वो वीरांगना झलकारीबाई ही थी, जिसके शौर्य को लक्ष्मी बाई के रूप में पेश किया गया,,,
बचपन से ही बहादुर झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई का प्रतिरूप थीं। यही कारण था कि उन्होंने रानी के वेश में अधिकांश लड़ाईयां लड़ी। डलहौजी ने जब रानी के उत्तराधिकारी दामोदर राव को अवैध घोषित किया तो झाँसी रियासत आमने-सामने भिड़ने के लिये तैयार थी। समय था 1857 ई.।
गद्दार सेनानायक दूल्हेराव ने चारों ओर से घिरी झाँसी के एक गेट को खोलकर अंग्रेजी फौज को मौका दे दिया। ब्रितानी सेना से रानी के वेष में झलकारीबाई और फौज ने डटकर सामना किया, लेकिन लड़ते-लड़ते 4 अप्रैल 1857 को वह शहीद हो गयीं। हालांकि इस दौरान लक्ष्मीबाई को किले से भागने में सफलता मिली। अंग्रेजों को झांसे में रखने की यही रणनीति भी थी। झांसी के लिये मर-मिटने वाली वीरांगना के साथ इतिहासकारों ने खुला भेदभाव किया। उनके शौर्य को न के बराबर उल्लेख किया। कारण, था निचली जाति में जन्म लेना।
22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास स्तिथ भोजला गांव के कोली/कोरी परिवार में जन्मी झलकारीबाई की मां जमुनादेवी और पिता सदोबर सिंह थे। अल्पायु में मां की मौत के बाद पिता ने पुत्र की तरह पाला। उनको घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवारबाजी का शौक था। घरेलु काम, पशुओं की देखरेख और जंगल से लकड़ी लाना यह दिनचर्या रही। एक बार जंगल में तेंदुए से भिड़ गयीं और अपनी कुल्हाड़ी से मार गिराया। गांव में जब डकैतों ने हमला किया तो उन्होंने अपने पराक्रम से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इससे गांव के लोग बड़े खुश हुये। गौरी पूजा के अवसर पर पहली बार झाँसी के किले में जाने का अवसर मिला। अपनी जैसी परछाई देखकर रानी लक्ष्मी बाई दंग रह गयीं। बहादुरी के किस्से सुनते ही उन्होंने तुरंत दुर्गा सेना/दल में शामिल करने का आदेश दिया। कुछ ही समय में वह दुर्गा सेना की प्रमुख बन गयीं। बंदूक, तोप और तलवारबाजी में उनको और प्रशिक्षित किया गया। अब वो पारंगत हो चुकीं थीं। झलकारीबाई का विवाह झाँसी की सेना में बहादुरी के लिये प्रसिद्ध पूरन से हुआ।
आज शौर्य की प्रतीक वीरांगना झलकारीबाई की 191वीं जयंती है। उनको नमन।
नोट:-इतिहासकारों, कवियों, लेखकों को राजा-महाराजाओं की गाथा को बड़ा-चढ़ाकर दिखाने में ही ईनाम मिलता था। वह पदवी, सोना, चांदी, हीरा, अशर्फियाँ, रुपये, और जमीन के टुकड़े के रूप में होता था।