महात्मा गांधी हिंदी विश्विद्यालय के
मीडिया डिपार्टमेंट में कल यानि 6 सितंबर को हफ्ते का मुद्दा के तहत “महिला
संबंधी अपराध, पुरूष मानसिकता या कुछ और” पर चर्चा
प्रस्तावित है। मुझे भी भाग लेना है....मैं बहुत असमंजस में हूं...क्योंकि मुझे लग
रहा है कि जाने-अनजाने इस चर्चा का विषय ही पुरुष जाति को कटघऱे में खड़ा कर रहा
है,,,,और मुझे ये समझ नहीं आ रहा है कि मैं पुरुष मानसिकता पर एकतरफा वार क्यों और
कैसे करूं,,,, क्योंकि महिलाओं पर अत्याचार में कभी-कभी महिलाओं
का हाथ पुरूषों से अधिक होता है। कन्या भ्रूण को गर्भ में ही मारने पर जोर देने
वालों में किसी महिला की सास का हाथ अधिक रहता है। दहेज के लिए सास-ननद ही बहू को
ज्यादा प्रतड़ित करती हैं। दहेज हत्या में पति से ज्यादा महिला की सास और ननद की
भूमिका देखने को मिलती है। इसके अलावा महिलाओं का एक वर्ग ऐसा भी है जो शार्टकट
में सफलता हासिल करने के लिए अपने बॉस या संबंधित अधिकारी के सामने खुद को
प्रस्तुत कर देती है। अक्सर अखबारों में छपता है कि शादी का झांसा देकर युवती का
यौन शोषण किया। जबकि गहराई में जाया जाए तो ज्यादातर केस में वह युवती खुद की
सहमति से उक्त युवक के साथ अपना घर छोड़कर फरार होती है। फिर युवती के माता-पिता
युवक के खिलाफ बहला-फुसलाकर लड़की भगाने, बलात्कार करने का मुकदमा दर्ज करा देते
हैं और उक्त युवती लोक-लाज से अपने मां-बाप की हां में हां मिलाती है। फिल्मों में
मल्लिका शेरावत, प्रियंका चोपड़ा और करीना कपूर जैसी सफल अभिनेत्रियों ने भी कहानी
की डिमांड बताकर उट पटांग भूमिका निभाती हैं। आइटम सांग के नाम पर भड़काऊ गाने और फूहड़
डांस करती हैं,,,,2012 में आई हिरोईन फिल्म में करीना कपूर गाती हुई थिरकती हैं कि
आंखों को क्यों सेंके हाथों से कर मनमानी....हलकट जवानी,,,इस गाने का समाज पर क्या
असर पड़ेगा उन्हें इस बात से कोई मतलब नहीं। उन्हें चर्चा में आने और पैसा कमाने
से मतलब है। जबकि वे खुद एक महिला हैं। उपरोक्त बातों से यह बात सिद्ध होता है कि
महिलाओं पर अत्याचार में महिलाओं का भी
हाथ होता है।
दूसरी तरफ महिलाओं पर अत्याचार में पुरुषों की
भुमिका किसी से छिपी नहीं है। दिसंबर 2012 का दिल्ली गैंगरेप कांड, मुंबई में
महिला फोटोग्राफर बलात्कार कांड, अभी हाल ही में आसाराम बापू पर नाबालिग लड़की से
बलात्कार का आरोप पुरुष की भूमिका को निश्चत तौर पर कटघरे में खड़ा करता है। महिलाएं
वर्षों से कभी सती प्रथा के नाम पर, कभी पर्दा प्रथा के नाम पर सतायी गई हैं। यहां
एक बात गौर करने वाली ये है कि महिला अत्याचार के खिलाफ समय-समय पर समाज में
आंदोलन भी चले हैं। इन आंदोलनों में महिलाओं के साथ-साथ पुरुषों ने भी भाग लिया
है। चाहें सती प्रथा के खिलाफ राजा राममोहन राय की भूमिका की बात की जाये या
दिल्ली गैंगरेप के आरोपियों को सजा दिलाने के लिये दिल्ली में भारी संख्या में
जुटी भीड़ की बात की जाये पुरूषों ने भरपूर योगदान दिया। ऐसे में महिला अत्याचार
के मुद्दे पर पुरुष मानसिकता को जिम्मेदार ठहराया जाना, पूरे पुरुष जाति का अपमान
मालूम पड़ता है।
यहां महिला- पुरुष से अलग हटकर सरकार की
भूमिका पर बात की जाए तो हम देखते हैं कि सरकार केवल खानापूर्ति में लगी रहती है।
दिल्ली गैंगेरेप के बाद महिलाओं पर अत्याचार के मामले में नया कानून बना फिर भी दिल्ली
गैंगरेप के आरोपियों को अभी सजा नहीं मिली। जबकि केंद्रीय सूचना आयोग द्वारा राजनीतिक पार्टियों को आरटीआई के दायरे में लाने की बात पर सारे
राजनीतिक दल और पूरे
सांसद एक हो गये और केंद्रीय सूचना आयोग को ठेंगा दिखाते हुए अपने पक्ष में कानून
बनाने में जरा भी देर नहीं की। ऐसे में महिलाओं
पर अत्याचार के मामलों में सरकार की घोर लापरवाही उजागर होती है। एन डी तिवारी की
करतूत जग जाहिर हो चुकी है। वर्तमान केंद्रीय कोयला मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल का
वह बयान कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि पत्नी पुरानी हो जाती है तो
मजा कम हो जाता है, नई पत्नी में ज्यादा मजा आता है। वहीं उत्तर प्रदेश सरकार के
पूर्व मंत्री और वर्तमान में जेल में सजा भुगत रहे अमरमणि की करतूत भी नेताओं के
करतूत को उजागर करती नजर आती है कि किस तरह अपने अवैध संबंधों के चलते उन्होंने
मधुमिता शुक्ला की हत्या करा दी थी। गीतिका शर्मा मौत मामले में हरियाणा के जाने
माने नेता गोपाल कांडा की करतूत भी नेताओं की भूमिका पर सवाल उठाती है। बसपा के
विधायक पुरूषोत्तम द्विवेदी के उस करतूत पर गौर फरमाना भी प्रासंगिक है जिसमें
उन्होंने पहले तो अपनी नौकरानी से दुष्कर्म किया फिर उसे चोरी के आरोप में जेल में
बंद करवा दिया। उपरोक्त घटनाओं से महिलाओं के प्रति नेताओं का नजरिया सामने आता
है। यहां ये बात स्पष्ट कर देना उचित रहेगा कि जिस तरह से कुछ पुरूषों द्वारा
बलात्कार जैसे अपराध करने से पुरा पुरुष समाज अपराधी नहीं हो जाता है। उसी तरह कुछ
नेताओं द्वारा महिलाओं पर अत्याचार करने से पूरे राजनेता दोषी नहीं हो जाते। फिर
भी महिला अपराध को रोकने में नेताओं की भूमिका निंदनीय है। जितनी जल्दी केंद्रीय
सूचना आयोग की अवहेलना करते हुए सांसदों ने अपने पक्ष में कानून बना लिया, उतनी ही
जल्दी दिल्ली गैंगरेप में आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं हुई...जबकि पूरा
देश आरोपियों को फांसी पर लटकना देखना चाहता है, फिर भी भारत के तथाकथित माननीय
सांसद मानवाधिकार और कोर्ट की दुहाई देकर जनभावनाओं को ठेस पहुंचा रहे हैं और
दिल्ली में जुटी भीड़ से डरकर नये कानून की बात कर रहे हैं। पूरा देश जानता है कि
पुराने कानून से ही धनंजय चटर्जी जैसा दरिंदा फांसी पर लटक चुका है फिर इन
आरोपियों के लिये नये कानून की जरूरत कहां से आ गई। कुल मिलाकर नेताओं के रूख को
देखकर यही कहा जा सकता है कि वे अपनी सारी ऊर्जा अपनी कुर्सी को बनाये रखने, आगे
और आगे ऊंचा ओहदा हासिल करने अपने पुत्र-पुत्री-बहू को सांसद-विधायक,
मंत्री-मुख्यमंत्री बनाने में ही खपा रहे हैं और जनता की गाढ़ी कमाई से ये सांसद
80 हजार रुपया उड़ा रहे हैं। अगर ये नेता नीजि मौज-मस्ती छोड़कर महिला अत्याचार के
खिलाफ एक हो जाएं, फिल्म सेंसर बोर्ड को अश्लील फिल्मों और द्विअर्थी बातों के
प्रति सख्त कर दिया जाए और महिलाओं से बलात्कार/अत्याचार करने वालों को सख्त से
सख्त और शीघ्र सजा दी जाए तो महिलाओं पर अत्याचार कम और शायद समाप्त भी हो सकता
है।