संतुलन बेहद जरूरी है। यह हर एक चीज को सटीक बनाता है। स्कूल में पढ़ाया गया था कि संविधान ने हमें कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका तीन ऐसे हथियार दिए हैं जो समाज में संतुलन स्थापित करने में मदद करेंगे। लेकिन लोग कहते हैं कि इन हथियारों में जंग लग गई हैं। इन्हें बदलने या दुरुस्त करने की जरूरत है। ताकि समाज में जो असंतुलन पैदा हुआ है वह दूर हो सके। बदलाव की शुरुआत हो चुकी है, न्यायापालिका से। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादलों की 20 साल पुरानी काॅलेजियम प्रणाली खत्म कर दी है। इसकी जगह केंद्र ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून (एनजेएसी) अधिसूचित कर दिया है। इससे जुड़ा 99वां संविधान संशोधन कानून भी लागू हो गया है। संसद ने पिछले साल अगस्त में आयोग विधेयक और इससे जुड़े संविधान संशोधन बिल को पारित किया था। बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने से पहले कुल राज्यों की आधे से ज्यादा विधानसभाओं का अनुमोदन लिया गया। इसके बाद दोनों कानूनों को राजपत्र में प्रकाशित किया गया। बहरहाल एनजेएसी की अध्यक्षता सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस करेंगे। आयोग में शीर्ष कोर्ट के दो वरिष्ठ जज और कानून मंत्री के अलावा प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और लोकसभा में विपक्ष के नेता या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की समिति द्वारा नामित दो व्यक्तियों को शामिल किया जाएगा।
यूपीए और एनडीए दोनों की घटकों का हमेशा से विरोध रहा है कि काॅलेजियम सिस्टम में पारदर्शी की कमी है। कोर्ट द्वारा लिए गए फैसलों के आधार का पता नहीं चलता है। कई योग्य न्यायाधीशों को प्रमोशन नहीं मिल पाता है। जजों की नियुक्ति से पहले बैकग्राउंड की पड़ताल ठीक ढंग से नहीं की जाती है। कई तमाम आपत्तियों के बीच आयोग के गठन की सिफारिश की गई। लेकिन सवाल ये है कि क्या यह नई व्यवस्था पहली व्यवस्था से ज्यादा कागर साबित होगी। पूर्व व्यवस्था के विरोध में उठे तर्क क्या अब समाप्त हो जाएंगे, शायद नहीं। हां, ये हो सकता है कि नई व्यवस्था अब नियुक्ति और तबादले जैसे मामलों में जजों के एकाधिकार या मनमानी को समाप्त कर दे लेकिन नई व्यवस्था के आने से स्थिति सुधरने की बजाए बिगड़ भी सकती है। यूपीए और एनडीए दोनों ही विरोधी दल पुरानी काॅलेजियम व्यवस्था के खिलाफ थे। चाहे सुप्रीम कोर्ट के जज हों या फिर हाईकोर्ट के सभी जजों ने पिछले 10 सालों में कई ऐसे बड़े और गम्भीर मामलों में फैसले लिए हैं जिसने समाज में एक उदाहरण पेश किया। हालांकि इन फैसलों से यूपीएम और एनडीए को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से रूप से काफी नुसान भी पहुंचाया है। और आने वाले वाले व्यक्त में भी ऐसी ही संभावनाएं हो सकती हैं। इसीलिए सभी राजनीतिक दलों ने पुरानी व्यवस्था में सेंधमारी करके कानून में ही संशोधन करा दिया। अब नेताओं के चहेते जज भी जब कब नियुक्त होते रहेंगे। हो सकता है आने वाले वक्त में राजनीतिक प्रभाव में आकर कई बार फैसले भी प्रभावित हो जाएं। ऐसे में जिस मंशा से कानून में संशोधन किया गया वह पूरा ही नहीं हो पाएगा। यानी संतुलन स्थापित नहीं हो पाएगा। रही फैसलों की बात पहले भी सबूतों के आधार पर फैसले होते थे और आगे भी होंगे। हालांकि सरकार ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि आयोग न्यायाधीशों द्वारा भ्रष्टाचार करने या अन्य विरोधी घटनाओं पर अंकुश कैसे लगाएगा। अभी जो व्यवस्था थी उसके तहत सुप्रीम कोर्ट का काॅलेजियम ही नामों की सिफारिश करता था। आपत्ति होने पर सरकार किसी नाम पर पुनर्विचार को कह सकती थी। लेकिन काॅलेजियम का अंतिम फैसला भी सरकार को मानना ही होता था। राष्ट्रपति भी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की पसंद पर सिर्फ मुहर लगाते थे। यह व्यस्था सिर्फ भारत में ही लागू थी।
आईए अतीत की एक घटना पर बात करते हैं। मद्रास हाईकोर्ट में एक ऐसे अतिरिक्त जज थे, जिनपर निचली अदालत में कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। मगर मद्रास हाईकोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीशों उन्हें बरी कर दिया। जब मर्कंडेय काटजू मुख्य न्यायाधीशों बने तो उन्होंने जस्टिस लाहोटी से इसकी जांच कराने की अपील की। आईबी ने जांच में सभी आरोप सही पाए। इसलिए ओरापी जज को स्थायी जज नहीं बनाया गया। तब सत्ताधारी यूपीए सरकार में तमिलनाडु के घटक दल ने केंद्र सरकार गिरा देने की धमकी दी। इसके बाद एक कांग्रेस नेता ने उस जज को जस्टिस लाहोटी के कार्यकाल में फिर से अतिरिक्त जज और जस्टिस बालकृष्णन के कार्यकाल में स्थायी जज बना दिया। यह घटना पूर्व काॅलेजियम व्यवस्था में ही घटी, जिसमें सरकार के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं थी। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में पक्ष और विपक्ष दोनों का दखल होगा। वैसे नई व्यवस्था के शुरू होने से पहले ही सवाल खड़े करना उचित नहीं लेकिन न्यायिक आयोग के सदस्यों द्वारा लिया गया फैसला कितना संतुलित है यह कौन तय करेगा।
यूपीए और एनडीए दोनों की घटकों का हमेशा से विरोध रहा है कि काॅलेजियम सिस्टम में पारदर्शी की कमी है। कोर्ट द्वारा लिए गए फैसलों के आधार का पता नहीं चलता है। कई योग्य न्यायाधीशों को प्रमोशन नहीं मिल पाता है। जजों की नियुक्ति से पहले बैकग्राउंड की पड़ताल ठीक ढंग से नहीं की जाती है। कई तमाम आपत्तियों के बीच आयोग के गठन की सिफारिश की गई। लेकिन सवाल ये है कि क्या यह नई व्यवस्था पहली व्यवस्था से ज्यादा कागर साबित होगी। पूर्व व्यवस्था के विरोध में उठे तर्क क्या अब समाप्त हो जाएंगे, शायद नहीं। हां, ये हो सकता है कि नई व्यवस्था अब नियुक्ति और तबादले जैसे मामलों में जजों के एकाधिकार या मनमानी को समाप्त कर दे लेकिन नई व्यवस्था के आने से स्थिति सुधरने की बजाए बिगड़ भी सकती है। यूपीए और एनडीए दोनों ही विरोधी दल पुरानी काॅलेजियम व्यवस्था के खिलाफ थे। चाहे सुप्रीम कोर्ट के जज हों या फिर हाईकोर्ट के सभी जजों ने पिछले 10 सालों में कई ऐसे बड़े और गम्भीर मामलों में फैसले लिए हैं जिसने समाज में एक उदाहरण पेश किया। हालांकि इन फैसलों से यूपीएम और एनडीए को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से रूप से काफी नुसान भी पहुंचाया है। और आने वाले वाले व्यक्त में भी ऐसी ही संभावनाएं हो सकती हैं। इसीलिए सभी राजनीतिक दलों ने पुरानी व्यवस्था में सेंधमारी करके कानून में ही संशोधन करा दिया। अब नेताओं के चहेते जज भी जब कब नियुक्त होते रहेंगे। हो सकता है आने वाले वक्त में राजनीतिक प्रभाव में आकर कई बार फैसले भी प्रभावित हो जाएं। ऐसे में जिस मंशा से कानून में संशोधन किया गया वह पूरा ही नहीं हो पाएगा। यानी संतुलन स्थापित नहीं हो पाएगा। रही फैसलों की बात पहले भी सबूतों के आधार पर फैसले होते थे और आगे भी होंगे। हालांकि सरकार ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि आयोग न्यायाधीशों द्वारा भ्रष्टाचार करने या अन्य विरोधी घटनाओं पर अंकुश कैसे लगाएगा। अभी जो व्यवस्था थी उसके तहत सुप्रीम कोर्ट का काॅलेजियम ही नामों की सिफारिश करता था। आपत्ति होने पर सरकार किसी नाम पर पुनर्विचार को कह सकती थी। लेकिन काॅलेजियम का अंतिम फैसला भी सरकार को मानना ही होता था। राष्ट्रपति भी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की पसंद पर सिर्फ मुहर लगाते थे। यह व्यस्था सिर्फ भारत में ही लागू थी।
आईए अतीत की एक घटना पर बात करते हैं। मद्रास हाईकोर्ट में एक ऐसे अतिरिक्त जज थे, जिनपर निचली अदालत में कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। मगर मद्रास हाईकोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीशों उन्हें बरी कर दिया। जब मर्कंडेय काटजू मुख्य न्यायाधीशों बने तो उन्होंने जस्टिस लाहोटी से इसकी जांच कराने की अपील की। आईबी ने जांच में सभी आरोप सही पाए। इसलिए ओरापी जज को स्थायी जज नहीं बनाया गया। तब सत्ताधारी यूपीए सरकार में तमिलनाडु के घटक दल ने केंद्र सरकार गिरा देने की धमकी दी। इसके बाद एक कांग्रेस नेता ने उस जज को जस्टिस लाहोटी के कार्यकाल में फिर से अतिरिक्त जज और जस्टिस बालकृष्णन के कार्यकाल में स्थायी जज बना दिया। यह घटना पूर्व काॅलेजियम व्यवस्था में ही घटी, जिसमें सरकार के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं थी। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में पक्ष और विपक्ष दोनों का दखल होगा। वैसे नई व्यवस्था के शुरू होने से पहले ही सवाल खड़े करना उचित नहीं लेकिन न्यायिक आयोग के सदस्यों द्वारा लिया गया फैसला कितना संतुलित है यह कौन तय करेगा।