दबाव, विवशता और समझौतों के बीच आखिरकार राजनाथ सिंह ने भाजपा राष्ट्रीय  कार्यकारिणी टीम की घोषणा कर ही दी। टीम से कई को अपेक्षाएं थीं। सहज है,  जोड़-तोड़ की गणित में कुछ की व्यवस्था हो गई तो मुंह तकते रहे गए। लम्बे  समय से पार्टी में चल रहे शीत युद्ध के चलते इस टीम में जहां गुजरात के  मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने खास लोगों को टीम का सदस्य बनवाकर अपना  सिक्का बरकरार रखा। देखने वाली बात यह है कि टीम में पार्टी के उन वरिष्ठ  नेताओं को जगह नहीं दी गई जिन्होंने जब-तब पार्टी के फैसलों के विरोध में  मुंह खोले थे, लेकिन कुछ ऐसे लोगों को नजरअंदाजकर दिया गया जिनकी टीम  राजनाथ में शामिल होने की प्रबल संभावनाएं थीं, इनमें मध्य प्रदेश के  मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं। टीम गठन के बाद उनके चेहरे पर  शिकन दिखने लगी। जाहिर है यह शिकन पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती और प्रभात  झा के कारण है, जिन्हें राजनाथ ने उपाध्यक्ष बनाया है।
राजनीति में यही विशेषता है कि  कब कौन किस पर भारी पड़ जाए कहा नहीं जा  सकता। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने जब हुबली तिरंगा कांड को लेकर  इस्तीफा दिया और बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी थी तब उन्हें  अभास भी नहीं हुआ होगा कि बाबूलाल गौर उनकी वापसी पर कुर्सी से नहीं  उठेंगे। इसके बाद जब शिवराज सिंह चौहान ने आनन-फानन में मध्यप्रदेश सरकार  की बागडोर संभाली तब भी उमा भारती को यह अहसास नहीं होगा कि उनके मार्ग  दर्शन में काम करके नेता बने शिवराज सिंह चौहान उनके प्रदेश वापसी की राह  में रोड़े अटकाएंगे। और तो और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा को तो अंतिम  क्षणों तक यह विश्वास नहीं था कि उनकी अध्यक्ष की कुर्सी छीनी जा चुकी है  और मुख्यमंत्री की यह पता ही नहीं है। जाहिर है अब वक्त बदल गया है। संघ और  भाजपा के केंद्रीय पदाधिकारियों की प्रशंसा ने गुजरात के मुख्यमंत्री  नरेंद्र मोदी के मुकाबले खड़े दिख रहे शिवराज सिंह चौहान राजनाथ  की एक ही  चाल से पीछे धकेल दिए गए और उमा भारती व प्रभात झा को भले ही संगठन में  उनके मनमुताबिक पद न मिला हो, लेकिन उपाध्यक्ष रहते हुए वे शिवराज की राह  में कई रोड़े डाल सकते हैं। चंद महीनों बाद शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व  में भाजपा विधानसभा चुनावों में जाने वाली है। जाहिर है प्रदेश में  मुख्यमंत्री पद के दावेदार शिवराज ही होंगे, लेकिन संगठन के अंदरूनी हलकों  में यह चर्चा है कि प्रभात झा और उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान की राह में  रोड़े अटका सकते हैं। संभव है कि प्रदेश में शिवराज का कद देखते हुए वे  कामयाब न हों, लेकिन यदि इन नेताओं ने आपत्ति दर्ज कराई तो भाजपा की  किरकिरी होना तय है।
राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो ठीक ऐसी ही शक्ति नितिन गडकरी के पास होगी।  प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम को कमजोरी करने या नाम पर मुहर लगाने  के लिए। नितिन गडकरी को नरेंद्र मोदी ने कई मोकों पर झुकने के लिए मजबूर  किया है। जिस कार्यकारिणी की बैठक में गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाए जाने  के लिए पार्टी के संविधान में परिवर्तन होना था मोदी ने ऐन वक्त पर उसमें  आने से इंकार कर दिया था। और शर्त रखी थी कि संजय जोशी को पार्टी से निकाल  दिया जाए। मन मारकर गडकरी को मोदी की बात माननी पड़ी थी और संजय जोशी को  पार्टी से बाहर निकालना पड़ा। इसके बाद जब गडकारी पर पूर्ति में गड़बड़ी के  आरोप लगे तब मोदी ने गडकरी को गुजरात में प्रचार करने आने से रोक दिया था।   एक तरह से यह पार्टी अध्यक्ष अपमान था, लेकिन मजबूरी में गडकरी को इस अपमान  का कड़बा घूट पीना पड़ा। अब गडकरी संसदीय बोर्ड में हैं। यह ठीक है  कि फिलहाल पार्टी में नरेंद्र मोदी की तूती बोल रही है, लेकिन संघ उन्हें  आज  भी संदेह की नजरों से देख रहा है। मोदी की मनमानी पर लगाम लगाने के लिए संघ  गडकरी का बखूबी इस्तेमाल कर सकता है। गडकरी भी अपने अपमानों का बदला लेने  से परहेज नहीं करेंगे। हो सकता है कि भविष्य में मोदी के करीबी अमित शाह ही  मोदी के गले की हड्डी बन जाएं। शाह पर शोहराबुद्दीन के फर्जी मुठभेड़ के  अलावा कई संगीन आरोप हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जिन्हें गुजरात से तड़ीपार किया  था। यदि चुनाव के समय तक शाह के खिलाफ कोई कानूनी पेंच फंसता है तो उसकी  आंच मोदी पर जरूर आएगी। इसके अलावा भी टीम राजनाथ में ऐसे अनेक चेहरे हैं  जो एक दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए लड़ते हुए दिखाई दे सकते हैं।  इनमें लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल हैं। चूंकि पार्टी में प्रधानमंत्री पद का    उम्मीदवार कौन होगा इसे लेकर अभी तक अंतरद्वंद की स्थिति है। अभी तक किसी  भी नेता को इस दौड़ से बाहर नहीं माना जा रहा है, लिहाजा वक्त के साथ टकराव  बढऩे के आसार है। मुलायम सिंह ने पिछले दिनों जिस तरह से लालकृष्ण आडवाणी  की तारीफ की और जदयू ने जिस तरह मोदी का विरोध किया इससे आडवाणी का पलड़ा  भारी हो सकता है। कार्यकर्ताओं की भीड़ भले ही मोदी-मोदी के नारे लगाए,  लेकिन गठबंधन की राजनीति में नंबर पूरे करने के लिए क्षेत्रीय दलों की  सहायता जरूरी होती है और उनकी इच्छाओं को नजरअंदाज नहीं कि या जा सकता। 
शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013
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