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मंगलवार, 16 अगस्त 2011

प्रगति पर राजनीति और परम्पराओं का प्रहार


" बीती ताहि बिशार दे अब आगे की सुधी ले " कुछ इसी अंदाज़ में दारुल उलूं के नवनियुक्त कुलपति गुलाम मोहम्मद वस्तानवी ने मुसलमानों को गुजरात के २००२ के दंगो को भूल कर आगे बढ़ने की बात कही थी जिसका खमियाजा उन्हें इस्तीफा दे कर चुकाना पड़ा.

दरअसल १० जनवरी २०११ को वस्तानवी को दारुल उल्लूम जो दुनिया के सबसे प्रभावशाली मदरसों में से एक है का कुलपति नियुक्त किया गया. इस मौके पर वस्तानवी ने ' द times औफ़ इंडिया ' को दिए एक साक्षात्कार में कहा की मुसलमानों को २००२ के दंगो को भूल कर आगे देखना चहिये.राज्य में मुसलमान तरक्की पर हैं, राज्य सरकार उनसे किसी भी तरह से भेदभाव नही कर रही हैं. वस्तानवी का ये प्रगतिशील बयां जंगल में आग की तरह फैला और मुसलमानों ने कड़ी pratikriya करनी शुरू कर दी. किसी ने वस्तानवी को आर.एस.एस. का मोहरा कहा तो किसी ने मोदी के गुणगान का आरोप लगाया. कइयों ने तो फत्बे जारी किये. हालाँकि अपनी सफाई में वस्तानवी ने सभी आरोपों का खंडन किया और उन्होंने कहां की मेरा साक्षात्कार गुजराती में था और इंग्लिश मीडिया ने मेरे बयां को तोड़-madod कर पेश किया है.मोदी को किसी भी तरह से मैंने क्लीन चिट नही दिया हैं. दारुल उलूम को परम्पराओं से आलग ले जाने के आरोप पर उन्होंने साफ कहा की मैं ऍम.बी.ए. के पहले दारुल उलूम का छात्र भी रहा हूँ. मैं दारुल उलूम और उसके उसूलो को अच्छे से जानता हु. मुझ पर लगाये गए सभी इलज़ाम बेबुनियाद हैं.

इन तमाम स्पश्तिकर्नो के बाबजूद उनका विरोध जमकर होता रहा. वस्तानवी के इस्तीफे और दारुल उलूम में फेरबदल की मांग को ले कर छात्रों का एक धरा हड़ताल पर चला गया. मामले को निपटाने के लिए मज्लिश-ए शूरा ने तीन सदस्यीय कमिटी का गठन किया जिसमें मालेगाव के मुफ्ती इस्माइल और चेन्नई के मोहम्मद इब्राहीम दोनों वस्तानावी के समर्थक थे और तीसरे सदस्य कानपूर के मुफ्ती मंजूर अहमद मज़ाहरी शुरू से ही वस्तानवी के खिलाफ थे. हालाँकि कमेटी ने २४ जुलाई २०११ को अपनी रिपोर्ट पेश की लेकिन कमेटी वस्तानवी को कसूरवार साबित करने में नाकामयाब रही. इसके बाद भी वस्तानवी पर इस्तीफे के लिए दबाव डाला जाता रहां जिसपर वस्तानवी ने साफ़ शब्दों में कहां की जब कमेटी अपनी रिपोर्ट में मुझ पर आरोप साबित नही कर पाई तो मैं क्यूँ इस्तीफा दू. गौरतलब वस्तानवी को हटाने के लिए दारुल उलूम ने हद ही पर कर दिया.एक तरफ कमेटी आरोप साबित नही कर पाई तो दूसरी तरफ शूरा ने बहुमत के आधार पर पद से बर्खास्त कर मौलना अबुल कासिम नोमानी को कुलपति के पद पर नियुक्त कर दिया.
असल में वस्तानवी की नियुक्ति के समय ही दारुल उलूम का एक धरा वस्तानवी से सहमत नही था, और ये असहमत धरा कुलपति के पद पर अपना व्यक्ति चाहत था. इस असहमत धरे को डर था की वस्तानवी जो की पशिच्म भारत में आधुनिक और पारम्परिक इस्लामिक शिक्षण की कई संस्थाए चलाते हैं, कही अपने सुधर और प्रगतिशील विचारधारा से सभी को अपने तरफ न करले. इस तरह असहमत धारे का ये डर प्रगतिशील विचारधारा के वस्तानवी को ले डूबा.१४५ साल का इतिहास रहां हैं दारुल उलूम का और देश की आज़ादी में इस धरे ने अहम् भूमिका अदा किया हैं. कांग्रेस के साथ भी इसके गहरे सम्बन्ध रहे है और इधर आते ही वस्तानवी ने गुजरात के मुख्य मंत्री नरेन्द्र मोदी समर्थक बयां दे दिया हो की उनके लिए खतरनाक साबित हुआ. जिसका अंजाम ही था की वस्तानवी को कुलपति के पद से हटना पड़ा.
सियासत चाहे जो हो लेकिन गौर करने वाली बात ये हैं की मुस्लिम समाज में आज भी प्रगतिशील विचारधारा रखनेवाले मुसलमानों के लिए कोई जगह नही हैं तो सुधार की गुंजाईश कैसे संभव हैं ?

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