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फोटो गूगल के सौजन्य से. |
यह पहला मौका था जब कोइ संघ प्रमुख खुद धरने में शामिल हुआ हो। हलांकि धरना प्रदर्शन न तो संघ की संस्कृति रही है न ही स्वभाव। तो फिर क्यों खुद संघ प्रमुख धरने पर बैठ गए। इतना ही नहीं, शायद यह पहला मौका होगा जब संघ को अपना अस्तित्व साबित करने के लिए सड़कों पर उतरना पड़ा हो। उधर राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के पूर्व प्रमुख सुदर्शन ने तो सोनिया गांधी को अवैध संतान तक कह डाला। साथ ही राजीव गांधी और इंदिरा गांधी की हत्या में भी उनके हाथ होने की बात कही। और तो और सुदर्शन साहब ने तो सोनिया गांधी पर अमेरिकी खुफिया एजेंसी CIA की जासूस होने का इल्जाम भी मढ़ दिया।
आखिर क्या वजह है कि संघ की ओर से ऎसे बेसिर पैर वाले बयान आ रहे हैं। आखिर क्यों उन्हें धरना प्रदर्शन पर बाध्य होना पड़ा। इसका उत्तर एक शब्द में दिया जा सकता है- "बौखलाहट"।
संघ की यह बौखलाहट स्वभाविक भी है। पहले तो गृह मंत्री ने "भगवा" आतंकवाद शब्द का प्रयोग किया। फिर राहुल गांधी ने संघ की तुलना सिमी से की दी। और अब राजस्थान ATS द्वारा किए जा रहे जांच में नए-नए खुलासे सामने आ रहे हैं। अजमेर, हैदराबाद, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस धमाकों के तार संघ से जुड़ रहे हैं। अभी हाल ही में संघ के पदाधिकारी इंद्रेश का नाम अजमेर धमाकों से जुड़ा। ऎसे में संघ की बौखलाहट स्वभाविक है। "सच्चे देशभक्त" की छवि दांव पर लगती दिख रही है। हलांकि संघ आतंकी गतिविधियों में अपनी संलिप्तता को कांग्रेस की साजिश करार दे रहा है।
अब मेरी संघ से कोइ जाती दुश्मनी तो है नहीं। मैं मान लेता हूं कि संघ जो कह रहा है वो शत-प्रतिशत सही है। यानी कांग्रेस संघ को बदनाम करने के लिए जांच एजेंसि का दुरुपयोग कर रही है। मुझे यह मानने में भी कोइ आपत्ति नहीं कि संघ परिवार सबसे बड़े देशभक्त और भारतीय सभ्यता एंव संस्कृति के रक्षक हैं। और एक देशभक्त कभी आतंकी गतिविधियों में लिप्त नहीं हो सकता! उन्माद से उनका दूर-दूर तक कोइ सम्बंध नहीं हो सकता! इस तथ्य के मूल्यांकन के लिए हमें इतिहास के पन्ने पलटने होंगें।
1920 में पूरा देश गांधी जी के नेतृत्व में आजादी की लड़ाई लड़ रहा था। इस दौरान हिंदू-मुस्लिम संगठित हो गए थे। अंग्रेजी हूकूमत को यह एहसास होने लगा था कि यदि भारत पर अधिक समय तक शासन करना है तो हिंदू-मुस्लम एकता को विघटित करना होगा। इसी दौरान RSS का गठन हुआ। कहा तो यहां तक जाता है कि RSS का गठन अंग्रेजों ने हिंदू-मुस्लिम के बीच फूट डालने के उद्देश्य से कराया था। यह बहुत हद तक सच भी लगता है जब हम पाते हैं कि 1920 से 1947 तक कोई भी RSS का नेता जेल नहीं गया। 1920 के बाद के राजनीतिक परिदृश्य पर गौर करने पर हम पाते हैं कि अंग्रेजों ने हर तरह से हिंदू-मुस्लिम के बीच मतभेद कायम करने की योजना बनाई। मुस्लिम लीग को दोबारा गांधी से अलग करना इसी योजना का प्रतिफल था। आरएसएस का गठन भी करवाया गया और उन्हें यह जिम्मेदारी भी सौंपी गई कि देश के हिंदू को गांधी से दूर ले जाएं। भीष्म साहनी की पुस्तक "तमस" से पता चलता है कि किस तरह 1947 में बंटवारे से पहले आरएसएस वालों ने एक गरीब आदमी को पैसे देकर मस्जिद में सूर फुंकवाए। साम्प्रदायिकता फैलाने वाले इसी तरह से अपना काम करते हैं। यह बात और है कि बदलते वक्त के साथ उन्होंने नए-नए तरीके ईजाद कर लिए हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के साढ़े पांच महीने के अंदर महात्मा गांधी की हत्या कर दी गई। यह हत्या एक विचारधारा द्वारा की गई थी। वर्तमान में संघ उसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करता है।
ऐसे एतिहासिक परिपेक्ष्य में यह कहना कितना उचित है कि संघ वाले उन्माद नहीं फैला सकते? वह धमाके नहीं कर सकते? और वह एक सच्चे देशभक्त हैं? जाहिर है संघ की हिमायत की उम्मीद उसी से की जा सकती है जो खुद संघ परिवार से हैं-----एक हिंदूस्तानी से कदापि नहीं। दशहरे के दिन संघ वाले "शस्त्र" पूजा करते हैं जो इस बात का प्रमाण है कि अपनी नीतियों को पूरा करने के लिए हिंसा का सहारा लिया जा सकता है। संघ की नीतियों से हम सभी वाकिफ है। उनकी नीति हिंदूत्व पर आकर समाप्त होती है।