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गुरुवार, 5 सितंबर 2013

“महिला संबंधी अपराध, पुरूष मानसिकता या कुछ और”


महात्मा गांधी हिंदी विश्विद्यालय के मीडिया डिपार्टमेंट में कल यानि 6 सितंबर को हफ्ते का मुद्दा के तहत महिला संबंधी अपराध, पुरूष मानसिकता या कुछ और पर चर्चा प्रस्तावित है। मुझे भी भाग लेना है....मैं बहुत असमंजस में हूं...क्योंकि मुझे लग रहा है कि जाने-अनजाने इस चर्चा का विषय ही पुरुष जाति को कटघऱे में खड़ा कर रहा है,,,,और मुझे ये समझ नहीं आ रहा है कि मैं पुरुष मानसिकता पर एकतरफा वार क्यों और कैसे करूं,,,, क्योंकि महिलाओं पर अत्याचार में कभी-कभी महिलाओं का हाथ पुरूषों से अधिक होता है। कन्या भ्रूण को गर्भ में ही मारने पर जोर देने वालों में किसी महिला की सास का हाथ अधिक रहता है। दहेज के लिए सास-ननद ही बहू को ज्यादा प्रतड़ित करती हैं। दहेज हत्या में पति से ज्यादा महिला की सास और ननद की भूमिका देखने को मिलती है। इसके अलावा महिलाओं का एक वर्ग ऐसा भी है जो शार्टकट में सफलता हासिल करने के लिए अपने बॉस या संबंधित अधिकारी के सामने खुद को प्रस्तुत कर देती है। अक्सर अखबारों में छपता है कि शादी का झांसा देकर युवती का यौन शोषण किया। जबकि गहराई में जाया जाए तो ज्यादातर केस में वह युवती खुद की सहमति से उक्त युवक के साथ अपना घर छोड़कर फरार होती है। फिर युवती के माता-पिता युवक के खिलाफ बहला-फुसलाकर लड़की भगाने, बलात्कार करने का मुकदमा दर्ज करा देते हैं और उक्त युवती लोक-लाज से अपने मां-बाप की हां में हां मिलाती है। फिल्मों में मल्लिका शेरावत, प्रियंका चोपड़ा और करीना कपूर जैसी सफल अभिनेत्रियों ने भी कहानी की डिमांड बताकर उट पटांग भूमिका निभाती हैं। आइटम सांग के नाम पर भड़काऊ गाने और फूहड़ डांस करती हैं,,,,2012 में आई हिरोईन फिल्म में करीना कपूर गाती हुई थिरकती हैं कि आंखों को क्यों सेंके हाथों से कर मनमानी....हलकट जवानी,,,इस गाने का समाज पर क्या असर पड़ेगा उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं। उन्हें चर्चा में आने और पैसा कमाने से मतलब है। जबकि वे खुद एक महिला हैं। उपरोक्त बातों से यह बात सिद्ध होता है कि महिलाओं पर अत्याचार में  महिलाओं का भी हाथ होता है।

                               दूसरी तरफ महिलाओं पर अत्याचार में पुरुषों की भुमिका किसी से छिपी नहीं है। दिसंबर 2012 का दिल्ली गैंगरेप कांड, मुंबई में महिला फोटोग्राफर बलात्कार कांड, अभी हाल ही में आसाराम बापू पर नाबालिग लड़की से बलात्कार का आरोप पुरुष की भूमिका को निश्चत तौर पर कटघरे में खड़ा करता है। महिलाएं वर्षों से कभी सती प्रथा के नाम पर, कभी पर्दा प्रथा के नाम पर सतायी गई हैं। यहां एक बात गौर करने वाली ये है कि महिला अत्याचार के खिलाफ समय-समय पर समाज में आंदोलन भी चले हैं। इन आंदोलनों में महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों ने भी भाग लिया है। चाहें सती प्रथा के खिलाफ राजा राममोहन राय की भूमिका की बात की जाये या दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को सजा दिलाने के लिये दिल्ली में भारी संख्या में जुटी भीड़ की बात की जाये पुरूषों ने भरपूर योगदान दिया। ऐसे में महिला अत्याचार के मुद्दे पर पुरुष मानसिकता को जिम्मेदार ठहराया जाना, पूरे पुरुष जाति का अपमान मालूम पड़ता है।
यहां महिला- पुरुष से अलग हटकर सरकार की भूमिका पर बात की जाए तो हम देखते हैं कि सरकार केवल खानापूर्ति में लगी रहती है। दिल्ली गैंगेरेप के बाद महिलाओं पर अत्याचार के मामले में नया कानून बना फिर भी दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को अभी सजा नहीं मिली। जबकि केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने की बात पर सारे राजनीतिक दल और पूरे सांसद एक हो गये और केंद्रीय सूचना आयोग को ठेंगा दिखाते हुए अपने पक्ष में कानून बनाने में जरा भी देर नहीं  की। ऐसे में महिलाओं पर अत्याचार के मामलों में सरकार की घोर लापरवाही उजागर होती है। एन डी तिवारी की करतूत जग जाहिर हो चुकी है। वर्तमान केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का वह बयान कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि पत्नी पुरानी हो जाती है तो मजा कम हो जाता है, नई पत्नी में ज्यादा मजा आता है। वहीं उत्तर प्रदेश सरकार के पूर्व मंत्री और वर्तमान में जेल में सजा भुगत रहे अमरमणि की करतूत भी नेताओं के करतूत को उजागर करती नजर आती है कि किस तरह अपने अवैध संबंधों के चलते उन्होंने मधुमिता शुक्ला की हत्या करा दी थी। गीतिका शर्मा मौत मामले में हरियाणा के जाने माने नेता गोपाल कांडा की करतूत भी नेताओं की भूमिका पर सवाल उठाती है। बसपा के विधायक पुरूषोत्तम द्विवेदी के उस करतूत पर गौर फरमाना भी प्रासंगिक है जिसमें उन्होंने पहले तो अपनी नौकरानी से दुष्कर्म किया फिर उसे चोरी के आरोप में जेल में बंद करवा दिया। उपरोक्त घटनाओं से महिलाओं के प्रति नेताओं का नजरिया सामने आता है। यहां ये बात स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि जिस तरह से कुछ पुरूषों द्वारा बलात्कार जैसे अपराध करने से पुरा पुरुष समाज अपराधी नहीं हो जाता है। उसी तरह कुछ नेताओं द्वारा महिलाओं पर अत्याचार करने से पूरे राजनेता दोषी नहीं हो जाते। फिर भी महिला अपराध को रोकने में नेताओं की भूमिका निंदनीय है। जितनी जल्दी केंद्रीय सूचना आयोग की अवहेलना करते हुए सांसदों ने अपने पक्ष में कानून बना लिया, उतनी ही जल्दी दिल्ली गैंगरेप में आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हुई...जबकि पूरा देश आरोपियों को फांसी पर लटकना देखना चाहता है, फिर भी भारत के तथाकथित माननीय सांसद मानवाधिकार और कोर्ट की दुहाई देकर जनभावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं और दिल्ली में जुटी भीड़ से डरकर नये कानून की बात कर रहे हैं। पूरा देश जानता है कि पुराने कानून से ही धनंजय चटर्जी जैसा दरिंदा फांसी पर लटक चुका है फिर इन आरोपियों के लिये नये कानून की जरूरत कहां से आ गई। कुल मिलाकर नेताओं के रूख को देखकर यही कहा जा सकता है कि वे अपनी सारी ऊर्जा अपनी कुर्सी को बनाये रखने, आगे और आगे ऊंचा ओहदा हासिल करने अपने पुत्र-पुत्री-बहू को सांसद-विधायक, मंत्री-मुख्यमंत्री बनाने में ही खपा रहे हैं और जनता की गाढ़ी कमाई से ये सांसद 80 हजार रुपया उड़ा रहे हैं। अगर ये नेता नीजि मौज-मस्ती छोड़कर महिला अत्याचार के खिलाफ एक हो जाएं, फिल्म सेंसर बोर्ड को अश्लील फिल्मों और द्विअर्थी बातों के प्रति सख्त कर दिया जाए और महिलाओं से बलात्कार/अत्याचार करने वालों को सख्त से सख्त और शीघ्र सजा दी जाए तो महिलाओं पर अत्याचार कम और शायद समाप्त भी हो सकता है।

शनिवार, 11 मई 2013

मरने के बाद भी मुझे नहीं बख्शा

मैं क्या हूं ये जानने से पहले बताना चाहूंगा कि यहीं भारत के पंजाब के एक छोटे से गांव भिखीविंड में मेरा जन्म हुआ था। मेरी पहचान के तौर पर, पाकिस्तान मुझे आतंकी के रूप में जानता है और पूरी दुनिया इस पहचान के साथ-साथ भारत का जासूस मानती है। लेकिन मैं एक किसान था। हां ऐसा कथित तौर पर यह भी सुनने में आया कि मैं एक शराब तस्कर भी था। वर्ष 1990, उस दौरान लाहौर और फैसलाबाद में दो सिलसिलेवार धमाके हुए। चौदह लोगों के मरने की पुष्टि हुई। चुंकि बम हादसा बड़ा था तो धमाके के जिम्मेदारों को भी खोजने की पड़ताल भी जोरों पर थी। करीब तीन महीने बाद 30 अगस्त 1990 को मुझे कौसर सीमा पर गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के बाद मुझसे गहन पूछताछ होना लाजमा था। कारण, एक तो दहशत के खौफजदा माहौल में मैं पकड़ा गया ऊपर से भारतीय नागरिक भी ठहरा। मेरे पाकिस्तान में मौजूदगी की वजह पूछी गई। रास्ता भटक गया था मैंने बताया लेकिन मेरी बात पर उन्हें भरोसा कहां होता। मैं कब कैसे किन परिस्थितियों में पाकिस्तान पहुंचा इस पर दिमाग खपाना अब किस काम का क्योंकि अब यह सचाई तो मेरी मौत के साथ ही मिट्टी में मिल गई। कागजों पर अब मैं हमेशा एक आतंकी और भारतीय जासूस के तौर पर ही जाना जाऊंगा...लेकिन भारत को छोड़कर।
मुझे दुख नहीं कि पाकिस्तान ने मुझे सजा-ए-मौत दी। कोई भी देश होता तो 14 मासूम लोगों की हत्या के जुर्म में यही सजा सुनाता जो मुझे सुनाई गई। भारत में भी तो यही सजा सुनाई गई... अफजल और कसाब को। बस दुख है तो इस बात का कि मेरे सरीखे पाकिस्तन की जेलों में बंद भारतीय कैदियों के साथ बर्बर व्यवहार की घटनाएं जब-कब जगजाहिर होती रहती थीं फिर न तो भारत कुछ कर पाया और न ही मानवाधिकार की वह वैश्विक संस्था ही कुछ नहीं कर पाई जो गाहे-बगाहे किसी न किसी देश को अपनी रिपोर्ट सौंप नसीहत देती रहती है।
बंटवारे के बाद से चली आ रही दो देशों के बीच रंजिश के बीच एक आम नागरिक फंस गया, राष्ट्रों की कूटनीति के तहत एक आम नागरिक जासूस बना दिया गया... मुझे मेरे साथ ऐसा होने का अफसोस नहीं है। मुझे इस बात का भी दुख नहीं है कि  पाक जेल की चार दीवारी में मेरे शरीर के हर एक अंग को चोटें पहुंचाई गईं। चीख और दर्द के साथ मैंने अपने जीवने के आखिरी 22 साल बिताए। मुझे दुख नहीं है। मुझे दुख है कि मेरे नाम पर देश के पक्ष-विपक्ष ने जमकर राजनीति खेली। और पाकिस्तान के साथ किए जा रहे हर मजाक को हर बार बस सामान्य की तरह हमारा देश झेलता रहा। दुख है कि एक आस लिए मैंने भारत सरकार को कई बार अपने दर्द का बयान किया, जान का खतरा है ऐसा कई बार बताया। ऐसा मैं अकेला कैदी नहीं था हमारे वतन के कई और भी इसी पीड़ा से जूझ रहे थे फिर भी सरकार उदासीन बनी रही।
बस खुशी है तो इस बात कि मेरी बहन ने मेरे लिए अपना परिवार छोड़ा। मेरे बच्चों को गोद लिया। अकेले उसने मुझे वतन वापस लाने की मुहिम शुरू की। लेकिन दुख है कि देश के ही बुद्धिजीवी कहे जाने वाले लोगों ने उसके इस भातृ प्रेम को भी स्वार्थ बता डाला। अपनी लेखनी चलाकर लोगों ने लिख डाला कि मेरी रिहाई के मुद्दे को मेरी बहन भुनाकर अपना नाम कर रही है।... लेखक कुछ भी नहीं लिखते लेकिन क्या है कि अब लोकतंत्र का हवाला देकर कुछ भी लिखने वाले अब लेखक बन गए हैं।
...एक बाप के साए में उसके बच्चे बड़े होते हैं लेकिन मेरी दोनों बच्चियां मेरी तस्वीर देख के बड़ी हुईं। और मैंने अपने 22 साल सिर्फ उनकी प्यारी सी मुस्कान और किल्लारियों के सहारे काट दिए। मुझे मेरी बहन के हौसले से एक बारी लगने लगा था कि दम तोड़ने से पहले अपनी बच्चियों को सीने से लगा सकूंगा लेकिन मेरे सपनों से कहीं ज्यादा हकीकत मुझे दर्द दे रही थी। उनकी मार से अक्सर जान हलक तक आकर अटक जाती थी। लेकिन कम्बख्त मौत भी मेरे साथ खिलावड़ कर रही थी।
मैं पाकिस्तान की नजर में एक गुनहगार था। वहां भी मेरे मौत को लेकर राजनीति की गई। ऐसा सुनने में आया था कि पीपीपी की स्थिति डावांडोल चल रही थी। उनके पास सत्ता में वापस आने का एक ही मुद्दा बचा था। जनता की भावनाओं को वोट में बदलने का। सो...मेरी हत्या का ताना बाना बुन डाला गया।
हम भारतीयों की आत्मा इतनी भी दूषित नहीं कि यूं ही किसी को काट लें। मेरी पाक की उस जेल में सभी से दुआ-सलामा होती थी। मैं इस मामले में तो पाक था, मुझे लगा कि पाक में भी सभी मेरी तरह पाक हैं लेकिन कब जेल में मेरे ऊपर हमला हुआ कब मैं मौत के आगोश में सो गया कुछ पता ही नहीं चला।
गजब की बात है मेरे जीते जी किसी ने न तो मेरी सुध ली न ही मेरी परिवार की। और मेरे मरते ही राहुल और बादल मुझे कंधा देने पहुंच गए। केंद्र से 25 और प्रदेश से 1 करोड़ की राशि और मेरी बेटियों को सरकारी नौकरी। गजब की फुर्ती और दरिया दिली दिखाई दोनों ने। लेकिन मुझे कोई हक नहीं कि मैं ऐसा कुछ मदद के लिए बढ़े हाथों के लिए कुछ बोल सकूं। बड़ी बात ये है कि मेरे मरने के बाद सही लेकिन किसी ने तो मेरी चिंता दूर की। इसलिए मुझे भी लगता है कि कांग्रेस की प्रदेश और केंद्र की लोकसभा चुनाव की चिंता पंजाब राज्य से कुछ हद तक से तो कम हो ही जाएगी।
वैसे मजे की बात यह है कि अपने यहां मुर्दे पर भी जुबानी जंग सुनने वाली होती है। अपनी ही बात करूं तो ज्यादा बेहतर होगा। मेरे परिवार ने मुझे शहीद का दर्जा दिए जाने की मांग सरकार से की थी साथ ही राजकीय सम्मान के साथ मुझे अंतिम विदाई देने की मांग की थी। मुझे भारत में आए एक दिन भी नहीं बीता था कि लोकतंत्र का मजा ले रहे एक लेखक ने मुझे शहीद कहे जाने और मुझे राजकीय सम्मान के साथ जलाए जाने पर प्रश्न खड़ा कर इस अनुचित बता डाला।
वैसे मेरे लिए अब इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं रह जाता। बस ये बताने की कोशिश कर रहा था कि इस स्वार्थ भरी दुनिया में वेदनाओं और रिश्तों की कोई कीमत नहीं। हर कोई आज बस उन्हें अपने स्वार्थ के लिए भुनाने में लगा हुआ है और जो सच में इनका सम्मान करते हैं उन्हें भी मोहरा बना इस्तेमाल कर लिया जाता है।  लो एक और नया वाकया सामने आया अभी हाल ही में मुझे भारतीय खूफिया एजेंसी रॉ के पूर्व अधिकारी ने सार्वजनिक घोषित कर दिया कि मैं रॉ का एजेंट था। देखता हूं अब मेरी मौत पर आगे क्या गुल खिलाया जाएगा। वैसे मैं सरबजीत हूं...सरबजीत सिंह...

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

चौहान के लिए मुसीबत बन सकते हैं उमा-झा

दबाव, विवशता और समझौतों के बीच आखिरकार राजनाथ सिंह ने भाजपा राष्ट्रीय कार्यकारिणी टीम की घोषणा कर ही दी। टीम से कई को अपेक्षाएं थीं। सहज है, जोड़-तोड़ की गणित में कुछ की व्यवस्था हो गई तो मुंह तकते रहे गए। लम्बे समय से पार्टी में चल रहे शीत युद्ध के चलते इस टीम में जहां गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने खास लोगों को टीम का सदस्य बनवाकर अपना सिक्का बरकरार रखा। देखने वाली बात यह है कि टीम में पार्टी के उन वरिष्ठ नेताओं को जगह नहीं दी गई जिन्होंने जब-तब पार्टी के फैसलों के विरोध में मुंह खोले थे, लेकिन कुछ ऐसे लोगों को नजरअंदाजकर दिया गया जिनकी टीम राजनाथ में शामिल होने की प्रबल संभावनाएं थीं, इनमें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान शामिल हैं। टीम गठन के बाद उनके चेहरे पर शिकन दिखने लगी। जाहिर है यह शिकन पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती और प्रभात झा के कारण है, जिन्हें राजनाथ ने उपाध्यक्ष बनाया है।
राजनीति में यही विशेषता है कि  कब कौन किस पर भारी पड़ जाए कहा नहीं जा सकता। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने जब हुबली तिरंगा कांड को लेकर इस्तीफा दिया और बाबूलाल गौर को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपी थी तब उन्हें अभास भी नहीं हुआ होगा कि बाबूलाल गौर उनकी वापसी पर कुर्सी से नहीं उठेंगे। इसके बाद जब शिवराज सिंह चौहान ने आनन-फानन में मध्यप्रदेश सरकार की बागडोर संभाली तब भी उमा भारती को यह अहसास नहीं होगा कि उनके मार्ग दर्शन में काम करके नेता बने शिवराज सिंह चौहान उनके प्रदेश वापसी की राह में रोड़े अटकाएंगे। और तो और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा को तो अंतिम क्षणों तक यह विश्वास नहीं था कि उनकी अध्यक्ष की कुर्सी छीनी जा चुकी है और मुख्यमंत्री की यह पता ही नहीं है। जाहिर है अब वक्त बदल गया है। संघ और भाजपा के केंद्रीय पदाधिकारियों की प्रशंसा ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के मुकाबले खड़े दिख रहे शिवराज सिंह चौहान राजनाथ  की एक ही चाल से पीछे धकेल दिए गए और उमा भारती व प्रभात झा को भले ही संगठन में उनके मनमुताबिक पद न मिला हो, लेकिन उपाध्यक्ष रहते हुए वे शिवराज की राह में कई रोड़े डाल सकते हैं। चंद महीनों बाद शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा विधानसभा चुनावों में जाने वाली है। जाहिर है प्रदेश में मुख्यमंत्री पद के दावेदार शिवराज ही होंगे, लेकिन संगठन के अंदरूनी हलकों में यह चर्चा है कि प्रभात झा और उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान की राह में रोड़े अटका सकते हैं। संभव है कि प्रदेश में शिवराज का कद देखते हुए वे कामयाब न हों, लेकिन यदि इन नेताओं ने आपत्ति दर्ज कराई तो भाजपा की किरकिरी होना तय है।
राष्ट्रीय स्तर पर देखा जाए तो ठीक ऐसी ही शक्ति नितिन गडकरी के पास होगी। प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के नाम को कमजोरी करने या नाम पर मुहर लगाने के लिए। नितिन गडकरी को नरेंद्र मोदी ने कई मोकों पर झुकने के लिए मजबूर किया है। जिस कार्यकारिणी की बैठक में गडकरी को दोबारा अध्यक्ष बनाए जाने के लिए पार्टी के संविधान में परिवर्तन होना था मोदी ने ऐन वक्त पर उसमें आने से इंकार कर दिया था। और शर्त रखी थी कि संजय जोशी को पार्टी से निकाल दिया जाए। मन मारकर गडकरी को मोदी की बात माननी पड़ी थी और संजय जोशी को पार्टी से बाहर निकालना पड़ा। इसके बाद जब गडकारी पर पूर्ति में गड़बड़ी के आरोप लगे तब मोदी ने गडकरी को गुजरात में प्रचार करने आने से रोक दिया था। एक तरह से यह पार्टी अध्यक्ष अपमान था, लेकिन मजबूरी में गडकरी को इस अपमान का कड़बा घूट पीना पड़ा। अब गडकरी संसदीय बोर्ड में हैं। यह ठीक है कि फिलहाल पार्टी में नरेंद्र मोदी की तूती बोल रही है, लेकिन संघ उन्हें आज भी संदेह की नजरों से देख रहा है। मोदी की मनमानी पर लगाम लगाने के लिए संघ गडकरी का बखूबी इस्तेमाल कर सकता है। गडकरी भी अपने अपमानों का बदला लेने से परहेज नहीं करेंगे। हो सकता है कि भविष्य में मोदी के करीबी अमित शाह ही मोदी के गले की हड्डी बन जाएं। शाह पर शोहराबुद्दीन के फर्जी मुठभेड़ के अलावा कई संगीन आरोप हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जिन्हें गुजरात से तड़ीपार किया था। यदि चुनाव के समय तक शाह के खिलाफ कोई कानूनी पेंच फंसता है तो उसकी आंच मोदी पर जरूर आएगी। इसके अलावा भी टीम राजनाथ में ऐसे अनेक चेहरे हैं जो एक दूसरे पर वर्चस्व स्थापित करने के लिए लड़ते हुए दिखाई दे सकते हैं। इनमें लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल हैं। चूंकि पार्टी में प्रधानमंत्री पद का  उम्मीदवार कौन होगा इसे लेकर अभी तक अंतरद्वंद की स्थिति है। अभी तक किसी भी नेता को इस दौड़ से बाहर नहीं माना जा रहा है, लिहाजा वक्त के साथ टकराव बढऩे के आसार है। मुलायम सिंह ने पिछले दिनों जिस तरह से लालकृष्ण आडवाणी की तारीफ की और जदयू ने जिस तरह मोदी का विरोध किया इससे आडवाणी का पलड़ा भारी हो सकता है। कार्यकर्ताओं की भीड़ भले ही मोदी-मोदी के नारे लगाए, लेकिन गठबंधन की राजनीति में नंबर पूरे करने के लिए क्षेत्रीय दलों की सहायता जरूरी होती है और उनकी इच्छाओं को नजरअंदाज नहीं कि या जा सकता।

शनिवार, 30 मार्च 2013

...ये हैं शिवराज सिंह की ख़ुशी के मायने !


बड़े बुजुर्ग कह गए हैं की द्विअर्थी वाणी और चरित्र वाले मित्र से एक दुश्मन अच्छा है। पिछले 9 साल के शासनकाल में भाजपा की का कथनी और करनी में अंतर बताने वाले जितने तथ्य सामने आए हैं, वे संभवत: यही इशारा करते हैं। महिलाओं, किसानों और गरीबों  को लेकर खासी आत्मीयता दिखाने वाले प्रदेश  की भाजपा सरकार की  हकीकत  इसके कदम उलट है। यह आरोप यदि विपक्ष  के नेता लगाते तो शायद इसे राजनीति से प्रेरित  करार दिया जाता, लेकिन इस वास्तविकता से पर्दा उठाने वालों में सरकार के मंत्री और भाजपा की मातृ संस्था आरएसएस शामिल है। पिछले दिनों आरएसएस के एक पदाधिकारी साफ कहा की संघ सरकार से खुश नहीं है। इससे पहले भाजपा के ही एक वरिष्ठ नेता ने तो मुख्यमंत्री को घोषणावीर की ही उपाधि दे डाली थी। हालांकि उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा।
सर्कार के पिछले 9 साल के कार्यकाल पर नजर डालें तो वादे जितने सकारात्मक हुए हैं, परिणाम उतने ही नकारात्मक सामने आए हैं। इसका खुलासा खुद सरकार ने विधानसभा में किया है। सरकार महिलाओं  की खासी हितैषी बनती है, लाड़ली लक्ष्मी, कन्यादान और बेटी बचाओ आंदोलन जैसे कार्यक्रमों पर करोड़ों रुपए खर्च किये जाते हैं, लेकिन यही सरकार बच्चियों के अपहरण और बलात्कार रोकने में नाकाम साबित हुई है। गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता ने खुद विधानसभा में स्वीकार किया कि सरकार पांच हजार बच्चियों का पता नहीं लगा सकी।  इनमें से कुछ मानव तश्करी के मामले हैं। बलात्कार के मामलों में मध्यप्रदेश वर्षों से नबंर वन का ताज पहने हुए है। हाल ही में दतिया में विदेशी महिला से हुए गैंगरेप का जब विरोध किया गया तो सरकर ने इसे स्वार्थ  की राजनीति  करार दिया। हालांकि भाजपा जब विरोध में थी, तब विरोध स्वरूप रेप पीड़ित महिला को सार्वजनिक सभा में लाने पर भी नहीं हिचकी थी।
खैर! भाजपा की कथनी  और करनी का अंतर यहीं खत्म नहीं होता। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जबसे मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाली है, उनका एक ही ध्येय रहा है किसानी को लाभ का धंधा बनाना। लेकिन इसकी वास्तविकता भी वादे के एकदम उलट है। कर्ज में डूबे किसानों के लिए सरकार जगह-जगह मदद की घोषणा करती है लेकिन जब वक्त आता है तो मदद उद्योगपतियों की, की जाती है। प्रदेश में किसानों पर सबसे ज्यादा बिजली चोरी के केस हैं। यह आरोप नहीं है बल्कि सरकार की स्वीकारोक्ति है। ऊर्जा मंत्री ऊर्जा मंत्री राजेन्द्र शुक्ल विधानसभा में बताया था किए जनवरी 2009 से जनवरी 2011 तक उपभोक्ताओं पर  कुल 2 लाख 13605 बिजली चोरी के प्रकरण बनाए गए हैं। बिजली चोरी के कुल प्रकरण में 17429 गिरफ्तारी वारंट जारी किये गए। इस समयावधि में  किसानों के खिलाफ बिजली चोरी के सर्वाधिक 1 लाख 2994 प्रकरण दर्ज किये गए, जबकि घरेलू उपभोक्ताओं के खिलाफ 61976, व्यावसायिक 9796 और उद्योगों के खिलाफ 38839 प्रकरण दर्ज हुए। यानी किसानों  को चुन-चुनकर पकड़ा गया और उद्योगपतियों को नजरअंदाज ·किया गया।
इसके अलावा आम आदमी के लिए आशियाने की चिंता कर रही सरकार वास्तव में आम आदमी को जमीन से दूर करती जा रही है और उद्योगपतियों, बिल्डरों को खासा लाभ दे रही है। पिछले कुछ वर्षों में भोपाल में जमीन के सरकारी दाम लगातार बढ़ाए जा रहे हैं। यह नियमानुसार होते तब भी गलीमत थी, कलेक्टर गाईड लाइन में कई गुना तक दाम बढ़ा दिए जाते हैं। संदेह है कि उद्योगपतियों और बिल्डरों को लाभ पहुंचाने  की यह सुनियोजित चाल है। सत्ताधारी दल के विधायक धु्रवनारायण सिंह शहर में भू-माफियाओं की बढ़ती गतिविधियों का मामला उठा चुके हैं। दरअसल शहर में निजी बिल्डर तेजी से निर्माण कार्य में लगे हुए हैं। शहर के आसपास की जमीन बड़े पैमाने में खरीदी जा रही है। बिल्डर जो जमीन खरीदता है, सरकर की  मेहरबानी से अगले साल उस जमीन के दाम दो-तीन गुना हो जाते हैं। इसका सीधा लाभ बिल्डर को मिलता है और आम आदमी को कई गुना ज्यादा कीमत अपने आशियाने के लिए चुकानी पड़ती है। एक और बड़ा संदेह है, जिस पर आम आदमी का अभी तक ध्यान ही नहीं गया है। पिछले दिनों कैबिनेट की बैठक में एक फैसला किया गया था कि उद्योगपति आवंटित सरकारी जमीन को गिरवी रखकर कर्ज ले सकते हैं। यह बेहद खतरनाक फैसला है। अव्वल तो उद्योगपति जमीन गिरवी रखकर कर्ज ले लेगा, और बढ़ी हुई जमीन की कीमत पर उसे और अधिक कर्ज मिल जाएगा, लेकिन आवंटित जमीन को गिरवी लेकर कर्ज लेने से तो प्रदेश की वह पूरी भूमि ही बंधक हो जाएगी जो उद्योगपतियों को दी गई है। यदि उद्योगपति अपना व्यवसाय विकसित नहीं करता है और कर्ज नहीं चुका पाता है तो सरकार के पास प्रदेश में उस उद्योगपति का ऐसा क्या है जिससे वह उद्योगपति से कर्ज वसूल सके? वैसे भी यह जिम्मेदारी फिर बैंकों के कन्धों पर आ जाएगी। खुद को विकास पुरुष और प्रदेश को औद्योगिक क्षेत्र प्रचारित करने की गरज से सरकार जो फैसले ले रही है वह अंतत: प्रदेश के लिए दुखदायी ही साबित होंगे।

शुक्रवार, 1 मार्च 2013

असम से आँखों देखी बराक वेळी का सच ----




                असम से आँखों देखा सच का हाल में आपको इसलिए बताना चाहता हूँ कि असम की छवि जिस तरह से भारत में बनी है उसे अब भारत के बाकि हिस्से एक अलग नज़रिए से देखने लगे है। जिसकी तस्वीर हमारे जेहन में कोकराझार जैसे मसले को लेकर बनी है या फिर असम लगातार हिंसक त्रासदी के चलते हमेशा से सुखिंयो में बना रहता है। नॉर्थ ईस्ट के सभी 7 स्टेट हिंसक त्रासदी से नहीं उभर पा रहे है। असम में कांग्रेस की तीसरी बार सरकार होने से असम की जनता हमेशा से कांग्रेस के हाथो ठगी जाती है। असम में होने वाले छोटे से छोटे चुनाव को यहाँ की भोली भाली जनता उसे एक बड़े पर्व के रूप में देखती है और देखे भी क्यों ना उन पर लाखो का खर्च जो किया जाता है यहाँ की जनता के हर एक वोट को पैसे में तोलकर जो देख जाता है। हाल ही में हुए असम पंचायत चुनाव में पैसे को पानी की तरह किस तरह बहाया गया है इसकी बानगी मैंने खुद अपनी आँखों से देखी। जब एक ग्राम पंचायत बनने के लिए  30 लाख रूपये और एक ब्लाक प्रमुख बनने के लिए 60 लाख रूपये खर्च कर सकता है तो असम के विकास की उम्मीद भला कैसे की जा सकती है ......

असम के बराक वेळी के तीन जिले (कछार, करीमगंज, हैलाकांडी ) विकास की हालत पर आज भी रोने रा रहे है। असम के इन इलाको की कांग्रेस सरकार को कोई सुध नहीं है। कांग्रेस पार्टी को इन्ही इलाको में सबसे ज्यादा सीटें भी मिलती है और हाल ही में हुए असम पंचायत चुनाव में कांग्रेस पार्टी के सबसे ज्यादा उम्मीदवार यही से जीते लेकिन हर बार की तरह बराक वेळी हमेशा से अपने को ठगा हुआ महसूस करती है। यहाँ का युवा वर्ग कांग्रेस पार्टी के हाथो की कठपुतली बना हुआ है कारण बस यही की यहाँ के सभी युवा वर्ग पहले ही वोट के बदले नोट में तब्दील हो जाते है। इन इलाको में सर्व शिक्षा अभिमान के तहत प्राइमरी स्कूलों की हाताल देखने पर ही पता चलता है कि पैसे का किस तरह से दुरूपयोग किया जाता है बेरोजगारी और भ्रष्टाचार अपनी चर्म  सीमा पर है। आखिर जब मैंने इन इलाको को देखा तो में एक बार सोचने पर इसलिए मजबूर हो गया है कि आखिर असम की जनता ने कांग्रेस को कैसे तीसरी बार सत्ता तक पहुचाया। इन तीनो इलाको में पनप रहे भ्रष्टाचार को लेकर असमी मीडिया क्यों चुप है और इन इलाको में दलितों एवं जनजतियों पर होने वाले उत्पीडन के मामले भी सबसे ज्यादा यही है लेकिन असम की मीडिया के लिए यह कोई खबर नहीं बनती आखिर क्यों ? क्या असमी मीडिया अपनी जिम्मेदारी से पीछे हट रहा है या फिर एक खास वर्ग तक ही सीमित है। बराक वेळी के अलावा आज भी यहाँ के अधिकतर हिस्सों के हालत कुछ ज्यादा खास नहीं है। यहाँ बड़े से बड़ी घटना कब और कैसे घट जाये यहाँ की लोकल और मेन स्ट्रीम मीडिया को कुछ पता ही नहीं चल पाता। लेकिन दिल्ली के मीडिया स्टूडियो में बेठाकर जो बहस की जाती है उससे असम की समस्या का हल नहीं निकल सकता।और यहाँ के बड़े से बड़े मामले को गन्दी राजनीती के चलते रफा - दफा कर दिया जाता है।  

बराक वेळी के हाफलोंग में पढने वाले एक छात्र से हुई बातचीत में पता चला कि असम में मीडिया की पहुच कुछ ज्यादा खास नहीं है इसकी पहुँच सिर्फ शहरो और शहर के आसपास वाले इलाको तक है और में एक मीडिया शोधार्थी होने नाते यह कह सकता हूँ कि असम में मीडिया की पहुँच मात्र 40 %फीसदी तक है बाकि 60% असम की जनता अभी भी इससे अनजान है। आखिर इतने बड़े गेप की भरपाई किस तरह से की जा सकती है। यह बड़ा ही एहम सवाल है असम की अवाम के लिए। असम में परिवहन भी एक बड़ी समस्या है जिसके कारण गावों और शहरों के बीच का फासला इतना ज्यादा है कि ये चाह कर संपर्क नहीं कर सकते। असम की जनता के लिए दिल्ली इतनी दूर है कि वो गुवाहाटी को ही दिल्ली समझ लेते है। असम का परिवहन विभाग हाथ पर हाथ धरे न जाने किसका इंतज़ार कर रहा है। इसलिए इन इलाकों में अधिकतर मौतें रास्ते में दम तोड़ देने से ही हो जाती है। असम का एक ओर सच अभी यह भी है कि जो मेरी यात्रा का हिस्सा रहा और जिसे में कभी भुलाया नहीं सकता। रेल मंत्री पवन कुमार बंसल ने एक सौ छह नई ट्रनों को चलाने की घोषना के साथ साथ यात्रियों की सुरक्षा के लेकर भी कुछ वादे किये।  लेकिन एक दिन के बाद ही यूपी के मुज़फ्फरनगर से चलती शताब्दी ट्रेन में से एक महिला को नीचे फेक दिया गया जिससे उसकी मौत हो गयी। आखिर पवन कुमार बंसल की घोषणा एक दिन में ही क्यों धरासायी हो गयी? असम की रेलवे का सच अब आगे----          

गुवाहाटी से करीब एक सौ अस्सी किलोमीटर की दूरी पर लामडिंग सिटी है जहा से सिलचर जाने के लिए ट्रेन मिलती है। सिलचर तक पहुँचने का बस एक मात्र यही रास्ता है जहा से सुबह और शाम में मात्र दो ट्रेने चलती है अगर एक ट्रेन छूट जाये तो पूरे` दिन का वेट करना पड़ता है और शाम में ट्रेन छूट जाये तो पूरी रातभर वेट करना पड़ेगा। लामडिंग से सिलचर की दूरी मात्र दो सौ सोलह किलोमीटर है। वैसे यह दूरी ट्रेन के हिसाब से कोई ज्यादे मायने नहीं रखती लेकिन इस रूट पर लामडिंग से सिलचर के रेल प्रोजेक्ट का काम करीब पिछले पच्चीस सालो से चल रहा है। जिसका पच्चीस फीसदी भी काम अभी तक पूरा नहीं हुआ यह काम अब तक इसलिए पूरा नहीं हो पाया है कि स्थानीय नेताओं की यहाँ दादागिरी चलती है और यह सारा खुला खेल तरुण गोगई सरकार की आखों के सामने हो रहा है। गुवाहाटी से ट्रेन दुवारा सिलचर तक पहुँचने में करीब 18 घंटे लगते है इसीलिए यहाँ की जनता के लिए गुवाहाटी ही दिल्ली है। रेलवे विभाग के लिए ये बड़े शर्म की बात है। इसीलिए बराक वेळी के तीनो जिले (कछार, करीमगंज, हैलाकांडी ) आज तक नही उभर पा रहे है। जिस रेल प्रोजेक्ट पर भारतीय रेलवे करोडो रूपये खर्च करती है और रेल मंत्री के संसद में बैठकर बड़ी - बड़ी  घोषणाये करते है क्या उससे भारतीय रेलवे के हालत सुधर पाएंगे? कहना मुश्किल है। रेल बजट के पूरे दिन मीडिया जगत सुबह से ही रेल बजट को फोकस करने में लगा हुआ था।  क्या कभी असमी मीडिया या मेन स्ट्रीम ने इस मुद्दे को संसद तक पहुचाया? अगर ये मुद्दा देश की संसद के पटल रखा जाये तो बराक वेळी की हालत काफी सुधर सकती है। अगर रेलमंत्री को भारतीय रेल का इतना ही ख्याल है तो फिर बराक वेळी के कभी आकर आकर देखे कि किस तरह की राजनीती चलती है। मंत्री जी अगर ये रेलवे प्रोजेक्ट पूरा हो जाये तो बराक वेळी की जनता अपने को भारत से जुडा हुआ महसूस करेगी। वरना बराक वेळी में बांग्लादेश से आये हुए माइग्रेंट लोगो की तादात लगातार बढती जा रही है ओर देख लेना एक दिन ऐसा आएगा कि भारत का यही हिस्सा बांग्लादेश का हिस्सा बनकर रह जायेगा।