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बुधवार, 21 अक्टूबर 2015

उस दिन ऐसा भी हुवा...

मेरी निगाहें दूर बैठे एक जोड़े पर अचानक जा टिकी। वहां पहाड़ों के सर बादलों के ऊपर से झांक रहे थे. दूर तक फैली पहाड़ियों को देखकर वे दोनों कुछ देर शांत रहते फिर अपनी चुप्पी जोरदार हंसी के ठहाकों के साथ तोड़ते। ये सिलसिला काफी देर तक चलता रहा. मैं दोनों को देखना चाह रहा था। अलबत्ता मैं उनके सामने जा खड़ा हुवा। दोनों मुझे देखकर हैरान थे और मैं उन्हें। क्यूंकि वो लड़का मैं ही था और वो लड़की दीपिका (हाँ वही ओम शांति ओम और राम-लीला वाली). मैं खुद को dekh कर हैरान था और दीपिका एक ही जैसे दो लोगों को देखकर। अब उस सीन में किसी एक को तो गायब होना ही था सो गया हो गया. मुलाकात का सिलसिला कुछ आगे बढ़ता तब तक लड़कियों का झुण्ड हाँथ में बैनर पोस्टर लेकर मेरे खिलाफ नारे बजी करने लगा. उनमें से एक लड़की मेरे पास आई. वो लड़की ए.बी.पी. न्यूज़ की एंकर थी. जितना दम था उतनी ताकत से उसने मेरा कान खींचा और उस भीड़ के सामने ले जा पटका। भीड़ में शामिल सभी का चेहरा एक जैसा था. पीछे मुड़कर देखा तो दीपिका नदारद थीं. ख़राब तो लगे गा न यार. फैन तो मैं उस एंकर का भी हूँ.

नारेबाजी के बीच में दिवंगत लेखक कालबुर्गी आ गये। और हम दोनों पर ऐठ गये. बोले खुद को बड़ा पत्रकार समझते हो. क्या मैं आज का गांधी था जो किसी गुमनाम गोडसे ने मुझे मार दिया। माथे पर गोली का निशान दिखाते हुवे बोले- मेरे सवालों का तुम जवाब दो... अचानक से हो रहा शोर शराबा शांत हो गया. अब बस दो ही लोग बचे थे मैं और कालबुर्गी साहब। कुछ कहता कि इससे पहले मुनव्वर राणा जी अपने कुछ साथी साहित्यकरों के साथ वहां आ धमके। कुछ समझ में नहीं आ रहा था. सोचा भाग लेता हूँ कि इखलाक ने लंगड़ी मार के मुझे गिरा दिया। सुधींद्र कुलकर्णी और वो कश्मीर वाले विधायक मियां … शेख अब्दुल रशीद, बगल में खड़े होकर खीसें निपोर रहे थे. राणा साहब आये और बोले देश में कुछ शक्तियां फांसीवाद को पैदा करने में जुटी हुवी हैं और तुम मीडिया वाले समस्या पर नहीं टी.आर.पी के चक्कर में ही लगे हुवे हैं. फिर सब एक साथ बोलने लगे खुद को लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ कहलवाने में गर्व महसूस करते हो लेकिन लोकतंत्र फांसीवाद में तब्दील में हो रहा है तो कुछ नहीं कर रहे हो. बस बहस पर बहस कराये जा रहे हो...


तभी ईश्वर ने मुझ पर कृपा बरसाई। सभी बुद्धजीवियों का घेरा थोड़ी देर के लिए ढीला हुवा और मैं भाग निकला। और जाकर जहाँ रुका वहां परीक्षा चल रही थी. देखा राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी देश की वर्तमान स्थिति पर एक निबंध लिख रहे हैं. प्रणब दा ने निबंध पहले लिख लिया इसलिए उनका निबंध देश के नाम सम्बोधन के तौर पर सुनाया गया. कुछ दिन बाद मोदी जी की बारी आई. दोनों की टॉनिक देश को मिलने के बाद मैंने ये उम्मीद की कि अब कुछ दिन तक देश में कुछ नहीं होगा लेकिन तब पंजाब में हाय तौबा मच गयी. अभी एक दिन पहले जाति के नाम पर. देश का पहला व्यक्ति फिर टेंशन में आ गया. कल एकबार फिर उसने देशवासियों को समझाया। जब राष्ट्रपति साहब देश को समझा रहे थे उसी समय हिन्दू समाज के कथित ठेकेदार और सत्ता के लोभी स्वार्थी लोग जम्हाई ले रहे थे. काफी देर तक यह सब चलता रहा तभी एक ४ साल का बच्चा गिलास में पानी लेकर आया और जम्हाई ले रहे उन लोगों पर फेंक दिया। और रौद्र रूप में बोला- अब तो जागो, देश को हिन्दू, मुस्लिम या किसी जाति के लोगों के रहने लायक नहीं बल्कि इंसानों के रहने लायक बनाओ। फिर वह उगते हुवे सूरज की तरफ चल पड़ा... और यह कहता हुवा कहीं ग़ुम हो गया कि देश का ध्यान रखना। हमने इसे आदर्श देश बनाना है...

बुधवार, 27 मई 2015

बेपर्दा होते ही हैवानों से बच निकली वो लड़की

आज के दिन मैं पैदा हुई थी। शादी के लायक तो उम्र हो चुकी है लेकिन ऐसा लग रहा है मैंने फिर से जन्म लिया है। पिछले तीन सालों में आज मेरे साथ ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस मैट्रो में एक भी शख्स ऐसा नहीं दिखा जिसकी आंखों में मुझे देखते समय हवस हो। मैं हैरान थी। ऐसी नहीं कि कोई देख नहीं रहा था। देख रहे थे। लेकिन चोरी से। मैंने कई बार उनकी नजरों में झांकने कोशिश की। हर बार सभी की नजर में मुझे सिर्फ शर्म ही नजर आई। मुझे एक बार देखने के बाद दोबारा देखने की हिम्मत किसी में नहीं दिख रही थी। मैं खुश थी कि अब मुझे मैट्रो में, राह चलते, कोई छेड़ेगा नहीं। किसी की जुबान और न निगाहें ही हर दिन मेरे शरीर को अब तार-तार नहीं करेंगीं।
मर्दों में ऐसा बदलाव महज एक दिन के भीतर ही था। कल ही की तो बात है। मैं मैट्रो से उतर कर अपने किराए के मकान में जा रही थी। ज्यादा दूर नहीं था, इसलिए पैदल ही चल दी। या ये कहिए कि महीने का बजट देखकर चलना पड़ता था इसलिए... खैर... सुर्ख चमकता नीला आसमान देखते ही देखते काले बादलों से घिर गया। मैट्रो से उतरते वक्त शायद  शाम के 7:30 ही बज रहे होंगे। लेकिन ऐसा लग रहा था रात के 11 बज गए हों। गुप्प अंधेरा। उम्मीद थी बारिश होगी। चंद कदम चले ही थे कि बारिश शुरू हो गई। राह पर खड़े रिक्षों ने भी फिलहाल बारिश  की वजह से चलने से मना कर दिया था। मैं आगे बढ़ गई बारिश ने पूरी तरह भिगो दिया था। हवा थोड़ी तेजी थी। ठंड से मेरे पूरे शरीर में झुरझुरी दौड़ लगा रही थी।
तभी पीछे से आवाज आई। कहां जा रही हो। ये मौसम तो मजे करने का है। कुछ पल के लिए सब शांत हो गया। और चंद सेंकेंड बाद फिर आवाजा आई- आइए आपको छोड़ देते हैं। मेरी धड़कनें तेज हो गईं। डर से ठंड और तेज लग रही थी। मेरी धड़कनों के साथ-साथ मेरे कदम भी तेजी से बढ़ने लगे। मैं समझो दौड़ लगा रही थी। तभी अचानक बाइक पर सवार दो लड़कों ने मेरे रास्ता रोक लिया। हाथी जैसा शरीर और भद्दी शक्ल वाले उन लड़कों ने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा आओ आज तुम्हें हिरोइन बना दूं। सी ग्रेड फिल्मों की। मेरे पैरों से जमीन खिसकी गई। उनकी बेहुदी बातें मुझे छलनी कर रहे थे। मैंने खुद के बचाव के लिए इधर-उधर नजर दौड़ाई। रास्ता सुनसान हो चुका था। आसपास पेड़ के नीचे खड़ी कुछ गायों और कुत्तों के और कोई नहीं दिखाई दे रहा था। बारिश में भीगा मेरा बदन उन्हें किसी तले हुए मांस से कम नहीं लग रहा था, जिसे खाकर वे अपनी भूख मिटाना चाहते थे। मैंने भागने की कोशिश की तभी पीछे बैठे भेडि़ये ने मेरा हाथ झटककर कहा- होशियारी करोगी तो एक और निर्भया बना दूंगा। उसकी धमकी से मानो मेरा शरीर जम सा गया। हलक सूख गया था। और जिस्म से बारिश की बूंदें के साथ पसीना भी टपक रहा था। फिर भी मैं अपनी पूरी ताकत से पीछे की तरफ भागी। और जोर-जोर से चिल्लाने लगी। पीड़ों की नीचे बैठे कुत्ते भी शोर मचाने लगे। भागते हुए मैंने अपना रास्ता बदला। हालांकि पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत मैं हो चुकी थी। लेकिन वो भेडि़ए पीछे हैं या नहीं, जानने के लिए मैंने दौड़ते दौड़ते ही पीछे देखना चाहा। और तभी एक गाड़ी से जा टकराई। देखा तो नीली-लाल बत्ती वाली वैन में बैठे कुछ पुलिसवाले मुझे भौचक होकर देख रहे थे। उन्होंने सवाल पूछा  लेकिन मैं उनको जवाब नहीं दे पाई। मेरे फेफड़े मुह को आ गए थे। मेरे मुंह से शब्द फूटने के बजाए मैं जोर-जोर से आवाज करते सांस ले रही थी। उनके वहां न पहुंचने पर अपने होने वाले हश्र को याद करके मैं उन्हें देखकर फफक पड़ी।
इस घटना ने मुझे तोड़कर रख दिया। वैसे लड़कों की घिनौनी और शर्मशार करनेवाली देने वाली हरकतों से मैं... मैं क्या, शहर की हर लड़की हर रोज सामना करती है। हर उम्र का मर्द अपने-अपने तरीके लड़कियों से अश्लीलता करने की कोशिश करता है। कई बार सोचती थी कि भगवान ने ऐसा जिस्म ही क्यों दिया जो हर समय जिल्लत और डर में ही जीने को मजबूर करता है। मैं दुआ मांगती थी कि मेरी हड्डियों से ये मांस गलकर निकल जाए। तब शायद ये लोग मुझे हैवानियत से देखना बंद कर दें। टीवी पर चर्चाओं में अकसर लोग लड़कियों के कपड़ों की खिलाफत करते दिखते हैं। कई मर्तबा मैंने अपने लिबास को भी बदलकर देखा। हिंदू होने के बाद भी बुर्का तक पहना। लेकिन उससे झलकते हुए बदन पर भी लोगों की बातें खतम नहीं होती थीं। लेकिन इन तीन सालों में किसी एक भी सोच मुझे बदली नहीं दिखी।
पुलिसवालों ने मुझे घर छोड़ा। उस रात मुझे नींद ही नहीं आई। मैं सोचती ही रही। लड़कियों के हंसने, बोलने, चलने यहां तक कि बैठने के तरीके को ये लोग हमेशा अलग नजर से ही क्यों देखते हैं। सोचती रही ऐसा क्या करूं कि जिससे मुझे लोग दरिंदगी से देखना बंद करें। और यही सोचते-सोचते मैं सो गई।
सुबह अपने ही टाइम पर उठी। चुंकि आज मेरा बर्थ डे है। मुझे दोस्तों के साथ पार्टी करनी थी। झट से मैंने अल्मारी से अपने नए कपड़े निकाले। बिस्तर पर रखा। और फिर नहाने चली गई। पानी की तेज धार मुझे ठंडक पहुंचा रही थी। आंख बंद करने पर कल की घटना मुझे डरा रही थी। घर से बाहर निकलने के लिए। मैं फिर सोच में पड़ गई। तभी जोर से घंटी बनजे की आवाज आई। मैं वापस होश में आई। पानी करीब एक 45 मिनट से मुझे भिको रहा था। घंटी दोबारा बजी। मैं बाथरूम से बाहर निकली। दरवाजा खोला तो कोई नहीं था। दरवाजे पर टिफिन रखा हुआ था। मैंने टिफिन को पास वाली टेबल पर रखा। अपना पर्स उठाया और दोस्तों से मिलने चल दी। मैट्रो तक पहुंचते-पहुंचते न जाने कितने लोगों ने मुझे घूर-घूर कर देखा। लेकिन किसी की नजरों में हैवानियत नहीं थी। मैट्रो में भी यही दिखा। मैं खुश थी। मैं अब आजाद हूं। मेरा जिस्म अब मेरे लिए नासूर नहीं रह गया था। मुझे अब अपने शरीर के लिए ईश्वर से बद्दुआ नहीं मांगनी पड़ेगी। लोगों से खुद को बचाने के लिए मैंने आज भी कुछ नया ही किया था इसलिए शायद लोगों में इतना बदलाव दिख रहा था। मैं मेरे नए कपड़े वैसे ही बिस्तर पर छोड़कर आ गई। आज मैं बेपर्दा हो कर सफर कर रही थी। मैं वैसा बनकर आई थी जैसे ये इंसान मुझे देखना चाहते थे। मैं मौन थी लेकिन चीख-चीखकर बता रही थी देखो इस मांस के लोथड़े में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसकी वहज से हर दिन कोई न कोई लड़की दुराचार की शिकार होती है। ...समाज को समझना होना कि बदलाव की सबसे ज्यादा जरूरत किसे है। क्योंकि पुरुषप्रधान समाज की अवधारणा को खत्म करते हुए महिलाएं खुद को बदल रही हैं। हर क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती दे रही हैं। वे तकरीबन आजाद हो चुकी हैं पुरानी दकियानूसी परम्पराओं से। बदलाव तो उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है। इसलिए शायद बदलना उन्हें नहीं किसी और को होगा।

मंगलवार, 19 मई 2015

अभी नहीं मिली है मुझे सुकून की नींद: अरुणा

समाज में मुझे इसकी इजाजत नहीं देता लेकिन ये जिंदगी मेरी है। और मेरे साथ जो कुछ भी हुआ, उसे इस समाज को बताने का मुझे पूरा हक है। कम से कम उस समय जब मैं मर रही हूं... हार रही हूं। मैं शिकायत करना चाहती हूं और गुजारिष भी। मैं अरुणा शानबाग।

मैं 24 साल की ही तो थी जब एक जानवर ने मेरे साथ वो सब कुछ किया, जिसे बर्दाश्त
 करने के लिए असीम ताकत चाहिए थी। वह जानवरे ही था। अगर इंसान होता ऐसा कुछ करने की सोचते भी ना और मर्द पुरुष होता तो इस हद तक ना गिर जाता। जिस उम्र में मैं जमीन पर बदहवास पड़ी आत्मा को चूरचूर कर देने वाला दर्द हो झेल रही थी। अमूनन उस उम्र में कोई लड़की अपने पंख फैलाए दूर आसमान तक उड़ान भरने के सपने देखती है। खुद के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए, देश के लिए कुछ कर गुजरने की कोशिश करती है। मेरे मन में भी ख्वाइष थी। लोगों की सेवा करने की। मैं कर्नाटक से मुंबई आई थी। मुझे सुकून मिलता था-मरीजों की सेवा करके, उनकी तकलीफ को दूर करने के लिए लड़ते रहने में। पर...
वो हादसा 42 साल पहले 27 नवंबर 1973 को मंगलवार के दिन हुआ। भले ही उस वक्त वार्ड ब्वाॅय सोहनलाल वाल्मीकि ने मुझे जो दर्द दिया था उसकी पीड़ा कुछ महीने बाद खत्म हो गई लेकिन जो दर्द मुझे इस समाज में दिया वो आज भी मुझे तकलीफ देता है। मुझे जानवर समझा गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे कुत्ते की जंजीर से जकड़कर दर्द दिया गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे कोमा में पहुंचा दिया गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुंबई के अस्पताल किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के वार्ड नंबर में चार में मैं चार दशक तक मन से निकालने के देने वाले अरमानों को मन में ही घूंट लिया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मेरे गूंगेपन के कारण मेरा अपराधी जिसे कानूनी तौर पर कोर्ट से आजाद कर दिया। बावजूद इसके मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे तकलीफ उस वक्त हुई जब मैं अपने लिए इच्छा से मौत चाहती थी लेकिन 8 मार्च 2011 को अपने फरमान में मुझे कोर्ट ने मौत नहीं देने का फैसला किया। मुझे उस समय तकलीफ हुई जब अंतिम सांस तक उस हादसे को याद करते रहने के लिए मुझे जिंदा रहने का फैसला सुनाया। मुझे तब तकलीफ होती जब मेरी कहानी जानने के बाद भी इस आए दिन हर एक अरुणा शानबाग मरती है। मुझे तब तकलीफ होती है जब लोगों के सामने, इस समाज के सामने सब कुछ हो रहा होता है लेकिन सब के सब मुर्दा बने रहते हैं। गाहे बगाहे कुछ लोग किसी चैक चैराहे पर मेरे जैसी कईयों के नाम व तस्वीर की तख्ती लेकर हल्लाबोल करते हैं और फिर शांत हो जाते हैं। ऐसे तो न सोच बदलेगी और न समाज। 
कुछ लोग कहते हैं पुलिस अपना काम नहीं कर रही है। इसलिए ऐसे अपराध पनप रहे हैं। कुछ कहते हैं हमारा कानून ही कमजोर है। कुछ कहते हैं लोगों को बदलना होगा। नजरिया और सोच, बदलनी होगी। घर से बदलाव की शुरुआत करनी होगी। लोगों को सब कुछ पता है कि ऐसे अपराधों को कैसे खत्म करना है लेकिन बदलने की शुरुआत करने की जगह लोग बस कह ही रहे हैं।
लोगों को लगा मैं कोमा में हूं। इसलिए मौन हूं। उन्हें यह भी लगता था कि मुझे अब कोई दर्द नहीं, कोई तकलीफ नहीं होती। लेकिन मैं तो कभी चुप नहीं थी। हर दिन मैं चीख चीखकर अपने लिए इंसाफ मांगती थी। ऐसा इंसाफ जो दूसरों के लिए मिसाल बने। ऐसी सजा जिसे देखने वाला हर कोई शख्स भविष्य में कभी ऐसी हरकत ना करने की सोचे जैसे मेरे साथ हुई। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तीन साल सात महीने बाद ही सही लेकिन ईष्वर ने मेरी मुराद पूरी कर दी। वो मुझे मृत्यु दे रहा है। मेरे जन्म के 13 दिन पहले ही मैं इस दुनिया से जा रही हूं। हो सकता है कि आप लोगों को लग रहा हो कि मैं दूसरी दुनिया में सुकून से रहूंगीं लेकिन हर बार जब देखूंगी कि मेरी ही जैसी कोई अरुणा फिर किसी जानवर के नीचे पिस रही है, मैं तड़पूंगी और तब तक तड़पती रहूंगी। जब तक चर्चाएं खत्म न हो जाएं और जब तक बदलाव की बयार न बहने लगे। कोई एक बदल जाएगा और दूसरे को बदलने के लिए कोशिश करता रहेगा। फिर देखना एक दिन मेरी ही जैसी एक अरुणा शानबाग अपना काम खत्म करके बेसमेंट में अपने कपड़े बदलेगी। न उसे कोई बिना कपड़े देखने के लिए कहीं छुपा होगा। न उसके साथ कोई दुराचार करने की ताक में होगा। वो शाम को सही सलामत अपने घर पहुंचेगी।

शनिवार, 18 अप्रैल 2015

राजनीति के कानून से अब तैयार होंगे जज

संतुलन बेहद जरूरी है। यह हर एक चीज को सटीक बनाता है। स्कूल में पढ़ाया गया था कि संविधान ने हमें कार्यपालिका, व्यवस्थापिका और न्यायपालिका तीन ऐसे हथियार दिए हैं जो समाज में संतुलन स्थापित करने में मदद करेंगे। लेकिन लोग कहते हैं कि इन हथियारों में जंग लग गई हैं। इन्हें बदलने या दुरुस्त करने की जरूरत है। ताकि समाज में जो असंतुलन पैदा हुआ है वह दूर हो सके। बदलाव की शुरुआत  हो चुकी है, न्यायापालिका से। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादलों की 20 साल पुरानी काॅलेजियम प्रणाली खत्म कर दी है। इसकी जगह केंद्र ने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून (एनजेएसी) अधिसूचित कर दिया है। इससे जुड़ा 99वां संविधान संशोधन  कानून भी लागू हो गया है। संसद ने पिछले साल अगस्त में आयोग विधेयक और इससे जुड़े संविधान संशोधन बिल को पारित किया था। बिल को राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने से पहले कुल राज्यों की आधे से ज्यादा विधानसभाओं का अनुमोदन लिया गया। इसके बाद दोनों कानूनों को राजपत्र में प्रकाशित  किया गया। बहरहाल एनजेएसी की अध्यक्षता सुप्रीमकोर्ट के चीफ जस्टिस करेंगे। आयोग में शीर्ष कोर्ट के दो वरिष्ठ जज और कानून मंत्री के अलावा प्रधानमंत्री, चीफ जस्टिस और लोकसभा में विपक्ष के नेता या सबसे बड़े विपक्षी दल के नेता की समिति द्वारा नामित दो व्यक्तियों को शामिल किया जाएगा। 
यूपीए और एनडीए दोनों की घटकों का हमेशा से विरोध रहा है कि काॅलेजियम सिस्टम में पारदर्शी की कमी है। कोर्ट द्वारा लिए गए फैसलों के आधार का पता नहीं चलता है। कई योग्य न्यायाधीशों को प्रमोशन नहीं मिल पाता है। जजों की नियुक्ति से पहले बैकग्राउंड की पड़ताल ठीक ढंग से नहीं की जाती है। कई तमाम आपत्तियों के बीच आयोग के गठन की सिफारिश की गई। लेकिन सवाल ये है कि क्या यह नई व्यवस्था पहली व्यवस्था से ज्यादा कागर साबित होगी। पूर्व व्यवस्था के विरोध में उठे तर्क क्या अब समाप्त हो जाएंगे, शायद नहीं। हां, ये हो सकता है कि नई व्यवस्था अब नियुक्ति और तबादले जैसे मामलों में जजों के एकाधिकार या मनमानी को समाप्त कर दे लेकिन नई व्यवस्था के आने से स्थिति सुधरने की बजाए बिगड़ भी सकती है। यूपीए और एनडीए दोनों ही विरोधी दल पुरानी काॅलेजियम व्यवस्था के खिलाफ थे। चाहे सुप्रीम कोर्ट के जज हों या फिर हाईकोर्ट के सभी जजों ने पिछले 10 सालों में कई ऐसे बड़े और गम्भीर मामलों में फैसले लिए हैं जिसने समाज में एक उदाहरण पेश किया। हालांकि इन फैसलों से यूपीएम और एनडीए को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष से रूप से काफी नुसान भी पहुंचाया है। और आने वाले वाले व्यक्त में भी ऐसी ही संभावनाएं हो सकती हैं। इसीलिए सभी राजनीतिक दलों ने पुरानी व्यवस्था में सेंधमारी करके कानून में ही संशोधन करा दिया। अब नेताओं के चहेते जज भी जब कब नियुक्त होते रहेंगे। हो सकता है आने वाले वक्त में राजनीतिक प्रभाव में आकर कई बार फैसले भी प्रभावित हो जाएं। ऐसे में जिस मंशा से कानून में संशोधन किया गया वह पूरा ही नहीं हो पाएगा। यानी संतुलन स्थापित नहीं हो पाएगा। रही फैसलों की बात पहले भी सबूतों के आधार पर फैसले होते थे और आगे भी होंगे। हालांकि सरकार ने अभी तक यह स्पष्ट नहीं किया है कि आयोग न्यायाधीशों द्वारा भ्रष्टाचार करने या अन्य विरोधी घटनाओं पर अंकुश कैसे लगाएगा। अभी जो व्यवस्था थी उसके तहत सुप्रीम कोर्ट का काॅलेजियम ही नामों की सिफारिश करता था। आपत्ति होने पर सरकार किसी नाम पर पुनर्विचार को कह सकती थी। लेकिन काॅलेजियम का अंतिम फैसला भी सरकार को मानना ही होता था। राष्ट्रपति भी सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की पसंद पर सिर्फ मुहर लगाते थे। यह व्यस्था सिर्फ भारत में ही लागू थी। 
आईए अतीत की एक घटना  पर बात करते हैं। मद्रास हाईकोर्ट में एक ऐसे अतिरिक्त जज थे, जिनपर निचली अदालत में कार्यकाल के दौरान भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे। मगर मद्रास हाईकोर्ट के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीशों उन्हें बरी कर दिया। जब मर्कंडेय काटजू मुख्य न्यायाधीशों बने तो उन्होंने जस्टिस लाहोटी से इसकी जांच कराने की अपील की। आईबी ने जांच में सभी आरोप सही पाए। इसलिए ओरापी जज को स्थायी जज नहीं बनाया गया। तब सत्ताधारी यूपीए सरकार में तमिलनाडु के घटक दल ने केंद्र सरकार गिरा देने की धमकी दी। इसके बाद एक कांग्रेस नेता ने उस जज को जस्टिस लाहोटी के कार्यकाल में फिर से अतिरिक्त जज और जस्टिस बालकृष्णन के कार्यकाल में स्थायी जज बना दिया। यह घटना पूर्व काॅलेजियम व्यवस्था में ही घटी, जिसमें सरकार के हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश नहीं थी। लेकिन मौजूदा व्यवस्था में पक्ष और विपक्ष दोनों का दखल होगा। वैसे नई व्यवस्था के शुरू होने से पहले ही सवाल खड़े करना उचित नहीं लेकिन न्यायिक आयोग के सदस्यों द्वारा लिया गया फैसला कितना संतुलित है यह कौन तय करेगा।

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

गुस्ताखी माफः बिना बताए ना गायब हुआ करें राहुल जी

खुद को लोगों के बीच से गायब कर लेना एक अद्भुत कला है। ये शक्ति हासिल करना कोई आसान काम नहीं। बड़ी तपस्या के बाद हासिल होती है। इसीलिए तो इसे ना हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पा सके और ना ही अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा। लेकिन बहुत ही छोटी उम्र में कांग्रेस के शहजादे राहुल गांधी ने इसे हासिल कर सबको टक्कर दे दी। लोकसभा चुनावों और दिल्ली में विधानसभा चुनावों में जबरदस्त हार का सामना करने के बाद ऐसा अन्तरध्यान हुए कि प्रकट होने का नाम ही नहीं ले रहे। राहुल की इस नटखट आदत से इस बार कांग्रेस ही नहीं उनकी धुरविरोधी पार्टी भाजपा भी काफी चिंता में है। उन्हें डर है कि कहीं बाबा खो ना हो जाएं। चिंता का आलम यह है कि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित षाह को बैंगलुरू में कांग्रेस से कहना पड़ा कि आप मेरी परवाह छोड़ पहले शहजादे को ढूंढें। खैर कांग्रेस उपाध्यक्ष की इस गुमशुदगी से कम से कम यह तो स्पष्ट हो गया कि विरोधी भी दिल ही दिल में इनका बहुत ख्याल करते हैं।
वैसे राहुल के गायब होने की इस कला को सैल्यूट करना होगा। सूचना क्रांति के इस युग में दुनिया भर में कोई इस बात का पता नहीं लगा पाया कि आखिर वे हैं कहां। मीडिया में एक बार खबर आई थी कि बाबा कहीं योग का प्रशिक्षण ले रहे हैं। लेकिन पुष्टि नहीं हो सकी। वैसे योग ही सीखना था तो रामदेव बाबा के पास जाने में क्या हर्ज था। जो भी हो कांग्रेस के लक्ष्मण कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह ने हाल ही में कहा था कि राहुल जी इसी महीने अपनी तपस्या खत्म करके भारत वापस लौट रहे हैं। संभवतः 19 अप्रैल को उनके दर्शन साथी-विरोधियों सभी को होंगे।
करीब तीन महीने तक गायब रहे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को लोगों ने खोज निकाला। पुतिन को छोड़िये लोगों ने तो उनकी बेटी का फोटो तक खोज लिया। हर साल अपनी हेयर स्टाइल बदलने वाले उत्तरी कोरिया के तानाशाह किंम जोंग उन को ढूंढ लिया गया। ये भी पता लगा लिया गया कि बीमार थे। लेकिन राहुल गांधी को कोई नहीं खोज  पाया। वाकई उनमें कुछ अलग है तो देश-दुनिया के बड़े-बड़े नेताओं में भी नहीं है।
वैसे खोज निकालने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पीछे नहीं हैं। अपनी हरेक रैली में वो कोई ना कोई ऐसा इतिहास खोज लाते हैं कि खुद बड़े-बड़े इतिहासकार अपनी खोज पर शक करने लगते हैं। बावजूद इसके मोदी जी अपनी इस प्रतिभा पर बिल्कुल भी घमंड नहीं करते है। लेकिन राहुल जी को खोज निकालने में इस बार वे भी चूक गए। खोज निकालने में दौड़ी में धर्मपत्नियां भी आगे हैं। गत वर्ष एक युवा कवि और अब नेता जी खुद के खिलाफ हुई एक खोज से परेशान न थे। फिर पता चला कि यह खोज किसी और ने नहीं बल्कि उनकी पत्नी ने ही की थी। इस बात की जानकारी जिन्हें नहीं थी बाद में खुद उन्होंने ट्विटर पर इसे लोगों को बता दिया। बोले, कुमार हूं विश्वास नहीं करोगे।
लेकिन राहुल को ऐसे वक्त पर गायब नहीं होना था। होते तो सीखते कि कैसे बजट पेश होता। कैसे बजट सत्र में हंगामा होता है। कैसे भूमि अधिग्रहण बिल पर कई दिनों तक संसद ठप रहती है। कैसे विरोधी नेताओं के विवादित बयानों पर हंगामा किया जाता है। कैसे प्रधानमंत्री से माफी मंगवाई जाती है। होते हो देखते बारिश ने ओलावृष्टि ने कैसे एकतरफा फसलों को बर्बाद कर दिया। कैसे लाखोें किसान ये सदमा झेल रहे हैं। कैसे खेत-खलिहान शमशानघाट बनते हैं। हो तो सीखते कि कैसे मुआवजे के नाम पर राजनीति बेची जाती है। होते तो देखते जनता के नाम पर एक दूसरे को गाली देने वाले परिवार कैसे जनता परिवार को अमलीजामा पहना रहे हैं। देखते कि आजम खां जैसे लोग कैसे अपनी ही पार्टी के खिलाफ धरना प्रदर्शन करते हैं। होते तो पता चल जाता कि उनके होने ना होने से कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता। वे जान जाते कि मन ही मन में उनके ही कार्यकर्ताओं ने प्रियंका गांधी को अपना नेता मान लिया है। और अगर राजीव गांधी होते तो वे भी कांग्रेस को मजबूत करने के लिए अपने कार्यकर्ताओं के इस फैसले को मान लेते...। वैसे सुना है राहुल जल्द ही दिल्ली आने वाले हैं. 

शनिवार, 7 फ़रवरी 2015

कहीं खट्टी तो नहीं मेदी की न्यूक्लियर डील

हर वक्त किसी भी मुद्दों पर बहसबाजी राजनीति के प्रोटोकाॅल में शायद नहीं आती। और कई बार वक्त ही ऐसा माहौल बना देता है कि प्रोटोकाॅल फाॅलो नहीं हो पाता। जैसे इन दिनों हो रहा है। दिल्ली विधानसभा ने देश भर की राजनीति को मानो कुछ दिनों के लिए सुस्त कर दिया है। विदेश मंत्री चीन दौरे पर गईं और वापस भी आ गईं लेकिन कहीं कोई शोर गुल नहीं कि मंत्री जी सरकारी पैसे पर उतनी दूर गईं तो वहां क्या करके आईं। या फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आगामी चीन यात्रा को लेकर बस माहौल बनाकर ही चली आईं। इससे पहले की बात करते हैं। अमेरिका और भारत के बीच परमाणु समझौता हुआ। आवाम इस वर्श के कई बड़े समझौतों में से इस एक के बार में जानना चाहती है। जानना चाहती है कि समझौता कितना जरूरी था? किसको इससे ज्यादा फायदा होने वाला है? यह डील भारत के लिए कितनी लाभाकारी है? कितने क्षेत्र इसका लाभ उठा सकेंगे? पहले की अपेक्षा अब कितनी बिजली बनेगी? कितने गांव और रोशन हो सकेंगे? डील में हम ठगे गए या दांव मार गए? लेकिन कहीं कोई चूं तक नहीं कर रहा। और चूं नहीं ही करेगा। क्योंकि अभी बताया ना कि हर वक्त राजनीति नहीं की जाती।
इसका भी अपना प्रोटोकाॅल है। मुद्दा उठ भी गया तो बिना बहस के फीका पड़ जाएगा। इसीलिए सभी विपक्षी पार्टियां चुप्पी साधे बैठी हैं। चुनाव खत्म होने का इंतजार कर रही हैं। उसके बाद सभी भाजपा पर टूट पड़ेंगीं। जैसे सन् 2006 में कांग्रेस के शासन के समय हुए परमाणु समझौता में हुआ था। हफ्तों बहस चली थी। कई दिन तक लगातार संसद भी ठप रही थी। भारत की सुरक्षा को दांव पर लगाकर समझौता करने के आरोप कांग्रेस पर लगाए गए थे। हालांकि हादसे के समय उत्तरदायित्व के सवाल को लेकर यह डील अटक गई थी। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में कहा था कि परमाणु ऊर्जा की मुख्यधारा में आने की दशकों पुरानी मुश्किल दूर हो गई है। अब एक बड़ा इश्योरेंस पूल बनाया जा रहा है, इससे किसी नए विधेयक की जरूरत नहीं होगी। मजेदार बात यह है कि अब आठ साल बाद इसी डील को मोदी ने पूरा किया। और मीडिया रिपोर्टों से भी स्पष्ट हो गया है कि परमाणु संयंत्र से अगर कोई हादसा होता है तो उसकी पूरी जिम्मेदारी इंश्योरेंस कंपनी की होगी। वैसे डील देश के लिए कितना फायदेमंद होगी यह तो वर्तमान सरकार के मैनेजमेंट पर निर्भर करता है। पर विश्लेषकों की मानें तो इस समझौते से क्रांतिकारी लाभ होने वाला नहीं है। वरिष्ठ पत्रकार पल्लव बागला कहते हैं कि आधुनिक परमाणु रिएक्टर की लागत भारतीय परमाणु रिएक्टर की तुलना में कम से कम तीन गुना ज्यादा होती है। इधर, सूचना है कि डील के तहत अमेरिका कम से कम आठ परमाणु रिएक्टर बनाएगा। इसके लिए दो प्रमुख आपूर्तिकर्ता कंपनियों जनरल इलेक्ट्रिक और वेस्टिंग हाउस इलेक्ट्रिक कंपनी गुजरात और आंध्र प्रदेश में रिएक्टर बनाने के लिए जमीन तलाश रही है। एक और विश्लेषण में सामने आया कि इस डील से हमें कम फायदा होगा। अमेरिकी मशीनरी से परमाणु बिजली के लिए रूसी संयंत्रों के मुकाबले दो गुनी कीमत चुकानी पड़ेगी। दरअसल अमेरिकी कंपनी वेस्टिंग हाउस छह रुपए प्रति किलोवाट की दर से बिजली बेच रही है। जबकि रूसी सहायता से बने कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र से बिजली सिर्फ साढ़े तीन रुपए प्रति किलोवाट में उपलब्ध है। अमेरिकी कंपनी का इतनी महंगी बिजली देने के पीछे बीमा वजह है। जबकि कुडनकुलम संयंत्र की तीसरी और चैथी इकाइयों के निर्माण के लिए हुए समझौते में ऐसी कोई भी शर्त नहीं है। वैसे, आने वाले वक्त में स्थिति पेचीदा हो सकती है। बिजली महंगी हो सकती है। एंटी-न्यूक्लियर लाॅबी उग्र हो सकती है। कुडनकुलम संयंत्र शुरू करने के लिए हुई हिंसा का कई बार रिपीटटेलीकास्ट भी हो सकता है। सरकार 2032 तक 63 हजार मेगावाट परमाणु ऊर्जा उत्पादन को अपना लक्ष्य मानकर चल रही है। यह लक्ष्य वर्तमान क्षमता से 14 गुना ज्यादा है। भारत के पास 22 आण्विक केंद्र हैं और अगले 20 सालों में इनकी संख्या बढ़ाकर 60 तक करने की योजना है।

गुरुवार, 5 फ़रवरी 2015

संविधान की प्रस्तावना के दो शब्दों पर हंगामा क्यों है बरपा?

भारतीय जनता पार्टीवर्तमान में देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी है। इसी ने देश को कई कीर्तिमान रचने वाला प्रधानमंत्री भी दियानरेंद्र मोदी। दोनों में एक समानता है। हमेशा से ही दोनों की छवि कठोर हिंदूवादी रही है। इनकी यही पहचान विदेशों में भी है। कहींइसीलिए तो नहीं हाल में भारत दौरे पर आए अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने जाते-जाते विकास के लिए भारत को या अप्रत्यक्ष रूप से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धर्मनिरपेक्ष होने का मंत्र दिया। ओबामा ने सिरीफोर्ट सभागार में अपने संबोध में कहा कि धार्मिक आधार पर बंटवारे के प्रयासों से सतर्क रहना होगा क्योंकि धार्मिक सहिष्णुता ही सफलता का मूल है। उनके जाने के बाद ये वक्त था सलाहकारों द्वारा उनके संबोधन के अर्थ समझकर देश हित में सोचने का लेकिन ऐसा कुछ होता कि उससे पहले ही केंद्र सरकार उसी मुद्दे को लेकर विवाद में  गई जिसे ओबामा ने उठाया था। दरअसल केंद्र सरकार ने एक विज्ञापन प्रकाशित करवाया जिसमें संविधान के संकल्पों में से धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द हटा दिए गए। तब मोदी सरकार के ही केंद्रीय आवास और गरीबी उन्मूलन मंत्री ने ऐसा किए जाने के पीछे तर्क दिया कि कहाये शब्द मूल प्रस्तावना में नहीं थे। इन्हें आपातकाल में समय जोड़ा गया और सरकारी विज्ञापन मूल प्रस्तावना के बारे में था। वहीं सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री राजेंद्र राठौड़ ने कहा कि विज्ञापन में संविधान की मूल काॅपी का ही इस्तेमाल किया गया है। जो भी हो लेकिन सरकार शायद यह भूल गई कि संविधान में संशोधन गलतियां  दोहराने के लिए ही किए जाते हैं।सन् 1997 में 42वें संशोधन के जरिए धर्मनिरपेक्ष और समाजवाद शब्द को संविधान में शामिल किया गया। और तब से लेकर आज तक बनीं सभी सरकारें उन्हीं संकल्पों की शपथ लेती आईं हैं। इस बार मोदी सरकार ने भी इन्हीं संकल्पों के आधार पर जनता से भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश बनाए रखने का वादा किया है। मामला शांत होता  कि उससे पहले सरकार के एक और केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने दोनों शब्दों को हटाने जाने पर बहस होने की इच्छा जाहिर कर दी। बहरहाल मंत्री के इस बयान से राजनीति गरमा गई। और इसमें उन्हीं की समर्थक पार्टी शिवसेना के नेता के बयान ने आग में घी डालने का काम किया। संजय राउत ने धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी शब्दों को संविधान की प्रस्तावना से बाहर निकालने की मांग करते हुए कहा कि इसे स्थायी तौर पर हटा दिया जाना चाहिए। इस पर सभी राजनीतिक दलों ने एक सुर में सरकार के ऐसे रुख की निंदा करते हुए इन शब्दों को संविधान से हटाए जाने की वकालत की हैं। हालांकि इस बीच केंद्रीय मंत्री एमवेंकैया नायडू ने कहा कि सरकार धर्मनिरपेक्षता को लेकर प्रतिबद्ध है। इसे हटाने का कोई विचार नहीं है। लेकिन सवाल ये है कि सरकारी विज्ञापनों के कंटेंट में ऐसा हेरफेर सिर्फ एक त्रुटि मात्र ही था या फिर यह त्रुटि इरादतन थी। क्योंकि इतने बड़े पैमाने पर प्रकाशित होने वाला विज्ञापन जो सरकार की मंशा को दर्शाएमें ऐसे बदलाव होने के बाद किसी के द्वारा भी आपत्ति ना उठाया जाना मौन स्वीकृति का भी संकेत माना जाएगा। सवाल यह भी है कि केंद्र सरकार आखिर संविधान की किस प्रस्तावना पर विश्वास करती है। मूल या संशोधित प्रस्तावना पर। वैसे यह तो आत्मविदित है कि संशोधन के बाद पूर्ववर्ती वस्तु का कोई अर्थ नहीं रह जाताउसका नया स्वरूप ही प्रभावी माना जाता है। वैसे संविधान निर्माताओं का कहना था कि सरकार द्वारा देश में संविधान का पालन करवाने से पहले यह बेहद जरूरी है कि खुद सरकार को संविधान की प्रस्तावना पर अटूट आस्था और विश्वास होना चाहिए।