद से कभी नहीं डरे. 

विवेक  - और आपको ?     
गांगुली - बहुत ज्यादा ? मज़ाक में कह रहा हूँ गंभीरता से मत सोचिये. 

विवेक - शोएब ने अपनी बुक में आपको ग्रेट प्रसनालिटी बताया है? आप उन्हें क्या कहेंगे ? 
 गांगुली-  मै उन्हें इतना ही कहूँगा की वे खुश रहे, शांत रहे. अच्छे प्लयेर हैं शोएब. हालंकि उनकी किताब पढना अभी बाकी है. 

विवेक -   पाकिस्तान अच्छे गेंदबाज देता है लेकिन भारत नहीं क्यूँ ? 
 गांगुली-  जी सही है, हमारे यहाँ बल्लेबाज निकलते हैं. और अब गेंदबाज भी युवा पीढ़ी में आ रही है. 


आगे का पार्ट शीघ्र ही ---(इसी पोस्ट में जोड़ दिया जाएगा )

शनिवार, 15 अक्टूबर 2011

अब अगर प्रतिभा आडवाणी राजनीति में आती हैं तो, राजनितिज्ञों से बचा-खुचा विश्वास भी खत्म हो जाएगा......

भारत के नेताओं और भ्रष्टाचार का चोली दामन का साथ है....16 अगस्त को जब अन्ना ने अपना अनशन शुरु किया था तब कांग्रेसी नेता संजय निरुपम ने भरी लोकसभा में कहा था विपक्ष ये न कहे कि वे पाक-साफ हैं, उनका दामन थोड़ा साफ जरुर हो सकता हैं मगर हैं सभी लोग भ्रष्ट। फिर भाजपा के पूर्व अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उनके बयान पर ऐतराज जताते हुए कहा कि संजय निरुपम की बात गलत है, सारे नेता भ्रष्ट नहीं हैं। यहां कुछ लोग मूल्यों की राजनीति करते हैं...और तब संजय निरुपम ने लोकसभा अध्यक्ष मीरा कुमार के हस्तक्षेप के बाद अपना बयान यह कहते हुए वापस ले लिया कि अध्यक्ष महोदया ....जनता की नजरों में सारे नेता चोर हैं। कुल मिलाकर यह बात अगर मैं कहूं कि भारत के सारे नेता चोर हैं.....( और अगर किसी जिम्मेदार नेता या एजेंट तक कैव्स टूडे पर लिखी गई मेरी बात पहुंच गई और उसने गंभीरता दिखाई )...तो मुझ पर न जाने कौन-कौन सी धारा और कानून लगा दिया जाएगा मुझे नहीं मालूम....और मै अपने बचाव नहीं कर पाउंगा ये बात मुझे अच्छी तरह मालूम है, इसलिए मै कांग्रेसी नेता संजय निरूपम जी के बात से अपनी बात को जोड़ रहा हूं। आज हमारे देश में हर राज्य सरकार किसी न किसी घोटाले के आरोप का सामना कर रही है....चाहें कांग्रेस की सरकार हो, भाजपा नीत एनडीए हो, सपा रही हो या बसपा...करूणानिधि रहें हो या जयललिता......दामन किसी का उजला नहीं है....फिर भी देश में कुछ नेता आज भी ऐसे हैं जिन पर कमसे कम भ्रष्टाचार का तो आरोप नहीं है.....उन नेताओं में वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी, सोनिया गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों का नाम शामिल है। हालांकि सोनिया जी पर कुछ रूपए-पैसे का आरोप कभी कभार सुनने को मिलता भी है तो वह छुटभैया टाईप के लोग ही लगाते हैं, जो कि ध्यान देने योग्य नहीं है। अब मुख्य बात मै जो कहना चाह रहा हूं वो यह है कि भारत की राजनितिक व्यवस्था मे भ्रष्टाचार ही नहीं परिवारवाद भी एक गंभीर बिमारी है,,,,,जिसका कोई इलाज नहीं है। तमिलनाडु में करूणानिधि परिवार,आन्ध्र प्रदेश में वाईएस राजशेषर रेड्डी के बाद उनके पुत्र जगन मोहन रेड्डी, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव परिवार, मध्य प्रदेश में दिवंगत कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह के पुत्र राहुल भैया, पश्चिम बंगाल में प्रणव मुखर्जी के सुपुत्र , हरियाणा मे ओम प्रकाश चौटाला एंड संस, भजनलाल के पुत्र कुलदीप विश्नोई जैसे नेता परिवारवाद के भार को बडी ही जिम्मेदारी के साथ ढो रहे हैं,,,,,,सबसे बड़ा उदाहरण उस नेताइन( सोनिया गांधी ) के सुपुत्र राहुल गांधी हैं जिन्हें मैने अटल और आडवाणी के साथ स्थान दिया है। अब सुनने में आ रहा है कि लालकृष्ण आडवाणी जी की सुपुत्री प्रतिभा आडवाणी भी राजनीति में आने वाली हैं.... ( प्रतिभा आजकल आडवाणी जी की रथयात्रा में उनके साथ चल रही हैं,,,, उन्हे मैने भोपाल मे आडवाणी जी के जन्मदिन के अवसर पर रविन्द्र भवन में देखा था॥उनकी डाक्यूमेंट्री फिल्म देखी थी....तो उनके हाव-भाव या बोली विचार से ऐसा नहीं लगा कि वे राजनीति में रूचि रखती हैं। )....आडवाणी जैसे नेता अगर परिवारवाद को बढ़ाएंगे ऐसा मुझे नहीं लगता....फिर भी अगर ऐसा हो गया तो फिर राजनेताओं पर से विश्वास करना मुश्किल हो जाएगा। भाजपा शासित राज्य कर्नाटक और उत्तराखण्ड में जिस तरह से भ्रष्टाचार की वजह से सीएम बदलने के समाचार आए उससे तो साफ हो गया कि भ्रष्टाचार के मामले में बीजेपी भी पाक साफ नहीं है.....हालांकि इस मामले में बीजेपी से पाक-साफ कोई दुसरी पार्टी भी इस समय नहीं है,,,,,,लेकिन प्रतिभा आडवाणी के राजनीति में प्रवेश करते ही यह साफ हो जाएगा कि भारत में फिलहाल कोई नेता निस्वार्थ राजनीति नहीं कर रहा है....सारे नेता दौलत कमाने और अपने पुत्र-पुत्री को लोकसभा, राज्यसभा- विधानसभा में पहुंचाने में ही जुटे हैं....अगर ये नेता अपना स्वार्थ नहीं त्याग पाते हैं और आम आदमी का विश्वास ये इसी तरह तोड़ते रहें तो इन नेताओं को भारत के गरीब जनता का हक खाने का परिणाम किसी न किसी रूप में भुगतना ही पड़ेगा।

मंगलवार, 11 अक्टूबर 2011

आतंरिक सुरक्षा के लिए खतरा बनता नक्सलवाद......





हर्ष की रिपोर्ट ---www.boltikalam.blogspot.com
"हमारे बाप दादा ने जिस समय हमारा घर बनाया था उस समय घर पर सब कुछ ठीक ठाक था ... संयुक्त परिवार की परंपरा थी ... सांझ ढलने के बाद सभी लोग एक छत के नीचे बैठते थे और सुबह होते ही अपने खेत खलिहान की तरफ निकल पड़ते थे ॥ अब हमारे पास रोजी रोटी का साधन नहीं है... जल ,जमीन,जंगल हमसे छीने जा रहे है और दो जून की रोटी जुटा पाना भी मुश्किल होता जा रहा है ... हमारी वन सम्पदा कारपोरेटघराने लूट रहे है और "मनमोहनी इकोनोमिक्स " के इस दौर में अमीरों और गरीबो की खाई दिन पर दिन चौड़ी होती जा रही है..."

६८ साल के रामकिशन नक्सल प्रभावित महाराष्ट्र के गडचिरोली सरीखे अति संवेदनशील इलाके से आते है जिनकी कई एकड़ जमीने उदारीकरण के दौर के आने के बाद कारपोरेटी बिसात के चलते हाथ से चली गई ... पिछले दिनों रामकिशन ने ट्रेन में जब अपनी आप बीती सुनाईतो मुझे भारत के विकास की असली परिभाषा मालूम हुई.... "शाईनिंग इंडिया" के नाम पर विश्व विकास मंच पर भारत की बुलंद आर्थिक विकास का हवाला देने वाले हमारे देश के नेताओ को शायद उस तबके की हालत का अंदेशा नहीं है जिसकी हजारो एकड़ जमीने इस देश में कॉरपोरेट घरानों के द्वारा या तो छिनी गई है या यह सभी छीनने की तैयारी में है...दरअसल इस दौर में विकास एक खास तबके के लोगो के पाले में गया है वही दूसरा तबका दिन पर दिन गरीब होता जा रहा है जिसके विस्थापन की दिशा में कारवाही तो दूर सरकारे चिंतन तक नहीं कर पाई है .....

फिर अगर नक्सलवाद सरीखी पेट की लड़ाई को सरकार अलग चश्मे से देखती है तो समझना यह भी जरुरी होगा उदारीकरण के आने के बाद किस तरह नक्सल प्रभावित इलाको में सरकार ने अपनी उदासीनता दिखाई है.... जिसके चलते लोग उस बन्दूक के जरिये "सत्ता " को चुनोती दे रहे है जिसके सरोकार इस दौर में आम आदमी के बजाय " कोर्पोरेट " का हित साध रहे है.........प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह नक्सलवादी लड़ाई को अगर देश की आतंरिक सुरक्षा के लिये एक बड़ा खतरा बताते है तो समझना यह भी जरुरी हो जाता है आखिर कौन से ऐसे कारण है जिसके चलते बन्दूक सत्ता की नली के जरिये "चेक एंड बेलेंस" करता खेल खेलना चाहती है?

मार्क्स के वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के रूप में नक्सलवाद की व्यवस्था पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी से १९६७ में कानू सान्याल, चारू मजूमदार, जंगल संथाल की अगुवाई में शुरू हुई .... सामाजिक , आर्थिक , राजनीतिक समानता स्थापित करने के उद्देश्य से इस तिकड़ी ने उस दौर में बेरोजगार युवको , किसानो को साथ लेकर गाव के भू स्वामियों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया था ......उस दौर में " आमारबाडी, तुम्हारबाडी, नक्सलबाडी" के नारों ने भू स्वामियों की चूले हिला दी.... इसके बाद चीन में कम्युनिस्ट राजनीती के प्रभाव से इस आन्दोलन को व्यापक बल भी मिला ..........केन्द्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इस समय आन्ध्र, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, बिहार , महाराष्ट्र समेत १४ राज्य नक्सली हिंसा से बुरी तरह प्रभावित है.....

नक्सलवाद के उदय का कारण सामाजिक, आर्थिक , राजनीतिक असमानता और शोषण है.... बेरोजगारी, असंतुलित विकास ये कारण ऐसे है जो नक्सली हिंसा को लगातार बढ़ा रहे है......नक्सलवादी राज्य का अंग होने के बाद भी राज्य से संघर्ष कर रहे है.... चूँकि इस समूचे दौर में उसके सरोकार एक तरह से हाशिये पर चले गए है .....और सत्ता ओर कॉर्पोरेट का कॉकटेल जल , जमीन, जंगल के लिये खतरा बन गया है अतः इनका दूरगामी लक्ष्य सत्ता में आमूल चूल परिवर्तन लाना बन गया है ......इसी कारण सत्ता की कुर्सी सँभालने वाले नेताओ और नौकरशाहों को ये सत्ता के दलाल के रूप में चिन्हित करते है ......

नक्सलवाद के बड़े पैमाने के रूप में फैलने का एक कारण भूमि सुधार कानूनों का सही ढंग से लागू ना हो पाना भी है....जिस कारण अपने प्रभाव के इस्तेमाल के माध्यम से कई ऊँची रसूख वाले जमीदारो ने गरीबो की जमीन पर कब्ज़ा कर दिया जिसके एवज में उनमे काम करने वाले मजदूरों का न्यूनतम मजदूरी देकर शोषण शुरू हुआ ॥ इसी का फायदा नक्सलियों ने उठाया और मासूमो को रोजगार और न्याय दिलाने का झांसा देकर अपने संगठन में शामिल कर दिया... यही से नक्सलवाद की असल में शुरुवात हो गई ओर आज कमोवेश हर अशांत इलाके में नक्सलियों के बड़े संगठन बन गए है .....

आज आलम ये है हमारा पुलिसिया तंत्र इनके आगे बेबस हो गया है इसी के चलते कई राज्यों में नक्सली समानांतर सरकारे चला रहे है .....देश की सबसे बड़ी नक्सली कार्यवाही १३ नवम्बर २००५ को घटी जहाँ जहानाबाद जिले में मओवादियो ने किले की तर्ज पर घेराबंदी कर स्थानीय प्रशासन को अपने कब्जे में ले लिया जिसमे तकरीबन ३०० से ज्यादा कैदी शामिल थे .."ओपरेशन जेल ब्रेक" नाम की इस घटना ने केंद्र और राज्य सरकारों के सामने मुश्किलें बढ़ा दी...तब से लगातार नक्सली एक के बाद एक घटनाये कर राज्य सरकारों की नाक में दम किये है॥ चाहे मामला बस्तर का हो या दंतेवाडा का हर जगह एक जैसे हालात है....

आज तकरीबन देश के एक चौथाई जिले नक्सलियों के कब्जे में है.... वर्तमान में नक्सलवादी विचारधारा हिंसक रूप धारण कर चुकी है .... सर्वहारा शासन प्रणाली की स्थापना हेतु ये हिंसक साधनों के जरिये सत्ता परिवर्तन के जरिये अपने लक्ष्य प्राप्ति की चाह लिये है ....सरकारों की "सेज" सरीखी नीतियों ने भी आग में घी डालने का काम किया है....सेज की आड़ में सभी कोर्पोरेट घराने अपने उद्योगों की स्थापना के लिये जहाँ जमीनों की मांग कर रहे है वही सरकारों का नजरिया निवेश को बढ़ाना है जिसके चलते औद्योगिक नीति को बढावा दिया जा रहा है ॥"

कृषि " योग्य भूमि जो भारतीय अर्थव्यवस्था की रीड है उसे ओद्योगिक कम्पनियों को विकास के नाम पर उपहारस्वरूप दिया जा रहा है जिससे किसानो की माली हालत इस दौर में सबसे ख़राब हो चली है.... यहाँ बड़ा सवाल ये भी है "सेज" को देश के बंजर इलाको में भी स्थापित किया जा सकता है लेकिन कंपनियों पर " मनमोहनी इकोनोमिक्स " ज्यादा दरियादिली दिखाता नजर आता है....जहाँ तक किसानो के विस्थापन का सवाल है तो उसे बेदखल की हुई जमीन का विकल्प नहीं मिल पा रहा है ॥ मुआवजे का आलम यह है सत्ता में बैठे हमारे नेताओ का कोई करीबी रिश्तेदार अथवा उसी बिरादरी का कोई कृषक यदि मुआवजे की मांग करता है तो उसको अधिक धन प्रदान किया जा रहा है .... मंत्री महोदय का यही फरमान ओर फ़ॉर्मूला किसानो के बीच की खायी को और चौड़ा कर रहा है ....

सरकार से हारे हुए मासूमो की जमीनों की बेदखली के बाद एक फूटी कौड़ी भी नहीं बचती जिस कारन समाज में बदती असमानता उन्हें नक्सलवाद के गर्त में धकेल रही है ..."सलवा जुडूम" में आदिवासियों को हथियार देकर अपनी बिरादरी के "नक्सलियों" के खिलाफ लड़ाया जा रहा है जिस पर सुप्रीम कोर्ट तक सवाल उठा चुका है...हाल के वर्षो में नक्सलियों ने जगह जगह अपनी पैठ बना ली है और आज हालात ये है बारूदी सुरंग बिछाने से लेकर ट्रेन की पटरियों को निशाना बनाने में ये नक्सली पीछे नहीं है...

अब तो ऐसी भी खबरे है हिंसा और आराजकता का माहौल बनाने में जहाँ चीन इनको हथियारों की सप्लाई कर रहा है वही हमारे देश के कुछ सफेदपोश नेता धन देकर इनको हिंसक गतिविधियों के लिये उकसा रहे है....अगर ये बात सच है तो यकीन जान लीजिये यह सब हमारी आतंरिक सुरक्षा के लिये खतरे की घंटी है.... केंद्र सरकार के पास इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति का अभाव है वही राज्य सरकारे केंद्र सरकार के जिम्मे इसे डालकर अपना उल्लू सीधा करती है...

असलियत ये है कानून व्यवस्था शुरू से राज्यों का विषय रही है ....हमारा पुलिसिया तंत्र भी नक्सलियों के आगे बेबस नजर आता है.... राज्य सरकारों में तालमेल में कमी का सीधा फायदा ये नक्सली उठा रहे है.... पुलिस थानों में हमला बोलकर हथियार लूट कर वह जंगलो के माध्यम से एक राज्य की सीमा लांघ कर दुसरे राज्य में चले जा रहे है ...ऐसे में राज्य सरकारे एक दुसरे पर दोषारोपण कर अपने कर्तव्य की इति श्री कर लेती है... इसी आरोप प्रत्यारोप की उधेड़बुन में हम आज तक नक्सली हिंसा समाधान नहीं कर पाए है...

गृह मंत्रालय की " स्पेशल टास्क फ़ोर्स " रामभरोसे है ॥ इसे अमली जामा पहनाने में कितना समय लगेगा कुछ कहा नहीं जा सकता.....? केंद्र के द्वारा दी जाने वाली मदद का सही इस्तेमाल कर पाने में भी अभी तक पुलिसिया तंत्र असफल साबित हुआ है ....भ्रष्टाचार रुपी भस्मासुर का घुन ऊपर से लेकर नीचे तक लगे रहने के चलते आज तक कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ पाए है...साथ ही नक्सल प्रभावित राज्यों में आबादी के अनुरूप पुलिस कर्मियों की तैनाती नहीं हो पा रही है....कॉन्स्टेबल से लेकर अफसरों के कई पद जहाँ खली पड़े है वही ऐसे नक्सल प्रभावित संवेदनशील इलाको में कोई चाहकर भी काम नहीं करना चाहता.... इसके बाद भी सरकारों का गाँव गाँव थाना खोलने का फैसला समझ से परे लगता है....

नक्सल प्रभावित राज्यों पर केंद्र को सही ढंग से समाधान करने की दिशा में गंभीरता से विचार करने की जरुरत है.... चूँकि इन इलाको में रोटी, कपड़ा, मकान जैसी बुनियादी समस्याओ का अभाव है जिसके चलते बेरोजगारी के अभाव में इन इलाको में भुखमरी की एक बड़ी समस्या बनी हुई है.... सरकारों की असंतुलित विकास की नीतियों ने इन इलाके के लोगो को हिंसक साधन पकड़ने के लिये मजबूर कर दिया है ... इस दिशा में सरकारों को अभी से विचार करना होगा तभी बात बनेगी.... अन्यथा आने वाले वर्षो में ये नक्सलवाद "सुरसा के मुख" की तरह अन्य राज्यों को निगल सकता है....

कुल मिलकर आज की बदलती परिस्थितियों में नक्सलवाद भयावह रूप लेता नजर आ रहा है... बुद्ध, गाँधी की धरती के लोग आज अहिंसा का मार्ग छोड़कर हिंसा पर उतारू हो गए है... विदेशी वस्तुओ का बहिष्कार करने वाले आज पूर्णतः विदेशी विचारधारा को अपना आदर्श बनाने लगे है... नक्सल प्रभावित राज्यों में पुलिस कर्मियों की हत्या , हथियार लूटने की घटना बताती है नक्सली अब "लक्ष्मण रेखा" लांघ चुके है....नक्सल प्रभावित राज्यों में जनसँख्या के अनुपात में पुलिस कर्मियों की संख्या कम है... पुलिस जहाँ संसाधनों का रोना रोती है ....वही हमारे नेताओ में इससे लड़ने के लिये इच्छा शक्ति नहीं है ....ख़ुफ़िया विभाग की नाकामी भी इसके पाँव पसारने का एक बड़ा कारन है ....

एक हालिया प्रकाशित रिपोर्ट को अगर आधार बनाये तो इन नक्सलियों को जंगलो में "माईन्स" से करोडो की आमदनी होती है.... कई परियोजनाए इनके दखल के चलते लंबित पड़ी हुई है.... नक्सलियों के वर्चस्व को जानने समझने करता सबसे बेहतर उदाहरण झारखण्ड का "चतरा " और छत्तीसगढ़ करता "बस्तर" ओर "दंतेवाडा " जिला है जहाँ बिना केंद्रीय पुलिस कर्मियों की मदद के बिना किसी का पत्ता तक नहीं हिलता.... यह काफी चिंताजनक है...

नक्सल प्रभावित राज्यों में आम आदमी अपनी शिकायत दर्ज नहीं करवाना चाहता ॥ वहां पुलिसिया तंत्र में भ्रष्टाचार पसरगया है .... साथ ही पुलिस का एक आम आदमी के साथ कैसा व्यवहार है यह बताने की जरुरत नहीं है.... अतः सरकारों को चाहिए वह नक्सली इलाको में जाकर वहां बुनियादी समस्याए दुरुस्त करे... आर्थिक विषमता के चले ही वह लोग आज बन्दूक उठाने को मजबूर हुए है... ऊपर की कहानी केवल रामकिशन की नहीं , कहानी घर घर के रामकिशन की बन चुकी है........

क्या नल के पानी से बुझेगी याकूब की प्यास............... ?


उत्तर प्रदेश में विधायको कों पार्टी से निकाले जाने का सिलसिला अभी लगातार बना हुआ है. जुमा -२ आठ दिन भी नहीं हुए थे की बसपा सुप्रीमो मुख्यमंत्री मायावती ने केबिनेट के शिक्षा मंत्री रंगनाथ मिश्र और श्रम मंत्री बादशाह सिंह कों मंत्री पद से हटा दिया. जुर्म दोनों मंत्रियो का बस इतना है कि लोकायुक्त की जाच में उन्हें दोषी पाया गया . बसपा पार्टी जिन दलितों और पिछडो वर्गों के आसरे उ. प्र. में राज कर रही है. उन्ही कों फिर से लुभाकर, दागदार मंत्रियो और भ्रष्ट्र नेताओ कों पार्टी से बाहर निकाल कर साफ़ छवि बनाने में जुटी है. और इन सब के बीच मायावती अपनी चुनावी बिसात भी बिछाने में भी लगी हुई है. मायावती के इन कड़े तेवर कों देखते हुए पार्टी का हर नेता खोफ खाया हुआ है. माया केबिनेट मंत्रियो की संख्या घटकर अब चार हो गई है.जिसमे से धर्मार्थ मंत्री राजेश त्रिपाठी, पशुपालन मंत्री अवधपाल यादव की भी छुट्टी कर दी गई .

आठ दिनों पूर्व मेरठ शहर विधायक हाजी याकूब कुरैशी कों बसपा से निष्कासित करने का मामला सामने आया था , हाजी याकूब सिखों पर बेहूदी टिप्पणी करने के मामले में पार्टी से निष्कासित किये गए है , याकूब के लिए अब बड़ा सवाल ये पैदा होता है की वे अपनी नवगठित यूडीएफ पार्टी कों किसके आसरे चलाए, वैसे भी पार्टी कों आगे बढ़ने की लिए जनाधार की आवश्यकता होती है वो याकूब के पास है नहीं, पार्टी चले तो चले किसके आसरे, सवाल बड़ा ही मुश्किल हैं. अब याकूब अपनी राजनीतिक प्यास कों बुझाये तो बुझाये कैसे ? सवाल ये भी बड़ा दिलचस्प है ? याकूब के पास बस एक मात्र विकल्प था, अजित सिंह की आरएलडी पार्टी, जिससे उनकी राजनीतिक प्यास बुझ सकती है, अंत में प्यासे कों नल के पास जाना ही पड़ा, याकूब कों पार्टी से निकलने के बाद कयास तो यही लगाये जा रहे थे कि याकूब अजित से हाथ मिला सकते है. लेकिन मौका परस्ती लोग मौका कभी गवाना नहीं चाहते.

मेरठ के फैज़ ए - आम इंटर कालिज के मैदान में याकूब ने "मुस्लिम स्वाभिमान महापंचायत" का आयोजन कराया, इस आयोजन का सारा काम याकूब और उसके बेटे हाजी इकराम कि देख रेख में हुआ, जहा याकूब ने अपने बेटे हाजी इकराम कों इसी महापंचायत के ज़रीय आगामी विधानसभा चुनाव के लिए परमोट किया. तो वही राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया अजित सिंह ने भी इस महापंचायत में शिरकत ली. मुस्लिम स्वाभिमान महापंचायत में इस तरह से अजित सिंह का शरीक होना कही न कही यही दर्शाता है की याकूब अब अजित सिंह के नल से अपनी राजनीतिक प्यास बुझाएंगे. जब मुस्लिम उलेमाओं को याकूब की असलियत पता चली तो उन्होंने इस महापंचायत कों राजनीति का अखडा बताकर इसका बहिष्कार कर दिया.

क्या फैज़ - ए आम इंटर कालिज का वही मैदान याकूब के लिए फिर से राजनीतिक भविष्य की नई ईबारत लिखेगा...... ? यही सवाल अब हर उस शख्स के ज़ेहन में गूंज रहा है जो यूडीएफ पार्टी से जुड़े है. अब से पहले याकूब ने इसी मैदान में कई सभाए की है. लेकिन इस बार फिर से मुस्लिमो कों लुभाने के लिए याकूब ने एक नई चाल चली, या यूँ कहे कि "मुस्लिम - किसान गठबंधन" की नई राजनीति, जो आगामी विधानसभा चुनाव में देखने कों मिल सकती है ( खासकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में). याकूब के पास आरएलडी पार्टी ही एक मात्र विकल्प के रूप में उनके सामने थी. जिसके आसरे राजनीति में घुसा जा सके. याकूब ने अपनी राजनीति के शुरुआत जिस पार्टी से की थी उस पार्टी के भविष्य पर के बदरी के बादल छटने का नाम नहीं ले रही है. आए दिन उसके मंत्रियो का घोटाले और भ्रष्टाचार में संलिप्त पाये जाना हाजी याकूब कों रास नहीं आया. इसीलिए याकूब का कांग्रेस में जाने का मन नहीं था. याकूब के लिए आरएलडी ही एक मात्र ऐसी पार्टी है जहाँ उनको जगह मिल सकती है. मुस्लिम स्वाभिमान महापंचायत के बहाने याकूब ने अजित सिंह कों इस आयोजन में बुलाकर यहा जता दिया की याकूब अब आरएलडी के नल से पानी निकालेंगे .

आखिर इन सब के बीच याकूब की मंशा अपने बेटे कों सरधना विधानसभा सीट से प्रत्याशी बनाने कीऔर खुद कों मेरठ शहर की किसी भी विधानसभा सीट से प्रत्याशी बनाने की थी, लेकिन अजित सिंह की ख़ामोशी कुछ ज्यादा कह तो नहीं पाई,पर हाँ अजित ने मंच से इतना ज़रूर कहा की याकूब अगले महीने से अब आपके घर - २ घूमते मिलेंगे. तो कही न कही इस बयान से इतना साफ ज़ाहिर हो जाता है कि अजित सिंह भी मुस्लिम - किसान गठबंधन की राजनीति कों भुनाना चाहते है जिसका फायदा उन्हें इस विधानसभा चुनाव में मिले. लेकिन ये तो आने वाला वक्त ही तय करेगा की याकूब अपनी राजनीतिक प्यास कों नल के पानी से बुझाएंगे की नहीं .....

{ लेखक : ललित कुमार कुचालिया (प्रसारण पत्रकारिता)
( माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविधालीय भोपाल, म. प्र. ). और हाल ही में महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविधालीय वर्धा, ( महाराष्ट) से एम्. फिल. ( जनसंचार ) का शोधार्थी है " "हरीभूमि" ( दैनिक समाचार) छत्तीसगढ़ में रिपोर्टर भी रहे. देहरादून --- "वोइस ऑफ़ नेशन" न्यूज़ चैनल में भी काम किया ....}

सोमवार, 10 अक्टूबर 2011

मुसाफिर जाएगा कहाँ .....


हाल में आपने  रिक्शा विज्ञापन वाला...शीर्षक से पटना में रिक्शा मालिक और चालक के अर्थशास्त्र को जाना था. उसी क्रम में आगे बढ़ रहा हूँ.  पढ़िए और देखिये रिक्शावान की जिंदगी....जो राह चलते सबसे कहता है मुसाफिर जाएगा कहाँ ........
दिन-रात सड़क पर बिताने वाले रिक्शा चालक टिंकू को उस दिन राहत मिली, जब उसने सुना कि, इस अजनबी शहर में भी सोने-रहने  के लिए एक जगह होगी. सर पर एक छत, अपना डेरा होगा. बिहार सरकार ने कुछ साल पहले पटना  में रिक्शा चालको के लिए बेकार पड़ी लैंड पर 35  रैनबसेरा बनाया. कई अत्यंत गरीबों का पंजीकरण हुआ. पंजीकृत लोगो को एक-एक बक्सा भी दिया गया. ताकि वे अपना सामान सुरक्षित रख सके. ये रिक्शा चालक इन रैनबसेरो में शिफ्ट हो गए. लेकिन १० फीसदी को ही जगह मिल सकी. बाकी ९० फीसदी का रैन-बसेरा अभी भी सडक हैं.जिनमे एक टिंकू भी शामिल है. 
जिन १० फीसदी को जगह और छत मिली, वे अपने रैनबसेरों में एक टोले की तरह रह रहे हैं. उन्ही में देखिये इस एक रैनबसेरे की हालत-  

दिन के बारह बज रहे हैं, मै पटना के मध्य एक सरकारी रिहायशी इलाके में हूँ. तारामंडल से सीधी एक डेढ़ किलोमीटर चमचमाती सड़क. आधा किलोमीटर चला. तो  दायें से कटी एक किलोमीटर की लम्बी सड़क दिखी. सड़क के एक और लम्बी दीवार, दूसरी और जेल के बैरक जैसे ७ से ८ घर. इन्ही को सरकार ने रैन बसेरा नाम दिया है.पूरे क्षेत्र का नाम है चीना कोठी, हालाँकि अंग्रेजी में यहाँ लोग चाइना कोठी लिखते हैं. टोला गौर से देखने पर एक देश है. इस बसेरे की खासियत यह की कहीं भी कोई गेट नहीं. फिर भी चोरी होने का कोई डर नहीं. शायद सरकार को यह मालूम रहा होगा. की यहाँ  चोरी हो सकने वाली कोई चीज कभी आएगी ही नहीं. दीवालों के उपरी पट्टी पर जगह का लिखा नाम ऐतिहासिक हो चुका है.हालांकि भवन निर्माण दो-चार सालों का है. 



अधिकांश लोग इस समय अपने रैनबसेरे से काम के लिए निकल चुके हैं, कुछ रैन बसेरे वीरान भी हैं. हज़ारों सालों की गंदगी इस इलाके में, सरकार-प्रशासन  की तरह किसी को कोई फर्क नहीं.  कुछ अधेड़ सोते मिले.क्यूंकि रात में रिक्शा चलाने जाना है.


तो  कुछ बच्चे काम करते दिखे

मैंने पुछा क्या नाम है. तो बताया रोहित. पढ़ते हो ? हाँ छठी कक्षा में. तो यहाँ ये काम. हाँ बाबू निकल गए रिक्शा चलाने हम लोग खाने का प्रबंध कर रहे हैं. रोज़ करते हो? नहीं हमारे स्कूल में छुट्टी है, बीबी नासिर्गंज में पढ़ते हैं. यहाँ कुछ कहानी की किताब लाये हैं उसे पढ़ रहे हैं.
घर के अन्दर घुसा तो रहस्य और रोमांच दोनों दिखा. रहस्य यह की इतनी कम जगह में कोई कैसे सोयेगा, रोमांच यह की फुर्सत के पल को कैसे एन्जॉय किया जाए. जोगी बताने लगे की साहब इस बार बाजी हमारी है. राजा और एक्का दोनों अपने पास. ५२ पत्तियों में फुर्सत का संसार दिखा.


रिक्शा चालक ननके बताते हैं की खुले में दाढ़ी बनवाने का अपना मज़ा है.वैसे भी मेरे दोस्त को विज्ञापन करने की ज़रुरत नहीं है. औज़ार देख के ही लोग समझ जाते हैं की बाल कतरन दूकान यही है.




कुछ दूर बढ़ने पर गरीबी का आर्कीटेक्चेर दिखा. सवाल वही जो राह चलते सबका हो सकता है? कैसे रहते होंगे इसमें.


  आगे देश के भविष्य दिखे, जो अपना भविष्य पहले से ही जान चुके हैं. नन्हे-मुन्हे कहते हैं की बाबू  रिक्शा चलाएंगे. रिक्शा हमारा खिलौना है..


 




 

 
पटना में कम से कम ४० हज़ार रिक्शा चालक मौजूद हैं. जिनमे से ८० फीसदी ने बिहार के छोटे जिलो से निकलकर राजधानी का कूच किया है. कुछ तो हालत से जूझकर पहुचे हैं तो कुछ हालात से जूझने पहुचे हैं. डेहरी आन्सोल से 1980 में पटना काम की तलाश में पहुचे टोनी बताते हैं, जब से आये रिक्शा पकड़ लिया. तब १० रूपये किराए में आप पूरा पटना घूम सकते थे. उस दशक में हम 80 रूपये तक रोज़ कमाते थे जिसमे से हम ४० रूपये खर्च के बाद बचाते थे. आज के समय में एक रिक्शा चालक राजधानी में प्रतिदिन औसत ३०० रूपये कमाता है. कमाई से हर रोज़ ३० रूपये मालिक को जाता है. दिनभर के खाने-पीने में हम ५० से ६० रूपये  खर्च करते हैं. १०० रूपये घर के लिए निकालते हैं. इस तरह से रोज़ करीब १०० रूपये बचता है. जिसे वे अपने बिना ब्याज देने वाले बैंक (बक्से) में जमा करते हैं. रहने और सहने का तब भी कोई खर्च नहीं लगता था और आज भी. क्यूंकि हम सड़क पर ही सोने के आदि हो चुके हैं. रैनबसेरा की स्थिति तो आप देख ही रहे हैं. इससे अच्छा हम सड़क पर ही सो जाया करे.  

  विकास, आय व् गरीबी पर व्यापक शोध की ज़रुरत
अर्थशास्त्री व् इंडियन कौंसिल ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के अध्यक्ष सुखदेव थोराट 08 अक्टूबर,२०११ को पटना में थे. समावेशी विकास पर उनका व्याख्यान सुनने को मिला. उन्होंने कहा की अब तक  ११ पंचवर्षीय योजनाओं के बाद जो शोध व्  डाटा संग्रहण हुए हैं, उनसे यह पता चलता है की विकास का फायदा सबको हुआ है.गाँव और शहर दोनों जगह संगठित और असंगठित क्षेत्र के दिहाड़ी मजदूर अभी भी गरीबों में गरीब हैं. इन्हें १२वी पंचवर्षीय में कैसे फायदा पहुचाया जाए,  इसी तरह के नीतियों पर विचार किया जा रहा है.  भारत में सोशल स्टडीज़ में शोध के लिए देश भर में कुल १४ संस्थान हैं. जबकि चाइना में ४०. यह संख्या इसलिए की अपने देश में सोशल स्टडीज़ की शाखाएँ बढनी चाहिए. दूसरा-  विकास, आय व् गरीबी के साझा रिश्ते पर व्यापक शोध की ज़रुरत है. 
भारत में जाति, धर्म, जेंडर के आधार पर भी शोध की जरूरत है. क्यूंकि अभी तक प्राप्त सरकारी आंकड़े के आधार पर जो गरीबो में भी गरीब हैं, उनमे सबसे ज्यादा आदिवासी (एस.टी),  एस.सी. और उसके बाद मुसलमान और फिर महिलायें हैं.  जो अत्यंत गरीब हैं, उनमे भी लाभ - हानि का इन सब बातों का महत्वपूर्ण रिश्ता है.  


रविवार, 9 अक्टूबर 2011

प्रगतिशील आंदोलन की विरासतः पक्षधरता के जोखिम

खबर लखनऊ से....

9 अक्टूबर 2011
प्रगतिशील लेखक संघ की 75 वीं वर्षगांठ पर आयोजित दो
दिवसीय सम्मेलन के अंतिम दिन संगठन और राजनीतिक परिस्थितियों पर खुलकर चर्चा
हुई। प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष डा0 नामवर सिंह ने अपने समापन वक्तव्य में
कहा कि संगठन को नई चुनौतियों को समझने और उनके जवाब प्रस्तुत करने के लिए आज
एक नए घोषणा पत्र की जरुरत है ताकि जब सौवां वर्षगांठ मनाई जाय तो लोगों को
अपने सामाजिक और राजनीतिक कार्यभार का एहसास हो। उन्होंने कहा कि आज एक व्यापक
लेखन आंदोलन खड़ा करने के लिए जरुरी है कि जलेस और जसम के साथ भी साझा मोर्चा
बनाया जाय। उन्होंने लेखक संगठन के मातृ पार्टी के साथ वैचारिक साझेपन पर भी
जोर दिया।
वरिष्ठ भाकपा नेता अतुल कुमार अंजान ने कहा कि आज साहित्य में भी आवारा पूंजी
के साथ आंवारा मीडीया और आवांरा साहित्य का उत्पादन शुरु हो गया है। जिससे आज
प्रगतिशील लेखक आंदोलन को लड़ना होगा। साहित्य और संस्कृति ही बेहतर राजनीतिक
विकल्प का रास्ता बनाते हैं आज प्रलेस को इस जिम्मेदारी को निभाना होगा।
वरिष्ठ लेखक प्रो0 चैथी राम यादव ने कहा कि सोवियत यूनियन के विघटन को
साहित्यकारों ने मार्कसवादी समाजवाद के खात्में के बतौर ले लिया जो एक भ्रामक
विश्लेषण था। उन्होंने कहा कि साहित्य को फिर से मार्कसवाद को एक विकल्प के
बतौर प्रस्तुत करना होगा यही प्रगतिशील लेखक संघ की राजनीतिक जिम्मेदारी है।
ऐसे में प्रलेस को किसान मजदूर आदि के सहवर्ती आंदोलनों से जोड़ना होगा। जनता
के प्रति प्रतिबद्धता लानी होगी तभी पक्षधरता के जोखिम सामने आएंगे।
वरिष्ठ आलोचक वीरेन्द्र यादव ने कहा कि प्रगतिशील लेखक संघ आधुनिक भारत का पहला
ऐसा लेखक आंदोलन था जिसने साहित्य को राजनीति से जोड़ने का काम किया था। आज इस
परम्परा को फिर से मजबूत बनाने की जरुरत है। उन्होंने कहा कि उपनिवेशिक काल में
प्रलेस ब्रिटिश साम्रज्यवाद के साथ-साथ धार्मिक कठमुल्लावाद से भी लड़ा था आज
इस आंदोलन को फिर से इस भूमिका में आना होगा।
वाराणसी से आए मूलचंद्र सोनकर ने कहा कि आज दलितों और पिछड़ों के सवालों को भी
अपने विमर्श में रखना होगा। उन्होंने कहा कि सावित्री बाई फुले, पंडिता रमाबाई
को आप संज्ञान में नहीं लेंगे तो उनका गलत लोगों द्वारा इस्तेमाल आप नहीं रोक
पाएंगे।
दिल्ली से आए वरिष्ठ लेखक श्याम कष्यप ने कहा कि संगठन पर अपनी राजनीतिक
जिम्मेदारियों का एहसास होना चाहिए जब तक संगठन का पार्टी के साथ संबन्ध रहा
आंदोलन अपनी भूमिका में ज्यादा कारगर साबित रहा। सम्मेलन में पिछले दिनों
लेखिका शीबा असलम फहमी पर हुए हमले की निंदा की गयी।
सम्मेलन मे मुख्य रुप से शामिल रहे दीनू कश्यप, प्रो0 काशीनाथ सिंह, राजेन्द्र
राजन, अली जावेद, साबिर रुदौलबी, डा0 गया सिंह, जय प्रकाश धूमकेतु, संजय
श्रीवास्तव, आनन्द शुक्ला, हरमंदिर पांण्डे, नरेश कुमार, सुभाष चंद्र कुशवाहा,
रवि शेखर, एकता सिंह, शाहनवाज आलम आदि शामिल रहे।


द्वारा-
डा0 संजय श्रीवास्तव
प्रान्तीय महासचिव प्रलेस
मो0- 09415893480

शुक्रवार, 7 अक्टूबर 2011

नूरजहाँ हो गयी है इत्र



शेखावत की चलंत दुकान

रोगी, जोगी, भोगी कोई नहीं बच सका इत्र की खुशबू से. हमेशा से सभी को इत्र मोहती रही. नवाबो , ज़मीदारों के हमाम में भी इत्र ने अपनी जगह बनायी,  तो गरीबों के घरों में विशेष मौको का एहसास भी इत्र ने कराया. किसी के लिए दवा बनी तो किसी के लिए दुआ. रीति- रिवाजों में भी इत्र का विशेष स्थान रहा. मुग़ल काल में नूरजहाँ की यह खोज आज  इतिहास बनने को तैयार है.आज के समय यूँ कहे की नूरजहाँ हो गयी है इत्र. 
२६ वर्षों से इत्र , सुरमा घर-घर तक पहुचाने वाले शेखावत बताते हैं की कभी इस धंधे ने इतना जोर पकड़ा था की किसी और धंधे में मन न लगा. मोतिहारी में जन्मे शेखावत इत्र की परिभाषा कुछ यूँ देते हैं - वह सुगंध जो अंतरात्मा तक पहुच जाए. वाकई बचपन में लौटे तो इत्र की कुछ समझ बन सकती है. जब मोहल्ले की किसी गली में कोई शेखावत  पहुचता. तो एक अजीब और आकर्षक महक हमे ही नहीं, बूढ़े , जवान सबको अपनी ओर खीच  लेती. सब उसे घेर लेते, अधिकांश लोग खरीदने के बहाने  फ्री में ही थोडा इत्र लगाकर भीड़ से कल्टी मार लेते थे. बाद में कोई बेला पर गुमान करता तो कोई गुलाब पर इतराता. शेखावत कहते हैं की वे अर्थशास्त्र के ग्यानी तो नहीं हैं लेकिन देशी अर्थशास्त्र उन्हें खूब मालूम है. अपने अनुभव का ज़िक्र करते कहते हैं की तब  महक का मतलब महक ही था. क़द्र होती थी, खुशबू के कद्रदान भी थे. आज तो महक के क्या-क्या मतलब हैं पता नहीं. शेखावत के मुताबिक़ पटना में आज घर- घर घूम कर इत्र सुरमा बेचने वाले ५०० से घट कर ५० बचे हैं. बिहार के बाहर नेपाल तक कभी उनकी इत्र के कद्रदान हुआ करते थे, आज वे कुछ फिक्स ग्राहक के अलावा विशेष मौकों पर ही इत्र बेचने निकलते हैं, बड़े अफ़सोस से कहते हैं मेरा पुराना धंधा है तो छोड़ नहीं सकता. ऐसे ही हालात रहे तो ज़रूर छूट जाएगा. बिहार में ही नहीं कई जगह कन्नोज के इत्र की खासी मांग है, इसके बाद मुंबई , डेल्ही, कोलकाता जैसी जगहों से भी इत्र उनके पास आता है. फिरदौश, खस, चन्दन, बेला, हिना, मुसम्बर हज़ारों वेरायटी कभी उनके बक्से में बंद रहती थी, आज कुछ खास ही बक्से में रहती हैं. शेखावत डॉक्टर को चुनौती देते हुए बोलते है की उनके सुरमे के अलावा सब दावा बेकार है, डॉक्टर का क्या है? खुद दारू पीते हैं हमे दारू पीने से मना करते हैं.  हमारा सुरमा आज भी आँखों को तरावट देता है. शेखावत ने अंत में कहा 
साहब कुछ छापियेगा नहीं. एगो धंधा है, उहू ख़त्म हो जाएगा तो क्या करेंगे ?  वैसे भी सब का विशवास अब इस पर नहीं रहा. कुछ तो कहते हैं की सुंघा कर बेहोश कर देगा. अब हम का करे साहब सलीके से सुगंध बेचना भी अपराध है, और बड़ी - बड़ी कंपनी कुछु पैक कर के कोई दुर्गन्ध बेच दे, उनका कुछ नहीं.         

गुरुवार, 6 अक्टूबर 2011

मौत को मात...और मौत से मात

जिंदगी तो वेवफा है एक दिन ठुकराएगी...मौत महबूबा है अपनी साथ लेकर जाएगी...वाकई में कितनी सच्चाई नजर आती है...इन पंक्तियों में...जिंदगी और मौत दोनों जीवन की अमिट सच्चाई है...यथार्थ सच है...मगर डर किसी को मौत से नहीं है...तो जिंदगी कोई जीना नहीं चाहता...तो किसी को कोई जीने नहीं देता...बड़ी विडंबना है...इस दुनिया की...खैर जिंदगी और मौत के पहलू में क्या उलझना....सवाल सही गलत का है...बुराई पर अच्छाई का पर्व मनाया जा रहा है...लेकिन बुराईयां है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही हैं...बुरहानपुर में मानवता को शर्मसार करने वाली घटना सामने आई ...बुरहानपुर के बोहरडा गांव में एक अज्ञात व्यक्ति ने अपनी एक दिन की बेटी को जिंदा जमीन में गाढ़ दिया...लेकिन जैसे ही खेत मालिक अपने खेत में पहुंचा बच्ची के रोने की दुहाई भरी आवाज ने उसे झकझोर कर रख दिया....और इसके बाद उस बंदे बच्ची को ले जाकर अस्पताल में भर्ती कराया....जहां उसका इलाज कराया जा रहा है....इसके बाद प्रशासन और मंत्री की बारी आई...तो दोनों अस्पताल बच्ची की हालत का जायजा लेने पहुंची... डॉक्टरों का कहना है कि बच्ची बिल्कुल स्वस्थ है...तो मंत्री अर्चना चिटनीस ने आगे आते हुए...बच्ची की देखरेख की जिम्मेदारी खुद पर ली...खैर बच्ची तो बचा ली गई...लेकिन सवाल समाज पर खड़ा होने लगा...और मुख्यमंत्री की मुहिम पर भी...इतना प्रचार प्रसार करने के बाद भी लोगों पर बेटी बचाओ अभियान का असर क्यों नहीं हो रहा है....क्यों अभी तक लोग बेटी को अभिशाप मानते हैं....क्यों बेटी के लिए एक कदम आगे आते हैं....खैर बुराई है...एक दिन में खत्म नहीं हो सकती...राम रावण का युद्ध भी एक दिन में खत्म नहीं हुआ....इसके लिए राम को 14 बर्ष का वनवास झेलना पड़ा....तो दूसरी तस्वीर इंदौर के राउ की जहां अपने परिजनों का पेट पालने के लिए पटाखा फैक्ट्री में काम करने वाले मजदूरों को अनायास ही मौत की सजा मिल गई...यानि दशहरे का दिन उनके लिए काल बनकर आया....और लील ली 7 जिंदगियां....कई घायल भी हुए...जिनका इलाज इंदौर के एमवाय अस्पताल में चल रहा है...मुआवजे की घोषणा भी सरकार की तरफ से कर दी गई...लेकिन उनका क्या जो इस दुनिया में नहीं रहे....प्रशासन की लापरवाही उजागर जरुर होती है....क्यों कि राउ के 6 घरों में विस्फोटक सामग्री भी बरामद हुई है....

जिंदगी और मौत की दो अलग अलग घटनाओं में एक ने दुधमुंही को मौत देनी चाही तो उसने मौत को ही मात दे दी....लेकिन दूसरी घटना में जिनकी परिजनों को जिनकी जरुरत थी....जो परिवार को पालते थे...वो दुनिया से चले गए...मतलब साफ है....जिसकी चाहत हम रखते हैं वो मिलता नहीं...और जो मिलता है...उससे हम संतुष्ट नहीं...दो घटनाएं तो यहीं बयां कर रही है...खैर जिंदगी चलती रहती है....लेकिन दिल के रावण को मारना होगा....तभी दशहरा पर्व सही मायने में मनाना सच साबित होगा....

-कृष्ण कुमार द्विवेदी

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

मुनुआ बोला पापा मंहगाई....

डाक-बँगला रोड- पटना , पर वर्ष २०११ में सजे दुर्गा पंडाल पर उमड़ी भीड़  
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जोर से बोलो जय माता दी. इस उदघोष के बाद मन्त्र-स्तुति सब समाप्त. लोगो का ध्यान शक्ति की भक्ति से टूट गया. मेले में लोग तितर-बितर भागने लगे. कभी मुनुआ, पापा से आगे निकलने की होड़ में रहता है, तो कभी अबोध मुनिया अपनी माँ के गोद में रंग-बिरंगे गुब्बारे को देखकर बस ललचा कर रह जाती है. पापा और मम्मी दोनों खुसफुसा रहे है, मै तो पहले ही कह रहा था, बहुत भीड़ होगी, मुनिया की माई गुस्से में, मुनिया को दाए कंधे से बाए कंधे पर लादते हुए- एक दिन तो मिलता है, कभी घुमाते है, नन्हे बच्चे है कम से कम यह घूम लिए, ई नहीं सोच रहे हैं. मुनुआ के पापा - सही कह रही हो बस घुमो, एक-एक रुपया खर्च करने में जान जा रही है. इतनी महगाई उफ़....इतने में उन्हें कुछ एहसास हुआ, जैसे उनकी पैंट कोई खीच रहा हो, नीचे नज़र दौड़ाई, ज़बरदस्त शोर के बीच नीचे से एक मासूम आवाज़ - एक रुपया दे दे... साहब! चल हट यहाँ से, हम खुद ही गरीब हैं, तुम्हे का देंगे, छोड़ता है पैंट की... एक रपट दूं इतना कहते ही गुस्से में जड़ दिया. मासूम आवाज़ धीमी हुई,  मंद पड़ी और गायब हो गयी. कुछ देर शांति रही. आगे बढ़ते हुए  मुनुआ की माई - मारने की क्या ज़रुरत थी.ऐसे नहीं किया जाता है. त्यौहार है. और आप.... हाँ तुम्हे तो जैसे दीन- दुनिया की पूरी समझ है. ई सब धंधा करता है. पैदा होते ही इन्हें छोड़ दिया जाता है, ट्रेंड है सब के सब. मारे तो कुछ हुआ, भाग गया दुम दबाकर. अब मुनिया रोने लगी. मुद्दा भी शोर में गुल हो गया. दम्पति ठहरी, ये जी! गुब्बारा कैसे दिए? जी पांच रुपया. दंपत्ति - सही पैसा लगाओ, एकदम सही पैसा है. पांच से कम न होगा. दंपत्ति - छोटी बच्ची है जी. कुछ कम कर लो. कितना गो लीजियेगा? अरे एगो लेंगे और कितना? पैसा कम न होगा बाबू जी. एकदम सही पैसा बता रहे हैं. मुनिया की माई. चलो जी नहीं लेंगे. मुनिया रोये जा रही है, कभी साड़ी संभालती तो कभी मुनिया.पिता पिघल गए, और फिर महंगाई की दुहाई.. पर्स से पांच का एक सिक्का, गुब्बारा हाथ में लिया मुनिया खुश  हुई, दंपत्ति आगे बढ़ गयी. पिता जी मुनुआ को निहारने लगे, कितना अच्छा है बेचारा कुछ नहीं मांगता, कुछ दूर चले की मुनुआ रुक गया. मम्मी चोवमिन..पिता बेटा यह सब मेले में नहीं खाया जाता. पेट खराब हो जाएगा. जिद के आगे माँ बाप की एक न चली. अब अकेले कैसे खाते सभी ने स्वास्थय की चिंता छोड़ चोवमिन का मज़ा लिया. हाथ धोते हुए मुनुआ के पिता दुकानदार से कितना हुआ? दुकानदार - तीन प्लेट ६० रुपया. दम्पति एक सुर में बोली - हाफ प्लेट है, दुकानदार- हाफ ही का बता रहे हैं. मुनुआ के पिता- साला इससे अच्छा घर पर ही बना लिए होते. दंपत्ति आगे बढ़ चली- हर तरह की तृप्ति फिलहाल हो चुकी थी. मुनुआ-  पापा हेलीकाप्टर....चुप चाप चल रहे हो की ........ मुनुआ चुप हो गया. मुनिया गुब्बारा पकडे- पकडे माँ के गोद में सो चुकी थी. भीड़ पीछे छूट चुकी थी . सब थक चुके थे. ये ऑटो वाले शेखपुरा चलोगे. हाँ कितनी सवारी, तीन लोग है. एक बच्ची है. कितना लोगे ४० रुपया लगेगा. इनकम टैक्स से  शेखपुरा का इतना पैसा, साहब मंहगाई है. देवी जी भी कुछ न कर रही है. चालिए, सभी मजबूरी में महंगाई को कोसते हुए बैठे , मुनुआ फिर बोला पापा मंहगाई.... चुप एकदम चुप चाप..न पढना, है न लिखना, स्कूल तो वैसे ही लूट रहा है, तीन दिन से मास्टर भी टूयुसन पढ़ाने नहीं आ रहे. पैसा ससुरा को पूरा चाहिए, मुनुआ की माई बोली - आप भी लड़का को हमेशा डांटते रहते है. पिता फिर गरज पड़े- अच्छा चुप रहती हो की नहीं, आमदनी अठन्नी है, साला खर्च रूपया . बहस चलती रही. मै बीच रास्ते उतर गया, वो चले गए, टैक्सी के पीछे लिखा था ओके- टाटा.        

जिंदगी,जंग और लाचारी....


जिंदगी,जंग और लाचारी....कैसा मेल है तीनों का...जिंदगी जीना है...तो जंग भी लड़नी पड़ेगी....इस जंग में जीते तो सिकंदर बनोगे....हारे तो लाचारी छा जाएगी...गजब का संयोग है...जिंदगी से लड़ने का माद्दा हर किसी में नहीं होता...ऐसे में अगर जीत से पहले ही मौत आ जाए...तो हालत कैसी होती है...जरा ये भी देख लीजिए...उससे पहले बेबसी की जरा ये तस्वीर देखिए...सिसक सिसक कर रो रही इस महिला पर मुफलिसी की ऐसी मार पड़ी कि सात जन्म का साथ निभाने वाला पति भी इसका साथ छोड़ गया...इतना ही नहीं गरीबी और मजबूरी में जब कोई आगे नहीं आया तो इस महिला को वो करना पड़ा जिसकी इजाजत हिंदू धर्म नहीं देता... गरीबी की ये दास्तां जशपुर के कोतबा नगर पंचायत की है..जहां मृतक हेम राम मजदूरी कर अपने परिवार की परविस करता था...लेकिन अचनाक हेम राम बीमार पड़ गया...और पैसे के अभाव में इलाज न करा पाने की वजह से उसे इस दुनिया से रुखसत होना पड़ा...लेकिन मरने के बाद भी लाचारी ने उसका पीछा नहीं छोड़ा...और लड़की के अभाव में बिना चिता के ही उसका अंतिम संस्कार करना पड़ा...जानकी ने कभी नहीं सोचा था कि उसकी जिंदगी में ऐसा भी दौर आएगा...पति की मौत के बाद जानकी ने चिता की लकड़ी के लिए नगर पंचायत कोतबा के सीएमओ से भी गुहार लगाई...लेकिन यहां उसकी नहीं सुनी गई...जानकी वन विभाग के वन रक्षक के पास भी गई...लेकिन यहां भी उसे निराशा मिली...थक हार कर जानकी ने स्थानीय वार्ड पार्षदों से भी फरियाद की..लेकिन क्या मजाल कोई मदद को आगे आ जाए...कुछ ऐसा ही मामला बुंदेलखंड क्षेत्र के छतरपुर का भी है....जहां एक गरीब को चिता के लिए लकड़ियां भी नसीब नहीं हुई...मानवीयता को शर्मसार करने वाली ये घटना छतरपुर के सिंचाई कॉलोनी की है..जहां रहने वाले निरपत यादव और उसकी पत्नी की पूरी जिंदगी गरीबी के बोझ तले बीती और मरने के बाद इस बदनसीब को दो गज कफन और लकड़ी भी नसीब नहीं हुई...होती भी कैसे,जिस घर में खाने के लिए अनाज का एक दाना भी न हो भला उसकी विधवा कफन औऱ लकड़ी का इस्तेमाल कहां से करती।फिर भी घर के खिड़की दरवाजे और साइकिल के टायरों से इस वृद्द महिला ने अपने पति का अंतिम संस्कार किया।
गरीबों के हित में सरकार कई योजनाएं चलाने का दावा करती है...इन गरीबों के ऐसे अंतिम संस्कार के बाद सरकार की इन योजनाओं पर भी सवालिया निशान लगता है....

सोमवार, 3 अक्टूबर 2011

पुरानी दुश्मनी का बदला


उत्तर प्रदेश में पार्टी से नेताओ का निकाले जाने का सिलसिला लगातार बना हुआ है..... आये दिन कोई न कोई नेता बीएसपी पार्टी से निलंबित किया जा रहा है..... कोई हत्या के प्रकरण में शामिल है, तो कोई विवादों कों लेकर अपनी लोकप्रियता बटौर रहा है.... लेकिन इस बार मामला है उ. प्र. के मेरठ से है . जहा बसपा से विधायक हाजी याकूब कुरैशी कों पार्टी से निष्कासित कर दिया गया, इस विधायक का कसूर इतना है कि उसने घोसीपुर में अस्थाई कमेले की नीव रखने के मौके पर सिखों के ऊपर बेहूदी टिप्पणी की ...... "याकूब ने सिखों की तुलना कमेले में काटने वाली भेसों से की" . इस भाषण से सिख समुदाय में इस समय ज़बरदस्त आक्रोश बना हुआ है ... याकूब इससे पहले भी विवादों के घेरे में कई बार आ चुके है.. चाहे डेनमार्क के कार्टूनिस्ट का सर कलम करने की बात हो, या फिर सिपाही कों थप्पड़ मारने का प्रकरण हो, लेकिन इस बार याकूब के लिए यह टिप्पणी भारी पड़ गई.... इसी के चलते सीएम् मायावती ने हाजी कों पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया ..... यह जानकारी प्रदेश अध्यक्ष स्वामी प्रसद मोर्य की ओर दी गई, ओर कहा की याकूब पार्टी के किसी भी कार्यक्रम में अब भाग नहीं लेंगे...

वैसे भी पैसे वालो नेताओ के लिए ये चीजे कोई मायने नहीं रखती, ये चिकनी मिटटी के घड़े की तरह होते है, जब चाहे कही भी फिसल जाते है ........ . पैसे के बल पर किसी भी पार्टी से जाकर जुड़ा जाते है.... लेकिन अब सवाल ये खड़ा होता है की जिस जनता के सहारे ये कुर्सी पर बैठते है... कही न कही जनता कों भी अपने चुने हुए प्रतिनिधि से कुछ न कुछ उम्मीद तो रहती ही है कि ये हमारे क्षेत्रो में अच्छा विकास हो .. लेकिन ऐसा हो नहीं पाता ... वो इसलिए जिन मुद्दों कों लेकर प्रत्याशी मैदान में उतरते है ..... यह केवल चुनाव तक ही सीमित होते है... जीतने के बाद सब गोल माल हो जाते है ..... इसमें कही न कही हमारे मतदाताओ की भी सबसे बड़ी कमी ये होती है कि उसे वोट डालने से पहले ये देख लेना चाहिए कि प्रत्याशी का कोई अपना व्यक्तित्व है भी की नहीं, क्या ऐसे ही जब मुह उठाये वोट देने चले गए ...... लेकिन हमारा मतदाता जानते हुए भी न जाने क्यों अनजान बन जाता है..... खासकर जिस दिन मतदान होता है........... ओर उसी का खामियाजा फिर पांच साल तक भुगतना पड़ता है .....

कुरैशी कों हाल में मेरठ शहर से दक्षिणी सीट पर प्रत्याशी बनाया था ... याकूब मुस्लिम समुदाय की कसाई बिरादरी से ताल्लुक रखते है, मूलरूप से ये बरादरी भेंसो का व्यापार करती है .. कुरैशी भी भेंसो के मीट के बहुत बड़े व्यापारी है. जिनका मीट देश- विदेशो में सप्लाई होता है... अब आप ही अंदाज़ा लगा सकते है कितना बड़ी हेसियत है इस इन्सान की .....शहर के बीचो - बीच कुरैशी के कई कमेले है जिनको लेकर हमेशा से विवाद होता रहता है... इस कमेले से निकलने वाला गन्दा पानी, बुरी बदबू वातावरण कों तो दूषित करता ही है.. और साथ ही साथ यहा से गुजरने वाले हर इन्सान का निकलना भी मुहाल हो जाता है .... कई बार मेरा भी इसी इलाके से गुजरना हुआ, लेकिन मुझसे भी नहीं रहा गया.. इस कमेले से सटी हुई शास्त्रीनगर कालोनी भी इसकी चपेट में है...स्थानीय लोगो दुवारा की गई शिकायत का असर शासन प्रशासन पर कोई मायने नहीं रखती क्योकि सारा मामला केवल राजनीति तक ही सिमट कर रह जाता है ....मामले की सुलह बीच में ही कर ली जाती है, अब आप ही सोचिए की पैसे ओर राजनितिक पावर के दम पर कैसे हर चीज़ घुटने टेक देती है, तो फिर कहा से आम जनता की समस्या का समाधान हो पायेगा ? बड़ा ही मुश्किल सवाल है जो मेरे जेहन में उठता रहता है, तो क्या ऐसे नेताओ से हम विकास की उम्मीदकर सकते है ?

वर्ष २००४ के लोकसभा चुनाव में मेरठ लोकसभा सीट से कुरैशी समुदाय के शाहिद अख़लाक़ कों बसपा से सांसद बनाया गया. जनता कों इनसे भी बहुत- सी उम्मीदे थी, लेकिन इनकी उम्मीदे भी जनता के लिए नागवार गुजरी, ज़रा याद कीजिए उस दौर कों जब उ० प्र० में वर्ष २००४ लोकसभा चुनाव के बाद नगर निकाय चुनाव हुए थे, उस समय सभी दलों ने अपने - अपने प्रत्याशियों कों चुनाव चिन्ह दिया था, लेकिन बसपा ने ऐसा नहीं किया, उसमें शाहिद अखलाख की पत्नि भी मेयर चुनाव के लिए मैदान में थी, बिना चुनाव चिन्ह के लिए सभी प्रत्याशियों कों काफी मशक्कत करनी पड़ी थी, जिसका फायदा भाजपा कों मिला ओर मेरठ से भाजपा की मेयर मुधू गुर्जर चुन ली गई... बस तब से ही शाहिद ने बसपा से कन्नी कटनी शुरू कर दी थी, ओर अपनी नई पार्टी के साथ सपा में जा शामिल हुए, काफी लम्बे समय से कुरैशी नेता मेरठ की राजनीति में अपनी साख बनाए हुए है, जनसंख्या में मामले में इनकी तादात न के बराबर है, मात्र पैसे के बल पर ये लोग राजनीति में है, न ही ज्यादा शिक्षित है ओर न ही राजनीति के मायने का पता, तो ऐसे नेताओ से क्या उम्मीद की जा सकती है ?

वर्ष २००७ की विधानसभा चुनाव में कभी बसपा के हमदम रहे याकूब ने अपनी एक नई पार्टी यूडीएफ के बदौलत मेरठ शहर से चुनाव लड़ा ओर भारी मतों से जीत भी गए , लेकिन उनके समर्थको ने जीत की ख़ुशी का इज़हार इस तरह से किया कि मानो दिवाली का त्यौहार मनाया जा रहा हो , खुले आम सडको पर हथियार लहराकर असमान में गोलिया दागी जा रही थी, कुछ समय के लिए तो पूरा शहर सहम - सा गया कि ये हो क्या रहा है ? यूडीएफ से विधायक बनने के बाद याकूब बसपा में ही शामिल हो गए , क्योंकि पार्टी पूर्ण बहुमत से जो जीती थी, सोचा था की पार्टी में कुछ तो कद बढेगा लेकिन मायावती ने याकूब कों पार्टी में कोई अहमियत नहीं दी, साल २००२ में जब बसपा की गठबंधन की सरकार बनी थी,तो कुरैशी खरखौदा विधानसभा सीट से जीते ,२००४ में जब बसपा सरकार बीच में ही किन्ही कारणों से गिरा दी गई थी, तो याकूब बसपा के २३ विधायको कों तोड़कर सपा पार्टी में जा शामिल हुए थे, मोटी रकम के बल पर विधायको की खरीद फरोख्त याकूब ने ही की थी, बस तभी से याकूब मायावती की आँखों में खटके हुए थे, आखिर कभी न कभी तो पुरानी दुश्मनी का बदला तो लेना था तो इससे अच्छा मौका ओर हो भी क्या सकता था,

२००४ में जब सपा की सरकार आई, तो हाजी याकूब कों अल्पसंख्यक राज्य मंत्री का भी दर्जा दिया गया, लेकिन उन्हें यह भी पार्टी रास नहीं आई ओर अंत में इससे भी रुखसत कर दिए गए, सवाल अब यह है कि आखिर अब वे किस पार्टी की ओर रुख तय करेंगे ? मामला बड़ा ही दिलचश्प है, याकूब ने अपना राजनीतिक सफ़र, अपने ताऊ कांग्रेसी नेता हकीमुद्दीन से प्रेरित होकर की, जो एक प्रभावशाली नेता होने के नाते शहर से कांग्रेस अध्यक्ष भी थे, तो क्या याकूब फिर से पुराने खेमे में जायेंगे या अपनी नवगठित पार्टी यूडीएफ कों पुनर्जीवित करेंगे? वैसे न्योता मिलने पर याकूब आरएलडी से भी हाथ मिला सकते है, मौका परस्ती लोग अच्छा मौका कभी नहीं गवाते है

अगला याकूब कौन होगा ? इसका डर हर किसी कों सता रहा है, कभी समाजवादी पार्टी के सिपसलाहकार रहे अमित अग्रवाल कों मायावती ने मेरठ केंट से प्रत्याशी घोषित किया था,ओर अंत में उन्हें भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया, हस्तिनापुएर सीट से विधायक योगेश वर्मा का भी इस बार टिकिट काट दिया, उनकी जगह अब प्रशांत गौतम कों इस बार हस्तिनापुर सीट से नया प्रत्याशी बनाया है, सरधना विधानसभा सीट से चंद्र्बीर सिंह पर भी तलवार लटकती दिख रही है, क्योंकि उनके भाई पर हत्या का आरोप जो लगा है , किठौर विधानसभा सीट से नये प्रत्याशी ओर खरखौदा विधानसभा सीट से विधायक लखीराम नागर पर हालाकि कोई आरोप नहीं है, इसीलिए उनकी जगह अभी सुरक्षित है, सिवालखास के विधायक विनोद हरित कों अभी कही से प्रत्याशी नहीं बनाया है, कुल मिलाकर ये कहा जा सकता की है , कि माया का अगला निशाना कौन होगा ?