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बुधवार, 27 मई 2015

बेपर्दा होते ही हैवानों से बच निकली वो लड़की

आज के दिन मैं पैदा हुई थी। शादी के लायक तो उम्र हो चुकी है लेकिन ऐसा लग रहा है मैंने फिर से जन्म लिया है। पिछले तीन सालों में आज मेरे साथ ऐसा पहली बार हो रहा है कि इस मैट्रो में एक भी शख्स ऐसा नहीं दिखा जिसकी आंखों में मुझे देखते समय हवस हो। मैं हैरान थी। ऐसी नहीं कि कोई देख नहीं रहा था। देख रहे थे। लेकिन चोरी से। मैंने कई बार उनकी नजरों में झांकने कोशिश की। हर बार सभी की नजर में मुझे सिर्फ शर्म ही नजर आई। मुझे एक बार देखने के बाद दोबारा देखने की हिम्मत किसी में नहीं दिख रही थी। मैं खुश थी कि अब मुझे मैट्रो में, राह चलते, कोई छेड़ेगा नहीं। किसी की जुबान और न निगाहें ही हर दिन मेरे शरीर को अब तार-तार नहीं करेंगीं।
मर्दों में ऐसा बदलाव महज एक दिन के भीतर ही था। कल ही की तो बात है। मैं मैट्रो से उतर कर अपने किराए के मकान में जा रही थी। ज्यादा दूर नहीं था, इसलिए पैदल ही चल दी। या ये कहिए कि महीने का बजट देखकर चलना पड़ता था इसलिए... खैर... सुर्ख चमकता नीला आसमान देखते ही देखते काले बादलों से घिर गया। मैट्रो से उतरते वक्त शायद  शाम के 7:30 ही बज रहे होंगे। लेकिन ऐसा लग रहा था रात के 11 बज गए हों। गुप्प अंधेरा। उम्मीद थी बारिश होगी। चंद कदम चले ही थे कि बारिश शुरू हो गई। राह पर खड़े रिक्षों ने भी फिलहाल बारिश  की वजह से चलने से मना कर दिया था। मैं आगे बढ़ गई बारिश ने पूरी तरह भिगो दिया था। हवा थोड़ी तेजी थी। ठंड से मेरे पूरे शरीर में झुरझुरी दौड़ लगा रही थी।
तभी पीछे से आवाज आई। कहां जा रही हो। ये मौसम तो मजे करने का है। कुछ पल के लिए सब शांत हो गया। और चंद सेंकेंड बाद फिर आवाजा आई- आइए आपको छोड़ देते हैं। मेरी धड़कनें तेज हो गईं। डर से ठंड और तेज लग रही थी। मेरी धड़कनों के साथ-साथ मेरे कदम भी तेजी से बढ़ने लगे। मैं समझो दौड़ लगा रही थी। तभी अचानक बाइक पर सवार दो लड़कों ने मेरे रास्ता रोक लिया। हाथी जैसा शरीर और भद्दी शक्ल वाले उन लड़कों ने अपने पेट पर हाथ फेरते हुए कहा आओ आज तुम्हें हिरोइन बना दूं। सी ग्रेड फिल्मों की। मेरे पैरों से जमीन खिसकी गई। उनकी बेहुदी बातें मुझे छलनी कर रहे थे। मैंने खुद के बचाव के लिए इधर-उधर नजर दौड़ाई। रास्ता सुनसान हो चुका था। आसपास पेड़ के नीचे खड़ी कुछ गायों और कुत्तों के और कोई नहीं दिखाई दे रहा था। बारिश में भीगा मेरा बदन उन्हें किसी तले हुए मांस से कम नहीं लग रहा था, जिसे खाकर वे अपनी भूख मिटाना चाहते थे। मैंने भागने की कोशिश की तभी पीछे बैठे भेडि़ये ने मेरा हाथ झटककर कहा- होशियारी करोगी तो एक और निर्भया बना दूंगा। उसकी धमकी से मानो मेरा शरीर जम सा गया। हलक सूख गया था। और जिस्म से बारिश की बूंदें के साथ पसीना भी टपक रहा था। फिर भी मैं अपनी पूरी ताकत से पीछे की तरफ भागी। और जोर-जोर से चिल्लाने लगी। पीड़ों की नीचे बैठे कुत्ते भी शोर मचाने लगे। भागते हुए मैंने अपना रास्ता बदला। हालांकि पीछे मुड़कर देखने की हिम्मत मैं हो चुकी थी। लेकिन वो भेडि़ए पीछे हैं या नहीं, जानने के लिए मैंने दौड़ते दौड़ते ही पीछे देखना चाहा। और तभी एक गाड़ी से जा टकराई। देखा तो नीली-लाल बत्ती वाली वैन में बैठे कुछ पुलिसवाले मुझे भौचक होकर देख रहे थे। उन्होंने सवाल पूछा  लेकिन मैं उनको जवाब नहीं दे पाई। मेरे फेफड़े मुह को आ गए थे। मेरे मुंह से शब्द फूटने के बजाए मैं जोर-जोर से आवाज करते सांस ले रही थी। उनके वहां न पहुंचने पर अपने होने वाले हश्र को याद करके मैं उन्हें देखकर फफक पड़ी।
इस घटना ने मुझे तोड़कर रख दिया। वैसे लड़कों की घिनौनी और शर्मशार करनेवाली देने वाली हरकतों से मैं... मैं क्या, शहर की हर लड़की हर रोज सामना करती है। हर उम्र का मर्द अपने-अपने तरीके लड़कियों से अश्लीलता करने की कोशिश करता है। कई बार सोचती थी कि भगवान ने ऐसा जिस्म ही क्यों दिया जो हर समय जिल्लत और डर में ही जीने को मजबूर करता है। मैं दुआ मांगती थी कि मेरी हड्डियों से ये मांस गलकर निकल जाए। तब शायद ये लोग मुझे हैवानियत से देखना बंद कर दें। टीवी पर चर्चाओं में अकसर लोग लड़कियों के कपड़ों की खिलाफत करते दिखते हैं। कई मर्तबा मैंने अपने लिबास को भी बदलकर देखा। हिंदू होने के बाद भी बुर्का तक पहना। लेकिन उससे झलकते हुए बदन पर भी लोगों की बातें खतम नहीं होती थीं। लेकिन इन तीन सालों में किसी एक भी सोच मुझे बदली नहीं दिखी।
पुलिसवालों ने मुझे घर छोड़ा। उस रात मुझे नींद ही नहीं आई। मैं सोचती ही रही। लड़कियों के हंसने, बोलने, चलने यहां तक कि बैठने के तरीके को ये लोग हमेशा अलग नजर से ही क्यों देखते हैं। सोचती रही ऐसा क्या करूं कि जिससे मुझे लोग दरिंदगी से देखना बंद करें। और यही सोचते-सोचते मैं सो गई।
सुबह अपने ही टाइम पर उठी। चुंकि आज मेरा बर्थ डे है। मुझे दोस्तों के साथ पार्टी करनी थी। झट से मैंने अल्मारी से अपने नए कपड़े निकाले। बिस्तर पर रखा। और फिर नहाने चली गई। पानी की तेज धार मुझे ठंडक पहुंचा रही थी। आंख बंद करने पर कल की घटना मुझे डरा रही थी। घर से बाहर निकलने के लिए। मैं फिर सोच में पड़ गई। तभी जोर से घंटी बनजे की आवाज आई। मैं वापस होश में आई। पानी करीब एक 45 मिनट से मुझे भिको रहा था। घंटी दोबारा बजी। मैं बाथरूम से बाहर निकली। दरवाजा खोला तो कोई नहीं था। दरवाजे पर टिफिन रखा हुआ था। मैंने टिफिन को पास वाली टेबल पर रखा। अपना पर्स उठाया और दोस्तों से मिलने चल दी। मैट्रो तक पहुंचते-पहुंचते न जाने कितने लोगों ने मुझे घूर-घूर कर देखा। लेकिन किसी की नजरों में हैवानियत नहीं थी। मैट्रो में भी यही दिखा। मैं खुश थी। मैं अब आजाद हूं। मेरा जिस्म अब मेरे लिए नासूर नहीं रह गया था। मुझे अब अपने शरीर के लिए ईश्वर से बद्दुआ नहीं मांगनी पड़ेगी। लोगों से खुद को बचाने के लिए मैंने आज भी कुछ नया ही किया था इसलिए शायद लोगों में इतना बदलाव दिख रहा था। मैं मेरे नए कपड़े वैसे ही बिस्तर पर छोड़कर आ गई। आज मैं बेपर्दा हो कर सफर कर रही थी। मैं वैसा बनकर आई थी जैसे ये इंसान मुझे देखना चाहते थे। मैं मौन थी लेकिन चीख-चीखकर बता रही थी देखो इस मांस के लोथड़े में ऐसा कुछ भी नहीं है, जिसकी वहज से हर दिन कोई न कोई लड़की दुराचार की शिकार होती है। ...समाज को समझना होना कि बदलाव की सबसे ज्यादा जरूरत किसे है। क्योंकि पुरुषप्रधान समाज की अवधारणा को खत्म करते हुए महिलाएं खुद को बदल रही हैं। हर क्षेत्र में पुरुषों को चुनौती दे रही हैं। वे तकरीबन आजाद हो चुकी हैं पुरानी दकियानूसी परम्पराओं से। बदलाव तो उनके जीवन का एक हिस्सा बन गया है। इसलिए शायद बदलना उन्हें नहीं किसी और को होगा।

मंगलवार, 19 मई 2015

अभी नहीं मिली है मुझे सुकून की नींद: अरुणा

समाज में मुझे इसकी इजाजत नहीं देता लेकिन ये जिंदगी मेरी है। और मेरे साथ जो कुछ भी हुआ, उसे इस समाज को बताने का मुझे पूरा हक है। कम से कम उस समय जब मैं मर रही हूं... हार रही हूं। मैं शिकायत करना चाहती हूं और गुजारिष भी। मैं अरुणा शानबाग।

मैं 24 साल की ही तो थी जब एक जानवर ने मेरे साथ वो सब कुछ किया, जिसे बर्दाश्त
 करने के लिए असीम ताकत चाहिए थी। वह जानवरे ही था। अगर इंसान होता ऐसा कुछ करने की सोचते भी ना और मर्द पुरुष होता तो इस हद तक ना गिर जाता। जिस उम्र में मैं जमीन पर बदहवास पड़ी आत्मा को चूरचूर कर देने वाला दर्द हो झेल रही थी। अमूनन उस उम्र में कोई लड़की अपने पंख फैलाए दूर आसमान तक उड़ान भरने के सपने देखती है। खुद के लिए, परिवार के लिए, समाज के लिए, देश के लिए कुछ कर गुजरने की कोशिश करती है। मेरे मन में भी ख्वाइष थी। लोगों की सेवा करने की। मैं कर्नाटक से मुंबई आई थी। मुझे सुकून मिलता था-मरीजों की सेवा करके, उनकी तकलीफ को दूर करने के लिए लड़ते रहने में। पर...
वो हादसा 42 साल पहले 27 नवंबर 1973 को मंगलवार के दिन हुआ। भले ही उस वक्त वार्ड ब्वाॅय सोहनलाल वाल्मीकि ने मुझे जो दर्द दिया था उसकी पीड़ा कुछ महीने बाद खत्म हो गई लेकिन जो दर्द मुझे इस समाज में दिया वो आज भी मुझे तकलीफ देता है। मुझे जानवर समझा गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे कुत्ते की जंजीर से जकड़कर दर्द दिया गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे कोमा में पहुंचा दिया गया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुंबई के अस्पताल किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल के वार्ड नंबर में चार में मैं चार दशक तक मन से निकालने के देने वाले अरमानों को मन में ही घूंट लिया। मुझे तकलीफ नहीं हुई। मेरे गूंगेपन के कारण मेरा अपराधी जिसे कानूनी तौर पर कोर्ट से आजाद कर दिया। बावजूद इसके मुझे तकलीफ नहीं हुई। मुझे तकलीफ उस वक्त हुई जब मैं अपने लिए इच्छा से मौत चाहती थी लेकिन 8 मार्च 2011 को अपने फरमान में मुझे कोर्ट ने मौत नहीं देने का फैसला किया। मुझे उस समय तकलीफ हुई जब अंतिम सांस तक उस हादसे को याद करते रहने के लिए मुझे जिंदा रहने का फैसला सुनाया। मुझे तब तकलीफ होती जब मेरी कहानी जानने के बाद भी इस आए दिन हर एक अरुणा शानबाग मरती है। मुझे तब तकलीफ होती है जब लोगों के सामने, इस समाज के सामने सब कुछ हो रहा होता है लेकिन सब के सब मुर्दा बने रहते हैं। गाहे बगाहे कुछ लोग किसी चैक चैराहे पर मेरे जैसी कईयों के नाम व तस्वीर की तख्ती लेकर हल्लाबोल करते हैं और फिर शांत हो जाते हैं। ऐसे तो न सोच बदलेगी और न समाज। 
कुछ लोग कहते हैं पुलिस अपना काम नहीं कर रही है। इसलिए ऐसे अपराध पनप रहे हैं। कुछ कहते हैं हमारा कानून ही कमजोर है। कुछ कहते हैं लोगों को बदलना होगा। नजरिया और सोच, बदलनी होगी। घर से बदलाव की शुरुआत करनी होगी। लोगों को सब कुछ पता है कि ऐसे अपराधों को कैसे खत्म करना है लेकिन बदलने की शुरुआत करने की जगह लोग बस कह ही रहे हैं।
लोगों को लगा मैं कोमा में हूं। इसलिए मौन हूं। उन्हें यह भी लगता था कि मुझे अब कोई दर्द नहीं, कोई तकलीफ नहीं होती। लेकिन मैं तो कभी चुप नहीं थी। हर दिन मैं चीख चीखकर अपने लिए इंसाफ मांगती थी। ऐसा इंसाफ जो दूसरों के लिए मिसाल बने। ऐसी सजा जिसे देखने वाला हर कोई शख्स भविष्य में कभी ऐसी हरकत ना करने की सोचे जैसे मेरे साथ हुई। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तीन साल सात महीने बाद ही सही लेकिन ईष्वर ने मेरी मुराद पूरी कर दी। वो मुझे मृत्यु दे रहा है। मेरे जन्म के 13 दिन पहले ही मैं इस दुनिया से जा रही हूं। हो सकता है कि आप लोगों को लग रहा हो कि मैं दूसरी दुनिया में सुकून से रहूंगीं लेकिन हर बार जब देखूंगी कि मेरी ही जैसी कोई अरुणा फिर किसी जानवर के नीचे पिस रही है, मैं तड़पूंगी और तब तक तड़पती रहूंगी। जब तक चर्चाएं खत्म न हो जाएं और जब तक बदलाव की बयार न बहने लगे। कोई एक बदल जाएगा और दूसरे को बदलने के लिए कोशिश करता रहेगा। फिर देखना एक दिन मेरी ही जैसी एक अरुणा शानबाग अपना काम खत्म करके बेसमेंट में अपने कपड़े बदलेगी। न उसे कोई बिना कपड़े देखने के लिए कहीं छुपा होगा। न उसके साथ कोई दुराचार करने की ताक में होगा। वो शाम को सही सलामत अपने घर पहुंचेगी।