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रविवार, 26 अगस्त 2012

हवा के खिलाफ लड़ना-बढना रहेगा जारी

'' मर्द हैं न अब्बा जहाँ लाजवाब हो वहां हाथ चलाने लगे " पाकिस्तान के सोएब मसूद की फिल्म 'बोल' में ये लाइन एक बेटी अपने पिता से कहती हैं और वो भी तब जब बाप अपनी बेटी  के तर्कों से हार कर उसका मुंह बंद करने के लिए एक थप्पर जर देता है. भले हीं ये फिल्म पाकिस्तानी सरज़मी पर  बनी हो  लेकिन ऐसी सच्चाइयों  से भारत भी अछूता नही है. महिलायों  की बुलंद  आवाज़ और अंदाज़ को दबाने के  लिए भारत में भी पुरुषों ने  तरह तरह के हथकंडे अपनाये है. कुछ दिन पहले उ.प  के बागपत में महिलायों पर फरमान जारी किया गया जिसमे  महिलायों के फ़ोन पर बात करने से लेकर अकेले घुमने पर पाबन्दी की बात की  खाप  पंचायतों  ने, तब  किसी भी पार्टी या सर्कार को को कोई आपति नही हुई . किसी ने कहा की जीन्स पहनोगी  तो तेजाब फ़ेंक  देंगे, किसी ने कहा हिजाब पहन कर बाहर निकलो . किसी ने मन पसंद के लड़के से शादी करने पे रोक लगायी , तो  कोई  लड़कों के साथ दोस्ती पर  पर पाबन्दी की बात करता दिखा .  सरेआम संविधान में लिखित अधिकारों का उलंघन होता रहा लेकिन किसी ने विरोध में आवाज़ उठाने की जहमत नही उठाई. यहाँ तक की देश के युवा मुख्यमंत्री भी मूकदर्शक बने रहे. जब पत्रकारों ने सवालों की बौछार की तो उन्होंने कहा की 'कोई निर्णय चाहें सर्कार ले या सामाजिक संस्था वो लोगों की भली के लिए होना चाहिए'. ऐसा ताल मटोल का बयाँ सर्कार देगी तो ऐसी संस्थाओं के हौंसले तो और बुलंद हीं होंगे. महिलायों को काबू करने की महत्वाकांक्षाओं की हद तो तब हो गई जब इंदौर में एक  महिला की योनी पर ताला उसके पति ने लगाया  वो भी इसलिय क्योंकी पति को शक था की कहीं मेरी गैर मौजूदगी में किसी से सम्बन्ध  तो नही बना लेगी. यहाँ तक की २० वर्ष के बेटे को लेकर भी उसके मन में शक था.
        औरत के हर रूप पर मर्दों ने सवाल उठाया पर ज़वाब किसी के पास नही है. २००३ में झारखण्ड की सोनाक्षी मुखर्जी के साथ जो हुआ वो तो याद ही होगा  आपको. किस तरह सरेआम उसके चेहरे पर तेजाब फ़ेंक  दिया गया वो भी इसलिए क्योंकि गली मुहल्लों के उनलड़कों को उसने डांट दिया था जो उसकी ख़ूबसूरती के दीवाने थे. पुरुष चाहें
गली का गुंडा  हो लेकिन महिलाओं की डांट को अपनी इज्जत  का सवाल बना लेतें हैं और कितनो की आबरू के  साथ खेलने से बाज नही आता है.
      हाल में गोवाहाटी की एक लड़की के साथ लड़कों ने मिलकर सामूहिक छेड़छाड़ की और उसके कपडे तक फाड़ दिए . बाद में लड़की को दोषी ठहराया गया की वो ९ बजे रात  को क्यों घूम रही थी. यही नही उसपर ये भी आरोप लगया गया की उसने छोटे कपडे पहन रखे थे. लड़किओं को क्या पहनना है, कैसे चलना है, किससे बात करना है, क्या ये  भी पुरुष  तय करेगा? बलात्कार जब व्यस्क लड़किओं  के साथ होता है तो ये आरोप जर
 देता है ये समाज , लेकिन जब बात मासूम लड़किओं की आती है तो  समाज के ये प्रहरी चुप क्यों हो जाते हैं? ३ साल की यामिनी का क्या दोष था जो उसके हीं पडोसी ने उसे अपनी हवस का शिकार  बनाया. कई बार जन्म देने वाला पिता ही अपनी संतान पर गलत नज़र रखे तो इसपर क्यों नही कुछ कहतें ये सुलेमान. क्या कहीं  भी लड़की  की सुरक्षा की गारंटी है...इसका ज़वाब है नही.
   ज़रा सोचिये की जितनी भी गलियां हैं उसके निशाने पर कहीं न कहें औरतें ही हैं. इससे ये तो साफ़ हो जाता है की महिलाओं को अपमानित करने की प्रथा सदियों से चली आ रही है. हर बार लड़किओं को माँ बाप, आस पडोस वाले ये समझाते हुए दिख जाते है की ये करो, ये मत करो, ये सही नही  है तुम्हारे लिए, ये सही है. यानि हर सीख लड़कियों के लिए. क्यों नही ये लोग अपने बेटों को सही और गलत का फर्क समझते है. सामने वालें के साथ ठीक से पेश आने की बात क्यों नही सिखाते ये अपने सपूतों को.. अगर इतना भी  प्रयाश हो जाये तो काफी हद तक समस्या का हल हो सकता है. अगर पुरुषों ने इन बातों समझा ही होता तो २००१ में ४२,९६८ मामले दर्ज न होते. जिसमे से २४,२०६ मामले बलात्कार के हैं. इसमें चौकानेवाली बात है ये है की अधिकतर नाबालिक लड़कियां ही शिकार हुई है.
     महिला पढ़ी लिखी हो, बच्ची हो, बूढी हो सभी शिकार हो रही है पुरुषों के  हवश का.. हाल ही  में गीतिका एयर होस्टेस को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा. वो भी एक पॉवर फुल नेता गोपाल कांडा के यातना  से तंग आ कर. आज गीतिका नही रही लेकिन क्या वो जिंदा होती  और न्यायालाव की शरण में जाती तो क्या उसे न्याय मिलता ?
    अब वक़्त आ गया है की ये विचार किया जाय की ये  पाबंदियां केवल औरतों के लिए ही क्यों है.  तो इसके लिए सर्कार की नीतियाँ भी कसूरवार हैं देश को आज़ाद हुए 60 साल से ऊपर  हो चुकें  है और आज भी महिलायों को संसद में ३३ फीसदी आरक्षण नही मिला. बलात्कारी बलात्कार करके आराम से समाज में घूमता रहता है .और कोई करवाई नही होती हैं. अगर होती भी है तो चंद  दिनों की जेल होती है और कुछ जुर्माना होता है जिसे वो चुका कर जेल से बाहर आ जाता है, और महिला आजीवन समाज की नज़रों
में दोषी बन जाती है. वो मुंह छुपाये अपराधी बने घूमती रहती है.
    लेकिन ये बात भी  माननी
पड़ेगी  की ऐसी सामाजिक व्यथा होने के बावजूद महिलाओं ने खुद को साबित किया है. ओल्य्म्पिक में भारतीय तिरंगे का मान बढ़ाने के लिए भारतीय बेटियों ने कोई कसर नही छोड़ी. मेरी कॉम और सायना   नेहरवाल के पदक इस बात का धोतक है. आज हर भारतीय इन्हें सम्मान की   नज़रों से देखता है. लेकिन इन खिलाडियों के लिए भी ये रास्ता इतना आसान  न था.   मेरी कॉम जो पांच बार विश्व चैम्पियन रही हैं. उनके दो बच्चें 
 है . घर से ले कर संघ तक के कर्मचारियों ने कहा की बच्चे पालने की सलाह दी और ताना भी मारा  मुक्केबाजी तुम्हारे बस  की बात नही. लेकिन कॉम ने किसी की नही सुनी  और वो आगे चलती चली गई और आज परिणाम सबके सामने है. सानिया मिर्ज़ा का सिक्का इस बार ओल्य्म्पिक में न चला हो लेकिन सानिया  ने भी देश के  टेनिस में नया अध्याय जोड़ा है. हालाँकि सानिया  मिर्ज़ा के स्कर्ट पर मुस्लिम समुदायों ने फ़तवा जारी
 किया था. लेकिन सानिया इन फालतू बातों के बजाय अपना खेल खलती रही. खेल के मैदान ही नही आब तो हर क्षेत्र में महिलाओं ने अपने को साबित किया है. राजनीती में भी महिलायों ने अपना अलग मुकाम 
हासिल किया है. तीन दशकों तक चले  बंगाल में  वाम के सूर्य को अस्त
 करना का काम  ममता बनर्जी ने ही किया. मायावती ने भी यूपी में पूर्ण बहुमत की सर्कार बनाई  और ५ सालों तक राज किया. पुरुष ये कैसे भूल जाता है की उसको धरती पर लेनवाली एक महिला ही है और उसकी सभी ज़रूरते आधी आबादी के बिना अधूरी है. सीमोँ न द बउआर ने कहा था  की " औरत बनती नही बनायीं जाती है "  ज़रूरत है उन्हें सही अवसर दिए जाये, और निर्णय लेने की छूट भी. तब जा के महिला को आपनी शक्तियों और कमजोरियों का अहसास होगा.

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

अपराध-अपराधियों को शह देती अखिलेश सरकार


समाज में जो उजागर होता है उसे ही जनता सच मान लेती है और जो जैसे तैसे छिप गया वह खुद ब खुद इतिहास के पन्नों में कहीं खो जाता है। अब इसे अखिलेश सरकार का दुर्भाग्य कहिए या वाकई इन्हीं के कार्यकर्ताओं का गुण्डाराज जिनकी बदौलत अपराध का ग्राफ दिन ब दिन चढ़ता ही जा रहा है। उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने कार्यकाल का सैंकड़ा पूरा कर लिया है। इतने ही दिन में प्रदेश की स्थिति यह है कि हत्या जैसे संगीन अपराधों की 1150 से ज्यादा घटनाएं प्रकाश में आ चुकी हैं। पिछले वर्ष से डेढ़ गुना ज्यादा अपराध मात्र 100 दिनों में ही हो चुका है। मायावती सरकार में अपराध काफी बढ़ा था लेकिन जिस रफ्तार से अपराध ने अखिलेश सरकार में अपने पैर पसारे हैं, स्थिति सोचनीय बनती ही जा रही है। हालांकि अब तक की उत्तर प्रदेश की दशा यह साबित कर चुकी है कि पालने में खेलने वाले शिशु को सत्ता सौंपना मूर्खता का परिचय देने के समान ही है। खिलौने की भांति वह समाज के साथ खिलवाड़ करता है और उन लोगों की तरफ ज्यादा आकर्षक होता है जो तमंचे-पिस्तौल से कारनामे दिखाया करते हैं। ठीक यही काम अनुभवहीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश के कुख्यात बदमाशों के साथ गलबहियां करते फिर रहे हैं।
खैर अखिलेश सरकार ने अभी तक यह जानने की ज़हमत नहीं उठायी कि क्यों समाज में अपराध असामान्य से आम होता जा रहा है? ऐसा माना जाता है कि जब सरकार और अपराध एक मुंह खाना खाने लगें तो अपराध का आम होना कोई अजूबा नहीं रह जाता। सुशासन का चोला ओढ़ कर 13वीं विधान सभा चुनाव में सिर्फ अपराध और अपराधी को समाज में शह न देने की तर्ज पर अखिलेश यादव ने अपने चाचा शिवपाल की बात को अनसुना कर बहुबली लल्लू सिंह को टिकट नहीं दिया था। जनता को रिझाने के लिए, यह विश्वास दिलाने के लिए कि सपा की गुण्डई सिर्फ गुण्डों के लिए होगी न कि जनता के लिए यह आवरण अखिलेश ने ओढ़ा था। दिखावे का चोला आखिर कब तक चढ़ा रहता। कभी न कभी तो उतरना ही था, सो उतर गया।
इस बात को बहुत से अवसरों पर उन्होंने साबित भी कर दिखाया। राष्ट्रपति पद के लिए यूपीए के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी जब मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के घर भोजन करने गए तो यह देखकर दंग रह गए कि बहुबली विधायक मुख्तार अंसारी जिन पर करीब 15 व विजय मिश्रा जिन पर लगभग 25 अपराधिक मामले चल रहे हैं, मुख्यमंत्री के निवास स्थान पर शेखी बखार रहे हैं जबकि कारावास की सजा काट रहे इन दोनों ही अपराधियों को जेल से बाहर सिर्फ विधानसभा में भाग लेने तक की ही इजाजत है। यही नहीं कई वर्षों से जेल की हवा काट रहे राजा भइय्या को जेलमंत्री बना डाला। इन्हीं कई नामों में एक नाम और है अमरमणी त्रिपाठी। मधुमिता हत्याकांड का एकमात्र सूत्रधार। 58 वर्षीय यह शख्स मधुमिता शुक्ला की हत्या के आरोप में उम्रकैद की सजा काट रहा है। मधुमिता (22 वर्ष) एक नवोदित कवयित्री थी जिसकी मई 2003 को लखनऊ स्थित उसके घर में गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। मधुमिता के पेट में अमरमणि त्रिपाठी का बच्चा पल रहा था। अमरमणि त्रिपाठी के कहने के बावजूद जब मधुमिता ने बच्चे को गिराने से इनकार कर दिया तो उसकी गोली मारकर हत्या कर दी गयी। उस वक्त त्रिपाठी बसपा सरकार में मंत्री थे। हत्याकांड पर बवाल मचने के बाद मायावती ने त्रिपाठी को पार्टी से रुखसत कर दिया था साथ ही इस मामले को सीबीआई के सुपुर्द भी कर दिया था। जांच में त्रिपाठी को दोषी पाया गया और उसे उम्रकैद की सजा सुना दी गयी लेकिन जब से अखिलेश यादव ने राज्य के नए मुख्यमंत्री के तौर पर सत्ता संभाली है तब से त्रिपाठी की पांचों उंगलियां घी में हैं। सपा के सत्ता में आने के बाद त्रिपाठी की सजा सिर्फ कागजों तक ही सीमित रह गयी है। ये अब समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता हैं। पिछले तीन महीने से हर दोपहर त्रिपाठी जेल से बाहर विचरण करने जा रहे हैं। पुलिस महकमा उन्हें इलाज के बहाने बीआरडी मेडिकल कॉलेज गोरखपुर ले जाता है। मेडिकल कॉलेज में त्रिपाठी को एक प्राइवेट लक्जरी रूम मिला हुआ है जहां वे अपने गुर्गों के साथ चटिया लगाते हैं। हर दिन लगने वाले इस दरबार में त्रिपाठी लोगों की शिकायतें दूर करते हैं, प्रॉपर्टी व जमीन के विवादों को सुलझाते हैं। शाम को दरबार खत्म होते ही उन्हें बाइज्जत वापस जेल पहुंचा दिया जाता है ताकि उम्र कैद के इस दिखावटी सिलसिले पर कोई उंगली न उठा सके।
ये किसी फिल्म की पटकथा नहीं बल्कि एक वास्तविकता है जिसमें अपराधियों को न केवल उस प्रदेश का प्रशासन बल्कि प्रदेश के मुख्यमंत्री भी सिर चढ़ाए बैठे हैं। इस सच्चाई का हमेशा से यही इतिहास रहा है। कुख्यात बदमाशों को पार्टी में दामाद की तरह पूजा जाता है। सरकार अपने वोट बैंक व धन उगाही के लिए अपने दल में बड़े बड़े अपराधिक छवि वाले मठाधीशों को अपनी छाती पर चढ़ाए ले रही है लेकिन प्रश्न ये उठता है कि इन अराजक तत्वों द्वारा समाज में अपराध के चढ़ते पारे को आखिर कौन रोकेगा? अखिलेश सरकार का अगर यही रवैया बना रहा तो जल्द ही उन्हें मुख की खानी पड़ सकती है वैसे भी पार्टी के अन्दर बैठे बहुत से वरिष्ठ उन्हें खाने को बेताब हैं।

बुधवार, 8 अगस्त 2012

जाने कहाँ गए वो दिन...

साप्ताहिक छुट्टी होने की ख़ुशी में जब बारिश में शहर घुमने की चाहत हुई तो अल्हड़पन, आवारगी की अदा के साथ निकल पड़े...बारिश ने जब ज्यादा सताया...तो फिर पहुच गए एक ऐसी जगह...जो कभी साहित्यकारों, शायरों और विचारकों का अड्डा हुआ करता था...बोले तो कॉफ़ी हाउस...अब यहाँ मुझे कोई साहित्यकार नहीं दीखता,कोई विचारक नहीं दीखता...दीखते है तो सिर्फ आशकी के चंगुल में फंसे कुछ नवजवान साथी...यहाँ बैठकर जब सोचा तो लग...
ा कि या तो शहर में कोई विचारक नहीं बचा...या फिर ये अड्डा उनके लायक नहीं बचा...वजह कोई भी...फर्क व्यापर में भी नहीं पड़ा...फर्क पड़ा तो यहाँ के बातचीत के विषयों पर...ये वही जगह थी...जिसके बारे में मेरे एक मित्र ने सुबह ही जिक्र किया था...उसने बताया था कि नोएडा के सेक्टर 16 में इसी कॉफ़ी हाउस के होने के क्या मायने है...शायद बेरोजगारी झेलने वाला इंसान को रोजगार मिल जाये...खैर विचारों के झंझावातों से झूझता हुआ...देखा तो कॉफ़ी ठंडी हो चुकी थी....तो पीछे बैठे एक जोड़े की बातों को सुनकर...मुझे वहां से निकलना ही ठीक लगा...और फिर कॉफ़ी की गर्मी से गरमाया एक इंसान....विचारों से ठन्डे पड़े लोगों के बिच से मौसम का मजा लेने फिर निकल पड़ा...