any content and photo without permission do not copy. moderator

Protected by Copyscape Original Content Checker

रविवार, 23 जनवरी 2022

जब राजनीति मिशन थी समाजसेवा की,,,तब स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार के दो बार मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर जैसे राजनेता उभरे।

जब राजनीति मिशन थी समाजसेवा की,,,तब

स्वतंत्रता सेनानी, शिक्षक, राजनीतिज्ञ तथा बिहार के दो बार मुख्यमंत्री, उप मुख्यमंत्री रहे कर्पूरी ठाकुर जैसे राजनेता उभरे।


,,,कर्पूरी ठाकुर बनना आसान नहीं।


जन्मदिवस पर उनको नमन।


कर्पूरी ठाकुर बिहार में उपमुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे। 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे। राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब वो मरे तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था। ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए।


जब करोड़ो रुपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता। उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं। उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा। उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए। उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, “जाइए, उस्तरा आदि ख़रीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए।” कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को पत्र लिखना नहीं भूले। इस पत्र में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, “पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना। कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना। मेरी बदनामी होगी।” रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का लाभ भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया। उत्तर प्रदेश के कद्दावर नेता हेमवती नंदन बहुगुणा ने अपने संस्मरण में लिखा, “कर्पूरी ठाकुर की आर्थिक तंगी को देखते हुए देवीलाल ने पटना में अपने एक हरियाणवी मित्र से कहा था- कर्पूरीजी कभी आपसे पांच-दस हज़ार रुपये मांगें तो आप उन्हें दे देना, वह मेरे ऊपर आपका कर्ज रहेगा। बाद में देवीलाल ने अपने मित्र से कई बार पूछा- भई कर्पूरीजी ने कुछ मांगा। हर बार मित्र का जवाब होता- नहीं साहब, वे तो कुछ मांगते ही नहीं। कर्पूरी जी के मुख्यमंत्री रहते हुये ही उनके क्षेत्र के कुछ सामंती यादव जमींदारों ने उनके पिता को सेवा के लिये बुलाया। जब वे बीमार होने के नाते नहीं पहुंच सके तो जमींदार ने अपने लठैतों से मारपीट कर लाने का आदेश दिया। जिसकी सूचना किसी प्रकार जिला प्रशाशन को हो गयी तो तुरन्त जिला प्रशाशन कर्पूरी जी के घर पहुंच गया और उधर लठैत पहुंचे ही थे। लठैतो को बंदी बना लिया गया किन्तु कर्पूरी ठाकुर जी ने सभी लठैतों को जिला प्रशाशन से बिना शर्त छोडने का आग्रह किया तो अधिकारीगणो ने कहा कि इन लोगों ने मुख्यमंत्री के पिता को प्रताडित करने का कार्य किया इन्हे हम किसी शर्त पर नही छोड सकते थे। कर्पूरी ठाकुर जी ने कहा " इस प्रकार के पता नही कितने असहाय लाचार एवं शोषित लोग प्रतिदिन लाठियां खाकर दम तोडते है काम करते है कहां तक, किस किस को बचाओगे। क्या सभी मुख्यमंत्री के मां बाप है। इनको इसलिये दंडित किया जा रहा है कि इन्होने मुख्यमंत्री के पिता को उत्पीड़ित किया है, सामान्य जनता को कौन बचायेगा। जाऔ प्रदेश के कोने कोने मे शोषण उत्पीड़न के खिलाफ अभियान चलाओ और एक भी परिवार सामंतों के जुल्मो सितम का शिकार न होने पाये" लठैतो को कर्पूरी जी ने छुडवा दिया। इस प्रकार वे पक्षपात एवं मानवता का मसीहा कहा जाना अतिश्योक्ति नहीं है। उन्होंने कभी किसी से बैर भाव नहीं पाला. वह जो कर रहे हैं ,न्याय के लिए कर रहे थे, वह सच्चे समाजवादी थे. उनके मुख्यमंत्री रहते पुलिस थाने में एक सफाई मजदूर ठकैता डोम की पिटाई से मौत हो गई. कर्पूरी ठाकुर ने खुद पूरे मामले की तहकीकात की. ठकैता डोम को उन्होंने अपना बेटा कहा. उसे स्वयं मुखाग्नि दी. ऐसा ही उन्होंने भोजपुर के पियनिया में किया जब एक गरीब की दो बेटियों रामवती और कुमुद के साथ बड़े लोगों ने बलात्कार किया. ऐसे मामलों में कभी-कभार पुलिस बाद में जाती थी, कर्पूरी जी पहले जाते थे. गरीबों से उन्होंने खुद को आत्मसात कर लिया था. सादगी और ईमानदारी का जो आदर्श उन्होंने रखा ,वह किंवदंती बन चुकी है। अस्सी के दशक की बात है. बिहार विधान सभा की बैठक चल रही थी. कर्पूरी ठाकुर विधान सभा में प्रतिपक्ष के नेता थे. उन्होंने एक नोट भिजवा कर अपने ही दल के एक विधायक से थोड़ी देर के लिए उनकी जीप मांगी. उन्हें लंच के लिए आवास जाना था। उस विधायक ने उसी नोट पर लिख दिया, ‘मेरी जीप में तेल नहीं है. कर्पूरी जी दो बार मुख्यमंत्री रहे. कार क्यों नहीं खरीदते?’ यह संयोग नहीं था कि संपत्ति के प्रति अगाध प्रेम के चलते वह विधायक बाद के वर्षों में अनेक कानूनी परेशानियों में पड़े, पर कर्पूरी ठाकुर का जीवन बेदाग रहा। एक बार उप मुख्यमंत्री और दो बार मुख्यमंत्री रहने के बावजूद कर्पूरी ठाकुर रिक्शे से ही चलते थे. क्योंकि उनकी जायज आय कार खरीदने और उसका खर्च वहन करने की अनुमति नहीं देती। कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद हेमवंती नंदन बहुगुणा उनके गांव गए थे. बहुगुणा जी कर्पूरी ठाकुर की पुश्तैनी झोपड़ी देख कर रो पड़े थे। स्वतंत्रता सेनानी कर्पूरी ठाकुर 1952 से लगातार विधायक रहे, पर अपने लिए उन्होंने कहीं एक मकान तक नहीं बनवाया। सत्तर के दशक में पटना में विधायकों और पूर्व विधायकों के निजी आवास के लिए सरकार सस्ती दर पर जमीन दे रही थी. खुद कर्पूरी ठाकुर के दल के कुछ विधायकों ने कर्पूरी ठाकुर से कहा कि आप भी अपने आवास के लिए जमीन ले लीजिए। कर्पूरी ठाकुर ने साफ मना कर दिया. तब के एक विधायक ने उनसे यह भी कहा था कि जमीन ले लीजिए.अन्यथा आप नहीं रहिएगा तो आपका बाल-बच्चा कहां रहेगा? कर्पूरी ठाकुर ने कहा कि अपने गांव में रहेगा। कर्पूरी ठाकुर के दल के कुछ नेता अपने यहां की शादियों में करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं.पर जब कर्पूरी ठाकुर को अपनी बेटी की शादी करनी हुई तो उन्होंने क्या किया था? उन्होंने इस मामले में भी आदर्श उपस्थित किया। 1970-71 में कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री थे. रांची के एक गांव में उन्हें वर देखने जाना था. तब तक बिहार का विभाजन नहीं हुआ था. कर्पूरी ठाकुर सरकारी गाड़ी से नहीं जाकर वहां टैक्सी से गये थे. शादी समस्तीपुर जिला स्थित उनके पुश्तैनी गांव पितौंजिया में हुई. कर्पूरी ठाकुर चाहते थे कि शादी देवघर मंदिर में हो, पर उनकी पत्नी की जिद पर गांव में शादी हुई. कर्पूरी ठाकुर ने अपने मंत्रिमंडल के किसी सदस्य को भी उस शादी में आमंत्रित नहीं किया था. यहां तक कि उन्होंने संबंधित अफसर को यह निर्देश दे दिया था कि बिहार सरकार का कोई भी विमान मेरी यानी मुख्य मंत्री की अनुमति के बिना उस दिन दरभंगा या सहरसा हवाई अड्डे पर नहीं उतरेगा. पितौंजिया के पास के हवाई अड्डे वहीं थे.आज के कुछ तथाकथित समाजवादी नेता तो शादी को भी ‘सम्मेलन’ बना देते हैं. भ्रष्ट अफसर और व्यापारीगण सत्ताधारी नेताओं के यहां की शादियों के अवसरों पर करोड़ों का खर्च जुटाते हैं. कर्पूरी ठाकुर के जमाने में भी थोड़ा बहुत यह सब होता था, पर कर्पूरी ठाकुर तो अपवाद थे। हालांकि उनकी साधनहीनता भी उन्हें दो बार मुख्यमंत्री बनने से रोक भी नहीं सकी. 1977 में जेपी आवास पर जयप्रकाश नारायण का जन्म दिन मनाया जा रहा था। पटना के कदम कुआं स्थित चरखा समिति भवन में, जहां जेपी रहते थे,देश भर से जनता पार्टी के बड़े नेता जुटे हुए थे. उन नेताओं में चंद्रशेखर, नानाजी देशमुख शामिल थे. मुख्यमंत्री पद पर रहने बावजूद फटा कुर्ता, टूटी चप्पल और बिखरे बाल कर्पूरी ठाकुर की पहचान थे. उनकी दशा देखकर एक नेता ने टिप्पणी की, ‘किसी मुख्यमंत्री के ठीक ढंग से गुजारे के लिए कितना वेतन मिलना चाहिए?’ सब निहितार्थ समझ गए. हंसे. फिर चंद्रशेखर अपनी सीट से उठे. उन्होंने अपने लंबे कुर्ते को अपने दोनों हाथों से पकड़ कर सामने की ओर फैलाया. वह बारी-बारी से वहां बैठे नेताओं के पास जाकर कहने लगे कि आप कर्पूरी जी के कुर्ता फंड में दान कीजिए. तुरंत कुछ सौ रुपए एकत्र हो गए. उसे समेट कर चंद्रशेखर जी ने कर्पूरी जी को थमाया और कहा कि इससे अपना कुर्ता-धोती ही खरीदिए. कोई दूसरा काम मत कीजिएगा. चेहरे पर बिना कोई भाव लाए कर्पूरी ठाकुर ने कहा, ‘इसे मैं मुख्यमंत्री राहत कोष में जमा करा दूंगा'। यानी तब समाजवादी आंदोलन के कर्पूरी ठाकुर को उनकी सादगी और ईमानदारी के लिए जाना जाता था, पर आज के कुछ समाजवादी नेताओं को? कम कहना और अधिक समझना।

कर्पूरी जी का वाणी पर कठोर नियंत्रण था। वे भाषा के कुशल कारीगर थे। लोकप्रियता के कारण उन्हें जन-नायक कहा जाता है। ,,,नमन।

सोमवार, 22 नवंबर 2021

वो वीरांगना झलकारीबाई ही थी, जिसके शौर्य को लक्ष्मी बाई के रूप में पेश किया गया,,,

 वो वीरांगना झलकारीबाई ही थी, जिसके शौर्य को लक्ष्मी बाई के रूप में पेश किया गया,,,

बचपन से ही बहादुर झलकारी बाई, रानी लक्ष्मीबाई का प्रतिरूप थीं। यही कारण था कि उन्होंने रानी के वेश में अधिकांश लड़ाईयां लड़ी। डलहौजी ने जब रानी के उत्तराधिकारी दामोदर राव को अवैध घोषित किया तो झाँसी रियासत आमने-सामने भिड़ने के लिये तैयार थी। समय था 1857 ई.।

गद्दार सेनानायक दूल्हेराव ने चारों ओर से घिरी झाँसी के एक गेट को खोलकर अंग्रेजी फौज को मौका दे दिया। ब्रितानी सेना से रानी के वेष में झलकारीबाई और फौज ने डटकर सामना किया, लेकिन लड़ते-लड़ते 4 अप्रैल 1857 को वह शहीद हो गयीं। हालांकि इस दौरान लक्ष्मीबाई को किले से भागने में सफलता मिली। अंग्रेजों को झांसे में रखने की यही रणनीति भी थी। झांसी के लिये मर-मिटने वाली वीरांगना के साथ इतिहासकारों ने खुला भेदभाव किया। उनके शौर्य को न के बराबर उल्लेख किया। कारण, था निचली जाति में जन्म लेना।

22 नवम्बर 1830 को झांसी के पास स्तिथ भोजला गांव के कोली/कोरी परिवार में जन्मी झलकारीबाई की मां जमुनादेवी और पिता सदोबर सिंह थे। अल्पायु में मां की मौत के बाद पिता ने पुत्र की तरह पाला। उनको घुड़सवारी, तीर चलाना, तलवारबाजी का शौक था। घरेलु काम, पशुओं की देखरेख और जंगल से लकड़ी लाना यह दिनचर्या रही। एक बार जंगल में तेंदुए से भिड़ गयीं और अपनी कुल्हाड़ी से मार गिराया। गांव में जब डकैतों ने हमला किया तो उन्होंने अपने पराक्रम से पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। इससे गांव के लोग बड़े खुश हुये। गौरी पूजा के अवसर पर पहली बार झाँसी के किले में जाने का अवसर मिला। अपनी जैसी परछाई देखकर रानी लक्ष्मी बाई दंग रह गयीं। बहादुरी के किस्से सुनते ही उन्होंने तुरंत दुर्गा सेना/दल में शामिल करने का आदेश दिया। कुछ ही समय में वह दुर्गा सेना की प्रमुख बन गयीं। बंदूक, तोप और तलवारबाजी में उनको और प्रशिक्षित किया गया। अब वो पारंगत हो चुकीं थीं। झलकारीबाई का विवाह झाँसी की सेना में बहादुरी के लिये प्रसिद्ध पूरन से हुआ। 

आज शौर्य की प्रतीक वीरांगना झलकारीबाई की 191वीं जयंती है। उनको नमन। 

नोट:-इतिहासकारों, कवियों, लेखकों को राजा-महाराजाओं की गाथा को बड़ा-चढ़ाकर दिखाने में ही ईनाम मिलता था। वह पदवी, सोना, चांदी, हीरा, अशर्फियाँ, रुपये, और जमीन के टुकड़े के रूप में होता था। 


मंगलवार, 17 अगस्त 2021

माउंटेन मेन को नमन

 माउंटेन मेन को नमन

सिर्फ छेनी और हथौड़ा था उनके पास। वो भी निःशुल्क मिले थे। 360 फुट लंबे, 30 फुट चौड़े और 25 फुट ऊंचे पहाड़ को काटना आसान नहीं, आज भी असम्भव सा लगता है। मगर बिहार, गया जिले के गिल्हौर गांव के माउंटेन मेन अर्थात दशरथ माँझी ने सम्भव कर दिखाया। उन्होंने एक-दो दिन नहीं बल्कि 22 वर्षों तक संघर्ष किया। एक सूखा शरीर, तन पर कुछ कपड़े और गरीबी की लाचारी। मगर धुन के पक्के थे।,,,मतलब जब तक तोड़ेंगे नहीं, जब तक छोड़ेंगे नहीं। पहाड़ काटकर रास्ता बना, जिससे बजीरगंज ब्लॉक की दूरी 55 से 15 किमी हो गयी।  उस समय हंसने और मज़ाक उड़ाने वाले लोग हंसते रह गये और वो इतिहास में अमर हो गये। 

लेकिन किसी के अमर हो जाने से उनकी पीढियां विकास की मुख्यधारा में आ जायेंगी ये जरूरी नहीं। 

शहरी चमक-धमक और फिल्मों में गांव-गरीबी देखने वाले कहते कि अब कोई गरीब नहीं, अब विषमता नहीं। उन्हें सुदूर आदिवादी गांवों का रूख करना चाहिए। 

मेहनतकश जनता को सैल्यूट।

दशरथ मांझी के परिनिर्वाण दिवस पर उनको नमन।

बुधवार, 28 जुलाई 2021

,,,ओलंपिक खेलों में हम कहां खड़े हैं?

 ,,,ओलंपिक खेलों में हम कहां खड़े हैं?

जापान की वर्तमान आबादी करीब 13 करोड़ तो वहीं अमेरिका की 33 करोड़ के आसपास, लेकिन उनकी खेल रणनीति और तैयारियां इतनी बेहतर हैं कि टोक्यो ओलंपिक में झंडे बुलंद किये हुये हैं। अकेले चीन की आबादी भारत से ज्यादा है फिर भी वह अब तक मिले पदकों में पहले से खिसककर दूसरे स्थान पर है। 

बताते चलें कि टोक्यो ओलंपिक में दुनियाभर के 11,238 खिलाड़ी हिस्सा ले रहे हैं जिसमें भारत के 127 खिलाड़ी भी शामिल हैं। कोरोना काल में हो रहे इस महाकुंभ में 33 खेल स्पर्धाएं शामिल हैं, जिसमें भारत मात्र 18 खेलों में ही हिस्सा लिया है। शेष 15 स्पर्धाओं में हम क्वालीफाई भी न कर सके या बेहतर खिलाड़ी नहीं मिले। यह हमारी खोखली तैयारी और लचर रणनीति का नमूना है। 

अभी तक जापान 13 स्वर्ण और कुल 22 पदकों के साथ प्रथम, चीन 12 स्वर्ण कुल 27 पदक के साथ दूसरे, अमेरिका 11 स्वर्ण और 31 पदकों के साथ तीसरे स्थान पर है। वहीं भाग लेने वाले 206 देशों में दूसरी जनसंख्या वाला मुल्क भारत 43वें स्थान पर है। मीराबाई चानू ने रजत पदक जीतकर लाज तो बचा ली। मगर हमारी भूख तो स्वर्ण पदक और पदकों की बारिश से ही मिटेगी। जब देश का झण्डा बुलंदियों पर फहराएगा। 

...हमें बेसब्री से इंतजार है। 

शनिवार, 26 जून 2021

दूरदर्शी राजर्षि साहू जी महाराज

 दूरदर्शी राजर्षि साहू जी महाराज 

19वीं शताब्दी के ऐसे महाराजा जिनके अनेक सामाजिक कार्यों की छाप देश के संविधान में झलकती है। शिवाजी महाराज के वंशज साहू जी महाराज ने 1894 में कोल्हापुर की गद्दी सम्भाली। उस दौर में जातिप्रथा की बेड़ियां बहुत मजबूत थीं। अछूत सेवक गंगाराम काम्बले ने जब तालाब का पानी छू लिया तो उच्च जाति के लोगों ने बुरी तरह पीट दिया। जब महाराज को जानकारी हुई तो पीटने को सजा मिली। साथ ही उन्होंने गंगाराम को राजकोष से चाय की दुकान खुलवाई। नाम रखा सत्यशोधक। उनकी दुकान पर बहुत कम लोग जाते थे। साहू जी महाराज अपने सैनिकों के साथ पहुंचे और सबने चाय पी। पैसा भी दिया। देवदासी प्रथा, बाल विवाह, छुआछूत को रोकने के कानून बने, विधवा पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया। 1902 ई. में जातिगत एकाधिकार को समाप्त करके सभी पदों पर 50% वंचितों को आरक्षण की व्यवस्था कर दी। यह देश के इतिहास में पहला कदम था। छात्रावास खोले और शिक्षा को बढ़ावा देने के लिये छात्रवृत्ति की व्यवस्था की। खेलकूद को बढ़ावा दिया। 6 मई 1922 को जनप्रिय महाराजा को परिनिर्वाण की प्राप्ति हुई। 

आरक्षण के जनक, सामाजिक न्याय के पुरोधा, समतामूलक समाज का सपना देखने वाले साहू जी महाराज की आज 147वीं जयंती है। 

,,,नमन।

बुधवार, 9 जून 2021

ऐसे थे धरती आवा,,,बिरसा मुंडा जी।

 ऐसे थे धरती आवा,,,बिरसा मुंडा जी।

बिन कपड़ों का आधा तन, हाथों में तीर कमान और मन में जन, जंगल और जमीन बचाने के असीम सपने। ऐसे थे

आदिवासियों के धरती आवा अर्थात धरती पिता, लोक नायक, अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले वीर बिरसा मुंडा जी। आज शहादत दिवस है। उनका जन्म 15 नवम्बर 1875 को रांची जिले के उलिहातु गाँव में हुआ था।

अंग्रेजों ने ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट 1882’ पारित करके जमींदारी व्यवस्था लागू कर दी। आदिवासियों को जंगल के अधिकार से वंचित कर दिया। वो गाँव, जहां वे सामूहिक खेती करते थे, ज़मींदारों और दलालों में बांटकर नयी व्यवस्था लागू कर दी और फिर शुरू हुआ अंग्रेजों, जमींदार व महाजनों द्वारा भोले-भाले आदिवासियों का शोषण। इसके खिलाफ बिरसा मुंडा जी खड़े हो गये। उन्हें

आदिवासी इलाके में ब्रितानी हुकूमत का दखल नामंजूर था। वो तीर कमानों से अत्याधुनिक फौज वाली अंग्रेजी हुकूमत से लड़ रहे थे। 1894 में बारिश न होने से छोटा नागपुर में भयंकर अकाल और महामारी फैली गयी। उन्होंने पूरे समर्पण से अपने लोगों की सेवा की। इलाज के प्रति जागरूक किया और  ‘धरती आबा’ यानि ‘धरती पिता’ कहलाये।

उनकी एकता और परम्परागत लड़ाई अंग्रेजों को खल रही थी। अकाल पड़ने पर वे लगान माफ़ करने के लिये संघर्ष छेड़े हुये थे। बाद में उनको पकड़ लिया गया और 9 जून 1900 को ज़हर देकर सांसे छीन ली। वो भले ही मर गये हों, लेकिन 25 वर्षीय जीवन में उन्होंने जो किया, हमेशा याद किया जाएगा। 

आदिवासी साहित्यकार हरीराम मीणा उनकी याद में यह कविता लिखी।

‘‘मैं केवल देह नहीं

मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ

पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं

मैं भी मर नहीं सकता

मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता

उलगुलान!

उलगुलान!!

उलगुलान!!!’’

गोरों के जाने के बाद जब देश आजाद हुआ तो सरकारों ने जंगलों पर निर्भर इस आदिवासी समुदाय की तरक्की के लिये ठोस कदम नहीं उठाये। नये-नये वन अधिकार अधिनियम तो आते गये, मगर विकास की पटकथा उनको बेदखल और बंचित करके ही लिखी गयी। करीब 30 करोड़ की आबादी पर न तो मीडिया और न ही समाज की नजर है। सरकारें तो उनको मानव ही नहीं समझती हैं। मेरा मानना है ऐसे एकतरफा विकास नहीं हो सकता। 

महामारी में काल में लोगों को जंगल बचाने की थोड़ी सुध आयी। मगर जरूरी नहीं कि वनों को उजाड़ने के षड्यंत्र सब तक पहुंचे और भूलने की आदत किसको नहीं है।

,,,धरती आवा को नमन।

रविवार, 21 मार्च 2021

डॉ. सौरभ मालवीय की पुस्तक ‘भारत बोध’ का हुआ लोकार्पण

सिद्धार्थनगर 20 मार्च। माधव संस्कृति न्यास, नई दिल्ली और सिद्धार्थ विवि. सिद्धार्थनगर द्वारा आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी के उद्घाटन सत्र में डॉ. सौरभ मालवीय की लिखित पुस्तक भारत बोध समेत आठ पुस्तकों का लोकार्पण हुआ। 

‘भारतीय इतिहास लेखन परंपरा : नवीन परिप्रेक्ष्य’ विषय पर अपनी बात रखते हुये मुख्य अतिथि बेसिक शिक्षा मंत्री डॉ. सतीश चंद्र द्विवेदी ने कहा कि आजादी के बाद इतिहास संकलन का कार्य हो रहा है। देश को परम वैभव के शिखर पर ले जाने में युवा इतिहासकारों का संकलन कारगर साबित होगा। कार्यक्रम शुभारंभ के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, नोएडा परिसर में सहायक प्राध्यापक डॉ. सौरभ मालवीय की लिखित पुस्तक भारत बोध समेत आठ अलग-अलग लेखकों की पुस्तकों का मंत्री व कुलपति द्वारा लोकार्पण किया गया। 

डॉ. द्विवेदी ने कहा कि भारत को पिछड़े और सपेरों का देश कहा गया है, इस विसंगती को दूर करने का कार्य जारी है। भारत के स्वर्णिम इतिहास का संकलन हो रहा है। 

महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय (वर्धा, महाराष्ट्र) के कुलपति प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल ने कहा कि युवा इतिहासकार भारत का इतिहास लिख सकते हैं। भारत का इतिहास उत्तान पाद, राम कृष्ण, समुद्र गुप्त, चंद्रशेखर आजाद, भगत सिंह, राम- कृष्ण जैसे अनेक महापुरुषों से है। इतिहास वेद, ज्ञान, यश, कृति, पुरूषार्थ और संघर्ष का होता है। इतिहास में सच्चाई दिखने वाला होता है। आजादी के पहले कारवां चलता गया, हिंदोस्तां बढ़ता गया के आधार पर इतिहास लिखा गया। गोरी चमड़ी वाले अंग्रेज भारत कमाने आए और यहीं रह गये। बाद में हमारा इतिहास लिख दिया। वास्कोडिगामा जान अपसटल को चिट्ठी देने के लिए खोज में निकला था, जिसे लोग भारत की खोज करता बताते हैं। इसी इतिहास को युवा इतिहासकार बदलेंगे। 

अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना के संगठन सचिव डॉ. बालमुकुंद पांडेय ने कहा कि अभी तक जिस इतिहास को भारत वर्ष में हम पढ़ते और पढ़ाते हैं वह दासता के प्रतिरूप का इतिहास है, जबकि भारत का सही इतिहास कभी उसके वास्तविक स्वरूप में प्रस्तुत नहीं किया गया था। भारत के गौरवशाली परम्पराएँ और लोक मान्यता को हमें जानने और लिपिवध करने की जरूरत है। भारत के स्वर्णिम इतिहास को भारत की दृष्टि से देखना होगा। 

नालंदा विश्वविद्यालय (बिहार) के कुलपति प्रो. वैद्यनाथ लाभ ने कहा कि डार्विन की थ्यौरी में बंदर से मनुष्य बनने की कल्पना बताया गया है, जबकि ब्रह्मा से मनुष्य की रचना हुई है। भगवान हमारे इष्ट हैं। ब्रिटिश इंडिया कंपनी ने हमे विकृति मानसिकता का बना दिया। हम दिन ब दिन अंग्रेजों की बेडियों में जकड़े गये। हमें सांस्कृतिक परंपरा का बोध नहीं था। स्वतंत्रता के पश्चात हम सांस्कृतिक पुर्नउत्थान के लिए खड़े हुए हैं। अंग्रेजों ने किताबों में ऐसी बातें लिखी कि हम हीन भावना से ग्रसित हुए। हमने ग्रंथ, वेद, रामायण, पुराण पढ़ना छोड़ दिया, लेकिन हमे सारस्वत सरस्वती का बोध यहीं हुआ है। सब सास्वत है। 

अध्यक्षता करते हुए कुलपति प्रो. सुरेंद्र दूबे ने कहा कि भारत का इतिहास केवल राजा रजवाड़ों और उनके ऐसे आराम का इतिहास नहीं है, बल्कि भारत का इतिहास लोक का इतिहास है। हम इसका सहज अनुभव राम राज्य से कर सकते हैं।

 कार्यक्रम का संचालन आईसीएचआर नई दिल्ली के डॉ. ओम उपाध्याय व आभार डॉ. सच्चिदानंद चौबे ने किया। इस कार्यक्रम में आशा दूबे, डॉ. सौरभ मालवीय, सौरभ मिश्रा, डॉ. रत्नेश त्रिपाठी, डॉ हर्षवर्धन एवं आनंद समेत 19 प्रांतों के विषय विशेषज्ञ व इतिहासरकार मौजूद रहे।