भगत सिंह को क्यों पढ़ा जाना चाहिए?
इस सवाल से पहले हम बात करते हैं कि 23 वर्षीय इस युवा एवं उनके साथी राजगुरु, सुखदेव को बचाने के लिए किसने, कितनी कोशिश की। अभिलेखागार एवं संसाधन केंद्र दिल्ली के मानद सलाहकार व भगत सिंह के दस्तावेजों के संपादक प्रोफेसर चमनलाल के अनुसार धार्मिक संगठनों, धार्मिक संगठनों से खड़े हुए राजनीतिक संगठनों ने भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने की कोई कोशिश नहीं की।
कोशिश करने वालों में मोतीलाल नेहरु जो प्रसिद्ध वकील थे गम्भीर बीमार होने के बाद भी 31 जनवरी 1931 को लाहौर जेल में क्रांतिकारियों से मिलने गए। कानूनी सहायता उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया। हालांकि भगतसिंह ने विरोध किया। फिर भी मोतीलाल नेहरू ने फांसी की सजा के खिलाफ अपील करने की तैयारी की। कागजात मंगाकर अध्ययन भी किया। 8 अगस्त 1929 को जवाहरलाल नेहरु ने भी क्रांतिकारियों से मुलाकात की थी। कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ सुभाष चंद्र बोस, वाम दलों के नेताओं ने भी बहुत प्रयास किये, लेकिन सफल नहीं हुये। भगतसिंह की लोकप्रियता से दक्षिण भारत भी अछूता नहीं था। एशिया के पैगम्बर माने जाने वाले ईवी रामास्वामी पेरियार ने भी भगत सिंह व साथियों को बचाने के लिए तमिल जनरल "कुदई अरासु" में संपादकीय लिखा। साथ ही भगत सिंह की पुस्तक "मैं नास्तिक क्यों हूं" का तमिल में अनुवाद करवाया। महात्मा गांधी ने भी 31 जनवरी 1931 को इलाहाबाद में अपने संबोधन में कहा कि मत्यु दंड वाले व्यक्ति को फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए। फांसी रोकने के लिये एक बार वायसराय से बन्द कमरे में मुलाकात भी की। बतौर प्रोफ़ेसर "गांधी की छवि और कद उस समय बहुत बड़ा था। अंग्रेज भी उनकी ताकत को भलीभाँति समझते थे। गांधी ने जितने प्रयास होना चाहिए थे, उतने नहीं किये"।
अब हम भगत सिंह को क्यों पढ़ा जाना चाहिए। इस पर बात करते हैं। "भगत सिंह के संपूर्ण लेख" पुस्तक, जिसको प्रोफेसर चमनलाल ने लिखा है। जो उनके पत्रों पर आधारित है।
इसके पृष्ठ नंबर 167 की बात करना चाहता हूं। जिसमें भगत सिंह सुभाष चंद्र बोस और नेहरू में से नेहरू को चुनने की बात करते हैं। साथ ही क्यों चुनना चाहिए, इस पर भी वे विस्तार से लिखते भी हैं और समझाते भी हैं। साथ ही पंजाब सहित अन्य युवाओं को चेताते हैं कि नेहरू के भी अंधे पैरोकार नहीं बने। जो सही लगे उसका समर्थन करें।
इसके अगले पृष्ठ पर वह धर्म पर भी जबरदस्त कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि यह बात फलां वेद, पुराण या कुरान में लिखी गई है या उसमें अच्छा बताया गया है। इस बात पर नहीं मानी जानी चाहिए। बल्कि समझदारी की परख पर साबित न हो तब तक नहीं मानी जानी चाहिए। उनके विचार आधुनिकतावादी थे। उन्होंने वर्तमान और भविष्य के भारत, राजनीति सहित कई मुद्दों पर खुलकर लिखा।
मेरे विचार:-भरत सिंह का कद उस समय गांधी से थोड़ा ही कम था। वैसे तो सम्पूर्ण देश मे वे लोकप्रिय थे, लेकिन पंजाब, हरियाणा और उससे सटे इलाकों में वे ज्यादा प्रसिद्ध थे। युवाओं के वह आइकॉन थे। शायद गांधी को इसी बात का डर रहा होगा। हालांकि भगतसिंह ने न तो अपने स्तर पर गिरफ्तारी से बचने का प्रयास किया और न ही फांसी से बचने का। वो 23 साल की उम्र में ही अपने साथी राजगुरु और सुखदेव के साथ 23 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर झूल गये।
यह भी सच है कि देश आज भी उनकी उम्मीदों तक नहीं पहुंचा है जो उन्होंने सोचा था।
हालांकि देशवासियों के दिलों में वे हमेशा जीवित रहेंगे।
112 वीं जयंती पर उनको नमन।
इस सवाल से पहले हम बात करते हैं कि 23 वर्षीय इस युवा एवं उनके साथी राजगुरु, सुखदेव को बचाने के लिए किसने, कितनी कोशिश की। अभिलेखागार एवं संसाधन केंद्र दिल्ली के मानद सलाहकार व भगत सिंह के दस्तावेजों के संपादक प्रोफेसर चमनलाल के अनुसार धार्मिक संगठनों, धार्मिक संगठनों से खड़े हुए राजनीतिक संगठनों ने भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने की कोई कोशिश नहीं की।
कोशिश करने वालों में मोतीलाल नेहरु जो प्रसिद्ध वकील थे गम्भीर बीमार होने के बाद भी 31 जनवरी 1931 को लाहौर जेल में क्रांतिकारियों से मिलने गए। कानूनी सहायता उपलब्ध कराने का आश्वासन दिया। हालांकि भगतसिंह ने विरोध किया। फिर भी मोतीलाल नेहरू ने फांसी की सजा के खिलाफ अपील करने की तैयारी की। कागजात मंगाकर अध्ययन भी किया। 8 अगस्त 1929 को जवाहरलाल नेहरु ने भी क्रांतिकारियों से मुलाकात की थी। कांग्रेस के अन्य नेताओं के साथ सुभाष चंद्र बोस, वाम दलों के नेताओं ने भी बहुत प्रयास किये, लेकिन सफल नहीं हुये। भगतसिंह की लोकप्रियता से दक्षिण भारत भी अछूता नहीं था। एशिया के पैगम्बर माने जाने वाले ईवी रामास्वामी पेरियार ने भी भगत सिंह व साथियों को बचाने के लिए तमिल जनरल "कुदई अरासु" में संपादकीय लिखा। साथ ही भगत सिंह की पुस्तक "मैं नास्तिक क्यों हूं" का तमिल में अनुवाद करवाया। महात्मा गांधी ने भी 31 जनवरी 1931 को इलाहाबाद में अपने संबोधन में कहा कि मत्यु दंड वाले व्यक्ति को फांसी की सजा नहीं दी जानी चाहिए। फांसी रोकने के लिये एक बार वायसराय से बन्द कमरे में मुलाकात भी की। बतौर प्रोफ़ेसर "गांधी की छवि और कद उस समय बहुत बड़ा था। अंग्रेज भी उनकी ताकत को भलीभाँति समझते थे। गांधी ने जितने प्रयास होना चाहिए थे, उतने नहीं किये"।
अब हम भगत सिंह को क्यों पढ़ा जाना चाहिए। इस पर बात करते हैं। "भगत सिंह के संपूर्ण लेख" पुस्तक, जिसको प्रोफेसर चमनलाल ने लिखा है। जो उनके पत्रों पर आधारित है।
इसके पृष्ठ नंबर 167 की बात करना चाहता हूं। जिसमें भगत सिंह सुभाष चंद्र बोस और नेहरू में से नेहरू को चुनने की बात करते हैं। साथ ही क्यों चुनना चाहिए, इस पर भी वे विस्तार से लिखते भी हैं और समझाते भी हैं। साथ ही पंजाब सहित अन्य युवाओं को चेताते हैं कि नेहरू के भी अंधे पैरोकार नहीं बने। जो सही लगे उसका समर्थन करें।
इसके अगले पृष्ठ पर वह धर्म पर भी जबरदस्त कटाक्ष करते हुए कहते हैं कि यह बात फलां वेद, पुराण या कुरान में लिखी गई है या उसमें अच्छा बताया गया है। इस बात पर नहीं मानी जानी चाहिए। बल्कि समझदारी की परख पर साबित न हो तब तक नहीं मानी जानी चाहिए। उनके विचार आधुनिकतावादी थे। उन्होंने वर्तमान और भविष्य के भारत, राजनीति सहित कई मुद्दों पर खुलकर लिखा।
मेरे विचार:-भरत सिंह का कद उस समय गांधी से थोड़ा ही कम था। वैसे तो सम्पूर्ण देश मे वे लोकप्रिय थे, लेकिन पंजाब, हरियाणा और उससे सटे इलाकों में वे ज्यादा प्रसिद्ध थे। युवाओं के वह आइकॉन थे। शायद गांधी को इसी बात का डर रहा होगा। हालांकि भगतसिंह ने न तो अपने स्तर पर गिरफ्तारी से बचने का प्रयास किया और न ही फांसी से बचने का। वो 23 साल की उम्र में ही अपने साथी राजगुरु और सुखदेव के साथ 23 मार्च 1931 को लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी पर झूल गये।
यह भी सच है कि देश आज भी उनकी उम्मीदों तक नहीं पहुंचा है जो उन्होंने सोचा था।
हालांकि देशवासियों के दिलों में वे हमेशा जीवित रहेंगे।
112 वीं जयंती पर उनको नमन।